Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
इक्कीसवाँ सूक्त
मानवतामें निहित दिव्य अग्निका सूक्त
[ ऋषि दिव्य ज्वालाका आवाहन करता है ताकि वह मानव सत्तामें दिव्य मानवके रूपमें प्रज्वलित हो तथा हमें सत्य और परमानंदके धामोंमें हमारी पूर्णता तक उठा ले लाय । ]
१
मनुष्यत्त्वा नि धीमहि मनुष्वत् समिधीमहि ।
अग्ने मनुष्यदङ्गिरो देवान् देवयते यज ।।
(मनुष्वत्) मानुषी रूप'में हम (त्वा) तुझे (नि धीमहि) अपने अंदर प्रतिष्ठित करते हैं, (मनुष्वत्) मानुषी रूपमें (त्वा) तुझे (सम् इधीमहि) प्रज्वलित करते हैं । (अग्ने) हे ज्वाला! (अङ्गिर:) हे द्रष्टृ-रूप शक्ति! (देवयते) देवोंकी कामना करनेवालेके लिए (मनुष्वत्) मानुषी रूपमें (देवान् यज) देवोंके प्रति यज्ञ कर ।
2
त्वै हि मानुषे जनेऽग्ने सुप्रीत इध्यसे ।
सुचल्ला यन्त्यानुषक्सुजात सर्पिरासुते ।।
(अपने) हे ज्वालारूप अग्निदेव ! (सुप्रीत त्वम्) जब तू [ मनुष्यकी ] भेंटोंसे तृप्त होता है तब तू (मानुषे जने) मानव प्राणीमें (इध्यसे हि) प्रज्वलित होता है । उसके (स्रुच:) कड़छे (आनुषक्) निरंतर (त्वा यन्ति)
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1. देवत्व मनुष्यके अंदर अवतरित होता हुआ मानवताका आवरण ओढ़
लेता है । भगवान् अनादि कालसे पूर्ण एवं अजन्मा है, और है सत्य एवं
आनंदमें प्रतिष्ठित; अवतरित होता हुआ वह मनुष्यमें उत्पन्न होता है,
बढ़ता है, शनै:-शनै अपना पूर्णत्व प्रकट करता है, मानों युद्ध और
दुष्कर विकाससे सत्य और आनंदको प्राप्त करता है । मनुष्य है
चिन्तक, भगवान् है शाश्वत द्रष्टा; परंतु मर्त्यको अमरतामें विकसित
होनेमें सहायता देनेके लिए भगवान् विचार और जीवनके रूपोंके
पर्दोके पीछे अपने 'द्रष्टा'-भावको छिपाए रखता है ।
१०४
तेरी ओर जाते हैं, (सुजात) हे अपने जन्ममें पूर्ण ! (सर्पि:-आसुते) हे प्रवाहशील-ऐश्वर्य-रूपी रसको निकालनेपुवाले !
३
त्वां विश्वे सजोषसो देवासो दूतमक्रत ।
सपर्यन्तस्त्वा कवे यज्ञेषु देवमीळते ।।
(सजोषस:) प्रेममय एकहृदयसे युक्त (विश्वे देवास:) सब देवोंने (त्वां) तुझे (दूतम् अक्रत) अपना दूत बनाया । (कवे) हे द्रष्टा ! मनुष्य (यज्ञेषु) अपने यज्ञोंमे (देवम्) देवके रूपमें (सपर्यन्त) तेरी सेवा करते हैं, (ईडते) तेरी उपासना करते हैं ।
४
देवं वो देवयज्ययाऽग्निमीळीत मर्त्य: ।
समिद्ध: शुक्र दीदिह्यृतस्य योनिमासद: ससस्य योनिमासद: ।।
(मर्त्य:) मरणधर्मा मनुष्य (देव-यज्यया) दिव्य शक्तियोंके प्रति यज्ञ द्वारा (देवम् अग्निम्) दिव्य संकल्पाग्निकी (ईळित) आराधना करे । (शुक्र) हे ज्योतिर्मय ! (समिद्ध:) प्रज्वलित होकर (दीदिहि) देदीप्यमान हो, (ऋतस्य योनिम्) सत्यके घरमे (आसद:) प्रवेश कर, (ससस्य योनिम्) परम आनंदके घरमें (आसद:) प्रवेश कर ।
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