वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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I I

 

ऋग्वेद

 

 ( भूमिका)

 

 ''आर्य'' पत्रिकामें ''वेद-रहस्य'' 1 में वेदसंबंधी जो नवीन मत प्रकाशित हो रहा है उसी मतके अनुसार है यह अनुवाद । उस मतके अनुसार वेदका यथार्थ अर्थ आध्यात्मिक है; किंतु गुह्य और गोपनीय होनेके कारण अनेक उपमाओं, सांकेतिक शब्दों, बाह्य यज्ञ-अनुष्ठानोंके उपयुक्त वाक्योंद्वारा वह अर्थ आवृत है । आवरण साधारण मनुष्योंके लिये अभेद्य था, पर दीक्षित वैदिक लोगोंके लिये झीना और सत्यके सब अङ्गोंकी प्रकाशक वस्तुमात्र था । उपमा इत्यादिके पीछे इस अर्थको खोजना होगा । देवताओंके ''गुप्त नामों'' तथा उनकी अपनी-अपनी क्रियाओं, ''गों'', ''अश्व" , ''सोमरस'' इत्यादि सांकेतिक शब्दोंके अर्थों, दैत्योंके कर्मो और गूढ़ अर्थों, वेदके रूपकों, गाथाओं (myths) इत्यादिका तात्पर्य जान लेनेपर वेदका अर्थ मोटे तौरपर समझमें आ जाता है । निस्संदेह, उसके गूढ़ अर्थकी वास्तविक और सूक्ष्म उपलब्धि विशेष ज्ञान और साधनाका फल है, विना साधनाके केवल वेदाध्ययनसे वह नहीं होती ।

 

इस सकल वेदतत्त्वको अपने पाठकोंके सम्मुख रखनेकी इच्छा हैं । अभी तो वेदकी केवल मुख्य बात ही संक्षेपमें बतायेंगे । यह हे : जगत् ब्रह्ममय है, पर ब्रह्मतत्त्व मनके लिये अज्ञेय हे । अगस्त्य ऋषिने कहा है : तत् अद्भुतम्, अर्थात् सबसे ऊपर और सबसे अतीत, कालातीत है वह । आज या कल कब कौन उसे जान सका है ? और सबकी चेतनामें उसका संचार होता हैं, किंतु मन यदि नजदीक जाकर निरीक्षण करनेकी चेष्टा करता है तो तत् अदृश्य हो जाता है । केनोपनिषद्के रूपकका भी यही अर्थ है, इन्द्र ब्रह्मकी ओर सवेग गति करते हैं, निकट जाते ही ब्रह्म अदृश्य हो जाता है । फिर भी तत् ''देव''--रूपमें ज्ञेय है ।

_______________ 

 ।. सन् 1914 से 1919 तक प्रकाशित ''आर्य'' पत्रिकामें श्रीअरविन्दने ''वेद-

    रहस्य'' शीर्षकसे जो लेखमाला लिखी थीं यहाँ उसीकी तरफ संकेत है ।

३००


 ''देव'' भी ''अद्भुत'' है किंतु त्रिधातुके अंदर प्रकाशित हैं--अर्थात् देव सन्मय, चित्-शक्तिमय, आनंदमय हैं । आनंदतत्त्वमें देवको प्राप्त किया जा सकता है । देव नाना रूपोंमें, विविध नामोंसे जगत्में व्याप्त हैं और उसे धारण किये हुए हैं । ये नाम-रूप हैं वेदके सब देवता ।

 

वेदमें कहा गया है कि दृश्य जगत्के ऊपर और नीचे दो समुद्र है । नीचे अप्रकेत ''हद्य'' वा ह्रत्समुद्र है, जिसे अंगरेजीमें अवचेतन (subcon-scient) कहते हैं,-ऊपर सत्-समुद्र हे जिसे अंगरेजीमें अतिचेतन (super-conscient ) कहते हैं । दोनोंको ही गुहा या गुह्यतत्त्व कहा जाता है । ब्रह्मणस्पति अप्रकेतसे वाक्द्वारा व्यक्तको प्रकट करते हैं, रुद्र प्राणतत्त्वमें प्रविष्ट हैं रुद्र-शक्तिद्वारा विकास करते हैं, जोर लंगाकर ऊपरकी ओर उठाते हैं, भीषण ताड़नाद्वारा गन्तव्य पथपर चलाते है, विष्णु व्यापक शक्तिद्वारा धारण कर इस नित्यगतिके सत्-समुद्र या जीवनकी सप्त नदियोंके गंतव्य स्थलको अवकाश देते हैं । अन्य सभी देवता है इस गतिके कार्यकर्त्ता, सहाय और साधन ।

 

सूर्य सत्य-ज्योतिके देवता हैं, सविता-सृजन करते हैं, व्यक्त करते है; पूषा-पोषण करते हैं, ''सूर्य''-अनृत और अज्ञानकी रात्रिमेंसे सत्य और ज्ञानालोकको जन्म देते हैं । अग्नि चित्-शक्तिका ''तप:'' हैं, जगत्का निर्माण करते हैं, जगत्की वस्तुओंमें विद्यमान हैं । वे भूतत्त्वमें हैं अग्नि, प्राणतत्त्वमें कामना और भोगप्रेरणा, जो पाते हैं भक्षण करते हैं, मनस्तत्त्वमें हैं चिन्तनमयी प्रेरणा और इच्छाशक्ति और मनोतीत तत्त्वमें ज्ञानमयी क्रियाशक्तिके अधीश्वर ।

