वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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पराशर: शाक्त्य:

 

 

सूक्त 65

 

1 

 

पश्वा न तायुं गुहा चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तम् ।

सजोषा धीरा: पदैरनु ग्मन्नुप त्वा सीदन् विश्वे यजत्रा: ।।

 

अग्निदेव अपने आपको (पश्वा) अन्तर्दर्शनकी गौके साथ (गुहा चतन्तं) गुहामें छिपाए हुए है, ([पश्वा]  तायुं न) जैसे कोई चोर गौ-पशुके साथ अपने- को गुफामें छिपा लेता है । (नम: युजानम्) वह हमारे नमन व स्तवन-को स्वयं स्वीकार करता है और (नम: वहन्तम्) उस नमनको वहाँ ले जाता है1 । (धीरा: सजोषा:) विचारक उसमें मिलकर आनंद लेते हैं और (पदै: अनु ग्मन्) उसके पद-चिह्नोंके अनुसार उसका अनुसरण करते हैं । हे अग्निदेव ! (विश्वे यजन्त्रा:) यज्ञके सब अधिपति (त्वा उप सीदन्) गुह्य गुहामें तेरे पास आते हैं ।

 

 

ऋतस्य देवा अनुव्रता गुर्भुवत् परिष्टिद्यौर्न भूम ।

वर्धन्तीमाप: पन्वा सुशिश्विमृतस्य योना गर्भे सुजातम् ।।

 

(देवा:) देवगण (ऋतस्य व्रता अनु गुः) उस अग्निके पदचिह्नों पर चलते हुए सत्यकी क्रियाओंके विधानका अनुसरण करते हैं । (परिष्टि: भुवत्) वह सबको उसी प्रकार चारों ओरसे घेरे हुए स्थित है (द्यौ: भूम न) जिस प्रकार द्युलोक पृथिवीको । (आप:) जलधाराएं (ई सुशिश्विम्) आनन्दमें बढ़ते हुए इस अग्निको (पन्वा वर्धन्ति) अपने प्रयाससे2 संवर्धित करती हैं, जो अग्नि (गर्भे) उनके गर्भमें (ऋतस्य योना) सत्यके घरमें (सुजातम्) उत्तम रूपसे उत्पन्न हुआ है ।

 _______________

1. अथवा, यं कहना अधिक अच्छा होगा, वह हमारे समर्पण को स्वीकार

    करता है और उसे अपने माथ ले जाता है ।

2. अथवा, अपने स्तुतिगानसे ।


३८९


 

 

पुष्टिर्न रण्वा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिर्न भुज्म क्षोदो न शंभु ।

अत्यो नाज्मन् त्सर्गप्रतक्त: सिन्धुर्न क्षोद: क ई वराते ।।

 

(रण्वा पुष्टि: न) वह मानों एक आनन्दपूर्ण पुष्टि हैं । (पृथ्वी न क्षिति:) वह पृथिवीकी तरह हमारा विशाल निवासस्थान है । (गिरि: न भुज्म) वह पर्वतकी तरह उपभोग करने योग्य है । (क्षोद: न शंभु) वह तेज बहते हुए पानीकी तरह आनन्ददायक है । वह (अज्मन्) युद्धमें (सर्गप्रतक्त:) सरपट दौड़ते हुए (अत्य: न) वेगवान् अश्वकी तरह है । (क्षोद: सिन्धु: न) वह बहती हुई नदीकी तरह है1 । (ई क: वराते) उसके मार्गमें उसे कौन रोक सकता है ?

 

जामि: सिन्धूनां भ्रातेब स्वस्त्रामिभ्यान्न राजा वनान्यत्ति ।

यद् वातजूतो वना व्यस्थादग्निर्ह दाति रोमा पृथिष्या: ।।

 

(सिन्धूनां जामि:) वह नदियोंका निकट संगी है, (भ्राता स्वस्राम् इव) जैसे भाई बहिनोंका होता है । वह (वनानि अत्ति) पृथिवीके वनोंको उसी प्रकार हड़प जाता है (राजा इभ्यान् न) जिस प्रकार राजा अपने शत्नुओंको । (यत्) जब (अग्नि:) अग्निदेव (वातजूतः) वायुके निःश्वाससे प्रेरित हुआ (वना वि अस्थात्) वनोंमें चारों ओर विचरता है, तब वह (पृथिव्या:) पृथिवीकी देहके (रोम) रोमोंको (दाति) खण्ड-खण्ड कर देता है ।

५ 

 

श्वसित्यप्सु हंसो न सीदन् सवा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत् ।

सोमो न वेधा ऋतप्रजातः पशुर्न शिश्या विभूर्दूरेभा: ।।

 

( सीदन् हंस: न) [ जलोंमें ] बैठे हंसकी तरह वह ( अप्सु श्वसिति) चैतन्यकी धाराओंमें श्वास लेता है । ( उषर्भुत्) उषाकालमें जागनेवाला वह ( ॠत्वा) अपने कर्मोंके संकल्पके द्वारा ( विशां -चेतिष्ठ :) प्रजाओंको ज्ञान देनेका सामर्थ्य रखता है । ( सोम:) वह सोम [ आनन्द-मदिराके देवता]  की तरह है  (ऋत-प्रजात:) सत्यसे उत्पन्न हुआ है और ( वेधा:) एक स्रष्टा है । ( शिश्वा पशु: न) यह अपने नवजात बछड़ेसे युक्त गौकी 

_____________

 1. या गतिशील समुद्रकी तरह है ।

 

३९०


तरह है । (विभु:) वह व्यापक रूपमें फैला हुआ है और (दूरेभा:) उसकी ज्योति दूरातिदूरसे दृष्टिगोचर होती है ।

 

 सक्त ६६

 

 

रयिर्न चित्रा सूरो न संदृगायुर्न प्राणो नित्यो न सूनुः ।

तक्वा न भूर्णिर्वना सिषक्ति पयो न धेनु: शुचिर्विभाबा ।।

 

(चित्रा रयि: न) वह समृद्ध रूपसे-विविध ऐश्वर्यकी तरह है और (सुर: संदृक् न) सूर्यकी सर्वदर्शी दृष्टिकी तरह है । (आयु: न) वह मानों जीवन है और (प्राण:) हमारी. सत्ताका श्वास-प्रश्वास है । (नित्य: सूनुः न) वह मानों हमारा शाश्वत पुत्र है । (भूर्णि: तक्वा न) वह हमें वहन किए सरपट दौड़नेवाले घोड़ेकी तरह हैं । (वना सिसक्ति) वह वनोंके साथ चिपटा हुआ है । (पय: धेनु: न) वह दुधार गौकी तरह है । (शुचि:) वह शुभ्र-उज्जवल है और (विभावा) उसकी दीप्ति विशाल है ।

 

 

दाधार क्षेममोको न राण्वो यवो न पक्वो जेता जनानाम् ।

ऋधिर्न स्तुभ्या विक्षु प्रशस्तो वाजी न प्रीतो वयो दधाति ।।

 

(रण्व: ओक: न) वह एक सुखद घरकी तरह है, (क्षेमं दाधार) हमारे समस्त कल्याणको धारण किए हुए है । (पक्व: यव: न) वह पके हुए शस्य [जौ]  की तरह है । (जनानां जेता) यह मनुष्योंका विजेता है । (स्तुभ्वा ऋषि: न) वह स्तुति-गायक ऋषिकी तरह है । (विक्षु प्रशस्त:) प्रजाओंमें उसकी प्रशस्ति  {कीर्ति ] है । (प्रीत: वाजी न) वह मानों हमारा हर्षोल्लसित तीव्रगामी अश्व है । (वय: दधाति) वह हमारे विकासको धारण करता है ।

 

 

दुरोकशोचि: क्रतुर्न नित्यो जायेव योनावरं विश्वस्मै ।

चित्रो यदभ्राट् छवेतो न विक्षु रथो न रुक्यी त्येषः समत्यु ।।

 

(दुरोक-शोचि:) एक ऐसे घरमें जिसमें वास करना कठिन है, वह ज्योतिःस्वरूप है ।1 (नित्य: क्रतु: न) वह हमारे अन्दर सदा-सक्यि संकल्प

____________

।. अथवा वह एक ऐसी ज्योति है जिसे प्रदीप्त करना कठिन है ।

३९१


की तरह है । (योनौ जाया इव) बह हमारे घरमें पत्नीके समान है और (विश्वस्मै अरम्) प्रत्येक मनुष्यकी तृप्तिके लिए वह पर्याप्त है । (यत्) जब वह (चित्रं:) अद्भुत ढंगसे नानारूप होकर (अभ्राट्) प्रखर रूपमें प्रदीप्त होता हैं तो वह (विक्षु श्वेत: न) प्रजाओंमें एक शुद्ध-शुभ्र सत्ताकी तरह होता है । (रुक्मी रथ: न) वह सुवर्णमय रथके समान है । (समत्सु) हमारे संग्रामोंमें वह (त्वेषः) एक तेज:पुंज है ।

 

सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत् त्वेषप्रतीका ।

यमो ह जातो यमो जनित्वं जार: कनीना पतिर्जनीनाम् ।।

 

वह (सृष्टा सेना इव) लक्ष्यपर धावा बोलती हुई सेनाके समान है और (अमं दधाति) हमारे अन्दर बल स्थापित करता है । वह (अस्तु:) धनुर्धारीके (त्वेष-प्रतीका) तेज जलती हुई नोकवाले (दिद्युत् न) ज्वालामय बाण-की तरह है । (यम: ह जात:) युगल-रूपमें वह अग्नि वह सब कुछ है जो उत्पन्न हो चुका है (यम: जनित्वम्) युगल-रूपमें वह अग्नि वह सब कुछ भी है जिसे उत्पन्न होना है । वह (कनीनां जार:) कन्याओंका [अप्रकट शक्तियोंका ] प्रेमी है और (जनीनां) माताओंका [ मातृभूत शक्तियोंका ] (पति:) रक्षक है ।

