Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
प्राक्कथन
वेदका अनुवाद करना एक असंभव प्रयासके क्षेत्रमें प्रवेश करना है । क्योंकि जहाँ प्राचीन ज्ञानदीप्त ऋषियोंके सूक्तोंका शाब्दिक अंग्रेजी अनुवाद करना उनके अर्थो और अभिप्रायोंको मिथ्यायरूप देना होगा, वहाँ एक ऐसा भाषान्तर जिसका लक्ष्य संपूर्ण विचारको ऊपरी तल पर लान हो, उनके अनुवादके स्थानपर उनकी एक व्याख्या ही हो जायगा । इसलिए मैंने एक प्रकारका मध्यमार्ग अपनानेका यत्न किया हैं--अर्थात् अनुवादका एक ऐसा मुक्त और नमनीय रूप अपनाया है जो मूलकी कथन-शैलियोंका अनुसरण करे और फिर भी जिसमें व्याख्याके कुछ एक ऐसे साधनोंकी गुंजायश हो जिंनसे
वैदिक सत्यका प्रकाश प्रतीक और रूपकके पर्देमें से झलक सकें ।
वैदिक गूढ़ू आतरिक प्रतीकोका, लगभग आध्यात्मिक सूत्रोंका ग्रन्थ है जो कर्मकाण्डमय कविताओंके संग्रहका छद्मवेष धारण किए हुए है । वेदका आंतरिक भाव आध्यात्मिक, सार्वभौम एवं निर्वैयक्तिक है, जबकि उसका प्रतीयमान अर्थ और अलंकार, --जो दीक्षितोंके प्रति उस तत्त्वको प्रकट करनेके लिए अभिप्रेत थे जिसे वे अज्ञानियोंसे छिपाए रखते थे, -प्रत्यक्षत: भद्दे रूपमें स्थूल, घनिष्ठतया वैयक्तिक, शथिल रूपमें नैमत्तिक एवं संकेता-त्मक हैं । इस शिथिल बाहरी पहरावेको वैदिक कवि कभी-कभी, सतर्क रहते हुए, एक ऐसा स्पष्ट और संगत आकार दे देते है जो उनके अर्थकी श्रमलभ्य आंतरिक आत्मासे बिलकुल भन्न होता है । तब उनकी भाषा छिपे हुए सत्योंके ऊपर चतुराईसे बुना हुआ पर्दा बन जाती है । अधिकतर तो वे जिस आवरणका प्रयोग करते हैं उसके प्रति असावधान ही रहते हैं । जब वे इस प्रकार अपने कार्य के उपकरणसे ऊपर उठ जाते हैं तब उनका शाब्दिक एवं बाह्य अनुवाद हमारे सामने या तो वाक्योंका एक अंटसंट एवं असंबद्ध क्रम प्रस्तुत करता है या फिर विचार और वाणीका एक ऐसा रूप उपस्थित करता है जो अदीक्षित बुद्धिवालोंके लिए विचित्र होनेके साथ-साथ उनकी पहुँचसे परे भी होता है । किंतु जब अलंकारों और प्रतीकोंको अपने छिपे हुए अर्थोका सुझाव देने की क्षमता दे दी जाती है तभी धुधलेपनमेंसें आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक एवं धार्मिक वचारोका एक
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घनिष्ठ, सूक्ष्म और फिर भी पारदर्शी व सुसंबद्ध क्रम उभर आता है । मैंने सुझाव देनेकी इस शैलीको ही अपनानेका यत्न किया है ।