 

 प्रथम मण्डल

 

सूक्त 1

 

मूल और व्याख्या

 

 

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवम् ऋत्यिजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।1।।

 

मैं अग्निकी उपासना करता हूँ जो यज्ञके देव, पुरोहित, ऋत्विक्, होता एवं आनंद-ऐश्वर्यका विधान करनेमें श्रेष्ठ हैं ।

 

ईळे-भजामि, प्रार्थये, कामये । उपासना करता हूँ ।

 

पुरोहितम्-जो यज्ञमें पुर:, सामने स्थापित हैं; यजमानके प्रतिनिधि और यज्ञके संपादक ।

३०१


 

 ऋत्विजम्-जो ऋतुके अनुसार अर्थात् काल, देश, निमित्तके अनुसार यज्ञका संपादन करे ।

 

होतारम्-जो देवताका आह्वान करके होम-निष्पादन करे ।

 

रत्नधा:-सायणने रत्नका अर्थ रमणीय धन किया है । आनंदमय

ऐश्वर्य कहना यथार्थ अर्थ होगा । धा का अर्थ है जो धारण करता है या

विधान करता है अथवा जो दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है ।

 

अग्नि: पूर्वेभिऋषिभि: ईडधो नूतनै: उत । स देवाँ एह वक्षति ।।2।।

 

जो अग्नि-देव प्राचीन ऋषियोंके भजनीय थे वे नवीन ऋषियोंके भी ( उत) भजनीय हैं । क्योंकि वें देवताओंको इस स्थानपर ले आते हैं ।

 

मंत्रके अंतिम चरणद्वारा अग्नि-देवके भजनीय होनेका कारण निर्दिष्ट किया गया है । 'सः' शब्द उसीका आभास देता है ।

 

एह वक्षति-इह आवहति । अग्नि अपने रथपर देवताओंको ले आते हैं ।

 

अग्निना रयिमश्नवत् पोषम् एव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम्  ।।3।।

 

रयिम्-रत्नका जो अर्थ है वही रयि:, राध, राय: इत्यादिका भी । फिरभी ''रत्न'' शब्दमें ''आनंद'' अर्थ अधिक प्रस्फुटित है ।

 

अश्नवत्-अश्नुयात् । प्राप्त हो या भोग करे ।

 

'पोषम्' प्रभृति रयि के विशेषण हैं । पोषम् अर्थात् जो पुष्ट होता है, वृद्धिको प्राप्त होता है ।

 

यशसम्-सायणने यशका अर्थ कभी तो कीर्ति किया है और कभी अन्न । असली अर्थ प्रतीत होता है सफलता, लक्ष्यस्थानकी प्राप्ति इत्यादि । दीप्ति अर्थ भी संगत है, किंतु यहाँ वह लागू नहीं होता ।

 

अग्ने यं यज्ञम् अध्वरं विश्वत: परिभू: असि । स इद् देवेषु गच्छति ।।4।।

 

जिस अध्वर यज्ञको चारों ओरसे व्यापे हुए तुम प्रादुर्भूत होते हो वही यज्ञ देवताओंतक पहुँचता है ।

 

अध्वरम्--'ध्वृ' धातुका अर्थ है हिंसा करना । सायणने 'अध्वर'का अर्थ अहिंसित यज्ञ किया है; किंतु 'अध्वर' शब्द स्वयं यज्ञवाचक हो गया है । ''अहिंसित''के वाचक शब्दका ऐसा अर्थ-परिवर्तन संभव नहीं । ''अध्वत्''' का अर्थ है पथ, अत : अध्वरका अर्थ 'पथगामी' अथवा 'पथस्वरूप' ही होगा । यज्ञ था देवधाम जानेका पथ और यज्ञ देवधामके पथिकके रूपमें सर्वत्र विख्यात है । यही है संगत अर्थ । 'अध्वर' शब्द भीं 'अध्वन्' की तरह 'अध्' धातुसे बना है । इसका प्रमाण यह है कि 'अध्वा' और 'अध्वर' दोनों ही आकाशके अर्थमें व्यवहृत थे ।

३०२

 



 

 

 

 

 परिभू:--परितो जात: (चारों ओर प्रादुर्भूत) ।

देवेषु--सप्तमीके द्वारा लक्ष्यस्थान निर्दिष्ट है ।

इत्-एव (हीं) ।

 

 अनुवाद

 

 अग्निमीले पुरोहित यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम् । होतार रत्नधातमम्  ।।1।।

 

जौ देवता होकर हमारे यज्ञके पुरोहित, ऋत्विक् और होता बनते हैं तथा अशेष आनन्दका विधान करते हैं, उन्हीं तपोदेव अग्निकी मैं उपासना करता हूँ ।।1।।

अग्निः पूर्वेभिर्ॠषिभिः ईडयो नूतनै: उत । स देवाँ एह वक्षति ।।2।।

 

