Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
सूक्त 36
१
प्र वो यव्ह्मं पुरूणां विशा देवयतीनाम् ।
अग्नि सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ।।
(देवयतीनाम्) देवत्वको प्राप्त करनेके लिए यत्नशील (पुरूणां विशां) अनेक प्रजाओंके (यहं) स्वामी (अग्निम्) अग्निदेवको हम (व:) तुम्हारे लिए (सूक्तेर्भि: वचोभि:) पूर्ण भावाभिव्यंजक वचनोंसे (प्र ईमहे) खोज रहे हैं, (यं) जिस अग्निको (अन्ये इत्) दूसरे लोग भी (सीम्) हर जगह (ईळते) पाना चाहते हैं ।
२
जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विषेम ते ।
स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ।।
(जनास:) मनुष्य (अग्निमू) अग्निदेवको (सह:-वृधम्) शक्तिवर्धकके रूपमें (दधिरे) अपने अन्दर धारण करते हैं । (हविष्मन्त:) भेंटोंको लिए हुए हम (ते) तेरे प्रति (विधेम) .यज्ञका अनुष्ठान करते हैं । (स: त्व:) सो वह तू (नः) हमारे लिए (अद्य) आज ही (सुमना:) सुमना:, पूर्णतासे युक्त मनवाला (भव) बन और (इह) यहाँ (वाजेषु) ऐश्वर्यकी प्राप्तियोंमें (अविता भव) हमारा रक्षक बन सन्त्य) हेत्स्वरूप ! हे सत्ताके सत्य !
३
प्र त्या दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् ।
महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चथो दिवि स्पृशन्ति भानव: ।।
३८३
(त्वा दूतं प्र वृणीमहे) हम तुझे अपने दूतके रूपमें वरण करते हैं, जो (होतार) हविका पुरोहित है (विश्ववेदसम्) विश्व-ज्ञानसे सम्पन्न, सर्वज्ञ है । (मह: ते सत:) जब तू अपनी सत्तामें महिमा-युक्त होता है तब (अर्चय:) तेरी ज्वालाएं (वि चरन्ति) व्यापक रूपसे विचरण करती हैं, (ते भानव:) तेरी दीप्तियां (दिवि स्पृशन्ति) द्युलोकोको स्पर्श करती हैं ।
४
देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रलमिन्धते ।
विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्य: ।।
(देवास:) सब देव, (वरुण: मित्र: अर्यमा) वरुण, मित्र, अर्यमा भी (त्वां प्रत्नम् दूतम्) तुझ पुरातन दूतको (सम् इन्धते) पूरी तरह प्रदीप्त करते हैं । (अग्ने) हे अग्निदेव ! (य: मर्त्य:) जिस मरणधर्मा मनुष्यने (ते ददाश) सब कुछ तुझे दे दिया है (स:) वह (त्वया) तेरे द्वारा (विश्वं धन जयति) सम्पूर्ण ऐश्वर्य जीत लेता हैं ।
५
मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि ।
ते विश्वा सङ्गतानि व्रता ध्रुबा यानि देवा अकृण्वत ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (मन्द्र: होता) तू यज्ञका आनन्दोल्लसित पुरोहित है, (गृहपति:) इस घरका स्वामी है और (विशाम्) प्रजाओंका (दूत: असि) दूत है । (त्वे) तुझमें (विश्वा ध्रुवा व्रता) कर्मके सारे अविचल नियम (सङ्गतानि) एकत्र स्थित हैं (यानि) जिन्हें (देवा: अकृण्वत) देवोंने बनाया है ।
६
त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठय विश्वमा हूयते हवि: ।
स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्त्सुवीर्या ।।
