Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
अठारहवाँ सूक्त
पूर्ण ऐश्वर्यके अधिपतियोंका सूक्त
[ आत्मा अपनी दूसरी भूमिकामें कोरी शारीरिक सत्ताको पार कर लेती है और प्राणिक सत्ताकी पूर्ण शक्तिसे भर जाती है क्योंकि उसे देवोंने जीवनके पचास-के-पचास वेगशाली अश्व दे दिये होते हैं । इस भूमिकाके बाद दिव्य शक्तियोंके आविर्भावको पूर्ण करनेके लिए 'भागवत संकल्पका आवाहन किया जाता है । अग्नि वहाँ आत्माकी उस दूर-दूरतक फैली हुई सत्ताकी ज्योति एवं ज्वालाके रूपमें विद्यमान है जिसने भौतिक सत्ताकी सीमाओंको तोड़ दिया होता है । वहाँ वह इस नये और समृद्ध अतिभौतिक जीवनके आनन्दोंसे पूर्ण है । अब इस तीसरी भूमिकाको अर्थात् स्वतन्त्र मनोमयी सत्ताको विचार और वाणीकी समृद्धतया विविध एवं ज्योतिर्मय क्रीड़ाके द्वारा पूर्ण बनाना है । इस क्रीड़ाके अन्तमें मनोमय प्रदेशोंके सर्वोच्च स्तरका अर्थात् मानसिक सत्तामें अतिमानसिक प्रकाशकी शक्तिका आविर्भाव होगा । वहाँ अन्तर्ज्ञानात्मक और अन्त:प्रेरित मनका आविर्भाव आरम्भ होता है । अग्निको सत्यज्ञान (ऋत) की उस विशालता, ज्योति और दिव्यताका सर्जन करना हे और इस प्रकार उससे, शक्तिके पहलेसे प्राप्त मुक्तवेगको तथा जीवन और उपभोगके विस्तृत क्षेत्रको, जो पूर्णतायुक्त और प्रभु-पूरित प्राणका अपना विशेष क्षेत्र है, विभूषित करना है । ]
१
प्रातरग्नि: पुरुप्रियो विश: स्तवेतातिथि: ।
विश्वानि यो अमर्त्यो हव्या मर्तेषु रण्यति ।।
(प्रातः) उषःकाल1में (पुरुप्रिय:) अनेक आनन्दोंसे सम्पन्न, (विश: अतिथि: अग्नि:) प्राणियोंके अतिथि उस संकल्पाग्निकी (स्तवेत) स्तुतिकी जाय (य:) जो (मर्तेपु अमर्त्य:) मर्त्योमें अमर होता हुआ (विश्वानि हव्या) उनकी सब भेंटोमें (रण्यति) आनन्द लेता है ।
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1. मनमे उच्चतर ज्ञानकी दिव्य उषाका उदय होना ।n
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२
द्विताय मूक्तवाहसे स्वस्य दक्षस्य मंहन।
इन्दुं स धत्त आनुषक् स्तोता चित् ते अमर्त्य ।।
(मृक्तवाहसे) पवित्र की हुई मेधाको वहन करनेवाली (द्विताय)1 दूसरी [ ऊर्ध्वस्तरकी ] आत्माके लिए (स:) वह अग्नि (स्वस्य दक्षस्य मंहना) अपने विवेकशील मनका पूर्ण वैभव है । तब (स:) वह आत्मा (आनुषक् इन्दुम्) आनन्दकी अविच्छिन्न मधु-मदिराको (धत्ते) अपने अन्दर धारण करती है और (ते चित् स्तोता) तेरी ही स्तुति करती है; (अमर्त्य) हे अमर !
