वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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परिशिष्ट 31

 

 ऋग्वेदकी पहली ऋचा प्रथम मण्डल

 

प्रथम मण्डल

 

प्रथम सूक्त 

 

 

विश्वामित्रके पुत्र मधुच्छन्दस्का गायत्नी-छन्दमें लिखा अग्नि-सूक्त । इसका पहला मन्त्र देवभाषामें इस प्रकार है :--

 

अग्निमीळे पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।

होतारं रत्नधातमम् ।।1।।

 

इसका अर्थ है :--''मै अग्निकी उपासना करता हूँ जो परमेश्वरके सम्मुख स्थित है, सत्यका द्रष्टा देव है, योद्धा है, आनन्दका शक्तिशाली विधाता है ।''

 

इस प्रकार ऋग्वेद अग्निके आवाहनसे, विशुद्ध, शक्तिमान् और तेजोमय परमेश्वरकी उपासनासे आरम्भ होता हैं । ''अग्नि (जो अग्रणी, सर्वप्रधान और शक्तिशाली है) '', ऋषि आह्वान करता हुआ कहता है, ''उसीकी मैं उपासना करता हूँ ।'' अन्य सब देवोंसे पहले अग्निकी ही क्यों ? क्योंकि वही यज्ञ अर्थात् पदार्थोंके दिव्य स्वामीके सम्मुख स्थित है; क्योकि वही एक एसा देव है जिसकी जाज्वल्यमान आँखें सत्य (सत्यम्) अर्थात् विज्ञान (विज्ञानम् )को सीधे देख सकती हैं, जो सत्य, जो विज्ञान ऋषिका अपना विशेष लक्ष्य और काम्य है और जिसपर संपूर्ण वेद प्रतिष्ठित है; क्योंकि वही एक ऐसा योद्धा है जो अज्ञान और सीमाके उन सब कुटिल आकर्षणोंके  साथ (अस्मज्जुहुराणम् एन:) जो योगीके मार्गमें निरन्तर रोड़े अटकाते हैं, युद्धकर उन्हें दूर हटा देता है; क्योंकि सत्ताके गुप्त उच्चतर गोलार्द्ध (अव्य-क्त, परार्द्ध) से प्रवाहित होनेवाले तपस्, विशुद्ध भागवत अतिचेतन शक्तिके माध्यमके रूपमें वह, अन्य किसीसे भी अधिक, दिव्य आनन्दका प्रस्फुटन और विधान करता है । यह है मंत्रका तात्पर्य ।

__________

1. इसमें समाविष्ट, प्रकीर्ण वेदविषयक लेख मूल अंग्रेजीसे अनूदित किये

   गये हैं । अंग्रेजी और हिन्दीमें ये पहली बार श्रीअरविन्दकी वेदविषयक

   कृतिके शताब्दी-संस्करणमें पुस्तकाकार प्रकाशित हो रहे हैं ।--अनुवादक

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यह यज्ञ कौन है और यह अग्नि ही कौन है ? यज्ञ जगत्का प्रभु, विराट् चैतन्यमय प्राज्ञ (मूर्तिमती प्रज्ञा) है जो अपने जगत्का स्वामी और नियन्ता है, यज्ञ है परमेश्वर । अग्नि भी चैतन्यमय प्राज्ञ है जो उस 'पुरुष'से ही, उसका कार्य करने और उसकी शक्तिका प्रतिनिधित्व करनेके लिए, निर्गत एवं सृष्ट हुआ है; अग्नि एक देव है । स्थूल इन्द्रिय न ईश्वरको देखती है न देवोंको, न यज्ञको, न अग्निको; वह तो देखती है केवल (पञ्ज) भूतों और .उनकी रूप-रचनाओको, दृश्य भौतिक पदार्थोंको और उनकी या उनके अन्दर होनेवाली क्रियाओंको । वह अग्नितत्त्वको नही, आगको देखती है; वह परमेश्वरको नहीं देखती, वह पृथ्वीको हरा-भरा तथा सूर्यको आकाशमें देदीप्यमान देखती है और सरसराती हवाको अनुभव करती और बहते जलों को देखती हैं । इसी प्रकार वह मनुष्यके शरीर या आकारको देखती है न कि स्वयं पुरुषको; वह दृष्टि या हाव-भावको देखती है पर दृष्टि या हाव-भावके पीछे स्थित विचारसे सचेतन नहीं होती । तथापि शरीरके अन्दर पुरुषका अस्तित्व तो है ही और दृष्टि या हाव-भावके अन्दर विचार रहता ही है । इसी प्रकार आगमें अग्नितत्त्व और जगत्में ईश्वर है ही । वे आगके बाहर तथा उसके अन्दर और जगत्के बाहर तथा उसके अन्दर भी रहते है