प्राचीन ऋषियोंकी तरह आधुनिक साधकोंके लिये भी ये तपोदेवता उपास्य हैं । वे ही देवताओंको इस मर्त्यलोकमें ले आते हैं ।। 2।।

 

अग्निना रयिमश्नवत् पोषम् एव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ।।3।।

 

तप:-अग्निद्वारा ही मनुष्य दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वही ऐश्वर्य अग्निबलसे दिन-दिन वर्द्धित, अग्निबलसे विजयस्थलकी ओर अग्रसर तथा अग्निबलसे ही प्रचुर-वीरशक्तिसंपन्न होता है ।।3।।

 

अग्ने यं यज्ञम् अध्वरं विश्वत: परिभू: असि । स इद् देवेषु गच्छति ।।4।।

 

हे तप-अग्नि, जिस देवपथगामी यज्ञके सब ओर तुम्हारी सत्ता अनुभूत होती है, वह आत्मप्रयासरूपी यज्ञ ही देवताओंके निकट पहुंचकर सिद्ध होता है ।।4।।

 

अग्निर्होता कीवक्रतु: सत्यश्चित्रश्रबस्तम: । देवो देवेभिरागमत् ।।5।।

 

जो तप:-अग्नि होता, सत्यमय हैं, जिनकी कर्मशक्ति सत्यदृष्टिमें स्थापित है, नानाविध ज्योतिर्मय श्रौत ज्ञानमें जो श्रेष्ठ हैं, वही देववृंदको साथ ले यज्ञमें उतर आवें ।।5।।

 

यदङ्ग: दाशुषे त्वभग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत् सत्यमङि्गर: ।।6।।

 

हे तप:-अग्नि, जो तुम्हें देता है तुम तो उसके श्रेयकी सृष्टि करोगे ही, यही है तुम्हारी सत्य सत्ताका लक्षण ।।6।।

 

उप त्याग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ।।7।।

३०३


 हे अग्नि, प्रतिदिन, अहर्निश हम बुद्धिके विचारद्वारा आत्मसमर्पणको उपहारस्वरूप वहन करते हुए तुम्हारे निकट आते हैं ।।7।।

 

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्द्धमानं स्बे दमे ।। 8।।

 

जो समस्त देवोन्मुख प्रयासके नियामक, सत्यके दीप्तिमय रक्षक हैं, जो अपने धाममें सर्वदा वर्द्धित होते हैं, उन्हींके निकट हम आते है ।।8 ।।

 

स नः पितेव सूनवेदुग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ।। 9।।

 

जिस तरह पिताका सामीप्य संतानके लिये सुलभ है उसी तरह तुम भी हमारे लिये सुलभ होओ । दृढ़संगी बन कल्याणगति साधित करो ।।9।।

 

 आध्यात्मिक अर्थ

 

 विश्व-यज्ञ

 

विश्वजीवन बृहत्-यज्ञस्वरूप है । उस यज्ञके देवता हैं स्वयं भगवान् और प्रकृति है यज्ञदात्री । भगवान् हैं शिव और प्रकृति उमा । उमा अपने अंतरमें शिव-रूपको धारण करनेपर भी प्रत्यक्षमें शिवरूपविरहित हैं, प्रत्यक्षमें शिव-रूपको पानेके लिये लालायित । यही लालसा है विश्व-जीवन- का निगूढ़ अर्थ ।

 

किन्तु किस उपायसे मनोरथ सफल हो ? पुरुषोत्तमतक पहुंच पानेका कौनसा पथ प्रकृतिके लिये निर्दिष्ट है ? अपने स्वरूपको पा पुरुषोत्तमके स्व- रूपको पानेका क्या उपाय है ? आंखोंपर अज्ञानका आवरण, चरणोंमें स्थूलके सहस्र बंधन । स्थूल सत्ताने मानो अनंत सत्को भी सान्तमें बांध लिया है, मानो स्वयं भी बन्दी हो गयी है, स्वयंरचित्त इस कारागारकी खोयी चाबी अब और हाथ नहीं लग रही । जड़-प्राणशक्तिके अवश संचारसे अनंत, उन्मुक्त चित्शक्ति मानो विमूढ़, विलीन, अभिभूत, अचेतन हो गयी है । अनंत आनंद तुच्छ सुख-दुःखके अधीन प्राकृत चैतन्य बन छद्मवेशमें घूमते-घूमते मानो अपने स्वरूपको ही भूल गया है, अब उसे खोज ही नहीं पाता, खोजते- खोजते दुःखके और भी असीम पंकमें निमज्जित हो जाता है । सत्य मानो अनृतकी द्वैधमयी तरंगमें डूब गया है । मानसातीत विज्ञानतत्त्व अनंत सत्य-का आधारस्थल है । विज्ञानतत्त्वकी क्रिया पार्थिव चैतन्यके लिये या तो

