Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
अठारहवां अध्याय
मानव पितर
अंगिरस् ऋषियोंकी ये विशेषताएं प्रथम दृष्टिमें यह दर्शाती प्रतीत होती हैं कि अंगिरस् वैदिक संप्रदायमें अर्द्ध-देवताओंकी एक श्रेणी हैं, अपने बाह्य रूपमें वे प्रकाश और वाणी और ज्वालाके सजीव शरीरधारी रूप हैं या यह कहना चाहिये कि वे इन प्रकाश आदि के साकार व्यक्तित्व हैं पर अपने आन्तरिक रूपमें वे सत्यकी शक्तियां हैं जो युद्धोंमें देवताओंकी सहायता करती हैं । किन्तु दिव्य द्रष्टाके तौर पर भी, द्यौके पुत्र और देवके वीर योद्धाके तौर पर भी, ये ऋषि अभीप्सायुक्त मानवताको सूचित करते हैं । यह सच है कि मूल-रूपमें वे देवोंके पुत्र हैं 'देमपुत्रा:', अग्निके कुमार हैं, अनेक रूपोंमें पैदा हुए बृहस्पतिके रूप हैं और सत्यके लोकके प्रति अपने आरोहणमें उनका इस प्रकार वर्णन किया गया है कि वे फिरसे उस स्थान पर आरोहण कर पहुंच जाते हैं जहाँसे वे आये थे; पर अपने इन स्वरूपों तकमें वे भलीभाँति उस मानवीय आत्माके द्योतक हो सकते हैं जो स्वयं उस लोकसे अवरोहण करके नीचे आया है और जिसे अब पुन: आरोहण करके वहाँ पहुंचना है, क्योंकि अपने उद्गममें यह एक मानसिक सत्ता है; अमरता का पुत्र है (अमृतस्य पुत्र:), द्यौका कुमार है जो द्यौमें पैदा हुआ है और मर्त्य केवल उन शरीरोंमें है जिन्हें यह धारण करता है । यज्ञमें अगिरस् ऋषियोंका भाग मानवीय भाग है और वह यह है--शब्दको पाना, देवोंके प्रति आत्माकी सूक्तिका गायन करना, प्रार्थनाके द्वारा, पवित्र भोजन तथा सोमरस द्वारा दिव्य शक्तियोंको स्थिर करना और बढ़ाना, अपनी सहायतासे दिव्य उषाको जन्म देना, पूर्ण रूपसे जगमगाते हुए सत्यके प्रकाशमय रूपोंको जीतना और आरोहण करके इसके रहस्य तक, सुदूरवर्ती तथा उच्च स्थान पर स्थित घर तक पहुंचना ।
यज्ञके इस कार्यमें वे द्विविध रूपमें प्रकट होते हैं,1 एक तो दिव्य
______________
1. यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पुराण विशेष तौरसे पितरोंकी दो श्रेणियोंके भी बीचमें
भेद करते हैं, एक तो दिव्य पितर हैं जो देवताओंकी एक श्रेणी है, दूसरे हैं मानव
पुरखा, इन दोनोंके लिये ही पिण्डदान किया जाता है । पुराणोंने स्पष्ट ही इस
विषयमें केवल प्रारंभिक परम्पराको ही जारी रखा है |
२४७
अंगिरसोंके रूपमें 'ऋषयो दिव्या:', जो देवोंके समान किन्हीं अध्यात्मशक्तियों तथा क्रियाओंके प्रतीक हैं और उनका अधिष्ठातृत्व करते हैं, और दूसरे मानव पितरोंके रूपमें, 'पितरो मनुष्याः', जो ऋभुओंके समान मानवप्राणियोंके रूपमें भी वर्णित किये गये हैं या कम-से-कम इस रूपमें कि वे मानवीय शक्तियां हैं जिन्होंने अपने कार्यसे अमरताको जीता है, लक्ष्यको प्राप्त किया है और उनका इसलिये आवाहन किया गया है कि वे उसी दिव्यप्राप्तिमें बादमें आनेवाली मर्त्यजातिकी सहायता करें । दशम मण्डलके पिछले यम-सूक्तोंमें तो ॠभुओं और अथर्वणोंके साथ अगिरसोंको भी 'बर्हिषद्' कहा गया है और यह कहा गया है कि वे यज्ञमें अपने निजी विशेष भागको ग्रहण करते हैं, पर इसके अतिरिक्त अवशिष्ट वेदमें भी हम देखते हैं कि एक अपेक्षाकृत कम निश्चित पर अधिक व्यापक और अधिक अभिप्रायपूर्ण अलंकारमें उनका आवाहन किया गया है । और यह आवाहन महान् मानवीय यात्रा के लिये ही किया गया है, क्योंकि मृत्युसे अमरताकी ओर, अनृतसे सत्यकी ओर मानवीय यात्राको ही इन पूर्व पुरुषोंने पूर्ण किया है और अपने वंशजोंके लिये मार्ग खोल दिया है ।
उनके कार्यके इस स्वरूपको हम 7.42 तथा 7.52 में पाते हैं । वसिष्ठ के इन दो सूक्तोंमेंसे प्रथममें ठीक इसी महान् यात्राके लिये, 'अध्वरयज्ञ'1 के लिये देवोंका आवाहन किया गया है । 'अध्वर यज्ञ' वह यज्ञ है जो दिव्यताओंके घरकी ओर यात्रा करता है या जो उस घर तक पहुँचनेके लिये एक यात्रारूप है और साथ ही जो एक युद्ध है; क्योंकि यह वर्णन आता है कि 'हे अग्ने ! तेरे लिये यात्रामार्ग सुगम है और सनातन कालसे वह तुझे ज्ञात है । सोम-सवनमें तू अपनी उन रोहित (या शीघ्रगामी ) घोड़ियोंको जोत जिनपर वीर सवार है । वहाँ स्थित हुआ मैं दिव्य जन्मोंका
_______________
सायण 'अध्वर यत्रका अर्थ करता है 'अहिंसित यज्ञ'; पर 'अहिंसित' इस अर्थवाला शब्द कभी मी यज्ञके लिये पर्यायरूपमें प्रयुक्त हुआ नहीं हो सकता । 'अध्वर' है 'यात्रा' 'गमन' इसका संबंध 'अध्वन्'से है, जिसका अर्थ मार्ग या यात्रा है, यह 'अध्' धातुसे बना है जो इस समय लुप्त हो चुकी है, जिसका अर्थ था चलना, फैलाना, चौढ़ा होना, धना होना इत्यादि । 'अध्वन्' और 'अध्वर' इन दो शब्दों का संबंध हमें इससे पता चल जाता हैं कि 'अध्व'का अर्थ वायु या आकाश है और 'अध्वर' भी रस अर्थमें आता है । ऐसे संदर्भ वेदमें अनेकों हैं, जिनमें 'अध्वर' या 'अध्वर यज्ञ'का संबंध यात्रा करने, पर्यटन करने, मार्ग पर अग्रसर होनेके विचारके साथ है |