वेदका शाब्दिक भाषांतर प्रस्तुत करना संभव होता यदि उसके बाद कुछ पृष्ठोंमें एक व्याख्या भी दे दी जाती जिसमें शब्दोंके सही अर्थ और विचारका छिपा हुआ संदेश ओतप्रोत हो । परंतु यह एक बोझिल शैली होगी जो केवल एक विद्वान् और सतर्क अनुशीलकके लिए उपयोगी रहेगी । अर्थके एक ऐसे रूप (विधा) की आवश्यकता थी जिसमें बुद्धिको अपने विषय पर केवल उतना ही रुकनेको बाध्य होना पड़े जितना उसे किसी रहस्यमय तथा आलंकारिक काव्यके लिए रुकना आवश्यक होता है । ऐसे रूपका निर्माण करनेके लिए संस्कृत शब्दका अंग्रेजीमें अनुवाद करना ही पर्याप्त नहीं, अर्थपूर्ण नामका, परंपरागत अलंकारका, प्रतीकात्मक रूपकका भी बार-बार अनुवाद करना होगा ।
यदि प्राचीन ऋषियों द्वारा पसन्द किए गए रूपक ऐसे होते जिन्हें आधुनिक मन सरलतासे पकड़ सकता, यदि यज्ञके प्रतीक अब तक भी हमारे परिचित होते और वैदिक देवोंके नाम अब भी अपने मनोवैज्ञानिक अभिप्रायको लिए होते--जैसे कि उच्च श्रेणीके देवताओंके यूनानी व लैटिन नाम अफ्रो-डाइट (Aphrodite) या आरिस (Ares) और वीनस (Venus) या मिनर्वा (Minerva) अब भी एक सुसंस्कृत यूरोपियनके लिए अपना भाव रखते हैं--तो एक व्याख्यात्मक अनुवादकी उपाय-योजनाको टाला जा सकता था । परंतु भारतने साहित्यिक और धार्मिक विकासके एक अन्य ही मोड़का अनुसरण किया है जो पश्चिमकी संस्कृति द्वारा अनुसरण किये गए मोड़से भिन्न है । देवोंके अन्य नामोंने वैदिक नामोंका स्थान ले लिया है या फिर वही नाम बने रहे हैं, परंतु उनका अर्थ केवल बाहरी रह गया एवं क्षीण हो गया है । वैदिक कर्मकाण्ड लगभग लुप्त हो चुका है और अपने गंभीर प्रतीकात्मक अभिप्रायको खो बैठा है; आदिकालीन आर्य कवियोंके पशुपालन-संबंधी, युद्धसबंधी और ग्राम्य-जीवन-संबंधी रूपक उनके वंशजोंकी कल्पनाशक्तिके लिए अत्यंत दूरवर्ती और अनुपयुक्त लगते हैं अथवा यदि वे स्वाभाविक व सुन्दर लगें भी तो वे प्राचीन गंभीरतर अर्थसे शून्य प्रतीत होते हैं । जब प्राचीन उषाके अतिभव्य सूक्त हमारे सामने आते हैं तो हम अपनी शून्य अबोधस्थितिसे सचेत हो जाते हैं और उन्हें एक ऐसे विद्वान्की चातुरीका शिकार बननेके लिए छोड़ देते हैं जो वहाँ अस्पष्टताओं और असंगतियोंके बीच जबरदस्ती लादे हुए अर्थोंको टटोलता है जहाँ कि प्राचीन कवि अपनी आत्माओंको सामंजस्य और प्रकाशमें स्नान कराते थे ।
