Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
मेधातिथि: काणव:
सूक्त 12
1
अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ।।
(अग्निं वृणीमहे) हम अग्निका वरण करते हैं जो (होतारं) आवाहक है, (विश्ववेदसम्) सर्वज्ञ है, (दूत) देवोंका दूत है और (अस्य यज्ञस्य) इस यज्ञका (सुक्रतुम्) सिद्धिकारक संकल्प है ।
२
अग्निमग्निं हवीमभि : सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् ।।
(विश्पतिं) प्रजाओंके अधिपति, (हव्यवाहं) हमारी [ समर्पणरूप ] भेंटों- के वाहक, (पुरुप्रियं) बहुविध अभिव्यक्तिके प्रेमपात्र, (अग्निम् अग्निम्) प्रत्येक अग्नि-ज्बालाको [ यज्ञके कर्ता] (हवीमभि:) देवोंका आह्वान करनेवाले सूक्तोंके द्वारा (सदा हवन्त) सदा पुकारते हैं और [ पुरुप्रियं हवन्त ] उस एकमेव भगवान्को पुकारते हैं जिसमें अनेक प्रिय पदार्थ विद्यमान हैं ।
३
अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईऽच: ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (जज्ञान:) उत्पन्न होकर (वृक्तबर्हिषे) उस यज्ञकर्ताके लिए जिसने पवित्न आसन बिछा रखा है (देवान् इह आ वह) देवोंको यहाँ ला । (नः ईडच: होता असि) तू हमारा वरणीय आवाहक पुरोहित है ।
४
ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (यत्) जब तू (दूत्यम् यासि) हमारा दूत बन-कर जाता है तब (तान्) उन देवोंको (वि बोधय) जया दे जो (उशत:) हमारी भेंटोंको चाहते हैं । तू बर्हिषि) पवित्र कुशापर (देवै:) देवोंके साथ (आ सत्सि) अपना स्थान ग्रहण कर ।
३७९
५
घृताहवन दीदिव: प्रति ष्म रिषतौ दह । अग्ने त्वं रक्षस्विन: ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (घृत-आहवन) मनकी निर्मलताओंकी भेंटोंसे पुकारे जाते हुए (दीदिव:) देदीप्यमान देव ! (त्वम्) तू (रिषत: रक्षस्विन:) सीमामें बांधनेवाले द्वेषियोंका (प्रति दह स्म) अवश्य हो विरोध कर और उन्हें भस्मीभूत कर दे ।
६
अग्निनाग्नि: समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड् जुहावस्य: ।।
(अग्निना) अग्निसे ही (अग्नि:) अग्निदेव (सम् इध्यते) पूर्णतया प्रदीप्त किया जाता है जो (कवि:) द्रष्टा है, (गृहपति:) घरका स्वामी है, (युवा) युवा है, (हव्यवाट्) भेंटको वहन करनेवाला है और (जुहु-आस्य:) जिसका मुख हवियोंको ग्रहण करता है ।
७
कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ।।
तू (अग्निम् उप स्तुहि) उस दिव्य अग्निके निकट पहुंच और उसके स्तुतिगीत गा जो (कविम्) द्रष्टा है और (सत्यधर्माणम्) सत्य ही जिसका विधान है, जो (देवम्) प्रकाशस्वरूप है और (अमीव-चातनम्) सब बुराइयों- का नाशक है ।
८
यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ।।
(देव अग्ने) हे अग्निदेव ! (हवि:-पति:) हवियोंका जो स्वामी (दूतं त्वाम् सपर्यति) तुझ दिव्य दूतकी पूजा करता है, (तस्य प्र अविता भव स्म) उसका तू रक्षक बन ।
९
थो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मूलय । ।
(य:) जो (देववीतये) देवोंके दिव्य जन्मके लिए (हविष्मान्) भेंटोंको लिए हुए (अग्निम् आविवासति) दिव्य शक्तिके पास पहुंचता है (पावक) हे पवित्र करनेवाले देव ! (तस्मै मृळय) उसपर दया करो ।
३८०
१०
स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवों इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः ।।
(दीदिव: अग्ने) हे देदीप्यमान अग्नि ! (पावक) हे पवित्र करने-वाले ! (स:) यह तू (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (नः हवि यज्ञं च) हमारी भेंटों और हमारे यज्ञके (उप आ वह) पास ले आ ।
११
स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम् ।।
(न: नवीयसा गायत्नेण) हमारे नवीन छन्दोंसे (स्तवान:) स्तुति किया हुआ (स:) वह तू (रयिम्) आनन्दको और (वीरवतीमू इषं) वीरके सामर्थ्य से पूर्ण प्रेरणा-शक्तिको (आ भर) ले आ ।
१२
अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभि: । इम स्तोमं जुषस्व नः ।।
(अग्ने) हे अग्नि ! (शुक्रेण शोचिषा) अपनी शुभ्र दीप्तियोंके साथ, (विश्वाभि: देव-हूतिभि:) देवोंका आह्वान करनेवाली अपनी समस्त दिव्य ऋचाओंके साथ आकर (नः इम स्तोमम्) हमारी इस दृढ़तासाधक स्तुतिको (जुषस्व) स्वीकार कर ।
३८१
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