२४८
आवाहन करता हूँ (ॠचा 2 ) । '1 यह मार्ग कौनसा है ? यह वह मार्ग है जो देवताओंके घर तथा हमारी पार्थिव मर्त्यताके बीचमें है, जिस मार्गसे देवता अन्तरिक्षके, प्राण-प्रदेशोंके बीचमेंसे होते हुए नीचे पार्थिव यज्ञमें उतर आते हैं और जिस मार्गसे यज्ञ और साथ ही यज्ञके द्वारा मनुष्य ऊपर आरोहण करता हुआ देवताओंके घर तक पहुँचता है । 'अग्नि' अपनी घोड़ियोंको अर्थात् वह जिस दिव्य बल का द्योतक है उसकी बहुरूप शक्तियों या विविध रंगवाली ज्वालाओंको जोतता है, और वे धोडियाँ 'वीर'को अर्थात् हमारे अंदरकी उस संग्रामकारिणी शक्तिको वहन करती हैं जो यात्राका कार्य सफलतापूर्वक चलाती है । और दिव्य जन्म स्वतः देव हैं तथा साथ ही मनुष्यमें प्रकट होनेवाली दिव्य जीवनकी वे अभिव्यक्तियाँ हैं जो वेदमें देवत्व करके समझी जाती हैं । यहाँ अभिप्राय यही है, यह बात चौथी ऋचासे स्पष्ट हो जाती है, ''जब सुखमें निवास करनेवाला अतिथि उस वीरके, -जो ( आनन्दमें ) समृद्ध है,--द्वारोंसे युक्त घरमें चेतनापूर्ण ज्ञानवाला हो जाता है, जब अग्नि पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाता है और घरमें स्थिरतापूर्वक निवास करने लगता है, तब वह उस प्राणीके लिये अभीप्सित वर प्रदान करता है जो यात्रा करनेवाला है",2 या यह अर्थ हो सकता है कि उसकी यात्राके लिये (इयत्यै ) अभीष्ट वर देता है ।
इसलिये यह सूक्त परम कल्याणकी तरफ यात्रा करनेके लिये, दिव्य जन्मके लिये, आनन्दके लिये अग्निका एक आवाहन है । और इसकी प्रारम्भिक ऋचा उस यात्राके लिये जो आवश्यक शर्ते हैं उनकी प्रार्थना है, अर्थात् इसमें उन बातोंका उल्लेख है जिनसे इस यात्रा-यज्ञका रूप, 'अध्वरस्य पेश:', बनता है और इनमें सर्वप्रथम वस्तु आती है अंगिरसोंकी अग्रगामी गति; ''आगे-आगे अंगिरस् यात्रा करें, जो अगिरस् 'ब्रह्म' (शब्द ) के पुरोहित हैं, आकाशकी (या आकाशीय वस्तु बादल या बिजलीकी ) गर्जना आगे-आगे जाय, प्रीणयित्री गौएं आगे-आगे चलें जो अपने जलोंको बिखेरती हैं और दो पत्थर, सिलबट्टे ( अपने कार्यमें ) --यात्रामय यज्ञके रूपको बनानेमें लगाये जायँ । ''
1. सुगस्ते अग्ने सनवित्तो अध्या युक्ष्वा सुते हरितो रोहितश्च ।
ये वा सद्मन्नरुषा वीरवाहो हुवे देवानां जनिमानि सत्त: ।।
2. यदा वीरस्य रेवतो दुरोणे स्योनशीरतिथिराचिकेतत् ।
सुप्रीतो अग्नि: सुधितो दम आ स विशे दाति वार्यमियत्यै ।। ऋ. 7.42.4
२४९
प्र बह्याणो अङिरसो नक्षन्त प्र क्रन्दर्नभन्यस्य वेतु ।
प्र धेनव उदंप्रुतो नवन्त, युज्यातामद्री अध्वरस्थ पेश: ।। 7.42.1 ।।
प्रथम, दिव्य शब्दसे युक्त अंगिरस्, दूसरे, आकाशकी गर्जना जो ज्योतिष्मान् लोक 'स्व:' की तथा शब्दमेंसे वज्रनिर्धोष करके निकलती हुई इसकी बिजलियोंकी आवाज है, तीसरे, दिव्य जल या सात नदियाँ जो प्रवाहित होनेके लिये 'स्व:' के अधिपति इन्द्रकी उस आकाशीय विद्युत् द्वारा मुक्तकी गई है, और, चौथे, दिव्य जलोंके निकलकर प्रवाहित होनेके साथ-साथ अमरताको देनेवाले सोमका निचोड़ा जाना, ये चीजें हैं जो 'अध्वर यज्ञ' के रूप, पेशः'को निर्मित करती हैं । और इसका सामान्य स्वरूप है अग्रगामी गति, दिव्य लक्ष्यकी ओर सबकी प्रगति, जैसा कि यहाँ सूचित किया गया है गतिवाची तीन क्रियापदों 'नक्षन्त', 'वेतु', 'नवन्त' द्वारा और उनके साथ उनके अर्थपर बल देनेके लिये अग्रवाची 'प्र' उपसर्ग लगाकर, जो मन्त्रके प्रत्येक वाक्यांशको प्रारम्भ करता और उसे स्वर प्रदान करता है ।
परन्तु 52वाँ सूक्त और भी अधिक अर्थपूर्ण तथा निर्देशक है । प्रथम ॠचा इस प्रकार है ''हे असीम माता अदितिके पुत्रो ( आदित्यास:), हम असीम बन जायँ ( अदितयः स्याम ), 'वसु, दिव्यता तथा मर्त्यतामें हमारी रक्षा करें ( देवत्रा मर्त्यत्रा ), हे मित्र और वरुण ! अधिगत करनेवाले हम तुम्हें अधिगत कर लें, हे द्यौ और पृथिवी ! होनेवाले हम 'तुम' हो जायें'',
सनेम मित्रावरुणा सनन्तो भवेम द्यावापृथिवी भवन्तः । 7.52, 1 ।
स्पष्ट ही अभिप्राय यह है कि हमें असीमको या अदितिके पुत्रोंको, देवत्वोंको अधिगत करना है और स्वयं असीम, अदितिके पुत्र, 'अदितय:, आदित्यास:', हो जाना है । मित्र और वरुणके विषयमें हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ये प्रकाश तथा सत्यके अधिपति 'सूर्य सविता'की शक्तियाँ हैं । और तीसरी ॠचा इस प्रकार है, ''अगिरस्, जो लक्ष्यपर पहुँचनेके लिये शीघ्रता करते हैं, अपनी यात्रा करते हुए, देव सविताके सुखकी तरफ गति करें और उस ( सुख ) को हमारा महान् यज्ञिय पिता और सब देवता एक मनवाले होकर हृदयमें स्वीकार करें'',