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निषिद्ध है या विरल, मानो परदेके पीछेसे क्षणिक विद्यूतत्का उन्मेषमात्र हो । सत्य और अनृतके बीच दोलायमान, भीरु, खंज, विमूढ़ मानसतत्त्व घूम-फिरकर सत्यको खोजता रहता है, राक्षसी प्रयाससे सत्यका आभास पा भी सकता है, किन्तु सत्यके पूर्ण, प्रकृत, ज्योतिर्मय, अनंत रूपकों नहीं पाता । जैसे ज्ञानमें वैसे ही कर्ममें भी वही विरोध, वही अभाव, वही विफलता । सहज सत्य कर्मके हास्यमय देवनृत्यके बजाय होश है प्राकृत इच्छाशक्तिकी शृंखलाबद्ध चेष्टा जो सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, विष-अमृत, कर्म-अकर्म-विकर्मके जटिल पाशमें छटपटाया करती है । वासनाहीन, वैफल्यहुनि, आनंदमय, प्रेममय, ऐक्यरसमें मत्त भागवती क्रियाशक्ति मुक्त, अकुंठित, अस्खलित होनी है, उसका सहज-स्वाभाविक विश्वमय संचरण प्राकृत इच्छाशक्तिके लिये असंभव है । सांत-के अनृत जालमें पड़ी हुई इस पार्थिव प्रकृतिके लिये उस अनंत सत्, उस अनत चित्-शक्ति, उस अनंत आनंद-चैतन्यको प्राप्त करनेकी भला क्या आशा है, उपाय ही क्या है ?

 

यज्ञ ही है उपाय । यज्ञका अर्थ है आत्मसमर्पण, आत्मबलिदान । जो कुछ तुम हों, जो कुछ तुम्हारा है, जो कुछ भविष्यमें निज चेष्टासे या देव- कृपासे बन सकते हों, जो कुछ कर्मप्रवाहमें अर्जित या संचित कर सको, सब उसी अमृतमयको लक्ष्य कर हवि-रूपमें तप-अग्निमें डाल दो । क्षुद्र सर्वस्वका दान करनेसे अनंत सर्वस्व प्राप्त करोगे । यज्ञमें योग निहित है । योगसे आनन्त्य, अमरत्व और भागवत आनन्दकी प्राप्ति विहित है । यही है प्रकृति-के उद्धारका पथ ।

 

जगती-देवी इस रहस्यको जानती है । अतएव इस विपुल आशासे वे अनिद्रित, अशांत, दिन-रात, वर्षपर वर्ष, युगपर युग यज्ञ ही कर रही हैं । उनके सभी कर्म, सभी प्रयास है उसी विश्वयज्ञके अंगमात्र । जो कुछ भी वे उत्पादित कर सकी हैं उसीकी बलि चढ़ा रही हैं । वे जानती हैं कि सबमें वही लीलामय अकुंठित मनसे रसास्वादन कर रहे हैं, यज्ञ-रूपमें सब प्रयत्न, सब तप ग्रहण कर रहे हैं । वही विश्वयज्ञको धीरे-धीरे, घुमा-फिराकर टेढ़े-मेढ़े उत्थानमें, पतनमें, ज्ञानमें, अज्ञानमें, जीवनमें, मृत्युमें निर्दिष्ट पथसे निर्दिष्ट गन्तव्य धामकी ओर सर्वदा अग्रसर कराते हैं । उन्हींके भरोमे प्रकृतिदेवी निर्भीक, अकुंठित, विचारहीन है । वे सर्वत्र ही, सर्वदा ही भागवती प्रेरणा समझ सृजन और हनन, उत्पादन और विनाश, ज्ञान और अज्ञान, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, कच्चा-पक्का, कृरत्सित-सुन्दर, पवित्र-अपवित्र, जो हाथमें पाती हैं सब उसी बृहत् चिरंतन होमकुण्डमें निक्षिप्त करती हैं । स्थूल है सूक्ष्म यज्ञकी हवि, जीव है यज्ञका बद्ध पशु । यज्ञके मन-प्राण

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 देह-रूप त्रिबन्धन-युक्त यूपकाष्ठमें जीवको बांध प्रकृतिदेवी उसे अहरह बलि दे रही हैं । मनका बंधन है अज्ञान, प्राणका बन्धन दुःख, वासना और: विरोध, देहका बंधन मृत्यु ।

 