 

 

तं वश्चराथा वयं वसत्यास्तं न गावो नक्षन्त इद्धम् ।

सिन्धुर्न क्षोद: प्र नीचीरैनोन्नवन्त गाव: स्वर्दृशीके ।।

 

(वयं) हम (व: चराथा वसत्या) तुम्हारी गति और स्थितिके द्वारा (तम् इद्धं नक्षन्ते) उसके पास उस समय आते हैं जब उसका प्रकाश प्रदीप्त होता है, (गाव: अस्तं न) जिस तरह गौएं अपने घर बाड़ेमें आती हैं । (सिन्धु: क्षोद: न) बह अपने धारापथमें बह रही नदीकी तरह है ओर (नीची: प्र ऐनोत्) अवतरित होती हुई जलधाराओंको आगेकी ओर प्रवाहित करता है ( (गाव:) रश्मिरूप गौएं (स्व: दृशीके) सूर्यके लोककी अभि-व्यक्तिमें1 (नवन्त) उसकी ओर गति करती हैं ।

____________ 

 1. अथवा, जब सूर्य प्रकट होता है तब ।

३९२



 

 सक्त ६७

 

 

वनेषु जायुर्मर्तेषु मित्रो वृणीते श्रुष्टिं राजेवाजुर्यम् ।

क्षेमो न साधु: क्रतुर्न भद्रो भुवत् स्वाधी र्होता हव्यवाट् ।।

 

(वनेषु जायुः) वह वनोंमें विजेता है । (मर्तेषु मित्र:) मर्त्य मनुष्यों-में वह गिन्त्र है । (श्रुष्टिं वृणीते) वह सब ऐश्वर्योंका इस प्रकार वरण करता है (राजा अजुर्यम् इव्) जैसे कोई राजा एक अजर सदा-युवा मंत्रीका । (साधु: क्षेम: न) वह मानों हमारा पूर्ण कुशल-मंगल है1 । (भद्र: क्रतु: न) वह ऐसा सुखकारक, कल्याणकारक संकल्प है जो (सु-आधी:) अपने चिन्तनमें यथार्थ है । वह हमारे लिए (होता) आवाहनका पुरोहित तथा (हव्यवाट्) हमारी भेंटोंका वहन करनेवाला (भुवत्) बन गया है ।

 

हस्ते दधानो नृम्णा विश्वान्यमे देवान् धाद् गुहा निषीदन् ।

विदन्तीमत्र नरो धियंधा हृदा यत् तष्टान् मन्त्रों अशंसन् ।।

 

 

वह (विश्वानि नृम्णा) सब बलोंको (हस्ते दधान:) अपने हाथोंमें धारण किए है । (गुहा नि-सीदन्) गुप्त गुफ़ामें बैठा हुआ वह (देवान्) देवोंको (अमे धात्) अपनी शक्तिके द्वारा थामे हुए है2। (अत्र) यहाँ (धियंधा: नर:) अपने अन्दर दिव्य विचार धारण करनेवाले मनुष्य (ईं विदन्ति) उस अग्निको जान लेते हैं (यत्) जब वे (हृदा तष्टान्) हृदय द्वारा रचित [ ह्रदयसे उद्भूत ]  (मंन्त्राण अशंसन्) मन्त्रोंका उच्चारण कर लेते हैं ।

 

अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभि सत्यै: ।

प्रिया पदानि पश्वो नि पाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गा: ।।

 

(अज: न) अजन्माकी तरह उसने (पृथिवी क्षां दाधार) विस्तृत पृथिवी-को धारण कर रखा है । (सत्यै: मंन्त्रोंभि:) अपने सत्यमय मंत्रोंके द्वारा उसने (द्यां तस्तम्भ) द्युलोकको थाम रखा है । (पश्व:) दर्शनकी गौके (प्रिया पदानि) प्रिय पद-चिह्नोंकी (नि पाहि) रक्षा कर । (अग्ने) हे

____________

1. अथवा हमें पूर्ण बनानेवाली भलाई है ।

2. अथवा स्थापित करता है ।

३९३


अग्निदेव ! (विश्व-आयु:) तू विश्वमय जीवन है, (गुहा गुहं) गुहाओंकी गुहामें, गुह्यतम स्थानमें1 (गा:) प्रवेश कर ।

 

 

य ई चिकेत गुहा भवन्तमा य: ससाद धारामृतस्य ।

वि ये चृतन्त्यृता सपन्त आदिद् वसूनि प्र ववाचास्मै ।।

 

(य:) जिसने (गुहा भवन्तम् ईम्) गहन गुहामें विद्यमान इसको (चिकेत) देख लिया है, (य:) जिसने (ऋतस्य धारां) सत्यकी धाराको (आ ससाद) प्राप्त कर लिया है, (ये) जो (ऋता सपन्त:) सत्यकी वस्तुओं-का स्पर्श करते हैं और उसे (वि चृतन्ति) प्रदीप्त कर लेते हैं, (आत् इत्) तब ऐसा हो चुकने पर वह (अस्मै) ऐसे मनुष्यके लिए (वसूनि प्र ववाच) ऐश्वर्योंके विषयमें वचन देता है ।

 

वि यो वीरुत्सु रोधन्महित्वोते प्रजा उत प्रसूष्वन्त: ।

चित्तिरपां दमे विश्वायुः सद्मव धीरा: समाय चक्रुः ।।

 

(य:) जो (वीरुत्सु) पृथिवीके उद्धिजों, वृक्ष-वनस्पतियोंमें (महित्वा) अपनी महिमाओंको (वि रोधत्) ऊर्ध्व-धारित करता है (उत) और (प्रजा:) उत्पन्न हुई प्रजाओंको (उत) और (प्रस्षु अन्त:) जो प्रजाएं अभी माताओंमें हैं उन्हें-इन दोनोंको [ वि रोधत् ] धारण करता है, वह (अपां दमे) चैतन्य-धाराओंके घरमें (चित्ति:) ज्ञानस्वरूप है और (विश्व-आयु:) विश्वव्यापी जीवन है । (धीराः) विचारक लोगोंने उसे (सद्म इव) एक प्रासादकी तरह (संमाय चक्रु:) मापा और निर्मित किया है ।

 

सक्त ६८

 

 

 

श्रीणन्नुप स्थाद् दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून् व्यूर्णोत् ।

परि यदेषामेको विश्वेषां भुवद् देवो देवानां महित्वा ।।

 

(भुरण्युः) वहन करनेवाला वह अग्नि (श्रीणन्) प्रज्वलित होता हुआ (दिवम् उपस्थात्) द्युलोकको पहुंचता है । (अक्तून्) रात्रियोंको [उनके

 ________________

1. या, गुप्त गुहाके गुह्य स्थानमें ।

३९४


रहस्यको ] (वि ऊर्णोत्) खोल देता है (स्थातु: चरथम्) स्थावर और जंगम को [वि ऊर्णोत् ] प्रकट कर देता है । (यत्) क्योंकि यही वह (एक: देव) एक देव है जो (एषां विश्वेषां देवानाम्) इन सब देवोंकी (महित्वा) महि-माओंको (परि भुवत्) अपनी सत्ताके द्वारा चारों ओरसे व्यापे हुए है ।

 

 

आदित् ते विश्वे ॠतुं जुषन्त शुष्काद् यद् देव जीवो जनिष्ठा: ।

भजन्त विश्वे देवत्व नाम ऋतं सपन्तो अमृतमेवै: ।।

 

(देव) हे देव ! (यत्) जब तू (शुष्कात्) शुष्क जड़ प्रकृतिसे (जीव:) जीवन-सत्ताके रूपमें (जनिष्ठा:) उत्पन्न होता है (आत् इत्) तभी (विश्वे) सब लोग (ते क्रतुम्) तेरे कर्मोंके संकल्पके साथ (जुषन्त) दृढ़तासे संलग्न होते हैं ।1 (विश्वे) सब लोग (नाम देवत्वं) परम नाम और देवत्वका (भजन्त) प्रसन्नतापूर्वक भजन करते हैं । (एवै:) तेरी गतियोंसे वे (ऋतम् अमूतम्) सत्य और अमरताका (सपन्त) स्पर्श करते हैं ।

 

 

ऋतस्य प्रेषा ऋतस्य धीतिर्विएश्वायुर्विश्वे अपासि चक्रुः ।

यस्तुभ्यं दाशाद् यो वा ते शिक्षात् तस्मै चिकित्वान् रयिं दयस्व ।।

 

(ऋतस्य प्रेषा:) वह सत्यकी सकल प्रेरणा है, (ऋतस्य धीति:) सत्यका चिन्तन है, (विश्वायु:) वैश्व जीवनशक्ति है जिसके द्वारा (विश्वे) सब (अपांसि चक्रुः) कर्म करते हैं । (य:) जो व्यक्ति (तुभ्यम्) तुझे (दाशात्) अपने आपको दे देता है (वा) अथवा (य:) जो (ते शिक्षात्) तुझसे कुछ प्राप्त करता है2, (चिकित्वान्) ज्ञानवान् होता हुआ तू (तस्मै) उसे (रयिं दयस्व) दिव्य ऐश्वर्य प्रदान कर ।

 

 

होता निषत्तो मनोरपत्ये स चिन्न्वासां पती रयीणाम् ।

इच्छन्त रेतो मिथस्तनूषु सं जानत स्वैर्दक्षैरमूरा: ।।

 

(होता) वह यज्ञका पुरोहित है जो (मनो: अपत्ये) मनुके पुत्रमें (नि-सत्त:) विराजमान है । (स:) वह (चित् नु) निश्चय ही (आसां रयीणां पति:) इन ऐश्वर्योंका अधिपति है । वे (तनूषु) अपने शरीरोंमें (मिथ:)