तुरष्यबोइङ्गिरसो नक्षन्त रत्न देवस्य सवितुरियाना : ।
पिता च तन्नो महान् यजत्रो विश्वे देवा: समनसों जुषन्त ।। (ऋ. ओं 7.52.3 )
इसलिये यह बिलकुल स्पष्ट है कि अगिरस् सौरदेवताके उस प्रकाश तथा सत्यके यात्री हैं जिसमेंसे वे जगमगानेवाली गौएँ पैदा हुई हैं जिन गौओंको अगिरस् पणियोसे छीनकर लाते हैं, और उस सुखके यात्री हैं, जो, जैसा कि हम सर्वत्र देखते हैं, उस प्रकाश तथा सत्यपर आश्रित । साथ ही यह
२५०
भी स्पष्ट है कि इस यात्राका अर्थ है देवत्वमें, असीम सत्तामें, विकसित होना (आदित्या: स्याम ), जिसके लिये इस सूक्त (ऋचा 1 ) में यह कहा गया है कि जौ देवत्व तथा मर्त्यत्वमें हमारी रक्षा करते हैं ऐसे मित्र, वरुण और वसुओंकी हमारे अन्दर क्रिया द्वारा दिव्य शांति तथा दिव्य सुखकी वृद्धिसे यह अवस्था आती है ।
इन दो सूक्तोंमें अगिरस् ऋषियोंका सामान्यत: उल्लेख हुआ है, पर अन्य सूक्तोंमें हमें इन मानव पितरोंका निश्चित उल्लेख मिलता है जिन्होंने सर्वप्रथम प्रकाशको खोजा था और विचारको और शब्दको अधिगत किया था और प्रकाशमान सुखके गुह्य लोकोंकी यात्रा की थी । उन परिणामोंके प्रकाशमें जिनपर हम पहुँचे हैं, अब हम अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण संदर्भोका अध्ययन कर सकते हैं जो गंभीर, सुन्दर तथा उज्ज्वल हैं और जिनमें मानवीय पूर्वपुरुषोंकी इस महान् खोजका गान किया गया है । उनमें हम उस महान् आशाका सारभूत वर्णन पायेंगे जिसे वैदिक रहस्यवादी सदा अपनी आंखोंके सामने रखते थे; वह यात्रा, वह विजय प्राचीन, प्रथम प्राप्ति है जिसे प्रकाशयुक्त पितरोंने अपने बाद आनेवाली मर्त्य जातिके लिये एक आदर्शके रूपमें स्थापित किया था । यह विजय थी उन शक्तियों पर जो चारों ओरसे घेर लेनेवाली रात्रि (रात्री परितक्म्या, 5.30.14 ) की शक्तियाँ हैं, वृत्र, शम्बर, वल हैं, ग्रीक गाथाशास्त्रके टाइटन, जायंट, पाइथन, (Titans Giants, Pythons ) ह, अवचेतनाकी शक्तियाँ हैं जो प्रकाश और बलको अपने अन्दर, अपनी अन्धकार तथा भ्रांतिकी नगरियोंके भीतर रोक लेती हैं, पर न तो इन्हें उचित प्रकारसे उपयोगमें ला सकती हैं, न ही इन्हें मनुष्यको, मनोमय प्राणीको, देना चाहती हैं । उनके अज्ञान, पाप और ससीमताको न केवल हमें अपने पाससे काटकर दूर कर देना है, बल्कि उनका भेदन कर डालना है और भेदन करके उनके अन्दर जा घुसना है, तथा उसमेंसे प्रकाश, भद्र और असीमताके रहस्यको निकाल लाना है । इस मृत्युमेंसे उस अमरताको जीत लाना है । इस अज्ञानके पीछे एक रहस्यमय ज्ञान और सत्यका एक महान् प्रकाश बन्द पड़ा है । इस पापने अपने अन्दर अपरिमित भद्रको कैद कर रखा है, सीमित करनेवाली इस मृत्युमें असीम, अपार अमरताका बीज छिपा पड़ा है । उदाहरणके लिये, 'वल' ज्योतियोंका वल है (वलस्य गोमत:, 1. 11 .5 ), उसका शरीर प्रकाशका बना हुआ है (गोवपुष: वलस्य, 10.68.9 ), उसका बिल या उसकी गुफा खजानोंसे भरा एक नगर है; उस शरीरको तोड़ना है, उस नगरको भेदन करके खोलना है, उन खजानोंको हस्तगत करना है । यह कार्य है जो मानवजातिके लिये नियत
२५१
किया गया है और पूर्वपुरुष इस कार्यको मानवजातिके लाभके लिये एक बार कर चुके हैं, जिससे उसे करनेका मार्ग पता लग जाय और फिर उन्हीं उपायों द्वारा तथा उसी प्रकार प्रकाशके देवताओंके साथ मैत्रीं द्वारा लक्ष्यपर पहुँचा जा सके । ''वह पुरातन साख्यभाव तुम देवताओंके तथा हमारे बीचमें हो जाय, जैसा कि तब था जब उन अंगिरसोंके साथ मिलकर जो ( शब्दको ) ठीक प्रकारसे बोलते थे, ( हे इन्द्र ! ), तूने उसे च्युत कर दिया था जो अच्छुत था; और हे कार्योको पूर्ण करनेवाले ! तूने 'वल' का वध कर दिया था, जब कि वह तुझपर झपटा था और तूने उसके नगरके सब द्वारोंको खोल डाला था ।''1 सभी मानपरम्पराओंके उद्गममें यह प्राचीन स्मृति- जुड़ी हुई है । यह इन्द्र तथा वृत्र-सर्प है, यह अपोलो ( Apollo) तथा पाइथन ( Python) है, ये थॉर (Thor) ) तथा जायन्ट ( Giants) हैं, सिगर्ड ( Sigurd) और फाफ्तर ( Fafner) हैं, ये खाल्दियन गाथाशास्त्र ( Celtic mythology) के परस्परविरोधी देवता हैं । पर इस रूपककी कुंजी हमें केवल वेदमें ही उपलब्ध होती है, जिस रूपकमें प्रागैतिहासिफ मानवताकी वह आशा या विद्या छिपी रखी है ।