प्रकृतिका उपाय तो निर्दिष्ट हुआ किन्तु इस बद्ध जीवका क्या उपाय होगा ? उपाय है यज्ञ, आत्मदान, आत्मबलि । पर प्रकृतिके अधीन न हो, प्रकृतिद्वारा प्रदत्त न हो स्वयं उठ खड़े हो, यजमान बन सर्वस्व दे देना होगा । यही विश्वका निगूढ़ रहस्य है कि पुरुष ही जैसे यज्ञका देवता है, वैसे पुरुष ही यज्ञकी वस्तु भी । जीव भी पुरुष है । पुरुषने अपने मन, प्राण और शरीरको बलि-रूपमें, यज्ञके प्रधान उपायके रूपमें प्रकृतिके हाथ समर्पित कर दिया है । उनके इस आत्मदानमें यह गुप्त उद्देश्य निहित है कि एक दिन चैतन्य प्राप्त कर, प्रकृतिको अपने हाथमें ले, प्रकृतिको यज्ञकी सहधर्मिणी बना वे स्वयं यज्ञ संपन्न करेंगे । इसी गुप्त कामनाको पूरी करनेके लिये हुई है नरकी सृष्टि । नर-मूर्त्तिमें वे वही लीला करना चाहते है । आत्मस्वरूप, अमरत्व, अनंत आनन्दका विचित्र आस्वादन, अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति, अनंत प्रेमका भोग नरदेहमें, नर-चैतन्यमें करना होगा । यह सब आनंद तो पुरुषके अपने अंदर है ही, पुरुष अपने अंदर सनातन रूपसे सनातन भोग कर रहे हैं । किन्तु मानवकी सृष्टि कर वे बहुमें एकत्व, सान्त-में अनन्त, बाह्यमें आंतरिकता, इन्द्रियमें अतीन्द्रिय, पार्थिवमें अमरलोकत्व, इस विपरीत रसको ग्रहण करनेमें तत्पर हैं । हमारे अंदर मनके ऊपर, वुद्धिके उस पार, गुप्त सत्यमय विज्ञानतत्त्वमें बैठ, फिर हमारे ही अन्दर हृदयके नीचे चित्तका जो गुप्त स्तर है, जहाँ हृदयगुहा है, जहाँ अंतर्निहित गुह्य चैतन्यका समुद्र है, हृदय मन, प्राण, देह और बुद्धि जिस समुद्रकी छोटी-छोटी तरंगे हैं, वहीं बैठ वे पुरुष प्रकृतिके अंध प्रयास, अंध अन्वेषण, द्वंद्व-प्रतिघातद्वारा ऐक्य-स्थापनकी चेष्टाका रसास्वादन करते हैं । ऊपर सज्ञान भोग देर, नीचे अज्ञानपूर्ण भोग, इस प्रकार दोनों एकसंग चल रहे हैं । किन्तु चिरकाल तक इसी अवस्थामें मग्न रहनेसे उनकी निगूढ़ प्रत्याशा, उनका चरम उद्देश्य सिद्ध नहीं होता । इसी लिए प्रत्येक मनुष्यके जागरणका दिन विहित है । अंतरस्थ देवता एक दिन अवश, पुण्यहीन, प्राकृत आत्मबलि त्यागकर सज्ञान, समंत्र यज्ञ-संपादन करना आरम्भ करेंगे । यहीं सज्ञान, समंत्र यज्ञ वेदोक्त ''कर्म'' है । उसका उद्देश्य द्विविध है, विश्वमय बहुत्वमें पूर्णता-लाभ जिसे वेदमें विश्वदेव्य और वैश्वानरत्व कहा गया हैं, और एकात्मक पंरम-देवसत्तामें अमरत्व-लाभ । ये वेदोक्त देवतागण अर्वाचीन, साधारण लोगोंके हेय इन्द्र, अग्नि, वरुण-नामक क्षुद्र देवता नहीं, ये हैं भगवान्की ज्योतिर्मयी,

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 शक्तिसंपन्न नाना मृर्त्तियाँ । और यह अमरत्व पुराणोक्त तुच्छ स्वर्ग नहीं, है वैदिक ऋषियोंका अभिलषित स्व:, अनंत लोकका आधार, वेदोक्त अमरत्व, सच्चिदानंदमय अनंत सत्ता और चैतन्य ।

 

 प्रथम मण्डल

 

सूक्त 17

 

मूल और अनुवाद

 

 इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ।।1।।

 

हे इन्द्र, हे वरुण, तुम्हीं सम्राट् हो, तुम देवोंको ही हम रक्षक-रूपमें वरण करते हैं,--ऐसे तुम इस अवस्थामें हमारे ऊपर उदित होओ ।1।।

 

गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावत: । धर्तारा चर्षणीनाम् ।।2।।

 

कारण, जो ज्ञानी शक्ति धारण कर पाते हैं, उन्हींके यज्ञस्थलमें तुम देव रक्षा करनेके लिये उपस्थित होते हो । तुम ही सब कार्योंके धारणकर्त्ता हो ।।2।।

 

अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । तां वां नेदिष्ठमीमहे ।।3।।

 

आधारके आनंद-प्राचुर्यमें यथाकामना आत्मतृप्ति अनुभव करो, हे इन्द्र और वरुण, हम तुम्हारे अत्यंत निकट सहवास चाहते हैं ।।3 ।।

 

युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ।।4।।

 

जो शक्तियाँ एवं जो सुबुद्धियाँ आतरिक ऋद्धि बढ़ाती हैं, उन्हीं सबके प्रबल आधिपत्यमें हम मानो प्रतिष्ठित रहें ।।4।।

 

इन्द्र: सहस्रादाव्नां वरुण: शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्य: ।।5।।

 

जों-जों शक्तिदायक हैं उनके इन्द्र, और जो-जो प्रशस्त और महत् हैं उनके ही वरुण स्पृहणीय प्रभु हों ।।5।।

 

तयोरिदवसा वय सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम् ।।6।।

 

इन दोनोंके रक्षणसे हम स्थिर सुखके साथ निरापद रहते एवं गभीर ध्यानमें समर्थ होते हैं । हमारी पूर्ण शुद्धि हो ।।6।।

 

इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृतम् ।।7।।

 