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कुछ एक उदाहरण हमें यह दिखाएँगे कि यह खाई क्या है और इसकी रचना कैसे हुई । जब हम एक माने हुए और रूढ़िगत रूपककी भाषामें लिखते हैं ''लक्ष्मी और सरस्वती एक ही घरमें रहनेसे इन्कार करती हैं'' तो एक यूरोपियन पाठकको इसे समझ सकनेसे पूर्व इस पदावलीपर टिप्पणीकी या एक सीधे अलंकारहीन विचारके रूपमे इसके किसी ऐसे अनुवादकी अपेक्षा हो सकती है,--''लक्ष्मी और विद्या कदाचित् ही साथ-साथ रहती हैं'' । परंतु प्रत्येक भारतीयको इस पदावलीका अभिप्राय पहलेसे ही अधिगत है । हाँ, यदि कोई अन्य संस्कृति और धर्म पुराणों और ब्राह्मणोंकी संस्कृति और धर्मका स्थान लें लेते और प्राचीन पुस्तकों तथा संस्कृत-भाषाका पढ़ना और समझना बंद हो जाता तो यह आजकी परिचित शब्दावलि भारतमें भी वैसी ही अर्थहीन हो जाती जैसी कि यूरोप में । हों सकता है कि कोई निर्भ्रान्त टीकाकार या चतुर अन्वेषक विद्वान् हमारे सामने पूर्णतया संतोषजनक रूपसे यह सिद्ध करता आया हो कि लक्ष्मी तो उषा है और सरस्वती रात्रि है या कि वे दो बेमेल रासायनिक द्रव्य हैं--अथवा न जाने और क्या क्या ! --इस प्रकारकी किसी चीजने ही वेदके प्राचीन स्पष्ट वचनोंको आ घेरा है, उसका अभिप्राय नष्ट हो गया है और बच रही है केवल विस्मृत काव्यमय रूपकी धुंध । इसलिए जब हम पढ़ते है ''सरमा सत्यके मार्गसे गोयूथोंको खोज निकालती है'' तो मन एक अपरिचित भाषाके द्वारा कुन्द हो जाता और चकरा जाता हैं । यूरोपियनके लिए सरस्वतीविषयक शब्दावलिकी तरह हमारे लिए अधिक सीधे और कम आलंकारिक विचारके रूपमें इस वाक्यको यूं अनूदित करना होगा ''अन्तर्ज्ञान सत्यके मार्गके द्वारा गुप्त प्रकाशों तक पहुँच जाता है ।'' किसी विशेष सूत्रके अभावमें हम उषा और सूर्यके विषयमें की गई चातुर्यपूर्ण व्याख्याओंमें भटकते फिरते हैं अथवा यहाँ तक कि द्युलोककी कुक्कुरी सरमाके विषयमें हम यह कल्पना कर लेते हैं कि वह लूटे गए गोधनकी पुन: प्राप्तिके लिए द्रविड़ राष्ट्रोंके प्रति भेजी हुई किसी प्रागैतिहासिक दूतीका एक व्यक्तित्वमय रूप है !
संपूर्ण वेदकी परिकल्पना ऐसे रूपकोंमें ही की गई है । इसके परिणाम-स्वरूप हमारी बुद्धिमें जो अस्पष्टता एवं अस्तव्यस्तता आ जाती है वह भयावह है और यह तुरंत प्रत्यक्ष हो जायगा कि सूक्तोंका कोई ऐसा अनुवाद जो अनुवादके साथ-साथ व्याख्यारूप होनेका यत्न न करे कितना निरर्थक होगा । एक प्रभावकारी वेद-मंत्र यूं आरंभ होता है कि ''भिन्न रूपोंवाली परंतु एक मनवाली दो बहिनें उषा और निशा एक ही दिव्य शिशुको दूध पिलाती है ।'' इससे हमें कुछ भी समझमें नहीं आता । उषा और