(यविष्ठच अग्ने) हे युवा और शक्तिशाली अग्निदेव ! (सुभगे त्वे इत्) क्योंकि तू आनन्दसे समृद्ध है, इसलिए तुझमें ही (विश्वं हवि:) प्रत्येक हवि (आ हूयते) डाली जाती हैं । (स: त्वं सुमना:) इस कारण मनकी पूर्णतासे युक्त वह तू (नः) हमारे लिए (अद्य) आज (उत अपरम्) और आजके बाद भी (देवान्) देवोंके प्रति (सुवीर्या) पूर्णतायुक्त शक्तियोंको (यक्षि) अर्पित कर ।
३८४
७
तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते ।
होत्राभिरग्निं मनुष: समिन्धते तितिर्वासो अति त्रिध: ।।
(तं घ ईम्) उसकी ही (नमस्विन:) आत्मसमर्पण-कर्ता मनुष्य (स्व- राजम्) आत्म-शासकके रूपमें (उप आसते) उपासना करते है । (त्रिधः अति तितिर्वास: मनुष:) जब मनुष्य अपनी बाधक और विरोधी शक्तियों-को जीतकर पार कर लेते हैं तब वे (होत्नाभि:) हवियोंकी महानतासे (अग्निं सम् इन्धते) अग्निको पूरी तरह प्रज्वलित करते हैं ।
८
ध्नन्तो वृत्रमतरन् रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे ।
भुवत्कण्वे वृषा द्युन्याहुत: क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ।।
(वृत्नाम् अप ध्नन्त:) आच्छादक वृत्रपर प्रहार करते हुए वे (रोदसी) द्युलोक और पृथ्वीलोक दोनोंको (अतरन्) पार कर जाते हैं और (उरु) विस्तृत राज्यको (क्षयाय चक्रिरे) अपना धर बना लेते हैं । (वृषा) वह शक्तिशाली अग्निदेव (आहुत:) आहुतियोंसे पुष्ट होकर (कण्वे) कण्वमें [ मेधावी यजमानमें ] (द्युम्नी) एक ज्योतिर्मय ऊर्जा-शक्ति (भुवत्) बन जाए, (गो- इष्टिषु) गौओंकी चरागाहों [ गोष्ठों ] में (क्रन्दत्) हिनहिनाता हुआ (अश्व:) जीवनका अश्व ( [भुवत् ] बन जाए ।
९
सं सीदस्व महीं असि शोचस्व देववीतम: ।
वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ।।
(सं सीदस्व) तू अपना सुस्थापित आसन ग्रहण कर । (महाँ असि) तू विशाल है । (देववीतम:) देवत्वको पूरी तरह प्रकट करते हुए (शोचस्व) अपनी पवित्रतामें चमक । (मियेध्य अग्ने) हे यज्ञिय अग्निदेव ! (प्रशस्त) विशालतासे अभिव्यक्त हुआ तू (अरुषं दर्शतम् धूमम्) भावावेश-के रक्तवर्ण, क्रियाशील और अन्तर्दृष्टि-पूर्ण धुएँको (वि सृज) प्रसारित कर ।
10-11
यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन ।
यं कण्वो मेध्यातिथि र्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुत: ।।
३८५
यमग्निं मेध्यातिथि: कण्व ईध ऋतादधि ।
तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ।।
(हव्यवाहन) हे हविका वहन करनेवाले ! (यजिष्ठं यं त्वा) यज्ञके लिए अत्यधिक शक्तिशाली जिस तुझको (देवास:) देवोंने (मनवे) मनुष्यके लिए (इह दधुः) यहाँ निहित किया है, (यं) जिसको (कण्व: मेध्य-अतिथि:) कण्व मेध्यातिथिने (धनस्पृतं) अपने अभिलषित ऐश्वर्यको अधिकृत करनेवाले- के रूपमें (इह दधुः) यहाँ प्रतिष्ठित किया है और (यं [त्वा] ) जिस तुझको (वृषा) शक्तिशाली इन्द्रने और (उपस्तुतः) अपने स्तुतिगानसे तुझे सुप्रति-ष्ठित करनेवाले लोगोंने [ इह दधुः ] यहीं स्थापित किया है ।