हे इन्द्र, हे वरुण, हम तुमसे चित्र-विचित्र आनंद प्राप्त करनेके लिये यज्ञ करते हैं, हमें सर्वदा विजयी बनाओ ।! 7।।

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 इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्या । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम् ।।8।।

 

हे इन्द्र, हे वरुण, हमारी बुद्धिकी सभी वृत्तियाँ हमारी वश्यता स्वीकार करें, उन सभी वृत्तियोंमें अधिष्ठित हो हमें शान्ति प्रदान करो ।।8।।

 

प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम् ।।9।।

 

हे इन्द्र, हे वरुण, यह जो सुन्दर स्तव हम तुम्हें यज्ञरूपमें अर्पित करते हैं, वह तुम्हारा भोग्य हो, उस साधनाके लिये तुम ही स्तव-वाक्यको पुष्ट और सिद्धियुक्त बना रहे हो ।।9।।

 

 व्याख्या

 

 प्राचीन ऋषि जब आध्यात्मिक युद्धमें अंतर-शत्नुका प्रबल आक्रमण होनेपर देवताओंकी सहायता पानेके लिये प्रार्थना करते, साधनापथपर किञ्चित् अग्रसर होनेपर अपूर्णताका अनुभवकर पूर्णताकी प्रतिष्ठाकी, मनमें बाज: अथवा शक्तिकी स्थायी घनीभूत अवस्थाकी कामना करते अथवा अन्तर- प्रकाश और आनंदकी परिपूर्णतामें उसीकी प्रतिष्ठा करनेमें योगदान देने या उसकी रक्षा करनेके लिये देवताओंका आह्वान करते, तब हम देखते हैं कि वे प्राय: युग्म-रूपमें अमरगणके सम्मुख एक वाक्य, एक स्तवद्वारा पुकारकर अपना मनोभाव प्रकट करते थे । अश्वि-युगल (अश्विनौ), इन्द्र और वायु, मित्नु और वरुण ऐसे संयोगोंके उदाहरण हैं । इस स्तवमें इन्द्र और वायु नहीं हैं, मिल और वरुण भी नहीं । इन्द्र और वरुणका इस प्रकारका संयोग कर कण्ववंशज मेधातिथि आनंद, महत्त्वसिद्धि और शान्तिके लिये प्रार्थना कर रहे हैं । इस समय उनके मनका भाव उच्च, विशाल और गंभीर है । वे चाहते हैं मुक्त और महत् कर्म, चाहते हैं प्रबल तेजस्वी भाव, किन्तु वह बल प्रतिष्ठित होगा स्थायी, गम्भीर और विशुद्ध ज्ञानपर, वह तेज शान्तिके दो विशाल पक्षोंपर आरूढ़ हो कर्मरूपी आकाशमें विचरण करेगा । आनंदके अनंत सागरमें निमग्न होनेपर भी, आनंदकी चित्न-विचित्न तरंगोंपर आंदोलित होनेपर भी वे चाहते हैं वही स्थैर्य, महिमा और चिरप्रतिष्ठाका अनुभव । उस सागरमें डूब आत्म-ज्ञान खोनेको, उन तरंगोंपर लुलितदेह गोता खानेको वे अनिच्छुक है । उस महाकांक्षाकी प्राप्ति करानेके योग्य सहायता देनेवाले देवता हैं इन्द्र और वरुण--राजा इन्द्र, सम्राट् वरुण । समस्त मानसिक

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वृत्तियों, अस्तित्व और कार्यकारित्वके, मानसिक तेज और तप:के दाता इन्द्र ही हैं, वृत्नोंके आक्रमणसे उसकी रक्षा वे ही करते हैं । चित्त और चरित्नोंके जितने भी महत् और उदार भाव हैं, जिनके अभावमें मन और कर्ममे उद्धतता, संकीर्णता, दुर्बलता या शिथिलताका आना अवश्यंभावी है, उनकी स्थापना और रक्षा वरुण करते हैं । अतएव इस सूक्तके प्रारम्भमें ऋषि मेधातिथि इन दोनोंकी सहायता और मित्रताका वरण करते हैं । इन्द्रावरुणयोरहमव आ वृणे । 'सम्राजो:', क्योंकि वे ही सम्राट् हैं । अतएव ईदृशे, इस अवस्था-में (मनकी जिस अवस्थाका वर्णन किया है उसमें) या इस अवसरपर वे अपने लिये और सबके लिये उनकी प्रसन्नताकी प्रार्थना करते हैं-ता नो मृळात ईदृशे । जिस अवस्थामें देह, प्राण, मन तथा विज्ञानांशकी सभी वृत्तियाँ और चेष्टाएँ अपने स्थानमें समारूढ़ और आवृत रहती हैं, किसीका भी जीवपर आधिपत्य, विद्रोह अथवा यथेच्छाचार नहीं होता, सभी अपने-अपने देवताकी पराप्रकृतिकी वश्यता स्वीकार कर अपना-अपना कर्म भगवन्निर्दिष्ट समयपर और परिमाणमें आनंदके साथ करनेमें अभ्यस्त होती हैं, जिस अवस्थामें गभीर शान्ति तथा साथ ही तेजस्विनी, सीमारहित, प्रचण्ड कर्म-शक्ति होती है, जिस अवस्थामें जीव स्वराज्यका स्वराट् एवं अपने आधारभूत आन्तरिक राज्यका यथार्थ सम्राट् होता है और उसीके आदेशसे या उसीके आनंदके लिये सभी वृत्तियाँ सुचारु रूपसे परस्पर सहायता करती हुई कर्म करती हैं अथवा उसकी इच्छा होनेपर गंभीर तमोरहित नैष्कर्म्यमें मग्न हो अतल शान्तिके अनिर्वचनीय आनंदका आस्वादन करती हैं, उसी अवस्थाको प्रथम युगके वैदान्तिक स्वराज्य वा साम्राज्य कहा करते थे । इन्द्र और वरुण उसी अवस्थाके विशेष अधिष्ठाता हैं, सम्राट् हैं । इन्द्र सम्राट् बन अन्य सभी वृत्तियोंको चालित करते हैं, वरुण सम्राट् बन अन्य सभी वृत्तियोंपर शासन करते और उन्हें महिमान्वित करते हैं ।