प्रथम सूक्त जिसे हम लेंगे महान् ऋषि विश्वामित्रका सूक्त 3.39 है; क्योंकि वह हमें सीधा हमारे विषयके हृदयमें ले जाता है । यह प्रारम्भ होता है 'पित्र्या धी:' अर्थात् पितरोंके विचारके वर्णनसे और यह विचार उस स्व: य. युक्त ( 'स्व:' वाले ) विचारसे भिन्न नहीं हो सकता जिसका अत्रियोंने गायन किया है, जो वह सात-सिरोंवाला विचार है जिसे अयास्यने नवग्वाओंके लिये खोजा था, क्योंकि इस सूक्तमें भी विचार का वर्णन अंगिरसों, पितरोंके साथ जुड़ा हुआ आता है । ''विचार हृदयसे प्रकट होता हुआ, स्तोमके रूपमें रचा हुआ, अपने अधिपति इन्द्रकी ओर जाता है ।"2 इन्द्र, हमारी स्थापनाके अनुसार, प्रकाशयुक्त मनकी शक्ति है, प्रकाशके तथा इसकी विद्युत्के- लोकका स्वामी है, शब्द या विचार सतत् रूपसे गौओं या स्त्रियोंके रूपमें कल्पित किये गये हैं, 'इन्द्र' वृषभ या पतिके रूपमें, और शब्द उसकी कामना करते हैं और इस रूपमें उनका वर्णन भी मिलता है कि वे उसे ( इन्द्रको ) खोजनेके लिये ऊपर जाते हैं, उदाहरणार्थ देखो 1.9.4, गिर: प्रति त्वामुवहा-सत... वृषभं पतिम् । 'स्व:'के प्रकाशसे प्रकाशमय मन ही लक्ष्य है जो
1. तन्न: प्रत्नं सख्यमछुस्तु युष्मे इत्या वदद्धिर्वलमङ्गिरोभिः ।
हन्नच्युतच्युद्दस्मेषयन्तमृणो: पुरो वि दुरो अस्य विश्वा: ।। (6.18.5 )
2. इन्द्र मति र्ह्रुद आ वच्यामानाच्छा पतिं स्तोमतष्टा जिगाति । ( 3 .39. 1 )
२५२
वैदिक विचार द्वारा तथा वैदिक वाणी द्वारा चाहा गया है, जो विचार और वाणी प्रकाशोंकी गौओंको आत्मासे, अवचेतनाकी गुफासे जिसमें कि वे बन्द पड़ी़ थीं, ऊपर को धकेलकर प्रकट कर देते हैं, स्वःका अधिपति इन्द्र है वृषभ, गौओंका स्वामी, 'गोपति:' ।
ऋषि इस विचारके वर्णनको जारी रखता हुआ आगे कहता है--यह है ''वह विचार जो जब व्यक्त हो रहा होता है तब ज्ञानमें जागृत होकर रहता है'', अपने आपको पणियोंकी निद्राके सुपुर्द नहीं करता--या जागृवि-र्विदथे शस्यमाना, ''वह जो तुझसे (या तेरे लिये ) पैदा होता है, हे इन्द्र ! उसका तू ज्ञान ! प्राप्त कर ।"1 यह वेदमें सतत् रूपसे पाया जानेवाला एक सूत्र है । देवताको, देवको उसका ज्ञान रखना होता है जो मनुष्यके अंदर उसके प्रति उद्बुद्ध होता है, उसे हमारे अंदर ज्ञानमें उसके प्रति जागृत होना होता है (विद्धि, चेतथ:. इत्यादि ), नहीं तो यह एक मानवीय वस्तु ही रह जाती है और यह नहीं होता कि वह ''देवोंके प्रति जाय'', (देवेषु गच्छति ) । और उसके बाद ऋषि कहता है ''यह प्राचीन (या सनातन ) है, यह द्युलोक से पैदा हुआ है; जब यह प्रकट हो जाता है तब यह ज्ञानमें जागृत रहता है, सफेद तथा सुखमय वस्त्रोंको पहिने हुए यह हमारे अंदर पितरोंका प्राचीन विचार है ।'' 2 सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ।
और फिर ऋषि इस विचारके विषयमें कहता है कि यह ''यमोंकी माता है जो यहाँ यमोंको जन्म देती है, जिह्वाके अग्रभागपर यह उतरती है और खड़ी हो जाती है, युगल शरीर पैदा होकर एक दूसरेके साथ संयुक्त हो जाते हैं और अंधकारके घातक होते हैं और जाज्वल्यमान शक्तिके आधारमें गति करते .हैं ।'' 3 मैं यहाँ इसपर विचार-विमर्श नहीं करूँगा कि ये प्रकाशमान युगल क्या हैं, क्योंकि इससे हम अपने उपस्थित विषयकी सीमासे परे चले जायँगे, इतना ही कहना पर्याप्त है कि दूसरे स्थलोंमें उनका वर्णन अंगिरसोंके साथ तथा अंगिरसोंकी उच्च जन्मकी (सत्यके लोककी ) स्थापनाके साथ संबद्ध होकर आता है और वे इस रूपमें कहे गये हैं कि 'वे युगल हैं जिनमें इन्द्र अभिव्यक्त किये जानेवाले शब्दको रखता है'', ( 1.83.3 );
_____________
1. इन्द्र यत्ते जायते विद्धि तस्य । (3.39.1 )
2. दिवश्चिदा पूर्व्या जायमाना वि जागृविर्विदथे शस्यमाना ।
भद्रा व्रस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ।। (3.39.2 )
3. यमा चिदत्र यमसूरसूत जिह्वाया अग्रं पतदा ह्यस्थात् ।
वपूंषि जाता मिथुना सचेते तमोहना तपुषो वुष्न एता ।। (3 .39.3 )
२५३
और वह जाज्वल्यमान शक्ति जिसके आधारमें वे गति करते हैं, स्पष्ट ही सूर्यकी शक्ति है, जो (सूर्य ) अंधकारका घातक है और इसलिये यह आधार और वह आघार एक ही हैं जो सर्वोच्च लोक है, सत्यका आधार, ऋतस्य बुध्नः है, और अंतिम बात यह है कि यह कठिन है कि इन युगलोंका उनके साथ बिल्कुल कुछ भी संबंध न हो जो सूर्यके युगल शिशु हैं, यम और यमी,-यम जो दशम मण्डलमें अगिरस् ऋषियोंके साथ संबद्ध आता है ।1
