Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
बाईसवाँ सूक्त
पूर्ण आनन्दकी ओर यात्राका सूक्त
[ वस्तुओंका भोक्ता मनुष्य अपनी कामनाओंकी तृप्ति आनन्दकी चरम समतामे प्राप्त करना चाहता है । इस लक्ष्यके लिये उसे उस दिव्य ज्वाला एवं द्रष्ट्री संकल्पशक्तिके द्वारा पवित्र बनना होता है जो अपने अन्दर सचे-तन अन्तर्दृष्टि और पूर्ण आनन्दोल्लास धारण किये है । अपने अन्दर उसे बढ़ाते हुए हम अपने प्रगतिशील यज्ञके द्वारा यात्रामें अग्रसर होंगे और देव-गण हमारे अन्दर अपने आपको पूर्णतया प्रकट करेंगे । हमें इस दिव्यशक्ति-का इस रूपमें स्वागत-सत्कार करना चाहिये कि वह हमारे घरका, हमारे भौतिक और मानसिक शरीरका स्वामी है, और हमें अपने सुखोपभोगके सम्पूर्ण बिषय उसे उसके भोजनके रूपमें अर्पित कर देने चाहियें । ]
१
प्र विश्वसामन्नत्रिवदर्चा पावकशोचिषे ।
यो अध्वरेष्वीवडचो होता मन्द्रतमो विशि ।।
(विश्वसामन्) हे सबमें एकसमान आत्मसिद्धि चाहनेवाले मनुष्य, (अत्रिवत्) सब पदार्थोंके भोक्ताके रूपमें तू (पावक-शोचिषे) चमकीली, पवित्र करनेवाली ज्वालाके अधिपतिके प्रति (अर्च) प्रकाशमय स्तुति-वचन गा, (य:) जो (अध्वरेषु) हमारे यज्ञोंकी यात्रामें (ईडच:) हमारी पूजाका पात्र है, (होता) हविरूप भेंटका वाहक पुरोहित है, (विशि मन्द्रतम:) प्राणिमात्रमें अत्यधिक आनन्दसे भरपूर है ।
२
न्यग्निं जातवेदसं दधाता देवमृत्यिजम् ।
प्र यज्ञ एत्यानुषगगद्या देवव्यचस्तम: ।।
(अग्निं) उस संकल्पाग्निको (नि दधात) अपने अन्दर स्थापित कर जो (जातवेदसं) सब उत्पन्न पदार्थोंका ज्ञाता है, (देवमू ऋत्विजं) ऋतुओंके अनुसार यज्ञ करनेवाला दिव्य याजक है । (अद्य) आज (यज्ञ:) तेरा यज्ञ (आनुषक्) निरन्तर (प्र एतु) प्रगति करे । वह (देवव्यचस्तम:) देवोंके सम्पूर्ण आविर्भावको तेरे प्रति प्रकाशित करे ।
१०६
३
चिकित्विन्मनसं त्वा देवं मर्तास ऊतये ।
वरेण्यस्य तेऽवस इयानासो अमन्महि ।।
(मर्तास:) हम मर्त्योंने (त्वा देवं) तुझ देवमें (अमन्महि) अपने मनको स्थित किया हैं क्योंकि तू (चिकित्वित्-मनसम्) सचेतन अन्तर्दर्शनसे युक्त मनवाला है । (इयानास:) जैसे हम यात्रा करते हैं वैसे ही (ऊतये अमन्महि) हम तेरा ध्यान करते हैं ताकि हम बढ़े और (ते वरेण्यस्य अवसे) तुझ अत्य-धिक वरणीयको भी बढ़ाये ।
४
अग्ने चिकिद्धचस्य न इदं वच: सहस्य ।
त त्वा सुशिप्र दम्पते स्तोमैर्वर्धन्त्यत्रयो गीर्भि: शुम्भन्त्यत्रय: ।।
(अग्ने) हे सकल्पाग्ने ! तू हमारे अन्दर (अस्य) इस अन्तर्दर्शनके प्रति (चिकिद्धि) जाग, (नः इदं वच:) तेरे प्रति हमारा यह वचन है । (सहस्य) हे शक्तिके अधीश्वर ! (सुशिप्र) हे दृढ़ जबड़ेवाले उपभोक्ता ! (दम्पते) हे हमारे घरके स्वामी ! (अत्रय:) वस्तुओंके भोक्ता वे (त्वां) तुझे (स्तोमै: वर्धयन्ति) अपनी स्तुतियोंसे बढ़ाते हैं और (अत्रय:) उपभोग-कर्ता वे (त्वा) तुझे (गीर्भी:) अपने स्तुतिवचनोंसे (शुम्भन्ति) उज्ज्वल- आनन्दमय वस्तु बनाते हैं ।
१०७
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.