 

आगमें या जगत्में वे किस प्रकार रहते हैं ?--जैसे 'पुरुष' अपने शरीर- मे और विचार दृष्टि या हाव-भावमें रहता है । शरीर 'स्वयं पुरुष' नही छए और हाव-भाव 'स्वय विचार' नहीं है; शरीर है अभिव्यक्तिगत (अभि-व्यक्तिमें आया हुआ) रुरुष और हाव-भाव है अभिव्यक्तिगत विचार । इसी- प्रकार आग 'स्वयं अग्नि' नहीं बल्कि अभिव्यक्तिगत अग्नि है और जगत् 'स्वयं ईश्वर' नहीं वरन् अभिव्यक्तिगत ईश्वर है । 'पुरुष' केवल अपने शरीरसे हीं अभिव्यक्तिको नहीं प्राप्त होता, बल्कि अपने कर्म और चेष्टासे भी, .और इनके. द्वारा वह शरीरकी अपेक्षा कहीं अधिक पूर्ण रूपमें अभि- व्यक्त होता है । विचार केवल दृष्टि और हाव-भावसे ही व्यक्त नही होता, बल्कि वह इससे कहीं अधिक पूर्ण रूपमें कार्य और वाणी द्वारा भी प्रकट होता है । इसी प्रकार 'अग्नि' केवल अके द्वारा ही प्रकट नहीं होता, अपितु जगत्में ताप, दीप्ति और शक्तिके तत्त्वकी सूक्ष्म और स्थूल-भौतिक जो भी क्रियाएँ होती हैं उन सबके द्वारा भी ह और भी अधिक पूर्ण रूप-मे व्यक्त होता है । परमेश्वर केवल इस जड़भौतिक जगत्के द्वारा ही व्यक्त नही होता बल्कि जभौतिक आकारोंको आश्रय देने एवं अनुप्राणित करनेवाली चेतनाकी क्रियाकी सभी गतिविधियों और समस्वरताओंके द्वारा भी कहीं अधिक पूर्ण रूपमें प्रकट होता है ।