________

1. या, तेरे कर्मोंके संकल्पमें आनन्द लेते हैं ।

2. या, तुझसे कुछ सीखता है ।

३९५


परस्पर (रेत: इच्छन्त) बीजकी, बीजके बढ़नेकी कामना करते हैं । (अमूरा:) बुद्धिमान् लोग उसे (स्वै: दक्षै :) अपने विवेकपूर्ण विचारोंके द्वारा (सं जानत) पूरी तरह जान लेते हैं ।

 

पितुर्न पुत्रा: क्रतुं जुषन्त श्रोषन् थे अस्य शासं तुरास: ।

वि राय और्णोद् दुर: पुरुक्षुः पिपेश नाकं स्तृभिर्दमूना: ।।

 

(ये) जो (अस्य शासं) इसकी शिक्षाको (श्रोषन्) ध्यानपूर्वक सुनते है, ( [ ये ] तुरास:) जो अपनी यात्रामें तीव्र वेगसे बढ़नेवाले हैं वे (क्रतुं जुषन्त) उसके संकल्पकी प्रसन्नतापूर्वक सेवा वा पूर्ति करते हैं, (पितु: पुत्रा: न) जैसे कि पुत्र पिताके संकल्पकी । (पुरुक्षु:) वह अनेकानेक ऐश्वर्योका धाम है और (राय: दुर:) निधिके द्वारोंको (वि और्णोत्) पूरी तरह खोल देता है । (दमूना:) वह एक ऐसा अन्तर्वासी है जिसने (नाकं) द्युलोकको (स्तृभि:) उसके नक्षत्नों सहित (पिपेश) निर्मित किया है ।

 

 सक्त ६९

 

 

शुक्र: शुशुक्याँ उषो न जार: पप्रा समीची दिवो न ज्योति: ।

परि प्रजात: क्रत्वा बभूथ भुवो देवानां पिता पुत्र: सन् ।।

 

(उषः जार: न) उषाके प्रेमीकी तरह (शुक्र: शुशुक्वान्) अति भास्वर रूपमें देदीप्यमान होता हुआ तू (दिव: ज्योति: न) द्युलोककी ज्योतिकी तरह (समीची पप्रा) दो समलोकोंको1 परिपूरित करता हुआ (क्रत्वा प्रजात:) हमारे संकल्पसे उत्पन्न हुआ है और (परि बभूथ) हमारे चारों ओर सब सत्ताओंका रूप धारण करता है । तू जो कि (पुत्र: सन्) पुत्र है, (देवानां पिता भुवः) देवोंका पिता बन गया है ।

 

 

वेधा अदृप्तो अग्निर्विजानन्नूधर्न गोनां स्वाद्म पितूनाम् ।

जने न शेव आहूर्य: सन् मध्ये निषत्तो रण्वो दुरोणे ।।

 

(विजानन् अग्नि:) ज्ञानसे सम्पन्न अग्निदेव (अदृप्त: वेधा) गर्वपूर्ण

_________ 

 1. अथवा, दो संगियोंको ।

३९६


अविवेकसे रहित स्रष्टा है1 । (गोनाम् ऊधः न) वह मानों प्रकाशकी गौओंका स्तन है, (पितूनां स्वाद्म) आनन्द-मदिराके घुंटोंको मधुमय बनाने-वाला है2 । (जने शेव: न) मनुष्यमें वह एक आनन्दपूर्ण सत्ताकी तरह है । (आहूर्य: सन्) वह ऐसा है जिसे हमें अपने अन्दर पुकारना चाहिए । वह (दुरोणे मध्ये) घरके मध्येमें (रण्व: नि-सत्त:) आनन्दमग्न होकर आसीन है ।

 

 

पुत्रो न जातो रण्वो दुरोणे वीजी न प्रीतो विशो वि तारीत् ।

विशो यदह्य्वे नृभि: सनीळा अग्निर्देवत्वा विश्वान्यश्या: ।।

 

(जात:) वह हमारे यहाँ उत्पन्न हुआ है, (दुरोणे रण्व: पुत्र: न) मानों हमारे घरमें कोई आनन्दोल्लसित पुत्र हो । (प्रीत: वाजी न) एक प्रसन्न वेगशाली घोड़ेकी तरह वह (विश: वि तारीत्) प्रजाओंको उनके युद्धमेंसे पार ले जाता है । (यत्) जब मैं (विश ह्वे) उन सत्ताओंको पुकारता हूँ जो (नृभि: सनीळा:) देवोंके साथ3 एक निवासस्थानमें रहती हैं तब (अग्नि:) दिव्यज्वालारूप अग्निदेव (विश्वानि देवत्वा) सब देवत्वोंको (अश्या:) प्राप्त कर लेता है ।

 

 

नकिष्ट एता व्रता मिनन्ति नृम्यो यदेभ्य: श्रुष्टिं चकर्थ ।

तत् तु ते दसों यदहन्त्समानैर्नृभिर्यद् युक्तो विवे रपांसि ।।

 

(यत्) जब तू (एभ्य: नृभ्य:) इन देवों4के लिए (श्रुष्टिं चकर्थ) अन्त:-प्रेरित ज्ञानका सर्जन कर देता है तब (ते एता व्रता) तेरी क्रियाओंकी इन प्रणालियोंका (नकि: मिनन्ति) कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता । (तत् तु) यह तो (ते दंस:) तेरा कार्य ही है (यत् )कि (समानै: नृभि: युक्त:) अपने समकक्ष देवोंसे युक्त होकर तूने (अहन्) प्रहार किया है,4 (यत्) और यह कि (रपांसि विवे:) तूने पापकी शक्तियोंको तितर-बितर कर दिया है ।

_____________

1. अथवा, वस्तुओंका विधाता, व्यवस्थापक है ।

2. अथवा, सब अन्नोंका स्वाद लेनेवाला है ।

3. अथवा, मनुप्योंके साथ

4. अथवा, इन मनुप्यों

5. अथवा, वध किया है,

३९७



 

उधो न जारो विभावोस्र: संज्ञातरूपश्चिकेतदस्मै ।

त्मना वहन्तो दुरो व्यृण्वन् नवन्त विश्वे स्वर्दृशीके ।।

 

वह (उषः जार: न) उषा के प्रेमी की तरह (विभावा उस्र:) अति भास्वर और ज्योतिर्मय है । (अस्मै) इस मानव प्राणीके लिए (संज्ञातरूप:) उसका स्वरूप अच्छी तरह ज्ञात हो जाय और (चिकेतत्) वह उसके ज्ञानके प्रति जागृत हो जाय । उसे (विश्वे) सब (त्मना वहन्त:) अपने अन्दर वहन करें, धारण करें, (दुर: वि ऋण्वन्) द्वारोंको खुला खोल दें और (स्व: दृशीके नवन्त) सूर्यलोकके साक्षात्कारकी ओर गति करते हुए उसे प्राप्त कर लें1

 

सूक्त ७०

 

 

वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्नि: सुशोको विश्वान्यश्या: ।

आ दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म ।।

 

 

(पूर्वी: वनेम) हम अनेक ऐश्वर्योंको जीत लें । (सुशोक:) अपनी ज्योतिसे जाज्वल्यमान, (मनीषा) विचारशील मनके द्वारा (अर्य:) प्रभुत्व-शाली (अग्नि:) अग्निदेव जो (दैव्यानि व्रता) दिव्य क्रियाओंके नियमोंको (आ चिकित्वान्) जानता है और (मानुषस्य जनस्य) मानव प्राणीके (जन्म) जन्मको भीं [ आ चिकित्वान् ] जानता हैं, (विश्वानि अश्या:) सभी अस्तित्व-वान् पदार्थोंको अधिकृत कर लें ।

 

 

 

गर्भो यो अपा गर्भो वनानां गर्भश्च स्थातां गर्भश्चरथाम् ।

अद्रौ चिदस्मा अन्तर्दुरोणे विशां न विश्वो अमृत: स्वाधी: ।।

 

(य: अपा गर्भ:) जो जलोंका गर्भ है, शिशु है, (वनानां गर्भ:) वनोंका शिशु है (च) और (स्थातां गर्भ:) स्थावर वस्तुओंका शिशु है, (चरथाम् गर्भ:) जंगम वस्तुओंका शिशु है, वह (अस्मै) इस मनुष्यके लिए (अद्रौ चित्) पत्थरमें भी विद्यमान है, (दुरोणे अन्त:) उसके घरके मध्यमें भी स्थित है । (विशा विश्व: न) वह प्रजाओंमें विश्वव्यापी सत्ताकी न्याईं है । (अमृत:) वह अमर हैं, (स्वाधी:) पूर्ण विचारक है ।

__________

''या, सूर्यका दर्शन प्राप्त करें ।

३९८



 

 

स हि क्षयावाँ अग्नी रयीणां दाशद् यो अस्मा अरं सूक्तै: ।

एता चिकित्वो भूमा नि पाहि देवानां जन्म मर्तांश्च विद्वान् ।।

 

(स: अग्नि: हि) वह अग्निदेव (क्षपावान्) रात्नियोंका स्वामी है । (य:) जो व्यक्ति (अस्मै) उस [ अग्नि ] के लिए (सूक्तै:) पूर्णता-युक्त वाणियों द्वारा, सूक्तों द्वारा (अरं) यशकी तैयारी करता है उसे वह (रयीणां दाशत्) ऐश्वर्योका दान करता है । (चिकित्व:) हे चिन्मय देव ! (विद्वान्) ज्ञानवान् होता हुआ तू (एता भूमा) इन लोकोंकी, (देवानां जन्म) देवोंके जन्मकी (मर्तान् च) और मर्त्य मनुष्योंकी (नि पाहि) रक्षा कर ।

 

 

वर्धान्यं पूर्वी: क्षपो विरूपा: स्थातुश्चरथमृतप्रवीतम् ।

अराधि होता स्वर्निषत्त: कृण्वन् विश्वान्यपांसि सत्या ।।

 