निशा भिन्न रूपोंवाली तो हैं परंतु एक मनवाली क्यों ? और शिशु कौन हैं ? यदि वह अग्नि है तो उषा और निशा एक शिशु अग्निको बारी-बारीसे दूध पिलाती हैं--इससे हम क्या समझें ? परंतु वैदिक कवि भौतिक रात्रि, भौतिक उषा या भौतिक आगके विषयमें नहीं सोच रहा है ।. वह अपनी आध्यात्मिक अनुभूतिमें बारी-बारीसे आनेवाले कालोंके विषयमें सोच रहा है, अर्थात् एक तो उदात्त और स्वर्णिम प्रकाशके कालों और दूसरे तमसाच्छन्न हो जाने या सामान्य अप्रकाशित चेतनामें फिरसे जा गिरनेके कालोंके सतत लयतालके विषयमें सोच रहा हैं और वह स्वीकार करता है कि उसके अंदर इन सब क्रमिक कालों और यहाँ तक कि उनके नियमित उतार-चढ़ावकी शक्तिसे ही दिव्य जीवनका शिशुबल (नवजात बल) बढ़ रहा है । क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओंमें गुप्त व प्रकट रूपमें वह दिव्य प्रयोजन और वही ऊँचाई तक पहुँचनेवाला प्रयास कार्य कर रहा है । इस प्रकार जो रूपक वैदिक मन के लिए स्पष्ट, ज्योतिर्मय, सूक्ष्म, गंभीर और प्रभावो-त्पादक था, वह हमारे सामने यहाँ अर्थशून्य होकर या अपने अर्थमें हीनता और असंगतिसे भरा हुआ उपस्थित होता है और इसलिए वह हमें केवल एक भारी-भरकम और दिखावटी चीजके रूपमें और गड़बड़-घोटाला करनेवाले अयोग्य साहित्यिक शिल्पके आभूषणके रूपमें ही प्रभावित करता है ।
इसी प्रकार जब अत्रिगोत्रका ऋषि अग्निको उच्च स्वरसे पुकारकर कहता है, "हे अग्नि ! हे आहुतिके वाहक पुरोहित ! तू हमारे पाशोंको काटकर पृथक् कर दे'', तो वह न केवल स्वाभाविक अपितु एक समृद्ध अर्थ से गर्भित रूपकका प्रयोग कर रहा होता है । वह एक महान् विश्व-यज्ञ पुरुषमेधमें मन, प्राण और शरीरके उस त्रिविध पाशके विषयमें सोच रहा है जिसके द्वारा आत्मा एक बलि-पशुकी तरह बंधा हुआ है । वह उस दिव्य संकल्पशक्तिका चिंतन कर रहा है जो उसके भीतर जागृत होकर कार्य कर रही है, एक तेजोमय और अदमनीय देवके विषयमें सोच रहा है जो उसकी दबी पड़ी दिव्यताको ऊपर उठा ले जायगा और उसके बंधन की रज्जुओंको छिन्न-भिन्न कर देगा । वह उस बढ़ती हुई शक्ति और अन्तर्ज्वालाके सामर्थ्यके विषयमे सोच रहा है जो उसके द्वारा अर्पणकी जानेवाली समस्त हविको ग्रहण कर उसे अपने सुदूर और दुर्गम धाम अर्थात् उस ऊर्ध्वस्थित सत्य, उस दूरातिदूरवर्ती सत्ता, उस रहस्यमय, उस परमकी ओर ले जा रही है । इन सब सहचारी भावोंको हम खो चुके हैं, हमारे मन कर्मकाण्डीय यज्ञ और भौतिक पाशके विचारोंसे ही अभिभूत हैं । हम शायद यह कल्पना करते है कि अत्रिका पुत्र किसी प्राचीन बर्बर यज्ञमें एक (वध्य पशुकी तरह)
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बंधा हुआ अपने भौतिक छुटकारेके लिए अग्निके देवताको ऊँचे स्वरमें पुकार रहा है !