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 तो यज्ञ अपने आपमें क्या है और अग्नि ही अपने-आपमें क्या है ? यज्ञ है सत्, चित् और आनन्द; वह है चित् और आनन्दसे युक्त सत्, क्योंकि चित् और आनन्द सत्मे अपरिहार्य है । जब वह अपनी सत्ता, चैतन्य और आनन्दमें गुणको छिपाए रखता है तो वह निर्गुण सत् कहलाता है, अर्थात् वह एक ऐसी निर्व्यक्तिक सत्ता होता है जिसमें चित् और आनन्द या तो उसके अपने अन्दर सिमटे हुए एवं निष्क्रिय होते है,--वे (क्रियासे) निवृत्त होते है और वह भी निवृत्त होता है,--या फिर वे उसकी निर्गुण (निर्व्य-क्तिक) सत्तामें एक निर्लिप्त क्रियाके रूपमें कार्यरत होते हैं, अर्थात् वे क्रियामें प्रवृत्त होते हैं वह क्रियासे निवृत्त होता है । तब उसे 'यज्ञ' नामसे नहीं  पुकारना चाहिए, क्योंकि तब वह अपने-आपको क्रियाका द्रष्टा अनुभव करता है न कि उसका स्वामी । परन्तु जब वह अपनी सत्तामें गुणकों अभिव्यक्त करता है तो वह सगुण सत्, सव्यक्तिक सत्ता कहलाता हैं । तब भी सभव है कि वह (क्रियासे) निवृत्त हो, अर्थात् अपने सक्रियि चैतन्य और आनन्दके साथ उसका इसके सिवाय कोई संबन्ध न हो कि वह उनकी निर्लिप्त क्रियाका साक्षिमात्र रहे । पर वह अपनी शक्ति द्वारा उनकी क्रियामें प्रवेश कर अपने विश्वको अधिकृत और अनुप्राणित भी कर सकता है (प्रविश्य, अधिष्ठित) अर्थात् वह भी प्रवृत्त हों और वे (चित् और आनन्द) भी । तभी वह अपनेको ईश्वरके रूपमें जानता है और यथार्थ रूपमें यज्ञ कहलाता है । केवल वह ही यज्ञ नहीं कहलाता बल्कि समस्त कार्य भी यज्ञ कहलाता क्षैत्र, और योग भी, जिसके द्वारा ही किसी कार्यकी प्रक्रिया साध्य हो सकती है, यज्ञके नामसे पुकारा जाता है। क्रियाप्रधान भौतिक यज्ञ तो यज्ञका केवल एक रूप है। जब मनुष्य फिरसे भौतिकता-प्रधान होने लगा तब यज्ञके इस रूपने पहले तौ प्राथमिक और फिर अद्वितीय महत्त्व ग्रहण कर लिया और तब मनुष्योंमेंसे उस मनुष्यके लिए यहे समस्त कर्म एवं समस्त यज्ञका प्रतिनिधित्व करता था । पर ईश्वर हमारे समस्त कर्मोंका स्वामी है; उसीके लिए हैं वे सब कर्म, उसीकी सेवामें वे अर्पित है, जाने या अनजाने (अविथिपूर्वकम्) हम अपने कर्मोंको सदा उन्हीके स्रष्टाके प्रति अर्पित कर रहे है । अतएव प्रत्येक कर्स उसके प्रति आहुति ही है और जगत् हमारे जीवनव्यापी यज्ञ-सत्रकी वेदी । इस विश्वव्याप्त कर्मकाण्डमें वेदके मन्त्र यथोचित कर्म (ऋतम् )के शिक्षक है और इसी कारण वेद उसका वर्णन 'यज्ञ'- के नामसे करता हैं, किसी अन्य नामसे नहीं ।

 

यह यज्ञ (-रूप परमेश्वर), जो सगुण सत् है, अपने आप् (अर्थात् अपनी सत्ता, सत्के द्वारा) कर्म नहीं करता, बल्कि वह अपने अन्दर, अपनी सत्ता,