इस प्रकार अंधकारके घातक अपने युगल शिशुओं सहित पित्र्य विचारका वर्णन कर चुकनेपर आगे विश्वामित्र उन पूर्वपितरोंका वर्णन करता है जिन्होंने सर्वप्रथम इसे निर्मित किया था और उस महान् विजयका जिसके द्वारा उन्होंने "उस सत्यको, अंधकारमें पड़े हुए सूर्यको'' खोज निकाला था । ''मर्त्योंमें कोई ऐसा नहीं है जो हमारे उन पूर्वपितरोंकी निन्दा कर सके ( अथवा, जैसा कि इसकी अपेक्षा मुझे इसका अर्थ प्रतीत होता है कि मर्त्यताकी कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो उन पूर्वपितरोंको सीमित या बद्ध कर सके ), जो हमारे पितर गौओंके लिये युद्ध करनेवाले हैं । महिमावाले, महा-पराक्रमकार्यको करनेवाले इन्द्रने उनके लिये दृढ़ बाड़ोंको ऊपरकी तरफ खोल दिया-वहाँ जहाँ एक सखाने अपने सखाओंके साथ, योद्धा नवग्वाओंके साथ घुटनोंके बल गौओंका अनुसरण करते हुए, दस दशग्वाओंके साथ मिलकर उस (इन्द्र ) ने उस सत्यको, 'सत्यं तद्, पा लिया, सूर्यको भी जो अंधकारमें रह रहा था ।"2
यही है जगमगाती हुई गोओंकी विजयका तथा छिपे हुए सूर्यकी प्राप्तिका अलंकार जो प्रायश: आता है; परंतु अगली ऋचामें इसके साथ दो इसी प्रकारके अलंकार और जुड गये हैं और वे भी वैदिक सूक्तोंमें प्रायः पाये जाते हैं, वे हैं गौका चरागाह या खेत तथा मधु जो गौके अंदर पाया जाता है । ' 'इन्द्रने मधुको पा लिया जो जगमगानेवालीके अंदर इकट्ठा किया
________________
1. इन तथ्योंके प्रकाशमें ही हमें दशम मणडलमें आये यम और यमीके सैबादको समझना चाहिये जिसमें बहिन अपने भाईसे संयोग करना चाहती है और फिर इसे आगामी युग की संततियोंके लिये छोढ़ दिया गया है, जहां आगामी युगोंका अभिप्राय वस्तुत: प्रतीकरूप कालपरिमाण से है, क्योंकि आगामीके लिये जो शब्द 'उत्तर' आया है उसका अर्थ आगामीके बजाय ''उच्चतर'' अधिक ठीक है 1
2. नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः ।
इन्द्र एषां दृंहिता माहिनावानुद् गोत्राणि ससृजे वंसनावान् ।।
सखा ह पत्र सखिभिर्नवग्वैरभिक्वा 'सस्वभिज्ञ्वा अनुग्मन् ।
सत्यं तदिन्तो दशभिर्दशग्वै: सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् ।। (3.39.4-5 )
२५४
हुआ श, स्त्र चरागाह1 में पैरोंवाली तथा खुरोंवाली ( दैलत ) को |"2 जगमगानेवाली 'उस्त्रिया' ( साथ ही 'उस्रा' भी ) एक दूसरा शब्द है जो 'गो'के समान दोनों अर्थ रखता है, किरण तथा गाय, और वेदमें 'गो'के पर्यायवाचीके तौरपर प्रयुक्त हुआ है । सतत रूपसे यह हमारे सुननेमें आता है कि 'घृत' या साफ किया हुआ मक्खन गौमें रखा गया है, वामदेवके अनुसार वह वहाँ तीन हिस्सोमें पणियो द्वारा छिपाया गया है; पर कहीं यह मधुमय घृत है और कहीं केवल मधु है, 'मधुमद् घृतम्' और 'मधु' । हम देख चुके हैं कि गौकी देन घी और सोमलताकी देन ( सोमरस ) अन्य सूक्तोंमें कैसी घनिष्ठताके साथ जुड़े आते हैं और अब जब कि हम निश्चित रूपसे जानते हैं कि गौका क्या अभिप्राय है तो यह अद्भुत तथा असंगत लगनेवाला संबंध पर्याप्त स्पष्ट और सरल हो जाता है । 'घृत'का अर्थ भी 'चमकदार' होता है, यह चमकीली गौकी चमकदार देन है; यह मानसिक सत्तामें सचेतन ज्ञानका वह निर्मित प्रकाश है जो प्रकाशमय चेतनाके अंदर सम्भृत ( रखा हुआ ) है और गौकी मुक्तिके साथ यह भी मुक्त हो जाता है । 'सोम' है आह्लाद, दिव्य सुख, दिव्य आनंद जो सत्ताकी प्रकाशमय अवस्थासे भिन्न नहीं किया जा सकता और जैसे वेदके अनुसार हमारे अंदर मानसिक सत्ताके तीन स्तर हैं वैसे ही घृतके भी तीन भाग हैं, जो तीन देवताओं सूर्य, इन्द्र और सोमपर आश्रित हैं और सोम भी तीन हिस्सोंमें प्रदान किया जाता है, पहाड़ीके तीन स्तरोंपर, 'त्रिषु सानुषु' । इन तीनों देवताओंके स्वरूपका ख्याल रखते हुए हम यह कल्पना प्रस्तुत कर सकते हैं कि 'सोम' इन्द्रियाश्रित मन ( Sense mentality ) से दिव्य प्रकाशको उन्मुक्त करता है, ' इंद्र' सक्रिय गतिशील मन ( Dynamic mentality ) ) से; 'सूर्य' विशुद्ध विचारात्मक मन (pure reflective metality ) से । और गौके चरागाहसे तो हम पहलेसे ही परिचित हैं; यह वह 'क्षेत्र' है जिसे इन्द्र अपने चमकीले सखाओंके लिये 'दस्यु'से जीतता है और जिसमें अत्रिने योद्धा अग्निको तथा जगमगाती हुई गौओंको देखा था, उन गौओंको जिनमें वे भी जो बूढ़ी थीं फिरसे, जवान हो गयी थीं । यह खेत, 'क्षेत्र, केवल एक दूसरा रूपक है उस प्रकाशमय घर ( क्षय ) के लिये जिस तक कि देवता यज्ञ द्वारा मानवीय आत्माको ले जाते हैं ।
1. नमे गो: । 'नम' बना है 'नम' धातुसे, जिसका अर्थ है चलना, घूमना, विचरना; ग्रीकमें नेमो (Namo) धातु है; 'नम' शब्दक अर्थ है घुमनेका प्रदेश, चरागाह, जो ग्रीकमें नैमोज (Namos) है |
2. इन्द्रो मधु संभृतमुस्त्रियायां पद्वद्विवेद शफवन्नमे गो: ।।6 ।।
२५५