(यम् अग्निम्) जिस अग्निको (मेध्यातिथि: कण्व:) मेध्य-अतिथि कण्वने (ऋतात् अधि) सत्यके आधार पर (ईधे) अत्यन्त उज्जवल रूपमें प्रज्वलित किया है, (तस्य) उसकी (इषः) प्रेरणाएं (प्र दीदियु:) देदीप्यमान हो उठें । (तमू अग्निम्) उस अग्निको (इमा ऋच:) ये पूर्णता-साधक ऋचाएं [वाणियां] (वर्धयामसि) बढ़ावे और [ तम् अग्निम् वर्धयामसि ] उसी अग्निको हम भी बढ़ावें ।
१२
रायस्तुर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्याप्यम् ।
त्वं वाजस्य श्रुत्यस्थ राजासि स नो मृळ महाँ असि ।।
(स्वधाव:) हे स्वयंस्थित अग्निदेव ! (राय:) हमारे आनन्दैश्वर्योंको (पूर्धि) परिपूर्ण बना । (हि) क्योंकि (अग्ने) हे अग्निदेव ! (देवेषु) देवोंमें (ते आप्यम् अस्ति) तेरी ही [ तेरे द्वारा ही ] क्रियाशीलता है । (त्वम्) तू (श्रुत्यस्य वाजस्य) अंतःप्रेरित ज्ञानकी सम्पदाका (राजसि) शासक है । (स: नः मृळ) सो ऐसा तू हमपर कृपा कर । (महान् असि) तू महान् है ।
१३
ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता ।
ऊर्ध्वो वाजस्य सनिंता यदञ्जिभिर्वाघद्धिर्विह्वयामहे ।।
(सविता देव न) सविता देवकी तरह तू (न: ऊतये) हमारे विकासके लिए (ऊर्ध्व: ऊ सु तिष्ठ) अत्यधिक ऊर्ध्वमें स्थित रह । (ऊर्ध्व:) उन ऊंचाइयों पर स्थित होकर ही तू (नः वाजस्य) हमारे ऐश्वर्यभोगका (सनिता) रक्षक बनता है (यत्) जब कि हम तुझे (अञ्जिभि: वाघद्धि:) अभिव्यक्त करनेवाले गीतोंसे (विह्वयामहि) पुकारते हैं ।
३८६
१४
ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह ।
कृषी न ऊर्ध्थाञ्वाथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुव: ।।
(ऊर्ध्व:) ऊर्ध्वस्थित होकर (केतुना) प्रत्यक्षज्ञान-युक्त मनके द्वारा तू (अंहस नः नि पाहि) बुराईसे हमारी रक्षा कर । (विश्वम् अत्रिणम्) हमारी सत्ताके प्रत्येक भक्षकको (सं दह) पूरी तरह दग्ध कर दे । (न:) हमें (चरथाय) कर्म करनेके लिए (ऊर्ध्वान् कृधि) ऊपर उठा । (देवेषु) देवोंमें (नः दुव:) हमारी यज्ञक्रियाका (विदा:) सम्यक् विभागकर ।
15
पाहि नो अग्ने रक्षस: पाहि धूर्तेरराव्:ण ।
पाहि रीषत उत मा जिघांसतो बृहद्धानो यविष्ठच ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (रक्षस:) राक्षससे (न: पाहि) हमारी रक्षा कर, (अराव्ण: धूर्ते:) आनन्दविरोधी वस्तुओंसे होनेवाली हानिसे ( [ नः ] पाहि) हमारी रक्षा कर, (रीषत: पाहि) उससे हमारी रक्षाकर जो हमपर आक्रमण करता है (उत वाजिघांसत:) और उससे भी जो हमारा हनन करना चाहता है, (बृहद्धानो) हे विशाल दीप्तिवाले ! (यविष्ठ्य) हे शक्तिशाली और युवा ।
१६
घनेव विष्यग्वि जह्मराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् ।
यो मर्त्य: शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ।।