कुछ आगे चलकर ऋषि बढ़ती हुई ज्वालाका स्तुतिगान करता है- ''अग्निदेव विशाल प्रकाशके साथ विस्तृत रूपमें देदीप्यमान हों उठता है और अपनी महिमासे सब वस्तुओंको अभिव्यक्त करता है ।'' इससे हम क्या समझें ? क्या इससे हम यह कल्पना कर लें कि अपने बंधनोंसे मुक्त हुआ स्तुतिगायक,--यह तो हम नहीं जानते कि वह कैसे मुक्त हुआ,-यज्ञिय अग्निकी उस महान् ज्वालाकी शान्तिपूर्वक स्तुति कर रहा है जिसे उसको हड़प जाना था और यह कल्पना करके हम आदिम मनके द्रुत संक्रमणोंपर (एक विचारसे सहसा दूसरे विचारपर चले जानेपर) आश्चर्य करें ? जब हम यह खोज निकालते हैं कि 'विशाल ज्योति' यह शब्दावलि रहस्यवादियोंकी भाषामें मनसे परेकी विस्तृत, मुक्त और प्रकाशमय चेतनाके लिये एक नियत शब्दावलि थी, केवल तब ही हम इस ऋचाके सच्चे अर्थको पकड़ पाते हैं । ऋषि अपने मन, प्राण और शरीरके त्रिविध बंधनसे अपनी मुक्तिका और अपने अंदर विद्यमान ज्ञान और संकल्पकी चेतनाके उस स्तर तक उठ जानेका स्तुतिगान कर रहा है जहाँ सब वस्तुओंके प्रतीयमान सत्यसे परेका उनका वास्तविक सत्य अन्ततोगत्वा एक विशाल प्रकाशमें अभिव्यक्त हो जाता है ।
परंतु इस गंभीर, स्वाभाविक और आंतरिक भावको दूसरोंके मनों तक हम अनुवादके द्वारा कैसे पहुँचाएँ ? यह तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि हम व्याख्यात्मक ढंगसे यूं अनुवाद न करें, ''हे संकल्प-शक्ति ! हे हमारे यज्ञके पुरोहित ! हमारे बंधनकी रज्जुओंको काटकर हमसे अलग कर दे ।'' ''यह ज्वाला सत्यकी विशाल ज्योतिसे चमक उठती है और सब वस्तुओंको अपनी महानतासे प्रकट कर देती है ।'' तब पाठक कम-से-कम पाशके, ज्योति एवं ज्वालाके आध्यात्मिक स्वरूपको पकड़ सकेगा; वह इस प्राचीन स्तोत्रके अर्थ और भावको कुछ-न-कुछ अनुभव कर सकेगा ।
अनुवादकी जिस शैलीका मैंने प्रयोग किया है वह इन उदाहरणोंसे स्पष्ट हो जायगी । मैंने कहीं-कहीं रूपकको एक तरफ फेंक दिया है, परंतु इस प्रकार नहीं कि उससे बाह्य प्रतीकका पूरा ढाँचा ही चकनाचूर हो जाय या टीका ही अनुवादका स्थान ले ले । यह तो अवान्छनीय उग्र प्रहार होता कि वैदिक विचारके अत्यधिक रत्न-जटित वेशपरसे उसके शोभायमान आभूषणोंको उतार फेंका जाय या उसके स्थान पर उसे सामान्य भाषाका मोटा पहरावा पहना दिया जाए । परंतु मैंने इसे सभी जगह, जितना संभव था उतना पारदर्शक बनाने का यत्न किया है । मैंने देवों, राजाओं और