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 सत्में अपनी चित्-शक्ति, अपनी चेतनाके द्वारा कार्य करता है । क्योंकि वह चित्की किसी प्रक्रिया द्वारा अपने अन्दर वस्तुओंसे सचेतन होता है इसीलिए वस्तुएँ उत्पन्न होती है, आविर्भूत होती हैं अर्थात् उसकी सर्व-धारक अव्यक्त सत्तामेंसे उसकी व्यक्त आत्म-सत्तामें प्रकाशित होती है । चित् और शक्ति एक ही वस्तु है और यद्यपि सुविधाके लिए 'चित्की शक्ति'की बात करते है, तो भी इस प्रयोगका अर्थ वास्तवमें 'चित्की शक्ति' नहीं बल्कि 'चित्' जो कि शक्ति है ( शक्तिरूप चित्) ऐसा समझना चाहिए । 'चित्'-मात्र ही शक्ति है और समस्त शक्ति अपने अन्दर चित्को छिपाए है। जब शक्तिरूप चित् कार्य करना आरम्भ करती है तो वह अपने आपको क्रियाशील शक्ति, तपस्के रूपमें प्रकट करती है और उसे समस्त क्रियाका आधार बनाती है । वास्तवमें, क्योंकि समस्त शक्ति अन्तरत : चित् ही है, अत: समस्त शक्ति बाह्यत: प्रकाशसे युक्त होती है; पर प्रकाश नाना-प्रकारके है, क्योंकि चित्की अभिव्यक्तियाँ नाना प्रकारकी है । सात रश्मियों-ने इस दृश्यमान जगत्को उस सनातन ज्योतिमेंसे बाहर प्रक्षिप्त किया है, जो परम सत्ताके सूर्यकी भांति अपने अंतिम विलोप, तमस्, से परे स्थित है, आदित्यात् तमस: परस्तात्, और अपने अन्त:स्वरूपमें स्थित इन सात रश्मियों द्वारा अन्तर्लोक अभिव्यक्त होता है तथा अपने बाह्य स्वरूपमें स्थित इन सात रश्मियों द्वारा बाह्य प्रपञ्चात्मक जगत् अभिव्यक्त होता है । सत्, चित्, आनन्द, विज्ञान, मनस्, प्राण, अन्न ज्योतिर्मय ब्रह्मकी सप्तविध अन्तःसत्ता है । प्रकाश, अग्नि, विद्युत्, ज्योति, तेजस्, दोषा, छाया उसकी सप्तविध बाह्य सत्ता हैं । अग्नि तपस्के वाहनका स्वामी है । तपस्का यह वाहन क्या है जिसका प्रभु है अग्नि ?  यह है आग्नेय ज्योति । अग्नि है तपस्की ज्योति, उसका वाहन और आधार । प्रभुका परिचय उसके राज्यके नामसे होता है । सामर्थ्य, ताप, भास्वरता, पवित्रता, ज्ञानपर प्रभुत्व और तटस्थता उसके गुण है । वह यज्ञ है जो तपस्की ज्योतिके प्रभुके रूपमें अभिव्यक्त है, जिसके द्वारा चैतन्य, विचार, वेदन किंवा कर्मकी समस्त सक्रिय शक्ति इस जगत्में अभिव्यक्त होती है जिसे यज्ञने अपनी सत्तामेंसे ही निर्मित किया है । यही कारण है कि उसे यज्ञके सम्मुख स्थित ( पुरोहित) कहा गया है । अग्नि या उससे परिपूरित विद्युत् या सूर्य ज्योतिकी यह जाज्वल्यमान प्रभा है जिसमें योगी दिव्य दृष्टि द्वारा परमेश्वरको देखते हैं । वह उस जागतिक व्यापारका कारण है जिसमें यज्ञ अपनी सत्ताको एक साथ प्रकाशित एवं गोपित करता है ।

 

अग्नि एक देवता है--वह देवों अर्थात् दीप्यमान सत्ताओं, प्रकाशके

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अधिपतियों, विश्वक्रीड़ाके महान् खिलाड़ियों, लीलाके निम्नतर स्वामियोमे से एक है । वह उन देवों... मेंसे एक है जिन देवोका महेश्वर या सर्व- शक्तिमान् प्रभु है यज्ञ । वह अग्नि हैं और है बन्धनरहित या फिर वह अपनेको केवल लीलामें ही बांधता है । वह स्वभावसे ही शुद्ध है और जिन अपवित्र वस्तुओंका वह भक्षण करता हैं उनके स्पर्शसे यह न तो प्रभावित होता है न कलुषित ही । वह शुभ-अशुभकी क्रीड़ाका रस लेता है और अशुभको शुभकी ओर ले जाता और उठाता है या फिर उसे शुभ बननेके लिए बाध्य कर देता है । वह पवित्र करनेके लिए ही जलाता है । वह रक्षा करनेके लिए ही नष्ट करता हैं । जब साधकका शरीर तपस्की ऊष्मा-से जल उठता है तो उस समय यह अग्नि ही उसके अन्दर गरज रहा होता है, मलिनता और विघ्न-बाधाओंको ग्रस और जला रहा होता है । ह भयानक, शक्तिशाली, आनन्दमय, निर्दय और प्रेममय देव है, उन सबका दयालु और रौद्र सहायक है जो उसकी मित्रताकी शरण लेते हैं ।

 

अग्निमें ज्ञान उसके जन्मके साथ ही उत्पन्न हुआ था-इसीलिए उसे जातवेदस् कहा जाता है ।

 

 विवेचन

 

1. अग्रिम्

 