(ऋतप्रवीतम्) सत्यसे प्रादुर्भूत, (स्थातु: चरथम्) स्थावर और जंगम-स्वरूप (यं) जिस अग्निको (विरूपा:) विभिन्न रूपोंवाली (पूर्वी: क्षप:) अनेक रात्रियोंने (वर्धान्) संवर्धित किया है वह (होता) आवाहनका पुरोहित (अराधि) हमारे लिए संसिद्ध किया गया है । वह (विश्वानि अपांसि) हमारे सब कर्मोंको (सत्या कृण्वन्) सत्यमय बनाता हुआ (स्व:) सूर्यलोक-में1 (नि-सत्त:) विराजमान है ।

 

गोषु प्रशस्तिं वनेषु धिषे भेरन्त विश्वे बलिं स्वर्ण: ।

वि त्वा नर: पुरुत्रा सपर्यन् पितुर्न जिवेर्वि वेदो भरन्त ।।

 

 

तूं (गोषु) रश्मिरूपी गौओंमें और (वनेषु) वनोंमें (प्रशस्तिं) अपनी प्रशस्ति, अपनी स्तुतिको (धिषे) स्थापित करता है; यह ऐसा है मानों (विश्वे) ये सभी (स्व: बलिं न) सूर्यलोकको भेंटके रूपमें (भरन्त) ला रहे हों । (पुरुवा) अनेकानेक प्रदेशोंमें (नर:) मनुष्य (त्वा वि सपर्यन्) तेरी सेवा करते हैं और तुझसे (वेद: वि भरन्त) उसी प्रकार ज्ञान-उपार्जन करते हैं (जिव्रे: पितु: न) जिस प्रकार वयोवृद्ध पितासे ।

_______________ 

1. अथवा, सूर्यमें

३९९


 

 

 साधुर्न गृध्नुरस्तेव शूरो यातेव भीभस्त्वेषः समत्सु ।।

 

(साधु : न) वह एक कुशल कार्यसाधककी तरह है और (गृध्नुः) अधि-कृत करनेको आतुर है । (अस्ता इव शूर:) वह तीर छोड़नेवाले धनुर्धरकी तरह शूरवीर है और (याता इव भीम:) धावा बोलनेवाले आक्रामककी तरह भयंकर है । (समत्सु) हमारे संग्रामोंमें वह (त्वेष:) एक तेज है ।

 

 सक्त ७१

 

उप प्र जिन्वन्नुशतीरुशन्तं पीत न नित्यं जनय: सनीळा: ।

स्वसार: श्यावीमरुषीमजुषूञ् चित्रभुच्छन्तीमुषसं न गाव: ।।

 

(सनीळा: जनय:) एक ही वासस्थानमें रहनेवाली माताएं (उशती:) कामना करती हुई (उशन्तम् उप) उनकी कामना करनेवालेके पास आई और उसे (नित्यं पतिं न) अपने शाश्वत पतिकी तरह (प्रजिन्वन्) सुख दिया । (स्वसार: अजुषून्) बहनोंने उसमें आनन्द लिया, (उषसं गाव: न) जैसे किरणवाली गौएं उस उषामें आनन्द लेती हैं जब कि वह (श्यावीम्) धूमिल, (अरुषीम्) अरुण वर्णवाली और (चित्रम्) चित्न-विचित्न रंगोंमें दमकती हुई (उच्छन्तीम्) प्रकट होती है ।

 

 

वीळु चिद् दृळहा पितरो न उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गि:रसो रवेण ।

चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अह: स्वर्विविदुः केतुमुस्रा ।।

 

(नः पितर:) हमारे पितरोंने (वीलु दृळहा चित्) प्रबल और दृढ़ स्थानों-को भी (उक्थै:) अपने शब्दों द्वारा (रुजन्) तोड़ डाला । (अङ्गिंरस:) अंगिरस् ऋषियोंने (अद्रिं) पहाड़ी चट्टानको (रवेण) अपने महान् रव से (रुजन्) छिन्न-भिन्न कर दिया । इस प्रकार उन्होंनें (अस्मे) हमारे अन्दर (बृहत: दिव:) वृहत् द्युलोकका (गातुम् चक्रुः) मार्ग बनाया । उन्होंने (अह:) दिनको, (स्व:) सूर्यलोकको और (केतुम्) अंतर्ज्ञानकी रश्मिको तथा (उस्रा:) चमकते हुए गो-यूथको (विविदु:) खोज निकाला ।

 

दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिष्यो विभृत्रा: ।

अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यछा देवामञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्ती: ।।

४००


(ऋतं दधन्) उन्होंने सत्यको धारण किया, (अस्य) इस मानव प्राणी-के (धीतिम्) विचारको (धनयन्) समृद्ध किया । (आत् इत्) इसके बाद ही वे (विभृत्ना:) अग्निको व्यापक रूपमें धारण करनेवाले, (अर्य: दिधिष्व:) स्वामित्व और विचार-शक्तिसे सम्पन्न बने । (अपस:) कार्यरत शक्तियाँ (जन्म) दिव्य जन्मको (प्रयसा) आनन्दके द्वारा (वर्धयन्ती:) बढ़ाती हुई, (अतृष्यन्ती:) किसी और चीजकी कामना न करती हुई (देवान् अच्छ) देवोंकी ओर (यन्ति) गति करती हैं ।

 

मथीद् यदीं विभृतो मातरिश्वा गृहेगृहे श्येतो जेन्यो भूत् ।

आदीं राज्ञे न सहीयसे सचा सन्ना दूत्यं भृगवाणो विवाय ।।

 

(यत्) जब (विभृत:) व्यापक रूपसे अन्दर धारण किया गया (मात-रिश्वा) जीवन-प्राण (ईम्) उसको (गृहे-गृहे) घर-घरमें (मथीत्) मथकर प्रकट कर देता है तब वह (श्येत:) शुभ्र और (जेन्य:) विजयी (भूत्) हो जाता है । (आत्) तब ही (ईम्) वह (भृगवाण:) देदीप्यमान द्रष्टा बन जाता है और (सचा सन्) हमारा संगी बनकर (दूत्यम् आ विवाय) दूतकार्यके लिए जाता है (सहीयसे राज्ञे न) जैसे कोई किसी शक्तिशाली राजाका दूत बनकर जाता है ।

 

महे यत् पित्र ई रसं दिवे करव त्सरत् पृशन्यश्चिकित्वान् ।

सृजदस्ता धृषता दिद्युमस्मै स्वायां देवो दुहितरि त्विषिं धात् ।।

 

(यत्) जब (महे पित्रे दिवे) महान् पिता द्यौके लिए (ई रसं) इस सार-रसको उसने (क:) बना लिया तो वह (पृशन्य:) घनिष्ठ सम्पर्क रखता हुआ और (चिकित्वान्) ज्ञान-सम्पन्न होता हुआ, (अव त्सरत्) सरकता हुआ नीचे आ गया । (अस्ता) धनुर्धर ने (धृषता) प्रचण्डताके साथ (अस्मै) इसपर (दिद्यु सृजत्) विद्युत्का बाण छोड़ा, परन्तु (देव:) देवने (स्वायां दुहितरि) अपनी पुत्रीमें (त्विषिं धात्) तेजोमय बलको निहित किया ।

 

स्व आ यस्तुभ्यं दम आ विभाति नमो वा दाशादुशतो अनु द्युन् ।

वर्धो अग्ने वयो अस्य द्विबर्हा यासद् राया सरथ यं जुनासि ।।

 

(य:) जो (स्वे दमे) तेरे अपने घरमें (तुभ्यं) तेरे लिए (आ विभाति)

४०१


प्रकाशको प्रदीप्त करता है (वा) और (अनु द्यून्) प्रतिदिन (नम: आ दाशात्) समर्पण-रूप नमनकी भेंट देता है उसे तू (उशत:) चाहता है । (अग्ने) हे अग्नि ! (द्विबर्हा) अपनी द्विविध बृहत्तामें तू (अस्य वय: वर्ध:) उसके विकासको संवर्धित कर । (यम्) जिसे तू (सरथं जुनासि) अपने साथ एक हीं रथमें वेगसे ले चलता है वह (राया यासत्) ऐश्वर्य-सम्पदाके साथ यात्रा करे ।

 

 

अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्त्रवत: सप्त यह्वी: ।

न जामिभिर्वि चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान् ।।

 

(विश्वा: पृक्ष:) सब तृप्तियां (अग्निम्) अरिनके साथ (अभि सचन्ते) दढ़तासे जुड़ी हुई हैं, (न) जैसे (सप्त यह्वी: स्रवत:) सात शक्तिशाली नदियां (समुद्रं) समुद्रमें [ अभि सचन्ते ] मिल जाती हैं । (नः वय:) हमारी सत्ताका विकास (जामिभि:) तेरे साथियों द्वारा (न विचिकिते) नहीं जाना गया । परन्तु (चिकित्वान्) तू जो कि जान गया है (प्रमतिं) अपना ज्ञान (देवेषु) देवोंको (विदा:) प्रदाप्तन कर1

 

आ यदिषे नृपतिं तेज आनट् छुचि रेतो निषिक्तं द्यौभीके ।

अग्नि: शर्धमनवद्यं युवानं स्वाध्यं जनयत् सूदयच्च ।।

 

(यत्) जब (तेज:) शक्तिकी ज्वाला (नृपतिं) मनुष्योंके इस राजाके पास (इषे आ आनट्) प्रेरक शक्तिके रूपमें आई, (अभीके) जब उनका मिलन होनेपर (द्यौ:) द्युलोक को उसके अंदर (शुचि रेत:) शुद्ध-पवित्र बीजके रूपमें (नि-सिक्तं) डाला गया तब (अग्नि:) अंग्निने (शर्धम्2 जनयत्) एक ऐसे बलवीर्यको जन्म दिया जो (युवानम्) युवा है, (अनवद्यं) निर्दोष है और (स्वाध्यं) चिन्तनमें पूर्ण है, (च) और उसे (सूदयत्) उसके पथ पर वेगसे परिचालित कर दिया ।