 

इन महिमान्वित देवता-द्वयकी संपूर्ण सहायता प्राप्त करनेके अधिकारी सभी नहीं होते । जो ज्ञानी हैं, धैर्य-प्रतिष्ठित हैं वे ही हैं अधिकारी । 'विप्र' होना होगा, 'मावान्' बनना होगा । विप्रका अर्थ ब्राह्यण नहीं । 'वि' धातुका अर्थ है प्रकाश, 'विप्' धातुका अर्थ है प्रकाशकी क्रीड़ा, कंपन या पूर्ण उच्छ्वास । जिसके मनमें ज्ञानका उदय हुआ है, जिसके मनका द्वार ज्ञानकी तेजस्वी क्रीड़ाके लिये मुक्त है, वही हैं विप्र । 'गा' धातुका अर्थ है धारण करना । जननी गर्भमें संतान धारण करती है, इसीलिये वह 'माता' नामसे अभिहित है । आकाश समस्त भूतके, समस्त जीवके जन्म, क्रीड़ा और मृत्युको अपने गर्भमे धारण कर स्थिर, अविचलित बना रहता है, इसलिये

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वह समस्त कर्मके प्रतिष्ठापक, प्राणस्वरूप वायुदेवता मातरिश्वाके नामसे विख्यात है । आकाशकी तरह ही जिसमें धैर्य और धारण-शक्ति है, जब प्रचण्ड बवण्डर दिङ्मण्डलको आलोड़ित कर प्रचण्ड हुंकारके साथ वृक्ष, पशु, गृहतकको  उड़ाता हुआ रुद्र-भयंकर रासलीलाका नृत्य-अभिनय करता है तब आकाश उस क्रीड़ाको जिस प्रकार सहन करता हैं, चुपचाप आत्ममुखमें मग्न रहता है, उसी तरह जो प्रचण्ड, विशाल आनन्दको, प्रचण्ड-रुद्र कर्मस्रोतको, यहाँतक कि शरीर या प्राणकी असह्य यंत्नणाको भी, अपने आधारमें उस क्रीड़ाके लिये उन्मुक्त क्षेत्न प्रदान कर, अविचलित और आत्मसुखमें प्रफुल्ल रहता हुआ, साक्षी-रूपसे धारण करनेमें समर्थ होता है वही है 'मावान्' । जिस समय ऐसे मावान् विप्र, ऐसे धीर ज्ञानी अपने आधारको वेदी बना यज्ञके लिये देवताओंका आवाह्न करते हैं, उस समय इन्द्र और वरुणकी वहाँ अबाध गति होती है, वे स्वेच्छासे भीं उपस्थित होते हैं, यज्ञकी रक्षा करते हैं, उसके समस्त अभीप्सित कर्मके आश्रय और अवलंब बन ( धर्त्तारा चर्षणीनाम्) विपुल आनंद, शक्ति और ज्ञानका प्रकाश प्रदान करते है ।

 

 प्रथम मण्डल

 

सूक्त 75

 

 

षस्व सप्रथस्तमं वचो देवप्सरस्तमम् । हव्या जुह्वान आसनि ।।1।।

 

जुमैं जिसे व्यक्त करता हूँ वह अतिशय विस्तृत और बृहत् है एवं देवता- कै भोगकी सामग्री है, उसे तुम प्रेमसहित आत्मसात् करो । जितन: भी हव्य प्रदान करो, सब अपने ही मुहमें अर्पण करो ।।1।।

 

अथा ते अङ्गिरस्तमाग्ने वेधस्तम प्रियम् । वोचेम भ्रह्य सानसि ।। 2।।

 

हे तप:-देव !  हे शक्तिधारियोमें श्रेष्ठ तथा उत्तम विधाता । मैं हृदयका जो मन्त्र व्यक्त करता हूँ वह तुम्हें प्रिय हो और मेरी अभिलपित वस्तुओंके विजया भोक्ता बनो ।।2।।

 

कस्ते जामिर्जनानामग्ने को दाश्वध्वर: । को ह कस्मिन्नसि श्रित: ।|3|

 