आगे विश्वामित्र इस सारे रूपकके वास्तविक रहस्यवादी अभिप्रायको दर्शाना आरंभ करता है । 'दक्षिणासे युक्त उसने (इन्द्रने ) अपने दक्षिण हाथमें (दक्षिणे दक्षिणावान्) उस गुह्य वस्तुको थाम लिया, जो गुप्त गुहामें रखी थी और जलोंमें छिपी थी । पूर्ण रूपसे जानता हुआ वह (इन्द्र ) अंधकारसे ज्योतिको पृथक् कर दे, ज्योतिर्वृणीतं तमसो विजानन्, हम पापकी उपस्थिति से दूर हो जायँ ।'1 यहाँ हमें इस देवी दक्षिणाके आशयको बतानेवाला एक सूत्र मिल जाता है, जो दक्षिणा कुछ संदर्भोंमें तो यों प्रतीत होती है कि यह उषाका एक रूप या विशेषण है और अन्य संदर्भोंमें यह यज्ञमे हवियोका संविभाजन करनेवाली प्रतीत होती है । उषा है दिव्य आलोक और दक्षिणा है वह विवेचक ज्ञान जो 'उषा'के साथ आता है और मनकी शक्तिको, इन्द्र को, इस योग्य बना देता है कि वह यथार्थको जान सके और प्रकाशको अंधकारसे, सत्यको अनृतसे, सरलको कुटिलसे विविक्त करके वरण कर सके, 'वृणीत विजानन् । इन्द्रके दक्षिण और वाम हाथ ज्ञानमें उसकी क्रियाकी दो शक्तियाँ हैं; क्योंकि उसकी दो बाहुओंको कहा गया है 'गभस्ति' और 'गभस्ति' एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ सामान्यत: तो सूर्यकी किरण होता है पर साथ ही इसका अर्थ अग्रबाहु भी होता है, और इन्द्रकी ये दो शक्तियाँ उसकी उन दो बोधग्राहक शक्तियोंके, उसके उन दो चमकीले घोड़ों, 'हरी'के अनुरूप हैं जो इस रूपमें वर्णित किये गये हैं कि वे सूर्यचक्षु, 'सूरचक्षसां' है और सूर्यकी दर्क्षन-शक्तियाँ (Vision power ), 'सूर्यस्य केतू' हैं । दक्षिणा दक्षिण हाथकी शक्तिकी-'दक्षिण'की-अधिष्ठात्री है, और इसलिये हम यह शब्द-विन्यास पाते है-'दक्षिणे दक्षिणावान्' । यही (दक्षिणा) वह विवेकशक्ति है जो यज्ञकी यथातथ क्रिया पर तथा हवियोंके यथातथ संविभागपर अधिष्ठातृत्व करती है और यही इन्द्रको इस योग्य बना देती है कि वह पणियोकी झुंडमें इकट्ठी हुई दौलतको सुरक्षित रूपसे, अपने दाहिने हाथमें, थाम ले । और अंतमें हमें यह बतलाया गया है कि वह रहस्यमय वस्तु क्या है जो हमारे लिये गुफामें रखी गयी थी और जो सत्ताके जलोंके अंदर छिपी है, उन जलोंके अंदर जिनमें पितरोंका विचार रखा जाना है, अप्सु धियं दधिषे । यह है छिपा हुआ सूर्य, हमारी दिव्य सत्ताका गुप्त प्रकाश, जिसे पाना है और ज्ञान द्वारा उस अंधकारमेंसे निकालना है जिसमें यह छिपा पड़ा है । यह प्रकाश भौतिक प्रकाश नहीं है, यह तो एक
1. ''गुहाहितं गुह्यं गूठ्हमप्सु हस्से दधे दक्षिणे दक्षिणावान् ।।6।।''
" ज्योतिर्वुणीत तमसो विजानन्नारे स्याम दिरितादभिके ।।7।।''
२५६
विजानन् शब्दसे पता लग जाता है क्योंकि इस प्रकाशकी प्राप्ति होती है यथार्थ ज्ञान द्वारा और दूसरे इससे कि इसका परिणाम नैतिक होता है, अर्थात् हम पापकी उपस्थितिसे दूर हो जाते हैं 'दुरिताद', शाब्दिक अर्थ लें तो विपरीत गतिसे, स्खलनसे, जो हमारी सत्ताकी रात्रिमें हमें तब तक वशमें किये रहता है, जबतक सूर्य उपलब्ध नहीं हो जाता और जबतक दिव्य उषा उदित नहीं हो जाती ।
एक बार यदि हमें वह कुंजी मिल जाती है जिससे गौओंका, सूर्यका, मधुमदिराका अर्थ खुल जाय, तो अंगिरसोंके कथानककी तथा पितरोंके जो कार्य हैं उनकी सभी घटनाएँ (जो वेदमंत्रोंकी कर्मकाण्डीय या प्रकृतिवादी व्याख्यामें ऐसी लगती हैं मानो जहाँ-तहाँ के टुकड़ोंको इकट्ठा जोड़कर एक बिल्कुल असंगत-सी चीज तैयार कर दी गयी हो और जो ऐतिहासिक या आर्य-द्राविड़ ब्याख्यामें अत्यंत ही निराशाजनक तौरपर दुर्घट प्रतीत होती हैं, इसके विपरीत ) पूर्णतया स्पष्ट तथा संबद्ध लगने लगती हैं और प्रत्येक दूसरीपर प्रकाश डालती हुई नजर आती है । प्रत्येक सूक्त अपनी संपूर्णताके साथ तथा दूसरे सूक्तोंसे जो इसका संबंध है उसके साथ हमारी समझमें आ जाता है; वेदकी प्रत्येक जुदा-जुदा पंक्ति, प्रत्येक संदर्भ, जहाँ-तहाँ बिखरा हुआ प्रत्येक संकेत मिलकर अनिवार्य रूपसे और समस्वरताके साथ एक सामान्य संपूर्णताका, समग्रताका अंगभूत दीखने लगता है । यहाँ हम यह जान चुके हैं कि क्यों मधुको, दिव्य आनन्दको यह कहा जा सकता है कि उसे गौके अंदर, सत्यके जगमगाते हुए प्रकाशके अंदर रखा गया; मधुको धारण करनेवाली गौका प्रकाशके अधिपति तथा उद्गमस्थान सूर्यके साथ क्या संबंध है; क्यों अंधकारमें पड़े हुए सूर्यकी पुनःप्राप्तिका संबंध पणियोंकी गौओंकी उस विजय या पुनःप्राप्तिके साथ है जो अंगिरसों द्वारा की जाती है; क्यों इसे सत्यकी पुनःप्राप्ति कहा गया है; पैरोंवाली और खुरोंवाली दौलतका तथा गौके खेत या चरागाहका क्या अभिप्राय है । अब हम यह देखने लगे हैं कि पणियोंकी गुफा क्या वस्तु है और क्यों उसे जो 'वल' की गुहामें छिपा है यह भी कहा गया है कि वह उन जलोंके अंदर छिपा है जिन्हें इन्द्र 'वृत्र'के पंजेसे छुड़ाता है, उन सात नदियोंके अंदर छिपा है जो नदियाँ अयास्यके सात-सिरोंवाले स्वर्विजयी विचारसे युक्त हैं; क्यों गुफामेंसे सूर्यके छुटकारेको, अंधकारमेंसे प्रकाशके पृथक्करण या वरणको यह कहा गया है कि यह सर्वविवेचक ज्ञान द्वारा किया जाता है; 'दक्षिणा' तथा 'सरमा' कौन हैं और इसका क्या अभिप्राय है कि इन्द्र खुरोंवाली दौलतको अपने दाहिने हाथमें थामता है । और इन परिणामोंपर