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ऋषियोंके अर्थगर्भित नामोंको भी, उनके आधे-छिपे अर्थ देते हुए अनूदित किया है,--नहीं तो उनका पर्दा अभेद्य ही रहता । जहाँ रूपक आवश्यक नहीं था वहाँ कभी-कभी मैंने उसके आध्यात्मिक अर्थके लिए उसकी बलि दे दी है । जहाँ वह आस-पासके शब्दोंकी रंगतको प्रभावित करता था वहाँ मैंने ऐसी शब्दावलिको खोजनेका यत्न किया है जो अलंकारको बनाए रखे और फिर भी उसके अर्थ की संपूर्ण जटिलताको प्रकट कर सकें । कभी-कभी मैने दोहरे अनुवादकी रीतिका भी प्रयोग किया है । इस प्रकार उस वैदिक शब्दके लिए, जो एक साथ ही प्रकाश या किरण और गौका अर्थ देता है, मैंने प्रसंगके अनुसार 'ज्योति', 'दीप्तियाँ', 'चमकीले गोयूथ', 'प्रकाशमय गौएँ', 'गोयूथोंकी माता ज्योति' ये अर्थ दिए है । वेदकी अमृतमय सुराके वाचक 'सोम' शब्दका मैंने अनुवाद किया है ''आनंदकी सुरा'' या ''अमरताकी सुरा'' ।
वैदिक भाषा, अपने समूचे रूपमें, एक शक्तिशाली तथा विलक्षण उपकरण है जो संक्षिप्त, जटिल और ओजस्वी है और अर्थ से ठूंस-ठूंसकर भरा हुआ है; यह भाषा अपनी विधाओंमें तर्कसंगत और आलंकारिक वाक्यविन्यास की सीधी-सरल और सतर्क रचनाओं तथा उसके स्पष्ट संक्रमणोंका सफल प्रयोग करनेकी अपेक्षा कहीं अधिक मनके विचारोंकी स्वाभाविक उड़ानाको ही सावधानीसे अनुसरण करती है । परंतु यदि ऐसी भाषाको बिना किचित् परिवर्तनके अंग्रेजीमें अनूदित किया जाय तो वह कठोर, बेढंगी और अस्पष्ट ही हो जायगी, वह तो एक निर्जीव और बोझिल गति बन जायगी जिसमें मूल भाषाकी प्रातःकालीन स्फूर्ति और बलशाली पदचापकी जरा भी झलक नहीं होगी । इसलिए मैंने यह पसन्द किया है कि इस भाषाका अनुवाद करते हुए इसे ऐसे साँचेमें ढाला जाय जो अघिक नमनीय तथा अंग्रेजी भाषाके लिए अधिक स्वाभाविक हो और साथ ही इस प्रक्रियामें मैंने ऐसी वाक्यरचनाओंका और संक्रमणकी ऐंसी विधियोंका प्रयोग किया है जो मूल विचारके तर्कको सुरक्षित रखती हुई भी एक आधुनिक भाषाके लिए अत्यधिक अनुकूल हों । मैंने इसमें भी कभी संकोच नहीं किया कि वैदिक शब्दके कोषगत नि:सार पर्यायको त्यागकर उसकी जगह वहाँ अंग्रेजी भाषाकी बृहत्तर शब्दावलिका प्रयोग करूँ जहाँ मूल के पूर्ण अर्थ और सहचारी भावोंको प्रकट करनेके लिए ऐसा करना आवश्यक हो । मैंने अपनी दृष्टि आद्योपांत अपने मुख्य उद्देश्यपर लगाए रखी है--वह उद्देश्य है वेदके आंतरिक अर्थको आजकी सुसंस्कृत बुद्धिकी पकड़में आने योग्य बनाना ।
जब यह सब किया जा चुका तो भी कुछ टीका-टिप्पणीकी सहायता अनिवार्य रही । परंतु मैंने यह यत्न किया है कि टिप्पणियोंसे अनुवादको
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बोझिल न बनाया जाय और नाहीं लम्बी-लम्बी व्याख्याओंमें पड़ा जाय । मैंने प्रत्येक पांडित्यपूर्ण वस्तुका वर्जन किया है । वेदमें ऐसे बहुतसे शब्द हैं जिनका अर्थ सन्देहास्पद है, अनेकों उक्तियाँ हैं जिनका अर्थ केवल अनुमानसे या सामयिक रूपसे ही स्थिर किया जा सकता है, ऐसे मन्त्र भी कम नहीं हैं जिनकी दो या अधिक भिन्न-भिन्न व्यास्याएँ की जा सकती हैं । परंतु इस प्रकारका अनुवाद-ग्रंथ विद्वान्की कठिनाइयों और सन्देह-विकल्पोंका किसी प्रकारका लेखा प्रस्तुत करनेका स्थान नहीं होता । मैंने मुख्य वैदिक विचारकी संक्षिप्त रूप-रेखा भूमिकाके रूपमें जोड़ दी है जो इसे समझनेके अभिलाषी पाठकके लिए अनिवार्य है ।