 

मनो न योऽध्वन: सद्य एत्येक: सत्रा सूरो वस्व ईशे ।

राजाना मित्रावरुणा सुपाणी गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा ।।

___________

1. या, हमारे लिए देवोंमें ज्ञान प्राप्त कर ।

2. या, एक गण । इसका अभिप्राय हो सकता है मरुत्-देवोंकी सेना, मरुतां शर्ध: ।

४०२


(य: सूर:) जो सूर्य (मन: इव) मनकी तरह (अध्वन:) मार्गोंपर (द्य: एति) सहसा ही चल पड़ता है वह (सत्रा) सदैव (एक:) अकेला ही (वस्व: ईशे) ऐश्वर्यनिधिका स्वामी है । (सुपाणी राजाना) सुन्दर हाथों-वाले राजा (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण वहाँ (गोषु1) रश्मियोंमें (प्रियम् अमृत्तं) आनन्द और अमृतकी (रक्षमाणा) रक्षा करते हुए विद्यमान हैं ।

 

१०

 

मा नो अग्ने सख्या पित्र्याणि प्र मर्षिष्ठा अभि विदुष्कवि: सन् ।

नभो न रूपं जरिमा मिनाति पुरा तस्या अभिशस्तेरधीहि ।।

 

(अग्ने) त्नी हे अग्नि ! तू (य:) जो (विदु:) ज्ञाता और (कवि:) द्रष्टा-के रूपमें (अभि सन्) हमारी ओर अभिमुख है, सो (न: पित्र्याणि सख्या) हमारे उन प्राचीन मैभावोंको (मा प्र मर्षिष्ठा:) भुला मत देना2 । (नभ: रूपं न) जैसे कुहरा रूपको धुंधला कर देता है वैसे (जरिमा मिनाति) बुढ़ापा हमें क्षीण कर देता है । (तस्या: अभिशस्ते: पुरा) हमपर उसका आघात पड़नेसे पूर्व (अधि इहि) तू आ पहुंच3

 

 सक्त ७२

 

नि काव्या बेधस : शश्वतस्कर्हस्ते दधानो नर्या पुरूणि ।

अग्निर्भुवद् रयिपती रयीणा सत्रा चक्राणो अमृतानि विश्वा ।।

 

(पुरूणि नर्या) देवत्वकी अनेक शक्तियों4को ( हस्ते दधान :) अपने हाथमें धारण किये हुए वह ( शश्वत : वेधस :) शाश्वत स्रष्टाकी ( काव्या) द्रष्टा-प्रज्ञाओंको ( नि क :) हमारे अंदर विरचित करता है । ( अग्नि :) अग्निदेव ( रयीणां रयिपति:) ऐश्वर्य-भंडारका स्वामी ( भुवत्) बन जाए, ( त्न) सदा  (विश्वा अमृतानि) सब अमर वस्तुओंका ( चक्राण :) निर्माण करे5

____________ 

1. 'गोषु', रश्मिरूपी गौओंमें, सूर्यके चमकते हुए यृथोंमें ।

2. अथवा, उपेक्षित नहीं करना या मिटा नहीं देना ।

3. या, हमपर उसका आक्रमण होनेसे पहले ध्यान दे ।

4. अथवा, अनेकानेक बलों

5. या, समस्त अमर्त्य वस्तुओंको एक साथ बनाता हुआ ।

४०३


 

अस्में वत्सं परि षन्तं न विन्दन्निच्छन्तो विश्वे अमृता अमूरा: ।

श्रमयुव: पदव्यो धियंधास्तस्थुः पदे परमे चार्वग्ने: ।।

 

(विश्वे अमृता: अमूरा:) सब अमर और ज्ञानियोंने (इच्छन्त:) चाहा परंतु (अस्में) हमारे अंदर (परि सन्त वत्स) उस शिशुको जो सब ओर विद्यमान है (न विन्दन्) नहीं पा सके । (पदव्य: श्रमयुव:) उसके पथ पर श्रम करते हुए, (धियधा:) विचारकों धारण किए हुए वे (परमे पदे) परम धाममें (तस्थुः) स्थित हुए और उन्होंने (अग्ने: चारु) ज्वालामय अग्निदेवके सौन्दर्यको (विन्दन्) प्राप्त किया ।

 

 

तिस्रो यदग्ने शरदस्त्वामिच्छुचिं धृतेन शुचय: सपर्यान् ।

नामानि चिद् दधि रे यज्ञियान्यसूदयन्त तन्व: सुजाता: ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (यत्) जब (शुचय:) उन वित्न जनोंने (शुचिं त्वाम् इत्) तुझ पवित्नका ही (घृतेन) प्रकाशकी निर्मलताके द्वारा (तिस्र: शरद:) तीन वर्ष तक (सपर्यान्) पूजन किया और (यज्ञियानि नामानि चित्) यज्ञिय नामोंको भी (दधिरे) धारण किया, तब (तन्व: सुजाता:) उनके शरीर पूर्ण जन्मको प्राप्त हुए और उन्होंने उन्हें (असूदयन्त) पथपर वेगपूर्वक परिचालित कर दिया ।

 

 

 

आ रोदसी बृहती वेविदाना: प्र रुद्रिया जभ्रिरे यज्ञियास: ।

विदन्मर्तो नेमधिता चिकित्वानग्निं पदे परमे तस्थिवासमू ।।

 

(यज्ञियास:) यज्ञके स्वामियोंने (बृहती रोदसी) बृहत् द्यौ और पृथिवी-को (आ वेविदानाः) खोज निकाला और (रुद्रिया) अपनी प्रचण्ड शक्तिके द्वारा उन्हें (प्र जभ्रिरे) धारण किया, (मर्त: विदन्) तब मर्त्य मनुष्योने उन्हें जाना और (नेमधिता) उच्चतर गोलार्ध'को धारण करके (परमे पदे तस्थिवांसम्) परम पदमें, परमोच्च स्तर पर स्थित (अग्निं) अग्निदेवका (चिकित्वान्) प्रत्यक्ष अनुभव किया ।

___________

1. 'नेमि' अर्थात् आधा, यह शब्द प्रत्यक्ष ही महान् द्युलोक 'बृहत्

   द्यौ' की ओर, उच्चतर गोलार्धकी ओर संकेत करता है, जिसके परे है

   परम पद (परमोच्च स्तर) ।

४०४


 

 

संजानाना उप सीदन्नभिज्ञु पत्नीवन्तो नमस्य नमस्यन् ।

रिरिक्वांसस्तन्व: कृण्वत स्वा: सखा सस्युर्निमिषि रक्षमाणा: ।।

 

(संजानाना) उसे पूर्णतया जानते हुए वे (पत्नीवन्त:) अपनी पत्नियों सहित (उपर्सोदन्) आये और (अभिज्ञु) उसके आगे घुटने टेककर (नमस्य) उस वन्दनीयका (नमस्यन्) नमन द्वारा वन्दन किया । (रिरिक्वांस:) उन्होंने अपने आपको रिक्त किया । (सख्यु: निमिषि सखा) मित्नकी दृष्टि-मे मित्रकी तरह उन्होंने ( [ निमिषि ] रक्षमाणा:) उसकी दृष्टिमें सुरक्षित होकर (स्वाः तन्व: कृण्वत) अपने शरीरोंका निर्माण किया ।

 

 

त्रि: सप्त यद् गुह्यानि त्वे इत् पदाविदन्निहिता यज्ञियास: ।

तेभी रक्षन्ते अमृतं सजोषा: पशूञ्च स्थातृञ्चरर्थ च पाहि ।।

 

(यत्) जब (यज्ञियास:) यज्ञके स्वामी (त्वे इत् निहिता) तेरे ही अन्दर रखी हुई (त्नि: सप्त) तीन गुना सात (गुह्यानि पदा) गुप्त भूमिकाओं को (अविदन्) पा लेते हैं तो (तेभिः) इन्हींके द्वारा वे (सजोषा:) एकमत होकर (अमृतं रक्षन्ते) अमरताकी रक्षा करते हैं । तू (पशून् च) गोयूथोंकी, (स्थातून् चरथं च) स्थावर और जंगमकी, ज-चेतनकी (पाहि) रक्षा कर ।

 

 

विद्वाँ अग्ने वयुनानि क्षितीनां व्यानुषक् छुरुधो जीवसे धा: ।

अन्तर्विद्वाँ अध्वनो देवयानानतन्द्रो दूतो अभवो हविर्वाट् ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (वयुनानि विद्वान्) तू हमारे ज्ञानोंको जानने-वाला है । (क्षितीनां जीवसे) प्रजाओंके जीवन धारण कर सकनेके लिए (शुरुध:) बलोंकी (आनुषक्) अविच्छिन्न परम्पराकी (वि धा:) व्यवस्था कर । (देवयानान् अध्वन:) देवताओकी यात्नके मार्गोंका (अन्त: बिद्वान्) अन्तर्यामी ज्ञाता तू (अतन्द्र: दूत:) अतन्द्रित, नित्य जागरूक दूत (हवि-र्वाट्) भेंटोंका वहन करनेवाला (अभव:) हो गया है ।

 

 

स्याध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।

विदद् गव्यं सरमा दृळहमूर्व येना नु क मानुषी भोजते विट् ।।

४०५


(दिव: आ) द्युलोकसे आनेवाली (सप्त ह्वी:) सात महान् नदियोंने जो (स्वाध्य:) गंभीर विचार करनेवाली और (ऋतज्ञा:) सत्यके जानने-वाली हैं, (राय: दुर:) ऐश्वर्य-निधिके द्वारोंको (वि अजानन्) जान लिया । (सरमा) सरमाने (गव्यं) रश्मिरूपी गौओंके यूथको, (दृळहं) दृ स्थानको और (ऊर्वं) विशालताको (विदन्) खोज लिया (येन) जिसके द्वारा (नु) अब (मानुषी विट्) मानव प्रजा (कं भोजते) आनंदका उपभोग करती है ।