२५७
पहुँचनेके लिये हमें शब्दोंका अभिप्राय खींचतान करके नहीं निकालना है, यह नहीं करना है कि एक ही नियत संज्ञाके, जहाँ जैसी सुविधा होती हो उसके अनुसार, भिन्न-भिन्न अर्थ मान लें, अथवा एक ही वाक्यांश या पंक्तिके भिन्न-भिन्न सूक्तोंमें भिन्न-भिन्न अर्थ कर लें अथवा असंगतिको ही वेदमें सही व्याख्याका मानदण्ड मान लें; बल्कि इसके विपरीत ॠचाओंके शब्द तथा रूपके प्रति जितनी ही अधिक सचाई बरती जायगी उतना ही अधिक विशद रूपमें वेदका सामान्य तथा व्योरेवार अभिप्राय एक सतत स्पष्टता और पूर्णताके साथ प्रकट हो जायगा ।
इसलिये हमें यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि जो अभिप्राय हमारी खोजसे निकला है उसे हम अन्य संदर्भोंमें भी प्रयुक्त करें, जैसे कि वसिष्ठके सूक्त 7.76में, जिसकी मैं अब परीक्षा करूंगा । यद्यपि उसमें ऊपर-ऊपरसे देखने पर केवल भौतिक उषाका एक आनंदसे पुलकित कर देनेवाला चित्र ही प्रतीत होगा पर जब हम इस सूक्तकी परीक्षा करते हैं तो यह प्रथम छाप मिट जाती है । हम देखते हैं कि यहाँ सतत रूपसे एक गंभीरतर अर्थ सूचित होता है और जिस क्षण हम उस चाबीका उपयोग करते हैं जो हमें मिली है उसी क्षण वास्तविक अभिप्रायकी समस्वरता दिखायी देने लगती है । यह सूक्त प्रारम्भ होता है परम उषाके प्रकाशके रूपमें सूर्यके उस उदयके वर्णनसे जिस उदयको देवता तथा अंगिरस् साधित करते हैं ।
1'सविता, जो देव है, विराट् नर है, उस प्रकाशमें, ऊपर चढ़ गया है जो अमर है और सब जन्मोंवाला है, ज्योतिरमृतं विश्वजन्यम्; (यज्ञके ) कर्म द्वारा देवोंकी आंख पैदा हो गयी है (अथवा, देवोंकी संकल्प-शक्ति द्वारा अन्तर्दर्शन पैदा हो गया है ); उषाने संपूर्ण लोकको (या उस सबको जो अस्तित्वमें आता है, सब सत्ताओंको, विश्व भुवनम् ) अभिव्यक्त कर दिया है ।' यह अमर प्रकाश जिसमें सूर्य उदित होता है, अन्य स्थलोंमें सच्चा प्रकाश, ऋतं ज्योति:, कहा गया है; और वेदमें सत्य तथा अमरत्व सतत रूपसे संबद्ध पाये जाते हैं । यह है ज्ञानका प्रकाश जो सात-सिरोंवाले विचारके द्वारा दिया गया, जिस विचारको अयास्यने पाया था जब कि वह 'विश्वजन्य अर्थात् विराट् सत्तावाला हो गया था, इसीलिये इस प्रकाशको भी 'विश्वजन्य' कहा गया है, क्योंकि यह अयास्यके चतुर्थ लोक, 'तुरीयं स्वि'दं_से संबंध रखता है जिस लोकसे शेष सब पैदा होते हैं और जिसके
1. उदु ज्योतिरमृतं विश्वजन्य विश्यानर: सविता देवो अश्रेत् ।
ॠत्वा देवानामजनिष्ट चक्षुराविरकर्भुवनं विश्वमुषा: ।। (ॠ. 7.76.1 )
२५८
सत्यसे शेष सब अपने विशाल विराट्रूपमें अभिव्यक्ति प्राप्त करते हैं, कि पहलेकी तरह अनृत और कुटिलताकी सीमित अवस्थाओंमें । इसीलिये इसे यह भी कहा गया है कि यह देवोंकी आंख है और दिव्य उषा है जो संपूर्ण सत्तामात्रको अभिव्यक्त कर देती है ।
दिव्य दर्शनके इस जन्मका परिणाम यह होता है कि मनुष्यका मार्ग उसके लिये अपने-आपको प्रकट कर देता है तथा देवोंकी या देवोंके प्रति की जानेवाली उन यात्राओं (देवयाना: ) को प्रकट कर देता है, जो यात्राएं दिव्य सत्ताके अनंत विस्तारकी ओर ले जाती हैं । 'मेरे सामने देवोंकी यात्राओंके मार्ग प्रत्यक्ष हो गये हैं, उन यात्राओंके जो सत्य नियमका उल्लङ्गन नहीं करतीं, जिनकी गति वसुओं द्वारा निर्मित की गयी थी । यह सामने उषाकी आंख पैदा हो गयी है और वह हमारे घरोंके ऊपर (पहुंचती हुई ) हमारी तरफ आ गयी है ।'1 घर वेदमें एक स्थिर प्रतीक है उन शरीरोंके लिये जो आत्माके निवास-स्थान हैं, ठीक वैसे ही जैसे खेत (क्षेत्र ) या आश्रय-स्थान (क्षय ) से अभिप्राय होता है वे स्तर जिनमें आत्मा आरोहण करता है तथा जिनमें वह ठहरता है । मनुष्यका मार्ग वह मार्ग है जिसपर वह सर्वोच्च लोकमें पहुंचनेके लिये यात्रा करता है, और वह वस्तु जिसे देवोंकी यात्राएं हिंसित नहीं करतीं देवों की क्रियाएं हैं, जीवनका दिव्य नियम है जिसमें आत्माको बढ़ना होता है, जैसा कि हम पांचवीं ऋचामें देखते हैं जहाँ इसी वाक्यांशको फिर दोहराया गया है ।