३+४
तं वो दीर्धायुशोचिषं गिरा हुवे मधोनाम् ।
अरिष्टो येषां रथो व्यश्वदावन्नीयते ।।
चित्रा वा येषु दीधितिरासन्नुक्था पान्ति ये ।
स्तीणॅ बर्हि: स्वर्णरे श्रवांसि दधिरे परि ।।
(तं दीर्घायुशोचिषम्) इस दूर-दूरतक विस्तृत सत्ताकी विशुद्ध-ज्वाला-रूप तुझ अग्निदेवको मैं (गिरा हुवे) अपनी वाणीसे पुकारता हूँ, (अश्व-दावन्) हे द्रुतगतिवाले अश्वोंके दाता ! (व: मघोनाम्) ऐश्वर्य-प्रचुरताके उन सब अधिपतियोंके लिये (येषां रथ:) जिनका रथ (अरिष्ट:) अक्षत होते हुए (वि ईयते) व्यापक2 रूपसे संचरण करता है,--तुझे पुकारता हूँ ।
पुकारता हूँ प्रचुर वैभवके उन अधिपतियोंके लिये (येषु वा चित्रा दीधिति:) जिनमें विचारका समृद्ध प्रकाश है और (ये) जो (आसन्) अपने
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1. द्वित-मानवीय आरोहणके दूसरे ।स्तरका देव या ऋषि । यह स्तर
प्राणशक्तिका स्तर है, पूर्णतया चरितार्थ शक्तिका, कामनाका स्तर
है, उन प्राणिक शक्तियोंका मुक्त क्षेत्र है जो अब जड़ प्रकृतिके इस
साँचेकी कठोर सीमाओंसे सीमित नहीं होती । हम नये प्रदेशोंके
सम्बन्धमें और उनके भीतर सचेतन हों जाते हैं, वे प्राणके असीम क्षेत्र
हैं जिन्हें अगली ऋचामें ''दूर-दूरतक विस्तृत सत्ता'' कहा गया है तथा
जो हमारी सामान्य भौतिक चेतनाकी आड़में छिपे हैं । त्रित तीसरे
स्तरका देव या ऋषि है जो भौतिक मनको अज्ञात, ज्योतिर्मय मानमिक
राज्योंसे पूर्ण है ।
2. प्राणके नये लोकोंमें दिव्य क्रिया अब चरितार्थ हो चुकी है और मृत्यु
तथा अन्धकारकी शक्तियोंके ''अनिष्टों''से अक्षत विचरती है ।
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मुंहमें (उवथा पान्ति) हमारे स्तुति-वचनोंकी रक्षा करते हैं । संपूर्ण आत्मा (स्व:-नरे) देदीप्यमान लोककी शक्ति1में (बर्हि: स्तीर्णम्) यज्ञके आसनकी तरह बिछी हुई है और (श्रवांसि परि दधिरे) इसकी समस्त अंत:प्रेरणाएँ उसके चारों ओर निहित हैं ।2
५
थे मे पञ्चाशतं ददुरश्वानां सधस्तुति ।
द्युमदग्ने महि श्रवो बृहत् कृधि मधोनां नृवदमृत नृणाम् ।।
(ये) जिन्होंने (मे) मुझे (सधस्तुति) पूर्ण स्तुतिसे संपन्न (अश्वानां पञ्चाशतम्) अतिवेगशाली पचास अश्व3 (ददु:) दिये हैं, उनके लिए, (मघोनां नृणाम्) उन दिव्य आत्माओंके लिए जो प्रचुर वैभवके अधिपति हैं, (अमृत अग्ने) हे अमर ज्वाला ! (महि) महान् (बृहत्) विशाल और (नृवत्) दिव्यताओंसे पूर्ण (द्युमत् श्रव: कृधि) ज्योतिर्मय ज्ञानका सर्जन कर ।
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1. 'स्वर्णर'--इसके विषयमें प्राय: ऐसा उल्लेख किया जाता है मानो
यह एक देश हो, यह अपने-आप स्वर् अर्थात् चरम अतिचेतन स्तर
नहीं है, अपितु उसकी एक शक्ति है जिसे उस लोकका प्रकाश
विशुद्ध मनोमय सत्तामें निर्मित करता है । यहाँ इसकी अंत:प्रेरणाएँ
और प्रभाएँ अवतरण करती हैं और यज्ञके आसनके चारों ओर अपना
स्थान ग्रहण करती हैं । इन्हें दूसरी जगह सौर देवता वरुणके गुप्तचर
कहा गया है ।
2. यह ऋचा द्वितके प्रदेशोसे त्रितके प्रदेशोंतक दिव्य गतिके अगले
आरोहणका वर्णन करती है ।
3. अश्व प्राणशक्तिका प्रतीक है जैसे गौ प्रकाशका । पचास, सौ एवं
हजार--ये संख्याएँ पूर्णताकी प्रतीक हैं ।
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