हे तप:-देव अग्नि ! जगत्में कौन तुम्हारा साथी और भाई है ? तुम्हें देवगामी सख्य देनेमें कौन समर्थ है ? तुम ही कौन हो ? किसके अन्तरमें अग्निदेवका आश्रय हे ? ।।3।।

 

त्व जाभिर्जनानामग्ने मित्रो असि प्रियः । सखा सखिम्य ईडच: ।।4।।

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 हे अग्नि । तुम ही सब प्राणियोंके भ्राता हो, तुम ही जगत्के प्रिय वन्धु हो, तुम ही सखा और अपने सखाओंके काम्य हो ।।4।।

 

यजा नो मित्रावरुणा यजा देवाँ ऋतं वृहत् । अग्ने यक्षि स्वं दमम् ।।| 5।।

 

मित्र और वरुणके लिये, देवताओंके लिये, बृहत् सत्यके लिये यज्ञ करो । हे अग्नि ! वह सत्य तुम्हरा अपना ही घर है, उसी लक्ष्यस्थलपर यज्ञको प्रतिष्ठित करो ।।5।।

 

 तृतीय मण्डल

 

सूक्त 46

 

मूल और अनुवाद

 

युध्मस्य ते वृषभस्य स्वराज उग्रस्य यूनः स्थविरस्य धृष्वे: ।

अजूर्यतो वज्रिणो वीर्याणीन्द्र श्रुतस्य महतो महानि ।।1 ।।

 

जो देवता पुरुष, योद्धा, ओजस्वी, स्वराट् हैं, जो देवता नित्ययुवा, स्थिर-शक्ति, प्रखर, दीप्तिस्वरूप और अक्षय, अति महान् हैं, वही हैं श्रुतिधर, वज्रधर इन्द्र, अति महान् हैं उनके समस्त वीरकर्म ।।1।।

 

महाँ असि महिष वृष्ण्येभिर्धनस्पृदुग्र सहमानो अन्यान् ।

एको विश्वस्य भुवनस्य राजा स योधया च क्षयया च जनान् ।।2। ।

 

हे विराट् ! हे ओजस्वी ! तुम महान् हो, अपनी विस्तार-शक्तिके कर्मद्वारा तुम अन्य सबपर जोर-जबर्दस्ती कर उनसे हमारा अभिलषित धन छीन लो । तु।म एक हो, समस्त जगत्में जो कुछ दृष्ट हो रहा हैं उस सबके राजा हो, मनुष्यको युद्धकी प्रेरणा दो, उसके जेय स्थिर-धाममें उसे स्थापित करो |2।।

 

प्र मात्राभी रिरिचे रोचमानः प्र देवेभिर्विश्वतो अप्रतीत: ।

प्र मज्मना दिव इन्द्र: पृथिव्याः प्रोरोर्महो अन्तरिक्षादृजीषी ।।3।।

 

इन्द्र दीप्ति-रूपमें प्रकट होकर जगत्की समस्त मात्राका अतिक्रमण कर जाते हैं, देवताओंको भीं सब ओरसे अनंतभावसे अतिक्रम कर सबके लिये अगम्य हो जाते हैं ।.. साथ हीं, ऋजुगामी ये शक्तिधर इन्द्र अपनी ओज-स्वितासे मनोजगत्, विस्तृत भूलोक एवं महान् प्राणजगत्को भी अतिक्रम कर जाते हैं ।।3 ।।

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उरुं गभीरं जनुषाम्युग्रं विश्वव्यचसमवतं मतीनाम् ।

इन्द्रं सोमास: प्रदिवि सुतास: समुद्रं न स्रवत आ विशन्ति ।।4।।

 

इस विस्तृत और गभीर, इस जन्मत: उग्र और तेजस्वी, इस सर्वविकास-कारी और सर्वविचारधारक इन्द्र-रूप समुद्रमें जगत्के सभी मद्यकर रसप्रवाह मनोलोककी ओर अभिव्यक्त होकर स्रोतस्विनी नदियोंकी तरह प्रवेश करते हैं ।।4।।

 

यं सोममिन्द्र पृथिवीद्यावा गर्भ न माता बिभृस्त्वाया ।

तं ते हिन्वन्ति तमु ते मृजन्त्यध्वर्यवो वृषभ पातवा  उ ।।5।।

 

हे शक्तिधारी, जिस तरह माता अजात शिशुको धारण करती है उसी तरह इस आनंद-मदिराको मनोलोक और भूलोक तुम्हारी ही कामनासे धारण करते हैं । हे वर्षक इन्द्र ! अध्वरका अध्वर्यु तुम्हारे ही लिये, तुम्हारे ही पानके लिये उस आनंदप्रवाहको दौड़ाता है, तुम्हारे लिये ही उस आनंदको: परिशुद्ध करता है ।।5 ।।

 

 ॠ. 9.1. 1

 

मूल और अनुवाद

 

 स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुत: ।।1।।

 

स्वादिष्ठ, मादकतम धारामें, पवित्र स्रोतमें बहो, हे सोमदेव, इन्द्रके पानार्थ तुम् अभिषुत हो ।।1।।

 

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