उसे वैदिक सूक्तोंकी सामान्य दिशा और ऊपरी संकेतोंको पकड़ पानेकी ही आशा रखनी होगी । इससे अधिक कदाचित् ही संभव हो । रहस्य-वादी सिद्धांतके असली हृदयमें प्रवेश करनेके लिए यह आवश्यक है कि हम स्वयं प्राचीन मार्गोंपर चल चुके हों एवं लुप्त अनुशासन व विस्मृत अनुभवको ताजा कर चुके हों । और हममेंसे कौन कुछ भी गहराई या सजीव शक्तिके साथ ऐसा करनेकी आशा कर सकता है ? कौन है जिसके अंदर इस कलियुगमें पूर्वजोंके प्रकाशको पुन: प्राप्त करनेका या मन और शरीरके दो आवरणकारी आकाशोके ऊपर उनके द्वारा उपलब्ध अनन्त सत्यके प्रकाशमय स्वर्गतक उड़ान भरनेका सामर्थ्य हो ? ऋषियोंने अपने ज्ञानको अपात्रसे गुप्त रखना चाहा, शायद वे यह विश्वास करते थे कि सर्वश्रेष्ठ वस्तुका दूषित हो जाना हमें निकृष्टतम वस्तुकी ओर ले जा सकता है और साथ ही वे सोमकी प्रबल सुराको बच्चें और निर्बलको देनेमें भय भी खाते थे । परंतु क्या उन ऋषियोंकी आत्माएँ अब भी हमारे बीच मर्त्य सत्तामें, जो सूर्यके भास्वर गोयूथोंको इन्द्रिय-जीवनके अधिपतियोंकी अंधकारमय गुफामें सदाके लिये कैद रहने देनेमें संतुष्ट है, किसी विरली आर्य आत्माको खोजती हुई विचर रही हैं अथवा क्या वे (आत्माएँ) ज्योतिर्मय जगत्में उस घड़ीकी प्रतीक्षा कर रही हैं जब मरुत् एक बार फिर परेके लोकसे स्वर्गकी नदियोंको सत्तामें सर्वत्र प्रवाहित कर देंगे और द्युलोककी शुनी (कुक्कुरी) उन नदियोंको फिरसे द्रुत वेगसे नीचेकी ओर हमतक ले आयगी और स्वर्गिक नदियोंके बंद द्वार तोड़ दिये जायँगे, गुफाएँ छिन्न-भिन्न कर दी जायँगी और अमर बनानेवाली सोमसुरा मनुष्यके शरीरमें विद्युन्मय वच्चोंके द्वारा निचोड़कर निकाली जायगी--इस विषयमें उनका यह रहस्य उनके पास ही सुरक्षित है । इस बातकी संभावना बहुत ही कम है कि एक ऐसे युगमें जो हमारी आँखोंको बाह्य जीवनके
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क्षणभंगुर वैभवोंसे चकाचौंध कर अंधा कर रहा है और जो हमारे कानोंको जड़ प्रकृति व यंत्रविद्याके ज्ञानकी विजय-दुन्दुभियों द्वारा बहरा कर रहा है, लोग बड़ी संख्यामें ऋषियोंकी प्राचीन साधनाके गुह्य वचनोंपर बौद्धिक व कल्पनात्मक कुतूहल-भरी दृष्टि डालनेसे अघिक कुछ करेंगे या उनके जाज्वल्यमान रहस्योंके अन्तस्तलमें पैठनेका यत्न करेंगे । वेदका रहस्य, पर्दा हटा दिये जानेपर भी, रहस्य ही बना हुआ है ।
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