 

 

आ ये विश्वा स्वपत्यानि तस्थुः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम् ।

मह्न महद्धि: पृथिवी वि तस्थे माता पुत्रैरदितिर्धायसे वे: ।।

 

(ये) ये वे हैं जिन्होंने (सु-अपत्यानि विश्वा) उत्तम परिणाम लानेवाली सभी वस्तुओं पर (आ तस्थुः) अपने चरण रखे और (अमृतत्वाय) अमरता- के लिए (गातुं) मार्ग (कृण्वानास:) निर्मित किया । (पृथिवी) पृथिवी (महद्धि:) इन महान् सत्ताओंके द्वारा (मह्ना वि तस्थे) महिमामें विस्तृत होकर स्थित हुई । (अदिति: माता) अनन्त माता अदिति (पुत्नो:) अपने पुत्रोंके साथ (धायसे) इस पृथिवीको धारण करनेके लिए (वें:) आई ।

 

१०

 

 

अधि श्रियं नि दधुश्चारुमस्मिन् दिवो यदक्षी अमृता अकृण्वन् ।

अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टा: प्र नीचीरग्ने अरुषीरजानन् ।।

 

(यत्) जब (अमृता:) अमरोंने, अमर देवोंने (दिव:) द्युलोकके (अक्षी) दो नेत्नोंकी (अकृण्वन्) रचना की, तो उन्होंने (अस्मिन्) इसके अंदर (श्रियं चारुं) श्री और सौन्दर्यको (नि दधुः) स्थापित किया । (अध) तब (न) मानों, (सृष्टा: सिन्धव:) अपने मार्गपर छोड़ दी गई नदियां (क्षरन्ति) प्रवाहित हो उठती हैं । (अरुषी:) उसकी अरुण वर्णवाली घोड़ियां [ शक्तियां ] (नीची: प्र) वेगसे नीचेकी ओर दौड़ीं और (अजानन्) उन्होंनें जान लिया, (अग्ने) हे अग्निदेव ।

 

 सूक्त ७३

 

यिर्न य: पितृवित्तो योधा: सुप्रणीतिश्चिकितुषो न शासु: ।

स्योनशीरतिथिर्न प्रीणानो होतेव सद्म विधतो वि तारीत् ।।

४०६


(य:) जो अग्नि [ वह अग्नि ] (पितृवित्त रयि: न) उस पैतृक संपत्ति-की तरह है जो (वय:-धा) हमारे अंदर बलको धारण कराती है, (चिकि-तुषः) ज्ञानवान् पुरुषके (शासु: न) शासन1की तरह (सु-प्रनीति:) अपने नेतृत्वमें पूर्ण है, (अतिथि: न) एक ऐसे अतिथिकी तरह है जो (स्योनशी:) सुखसे लेटा हुआ और (प्रीणान:) अच्छी तरह तृप्त है । (होता इव) वह आवाहन करनेवाले पुरोहितकी तरह है और (विधत:) अपने उपासकके (सद्म) घरको (वि तारीत्) संपन्न और समृद्ध करता है ।

 

 

देवो न य: सविता सत्यमन्मा क्रत्वा निपाति वृजनानि विश्वा ।

पुरुप्रशस्तो अमतिर्न सत्य आत्मेव शेवो दिधिषाय्यो भूत् ।।

 

(य:) जो अग्नि [ वह अग्नि ] (देव सविता न) दिव्य सूर्यकी तरह है जो (सत्यमन्मा) अपने विचारोंमें सत्यमय है और (क्रत्वा) अपने संकल्पके द्वारा (विश्वा वृजनानि) हमारे समस्त दृ स्थानोंकी (नि पाति) रक्षा करता है । (अमति:) वह एक ऐसे तेजके समान है जो (पुरुप्रशस्त:) विविध रूपसे अभिव्यक्त है । (सत्य:) वह सत्यस्वरूप है, (शेव: आत्मा इव) आनन्दपूर्ण आत्माकी तरह है और (दिधिषाय्य: भूत्) हमारा अव-लम्ब है2

 

देवो न य: पृथिवीं विश्वधाय उपक्षेति हितमित्रो न राजा ।

पुरःसद: शर्मसदो न वीरा अनद्या पतिजुष्टेव नारी ।।

 

(य:) जो अग्नि [ वह- अग्नि ] (विश्वधायाः देव: न) विश्वको धारण करनेवाले भगवान्की तरह है और (हितमित्रा राजा न) हितकारी मित्र राजाकी भांति (पृथिवीम् उपक्षेति) पृथ्वीपर अधिष्ठाताके रूपमें निवास करता है । वह ( पुर:-सद:) हमारे सामने बैठे हुए, (शर्मसद:) हमारे घरमें रहनेवाले (वीरा: न) वgईरगणकी तरह है । (अनद्या नारी इव) वह मानों एक निर्दोष नारीकी तरह है जो (पतिजुष्टा) अपने पतिकी प्रिय है ।

__________ 

1. अथवा शिक्षण

2. अथवा वह ध्यान करने योग्य (विचारमें धारण करने योग्य) है, आत्माकी

  तरह आनंदमय है ।

४०७


 

त्वा नरो दम आ नित्यमिद्धमग्ने सचन्त क्षितिषु ध्रुवासु ।

अधि द्युन्मं नि दधुर्भूर्यस्मिन् भवा विश्वायुर्धरुणो रयीणाम् ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (ध्रुवासु क्षितिषु) अपने निवासके शाश्वत लोकोंमें, (दमे) हमारे घरमें (नित्यम् इद्धम्) नित्य प्रदीप्त (त त्वा) ऐसे तुझ देवके साथ (नर: आ सचन्त) मनुष्य दृढ़तासे संयुक्त रहते हैं । (अस्मिन् अधि) ऐसे तुझको आधार बनाकर उन्होंनें (भूरि-द्युम्नम्) एक महान् ज्योतिको (नि दधुः) अपने अंदर स्थापित किया है । तू (रयीणां धरुण:) ऐश्वर्योंका धारण करनेवाला (विश्व-आयु: भव) विश्वमय जीवन बन ।

 

 

वि पृक्षो अग्ने मधवानो अश्युर्वि सूरयो ददतो विश्वमायुः ।

सनेम वाज समिथेष्वर्यो भाग देवेषु श्रसे दधाना: ।।

 

(अग्ने) हे आनिदेव ! (मघवानः) ऐश्वर्यके स्वामी (पृक्षः) तेरी तृप्तियोका (वि अश्युः) उपभोग करें । (विश्वम् आयु: ददत:) अपने संपूर्ण जीवनका दान करनेवाले (सूरय:) प्रकाशपूर्ण ज्ञानिगण (पृक्षः वि अश्युः) तेरी तृप्तियोंका उपभोग करें । (श्रवसे) अंतःप्रेरित ज्ञानके लिये (देवेषु) देवोंमें (भाग दधाना:) अपने आहुति-भागको लिये हुए हम (समि-थेषु) अपने युद्धोंमें (अर्य:) शत्नुसे (वाज सनेम) प्रचुर ऐश्वर्य जीत लें ।1

 

ऋतस्य हि धेनवो वावशाना: स्मदुध्नी: पीपयन्त द्युभक्ता: ।

परावतः सुमतिं भिक्षमाणा वि सिन्धव: समया सस्त्रुरद्रिम् ।।

 

(द्युभक्ता) द्युलोकमें उपभोगकी हुई2, (स्मत्-ऊध्नी:) भरे हुए स्तनों-वाली (वावशाना:) हमें चाहनेवाली (ऋतस्य धेनव: हि) सत्यकी दुधार गौओंने (पीपयन्त) हमें अपने दूधसे पुष्ट व तृप्त किया है । (परावत:) रेके लोकसे (सुमतिं भिक्षमाणा:) यथार्थे चिंतनकी भिक्षा मांगती हुई (सिन्धव:) नदियां (अद्रिम् समया) पर्वतके पर (वि सस्रु:) विस्तृत रूपसे प्रवाहित हो उठीं ।

___________ 

 1. अथवा संग्रामोंमें यद्ध करनेवाले हम प्रचुर ऐश्वर्य जीत लें ।

 2. अथवा द्युलोकको हिस्सेमें प्राप्त,

४०८


 

 

त्वे अग्ने सुमतिं भिक्षमाणा दिवि श्रवो दधिरे यज्ञियास:

नक्ता च चक्रुरुषसा विरूपे कृष्ण च वर्णमरुण च सं धुः ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (सुमतिं भिक्षमाणाः) यथार्थ चिंतनकी याचना करते हुए (यज्ञियास:) यज्ञके स्वामियोंने (त्वे) तेरे अन्दर (दिवि) द्युलोक-मे (श्रव: दधिरे) अंत:प्रेरित ज्ञान स्थापित किया । उन्होंने (नक्ता उषसा च) रात्रि और उषाको (विरूपे चक्रुः) भिन्न रूपोवाली बनाया और (कृष्ण च अरुण च वर्णम्) काले और गुलाबी रंगको [ अज्ञानरात्रिके और ज्ञानकी उषाके रंगको ] (सं धुः) संयुक्त कर दिया ।

 

 

यान् राये मर्तान्तुषूदो अग्ने ते स्याम मघवानो च ।

छायेव विश्व भुवनं सिसक्ष्यापप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (यान् मर्तान्) जिन मर्त्य मनुष्योंको तू (राये) ऐश्वर्यकी ओर (सुसूद:) वेगपूर्वक अग्रसर करता है, (ते स्याम) हम भी उन्हींमेंसे होवें; (मघवान: वय च) ऐश्वर्यपति और हम (ते स्याम) वैसे ही होवें । (रोदसी) द्यावापृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षको (आपप्रिवान्) परिपूरित करता हुआ तू (विश्व भुवनम्) संपूर्ण संसारके साथ (छाया इव) छायाके समान (सिसक्षि) अंग-संग रहता है ।