(तपु:-जम्भ) हे शत्रुओंकी शक्तियोंको निगल जानेवाले ! अथवा दुःख-संतापका हरण करनेवाले ! (अराव्ण:) निरानंदकी सम्पूर्ण शक्तियोंको (घना इव विश्वक् वि जहि) मानों घनाघन पड़ती चोटोंसे पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दे अथवा उन्हें (घना इव) बादलोंकी तरह (विष्वक् वि जहि) चारों ओरसे तितर-बितर कर दे और (य: अस्मध्रुक्) जो हमसे द्रोह करना चाहता है उसे भी [ वि जहि] छिन्न-भिन्न कर दे । (य: मर्त्य:) जो भी मरणधर्मा मनुष्य (अस्तुभि:) अपने कार्योंकी तीव्र कुशलतासे (अति शिशीते) हमसे आगे बढ़ जाता हैं (स:) वह (नः रिपु:) हमारे शत्रुके रूपमें (मा ईशत) हमपर शासन न कर सके ।
१७
अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कष्याय सौभगम् ।
अग्नि: प्रावन् मित्रोत मेध्यातिथिमग्नि: साता उपस्तुतम् ।।
३८७
(अग्नि:) अग्निन ( कण्वाय) कण्वके लिए ( सुवीर्य वन्वे) पूर्णतायुक्त शक्तिको जीत लिया है और ( अग्नि:) अग्निने उसके लिये ( सौभगम्) पूर्णतायुक्त आनन्दोपभोगको ( वव्ने ) जीत लिया है । ( अग्नि:) अग्नि उसके लिए ( मिता प्र आवत्) सभी मित्रतापूर्ण वस्तुओंकी रक्षा करता है ( उत) और (अग्नि:) अग्नि ( उपस्तुतम् मेध्य-अतिथिम्) मेध्यातिथिको, जिसने उसे स्तुतिके गीतसे सम्पुष्ट किया हैं, ( सातौ [ प्र आवत् ] ) उसकी सत्तामें सदा सुरक्षित रखता है ।
१८
अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे ।
अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सह: ।।
(अग्निना) अग्निके द्वारा हम ( तुर्वशं यदुम्) तुर्वश और यदुका (परावत :) ऊर्ध्वलोकके राज्योंसे ( हवामहे) आह्वान करते हैं । ( अग्नि:) अग्नि (बृहतृ- रथं तुर्वीतिम्) बृहद्रथ और तुर्वीतिको [ अथवा विशाल आनंदपूर्ण तुर्वीतिको ] (नव-वास्त्वम्) नए निवासस्थानकी ओर ( नयत्) ले गया है, जो तुर्वीति ( दस्यवे सह:) शत्रुके विरोधमें शक्तिस्वरूप है ।
१९
नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।
दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टय: ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव, ( मनु:) मनुष्य ( त्वाम्) तुझे (शश्वते जनाय ज्योति:) शाश्वत जन्मके लिए ज्योतिके रूपमें ( नि दधे) अपने अन्दर स्थापित करता है । (यं) जिसे ( कृष्टय:) कर्मके कर्त्ता ( नमस्यन्ति) नमस्कार करते हैं ऐसा तू (ऋतजात:) सत्यमें प्रकट होकर और ( उक्षित :) सत्तामें वर्धित होकर (कण्वे) कण्वमें ( दीदेथ) अत्यन्त उल्वल रूपमें प्रज्वलित हो ।
२०
त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये ।
रक्षस्विनः सदमिद् यातुमावतो विश्व समत्रिणं दह ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! तेरी ( अर्चय :) ज्वालाएं ( त्वेषास:) प्रचण्ड, ( अमवन्त:) बलशाली, ( भीमास:) भयानक हैं और ( प्रति-इतये न) ऐसी हैं जिनके पास पहुंचा नहीं जा सकता । ( सदम् इत्) सदा ही तू ( रक्षस्विन:) अवरोधक-शक्तियोंको, ( यातुमावत:) दुःखकी वाहक शक्तियों कौ और (विश्वम् अत्रिणम्) प्रत्येक भक्षकको भी ( सं दह) पूरी तरह भस्मसात् कर दे ।
३८८
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