इसके बाद हम एक विचित्र आलंकारिक वर्णन पाते हैं, जो आर्योंके उत्तरीय ध्रुव-निवासकी कल्पनाको पुष्ट करता प्रतीत होता है । ''वे दिन बहुत-से थे जो सूर्यके उदयके पहले थे (अथवा, जो सूर्यके उदय तक प्राचीन हो गये थे ), जिनमें हे उष: ! तू दिखायी पड़ी, मानो कि अपने प्रेभीके चारों ओर घूम रही हो और तुझे पुन: न आना हो ।"2 सचमुच ही यह ऐसी उषाओंका चित्र है जो अविच्छिन्न हैं, जिनके बीचमें रात्रि व्यवधान नहीं डालती, वैसी जैसी कि उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंमें दृष्टिगोचर होती हैं । अध्यात्मपरक आशय जो इस ऋचासे निकलता है वह तो स्पष्ट ही है ।
1. प्र मे पन्या देवयाना अवृश्रन्नमर्षन्तो वसुभिरिष्क्रुतासः ।
अभूदु केतुरुषस: पुरस्तात् प्रतीच्यागादधि हर्म्येभ्यः।। (ऋ. 7.76.2 )
2. तानीदहानि बहुलान्यासन् या प्राचीनमुदिता सूर्यस्य ।
यत: परि जार इवाचरन्त्युषो वदृक्षे न पुनर्यतीव ।। (ऊ. 7.76.3 )
२५९
ये उषाएं क्या थीं ? ये वे थीं जो पितरों, प्राचीन अंगिरसोंकी क्रियाओं द्वारा रची गयी थीं । ''वे सचमुच देवोंके साथ (सोमका ) आनंद लेते थे,1 वे प्राचीन द्रष्टा थे जो सत्यसे युक्त थे, उन पितरोंने छिपी हुई ज्योतिको पा लिया; सत्य विचारसे युक्त हुए-हुए (सत्युमन्त्राः, उस सत्य विचारसे जो अन्त:प्रेरित वाणी, मंत्र, में अभिव्यक्त हुआ था ) उन्होंने उषाको पैदा कर दिया ।"2 और यह उषा, यह मार्ग, यह दिव्य यात्रा, पितरोंको कहां ले गयी ? समतल बिस्तारमें, 'समाने ऊर्वे', जिसे अन्य स्थलोंमें 'निर्बाध विस्तार' नाम दिया गया है, 'उरौ अनिबाधे', यह स्पष्ट ही वही वस्तु है जो वह विशाल सत्ता वा विशाल लोक है जिसे कण्वके अनुसार मनुष्य तब रचते हैं जब वे वृत्रका वध कर लेते हैं और द्यावापृथिवीके पार चले जाते हैं; यह है बृहत् सत्य तथा 'अदिति'की असीम सत्ता । ''समतल विस्तारमें वे परस्पर संगत होते हैं और अपने ज्ञानको एक करते हैं ( अचबा पूर्णतया ज्ञान रखते हैं ), और परस्पर होड़ या संधर्ष नहीं करते; वे देवोंकी क्रियाओंको क्षीण नहीं करते ( सीमित या क्षत नहीं करते ), उनमें बाधा न डालते हुए वे वसुओं (को शक्ति ) द्वारा ( अपने लक्ष्यकी तरफ ) गति करते हैं ।"3 यह स्पष्ट है कि सात अंगिरस्, चाहे वे मानव हों चाहे दिव्य, ज्ञान, विचार या शब्दके, सात सिरों-वाले विचारके, बृहस्पतिके सात-मुखोंबाले शब्दके भिन्न-भिन्न सात तत्वोंको सूचित करते हैं और समतल विस्तारमें आकर वे एक विराट् ज्ञानमें समस्वर हो जाते हैं । स्खलन, कुटिलता, असत्य जिनके द्वारा मनुष्य देवोंकी क्रियाओंका उल्लङधन करते हैं तथा जिनके द्वारा उनकी सत्ता, चेतना व ज्ञानके विभिन्न तत्त्व एक दूसरेके साथ अंधे संघर्षमें जुट जाते हैं, दिव्य उषाकी आख या दर्शन (Vision ) द्वारा परे हटा दिये जाते हैं ।
सूक्त समाप्त होता है वसिष्ठोंकी इस अभीप्साके साथ कि उन्हें वह दिव्य तथा सुखमयी उषा प्राप्त हो जो गौओंकी नेत्री तथा समृद्धिकी पत्नी
1. मैं थोड़ी देरके लिये 'सधमाद:'के परम्परागत अर्थको ही स्वीकार किये लेता हू, यधपि
मुझे यह निश्चय नहीं कि यह अर्थ शुद्ध ही है |
2. त इद्देवानां सधमाद आसन्नृतावानः कवयः पूर्व्यासः ।
गुळहं ज्योतिः पितरो अन्यविन्दन्त्स्यत्यमन्त्रा अजनयन्नुषासम् ।।
(ऋ. 7.76.4 )
3. समान ऊर्वे अधि संगतासः सं जावते न यतन्ते मिथस्ते ।
ते देवानां न भिनन्ति व्रतान्यमर्षन्तो वसुभिर्यादमानाः (ॠ. 7.76.4)
२६०
है और साथ ही जो आनंद तथा सत्योंकी (सूनृतानाम् ) नेत्री है ।1 वे वही महाकार्य करना चाहते हैं जिसे पूर्व द्रष्टाओंने, पितरोंने, किया था, और इससे यह परिणाम निकलेगा कि ये अगिरस् मानवीय हैं, न कि दिव्य । कुछ भी हो, अंगिरसोंके कथानकका अभिप्राय इसके सब अंग-उपागोंसहित नियत हो गया है, सिवाय इसके कि पणियोंका तथा कुक्कुरी सरमाका ठीक-ठीक स्वरूप क्या है, और अब हम. इस ओर प्रवृत्त हो सकते हैं कि चतुर्थ मण्डलके प्रारम्भके सूक्तोंमें जो संदर्भ आते हैं उनपर विचार करें, जिनमें मानव पितरोंका साफ-साफ उल्लेख हुआ है और उनके महान् कार्यका वर्णन किया गया है । वामदेवके ये सूक्त अंगिरसोंके कथानकके इस अंग पर अत्यधिक प्रकाश डालनेवाले तथा इस दुष्टिसे अत्यावश्यक हैं और अपने-आपमें भी वे ऋग्वेदके अधिक-से-अधिक रोचक सूक्तोमेंसे हैं ।
__________________
1. प्रति क स्तोमैरीळेते वसिष्ठा उषर्बुधः सुभगे तुष्टुवांस: ।
गवां नेत्रो वाजपत्नी न उच्छोषः सुजाते प्रथमा जरस्व ।।
एषा नेत्री राधसः सूनृतानामुषा उच्छन्ती रिम्यते वसिष्ठै: ।
( ऋ. 7.76.-7 )
२६१
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.