 

 

अर्वद्धिरग्ने अर्वतो नृभिर्नुनवीरैर्वीरान् वनुयामा त्वोता: ।

ईशानास: पितृवित्तस्य रायो वि सूरय: शतहिमा नो अश्युः ।।

 

(अग्ने) हे अग्न ! (त्वा-ऊता:) तुझ द्वारा सुरक्षित1 हम (अर्वद्धि:) अपने युद्धके घोड़ोके द्वारा (अर्वत:) युद्धके घोड़ोंको, (नृभिः) अपने बलशाली मनुष्योंके द्वारा (नून्) बलशाली मनुष्योंको, (वीरै:) अपने वीरों द्वारा (वीरान्) वीरोंको (वनुयाम) जीत लें । (न: सूरयः) हमारे प्रकाश-दीप्त ज्ञानी जन (पितृवित्तस्य) पितरों द्वारा अधिगत (राय:) ऐश्चर्य-निधि-के (ईशानास:) स्वामी बनें और (शतहिमा:) सौ हेमन्तों [ वर्षोँ ] तक जीते हुए उसे (वि अश्युः) अधिकृत कर लें ।

___________ 

 1. अथवा, धारण किये हुए

४०९



 

 १०

एता ते अग्न उचथानि वेधो जुष्टानि सन्तु मनसे हृदे च ।

शकेम राय: सुधुरो यमं तेऽधि श्रवो देंहभक्तं दधाना: ।।

 

(वेधः अग्ने) हे पदार्थमात्रके [ जगत्के ] विधाता, हे अग्निदेव ! (एता उचथानि) ये वचन (ते) तुझे; (ते मनसे हृदे च) तेरे मन और हृदयको (जुष्टानि सन्तु) प्रीतिपूर्वक स्वीकार्य हों । (देवभक्तम्) देवों द्वारा आस्वा-दित1 (श्रव:) अंत:प्रेरित ज्ञानको (ते अधि) तेरे आधार पर (दधाना:) अपने अन्दर धारण करते हुए हम (ते राय:) तेरे ऐश्वर्योंको (सुधुर:) दृढ़ जूएके द्वारा नियंत्रण-शक्तिके द्वारा (यमं शकेम) अधिकृत करनेमें समर्थ हों ।

 

 सूक्त १२७

 

 

अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं

विप्र न जातवेदसम् ।

य ऊर्ध्वया स्वध्यरो देवो देवाज्या कृपा ।

घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्नानस्य सर्पिषः ।।

 

(अग्नि मन्ये) मैं अग्निदेवका ध्यान करता हूं जो (होतारम्) आवाहन-का पुरोहित है, (वसु दास्वन्तम्) ऐश्वर्य-निधिका दाता है, (सहस: सूनुम्) शक्तिका पुत्र है, (जातवेदसम्) सब उत्पन्न वस्तुओंको जाननेवाला हैं, (जात-वेदसं विप्र न) सब उत्पन्न पदार्थोंके ज्ञाता ज्योतिर्मय देवकी न्याईं है ।

 

(य:) जो अग्नि (सु-अध्यर: देव:) यात्रा-यज्ञके संपादनमें पूर्णतया कुशल एक ऐसा देव है जो (ऊर्ध्वया देवाच्या कृपा) उन्नीत और देवाभिमुख स्पृहाके साथ2, (शोचिषा) अपनी ज्वालाके द्वारा (घृतस्य विभ्राष्टिम्) प्रकाशरूप हविकी प्रचंड शिखाके लिए (अनु वष्टि) आतुर है । और (आजूह्वानस्य) आहुतिके रूपमें अपने ऊपर उंडेली गई (सर्पिषः) प्रकाशकी धाराके लिए [ अनु वष्टि ] उत्कण्ठित है ।

___________ 

1. अथवा, देवों द्वारा वितरित

2. अथवा, देवोंकी कामना करती हुई उज्जवलित प्रभाके साथ

४१०



 

 २

यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठभङ्गिइरसां

विप्र मन्ममिर्विप्रेभि: शुक्र मन्मभि: ।

परिज्यानमिव दध्या होतारं चर्षणीनाम् ।

शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विश: प्रावन्तु जूतये विश: ।।

 

(यजिष्ठम्) यज्ञ करनेके लिए अत्यंत शक्तिशाली और (अंङिरसां ज्येष्ठम्) अंगिरसोंमें सबसे बड़े (त्वा) तुझको (यजमाना:) यज्ञ-क्रियाका अर्पण करनेवाले यजमान (हुवेम) पुकारें, तेरा आवाहन करें । (विप्र) हे प्रकाशमय देव ! (शुक्र) हे देदीप्यमान अग्नि ! (मन्मभि:) अपने विचारों-के द्वारा, (विप्रेभि: मन्मभि:) अपने प्रकाशित विचारोंके द्वारा हम (त्वा हुवेम) तुझ अग्निदेवका आवाहन करें, जो तू (चर्षणीनां होतारम्) मनुष्योंके लिए आवाहक पुरोहित है1 और (द्याम् इव) द्युलोककी तरह (परिज्मा-नम्) सबको चारों ओरसे व्यापे हुए है, (शोचि:-केशम्) प्रकाश-ज्वालारूपी बालोंवाला (वृषणम्) पुरुष है (यम्) जिसकी (इमा: विश:) ये प्रजाएं (प्र अवन्तु) प्रीतिपूर्वक सेवा करें, (विश:) प्रजाएं (जूतये) प्रेरणा प्राप्त करनेके लिए [ प्र अवन्तु ] प्रीतिपूर्वक उसकी सेवा करें ।

 

 

स हि पुरू चिदोजसा विरुक्माता

दीवानो भवति द्रुहंतर: परशुर्न द्रुहंतर: ।

वीळु चिद् यस्य समृतौ श्रुवद् वनेव यत् स्थिरम् ।

निष्यहमाणो यमते नायसे धन्वासहा नायते ।।

 

(स: हि) वह अग्नि (विरुक्मता ओजसा) व्यापक रूपसे देदीप्यमान अपनी शक्तिके द्वारा (पुरु चित्) अनेकों वस्तुओंको (दीद्यान:) आलोकित करता हुआ (द्रुहंतर:) हमें हानि पहुंचानेकी इच्छा करनेवालोंका विदारक (भवति) बन जाता है, (परशु: न) युद्धके परशुकी तरह वह (द्रुहंतर: भवति) हमें हानि पहुंचानेकी इच्छा करनेवालोंका विदारण करता है । (यस्य समृतौ) जिसकी चोट पड़नेपर (वीळु चिद्) दृढ़ वस्तु भी (श्रुवत्) टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती है, (यत् स्थिरम्) यहाँ तक कि जो कुछ भी दृढ़ तथा स्थिर है वह सब (वना इव) वृक्षोंकी तरह (श्रुवत्) भूमिसात्

___________ 

 ।. अथवा, दृष्टिसंपन्न लोगोंके लिए आवाहनका पुरोहित है

४११


हो जाता है, (नि:-सहमान) सबको अपने सामर्थ्यसे अभिभूत करता हुआ वह (यमते) निरन्तर श्रम किये चलता है और (न अयते) पीछे नहीं हटता । (धन्व-सहा) धनुर्धारी योद्धाकी तरह वह (न अयते) युद्धसे कभी पीछे नहीं हटता ।

 

 

दृळहा चिदस्मा अनु दुर्यथा विदे

तेजिष्ठाभिररणिभिर्दाष्टचवसेऽग्नये दाष्टचवसे ।

प्र य: पुरूणि गाहते तक्षद् वनेव शोचिषा ।

स्थिरा चिदन्ना नि रिणात्योजसा नि स्थिराणि चिदोजसा ।।

 

वे यजमान (दृळहा चित्) दृढ़तया निर्मित वस्तुओंको भी (अस्मै) उस अग्निको (अनु दु:) इस प्रकार दे देते हैं (यथा) जिस प्रकार (विदे) किसी ज्ञानीको । (तेजिष्ठाभि: अरणिभि:) उसकी ज्वालामय शक्तिकी गतियोंके द्वारा (अवसे) संरक्षण पानेके लिए यजमान उसे (दाष्टि) अपने आपको दें देता है, अपने आपको (अग्नये) अग्निके प्रति (दाष्टि) समर्पित करता हैं ताकि वह (अवसे) उसकी रक्षा करे । (य:) जो [वह अग्नि]  (पुरूणि) अनेकों वस्तुओमें (प्र गाहते) प्रवेश करता है और उन्हें (शोचिषा) अपने जाज्वल्यमान प्रकाशके द्वारा (वना इव) वृक्षोंकी तरह (तक्षत्) घड़ता है, (स्थिरा चित्) दृढ़-मूल वस्तुओंको भी वह (ओजसा) अपने ओजसे (नि रिणाति) विदारित करता हैं और (स्थिराणि चिद्) बद्धमूल वस्तुओंको भी (ओजसा) अपने बलवीर्यसे (अन्ना) अपना अन्न [ नि रिणाति ] बना लेता है ।

 

 

तमस्य पृक्षमुपरासु धीमहि

नक्तं य: सुदर्शतरो दिवातरादप्रायुषे दिवातरात् ।

आदस्यायुर्ग्रभणवद् वीळुशर्म न सूनवे

भक्तमभक्तमवो व्यन्तो अजरा अग्नयो व्यन्तो अजराः ।।

 

(उपरासु) ऊर्ध्वतर स्तरों पर (अस्य) इसके (तं पृक्षम्) उस पूर्ण स्वरूपका (धीमहि) हम ध्यान करते हैं1, उस अग्निदेवका ध्यान करते है

___________

1. अथवा, हम धारण करते हैं,

४१२


(य:) जो (दिवातरात्) दिनकी अपेक्षा (नक्तम्) रात्रिमें (सुदर्शतर:) अधिक दर्शनीय, भास्वर होता है, (अप्र-आयुषे) इसके उस अविनाशी जीवन-के लिए इसका ध्यान करते हैं जो (दिवातरात्) दिनकी अपेक्षा रात्रिमें (सुदर्शतर:) अधिक उज्जवल होता हे । (आत्) तब (अस्य) इसका (आयु:) जीवन (ग्रभणवत्) हमें इस प्रकार अधिकृत कर लेता और सहारा देता है (न) जिस प्रकार (वीळु सूनवे शर्म) एक दृढ़ आश्रय-धाम पुत्रको शरण देता है । (अजरा: अग्नय:) जरारहित अग्नियां (भक्तम् अभक्तम्) सेवन किये गये और अभीतक सेवन न किये गये (अव:) सुखकी ओर (व्यन्तः) गति करती हैं, (अजरा: अग्नय:) उसकी अजर अग्नियां (व्यन्त:) उस ओर गति करती हैं ।

 

६ 

 

स हि शर्धो न मारुतं

तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनि: ।

आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा ।

अध स्मास्थ हर्षतो हृर्षवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नर: शुभे न पन्थाम् ।।

 

(अप्नस्वतीषु) हमारे श्रमसे पूर्ण (उर्वरासु) उपजाऊ भूमियोंके ऊपर (इष्टनि:) वेगसे सांय-सांय करते हुए, (आर्तनासु) बंजर भूमियों पर (इष्टनि: वेगसे सांय-सांय करते हुए (स: हि) वह (मारुतं शर्ध: न) आंधी-तूफानोंकी सेना1की तरह (तुविस्वनि:) अनेक ध्वनियोंसे युक्त है । वह (हव्यानि आददि:) हविओंको ग्रहण करता है और (आदत्) उनका भक्षण करता है । वह (अर्हणा यतस्य) उचित क्रियासे संपन्न यज्ञका (केतु:) अन्तर्ज्ञान-मय चक्षु है । (अध) इसलिए (विश्वे नर:) सब मनुष्य (अस्य हृषीवत: हर्षत:) इस आनन्दमय और आनन्दप्रद अग्निके (पन्थाम्) मार्गका (शुभे पन्थाम् न) सुखकी तरफ ले जानेवाले मार्गकी तरह (जुषन्त स्म) सहर्ष अनुसरण करते हैं ।

__________ 

 1. अथवा, गूढ़ आंतरिक अर्थमें, प्राणशक्तियोंकी सेना जो हमारी जोती

    हुई भूमियों और बंजर भमियों पर उपजाऊ बनानेवाली वर्षाके साथ

    गति करती है ।

४१३


 

 ७

द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो

नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगव: ।।

अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिरेषाम् ।

प्रियाँ अपिधीँर्वनिषीष्ट मेधिर आ वनिषीष्ट मेधिर: ।।

 

(यत्) जब अभिद्य:) प्रकाशसे परिवेष्टित (कीस्तास:) कीर्तन करनेवाले (भृगव:) तेजःस्वरूप भृगु ऋषि (द्विता) अपनी द्विविध शक्तिसे संपन्न (ईम्) इस अग्निका (नमंस्यन्त:) नमन करते हुए ( [ ईम् ] उपवोचन्त) इसके प्रति अपनी वाणी उच्चरित कर चुकते हैं, जब (भृगव:) ज्वालामय ऋषि (दाशा) अपनी पूजाके द्वारा उसे (मथ्नन्त:) मंथन करके प्रकट कर लेते हैं, तब (अग्नि:) अग्निदेव (वसूनाम् ईशे) उनके लिए ऐश्वर्योंका स्वामी बन जाता है, (य:) जो (शुचि:) पवित्र अग्नि (एषां धर्णि:) इन ऐश्वर्योंको अपने अन्दर धारण करता है । (मेधिर:) मेधावी, ज्ञानमय वह (अपिधीन्) अपने ऊपर रखी या डाली गई [ अपने अन्दर अर्पित की गई]  (प्रियान्) अपनेको प्रिय लगनेवाली वस्तुओंका (वनिषीष्ट) आस्वादन करता है, (मेधिर:) वह ज्ञानमय मेधावी (आ वनिषीष्ट) अपनी प्रज्ञामें उनका आनन्द लेता है ।

 

 

विश्वासां त्वा विशां पति हवामहे

सर्वासां समानं दंपतिं भुजे सत्यगिर्वाहसं भुजे ।

अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया ।

अमी च विश्वे अमृतास ग वयो हव्या देवष्या वय: ।।

 

(विश्वासां विशां पतिम्) सब प्रजाओंके अधिपति, (सर्वासाम्) उन सबके (समानं दंपतिम्) सांझे घरके स्वामी (त्वा) तुझको ( भुजे) आन-न्दोपभोगके लिए (हवामहे) हम पुकारते हैं । (सत्यगिर्वाहसम्) सत्य वाणियोंका वहन करनेवाले तुझको (भुजे) आनन्दोपभोगके लिए [ हवा-महे ] हम पुकारते हैं, (मानुषाणामू अतिथिम्) मनुष्योंके अतिथिको [ हवा- महे ] हम पुकारते हैं (यस्य आसया) जिसके सामने (अमी विश्वे अमृ-तास: आ) ये सब अमर देव उसी प्रकार स्थित रहते हैं (पितुः न) जिस प्रकार पिताके सामने, और ये (हव्या) हमारी हविओंको (वय: आ) अपना भोजन बनाते हैं, (देवेषु) देवोंमें (हव्या) ये हवियां (वय: [ आ ] ) उनका अन्न बन जाती हैं ।

४१४



 

त्वमग्ने सहसा सहन्तम शुष्मिन्तमो जायसे देवतातये ।

रयिर्न देवतातये ।

शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतु: ।

अध स्मा ते परि चरन्त्यजर श्रुष्टीवानो नाजर ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (त्वम्) तू (सहसा) अपने बलके कारण (सह-न्तम:) अदमनीय है, (देवतातये शुष्मिन्तम:) देवोंके निर्माणके लिए तू अत्यंत शक्तिशाली होकर (जायसे) उत्पल हुआ है, (देवतातये रयि: न [जायस]) मानों देवोंके निर्माणके लिए तू ऐश्वर्यके रूपमें प्रकट होता है । (ते मद:) तेरा हर्षोल्लास (शुष्मिन्तम: हि) अत्यंत शक्तिशाली है (उत) और (क्रतु:) तेरा संकल्प (द्युम्निन्तम:) अत्यन्त ज्योतिर्मय । (अध) इसलिए (ते परिचरन्ति स्म) वे तेरी सेवा करते हैं (अजर) हे जरा-रहित अग्नि ! (श्रुप्टीवान: न [ परि चरन्ति] ) वे उनकी तरह तेरी सेवा करते हैं जो तेरा शब्द सुनते हैं, (अजर) हे अजर अग्नि !

 

१०

 

प्र वो महे सहसा सहस्वत

उषर्बुधे पशुषे नाग्नये स्तोभो बभूत्वग्नय ।

प्रति यदीं हविष्मान् विश्वासु क्षासु जोगुवे ।

अग्रे रेभो न जरत ऋषूणां जूर्णिर्होत ऋषूणाम् ।।

 

(सहसा सहस्वते) अपने बल के द्वारा प्रबल शक्तिशाली, (उष:-बुधे) उषामें जागनेवाले (अग्नये) अग्निके लिये, (पशुषे न) अंतर्दृष्टिसे संपन्न देव-की भांति (महे अग्नये) महान् देव अग्निके लिए (व: स्तोम:) तुम्हारा स्तुतिगान (प्र बभूतु) उद्धत हो, ऊपर उठे । (यत्) जब (हविष्मान्) हवि देनेवाला (विश्वासु क्षासु) सभी भूमिकाओंमें (ईम् प्रति जोगुवे) उसे ऊंचे स्वरसे पुकारता है, तो (ऋषूणाम् अग्रे) ज्ञानियोंके सम्मुख वह (रेभ: न) स्तोताकी तरह (जरते) हमारा स्तुतिगान पहुंचाता है, (ऋषू-णाम् होता) ज्ञानियोंका होता अर्थात् आवाहनकारी पुरोहित वह (जूर्णि:) हमारा स्तुतिगान पहुंचाता है ।

 

११

स नो नेदिष्ठं ददृशान आ भराग्ने देचेभि: सचना:

सुचेतुना महो राय: सुचेतुना ।

४१५


 

महि शविष्ठ नस्कृधि संचक्षे भुजे अस्यै ।

महि स्तोतृम्यो मधवन्त्सुवीर्य मथीरुग्रो न शवसा ।।

 

(स:) वह तू [ इसलिए तू ] (ददृशान:) प्रत्यक्ष गोचर होता हुआ (अग्ने) हे अग्निदेव ! (राय:) उन ऐश्वर्योंको जो (देवेभि: सचना:) सदा देवोंके साथ रहते हैं (सुचेतुना) अपनी पूर्ण चेतनाके द्वारा (न: नेदिष्ठम् आ भर) हमारे अत्यंत निकट ले आ, (सुचेतुना) अपनी पूर्ण चेतनाके द्वारा (मह: [राय:] ) महान् ऐश्वर्योंको [ न: नेदिष्ठम् आ भर ] हमारे अत्यंत निकट ले आ । (शविष्ठ) हे अत्यन्त बलशाली अग्निदेव (नः) हमारे लिए, (अस्यै संचक्षे) हमारे इस साक्षात्कारके लिए, (भुजे) हमारे उपभोग-के लिए, (महि) जो कुछ भी महान् है उसे तू (कृधि) निर्मित कर । (मघवन्) हे प्रचुर ऐश्वर्यके अधिपति ! (स्तोतृभ्य:) अपनी स्तुति करने-वालोंके लिए तू (शवसा उग्र: न) अपने तेजके द्वारा प्रबलशक्तिशाली देव-की न्याई (महि सुवीर्यम्) महान् वीरशक्तिको (मथी:) मथकर प्रकट कर ।

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