अग्नि एक देवता है, बुद्धिप्रधान मनके अत्यन्त भास्वर और शक्तिशाली प्रभुओमेंसे एक । वैदिक मनोविज्ञान ( अध्यात्मविज्ञान) के अनुसार मनुष्य सात तत्त्वोंसे संघटित है जिनके खोलों ( कोशों) मे आत्मा अन्तर्निहित है । वे है अन्न, स्थूल जड़तत्त्व, प्राण, प्राणिक शक्ति, मनस्, बौद्धिक मन, विज्ञानम्, 'विज्ञान' मय आदर्श मन, आनन्द, शुद्ध या तात्त्विक सुख, चित्, शुद्ध या तात्त्विक चैतन्य, सत्, शुद्ध या तात्विक सत्ता । हमारे विकासकी वर्तमान अवस्थामें साधारण मानवने अपने नित्य व्यवहारके लिए अन्न, प्राण और मन-का विकास किया है, और सुविकसित मनुष्य सामर्थ्यपूर्वक विज्ञानका प्रयोग करनेमें सक्षम होते हैं, पर वह विज्ञान तब अपने निजधाममें ( स्वे दमे) किंवा अपने स्वरूपमें स्थित होकर कार्य नहीं करता, बल्कि वह मनमें स्थित होकर तर्कशक्ति, बुद्धिके रूपमें कार्य करता है । असाधारण मनुष्य विज्ञान द्वारा वास्तविक मन और बुद्धिकी क्रियामें सहायता पहुंचानेमें समर्थ होते हैं पर वह विज्ञान तब नि:सन्देह बुद्धिप्रधान मनमें क्रियारत होता है और अतएव अपने

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वास्तविक क्षेत्रसे बाहर रहकर ही कार्य करता है, पर करता है अपनी विज्ञान-मय चेतनाके रूपमें ही । यह मानसिक और विज्ञानमय क्रियाका सयोग है जिससे चेतनाकी उस अवस्थाका निर्माण होता है जिसे प्रतिभा, प्रतिभानम, कहते हैं, अर्थात् मनमें उच्चतर विचार-क्रियाकी प्रतिच्छाया या उसके प्रति प्रकाशपूर्ण उत्तर । योगी इससे भी परे .साक्षात् विज्ञान तक जा पहुंचता है अथवा यदि वह याज्ञवल्ययकी भांति एक महत्तम ऋषि हुआ तो, आनन्द- तक भी । साधारण समयोंमें कोई भी जाग्रत् अवस्थामें आनन्दसे परे नहीं जाता, वस्तुत: चित् और सत् केवल सुषुप्तिमें ही उपलब्ध हो सकते है, क्योंकि अब तक केवल पहले पांच कोश ही इतने पर्याप्त रूपमें विकसित हुए हैं कि (साधारण मानवको) प्रत्यक्ष हो सकें; हां, सत्ययुगके मनुष्योंकी बात दूसरी है और उन्हें भी अन्य दो कोश पूर्णतया गोचर नहीं होते । विज्ञानसे अन्नतक अपरार्द्ध या सत्ताका निम्नतर भाग है जहाँ विद्यापर अविद्याका आधिपत्य है, आनन्दसे सत् तक परार्द्ध या उच्चतर अर्द्ध उए जिसमें अविद्यापर विद्याका प्रभुत्व है और वहाँ अज्ञान, पीड़ा या सीमाका नाम नहीं ।

 

मनुष्यमें, जैसा कि वह इस समय विकसित है, बुद्धिप्रधान मन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक शक्ति है और बुद्धिप्रधान मनको इसकी उच्चतम शुद्धता एवं क्षमता तक विकसित करनेके उद्देश्यसे ही वेदके सूक्त लिखे गए हैं । इस मनमें क्रमिक रूपसे ये तत्त्व विद्यमान हैं ( 1) सूक्ष्म अन्न, स्थुल अन्नका परिष्कृत सूक्ष्म रूप जिससे मनःकोष या सूक्ष्म देहका भौतिक भाग बनता है; (2) सूक्ष्म प्राण, मनोगत प्राण-शक्ति जो नाड़ियोंमें या सूक्ष्म देहके नाड़ीमण्डलमें कार्य करती है और जो कामनाका करण है; (3) चित्तं या ग्रहणशील चेतना जो तामसिक प्रतिक्रिया द्वारा बाहर और भीतरसे सभी संस्कार ग्रहण करती है, पर जो तामसिक होनेके कारण उन्हें सात्त्विक चेतना या बुद्धि-चैतन्यके प्रति, जिसे हम ज्ञान कहते हैं, प्रत्यक्ष नहीं होने देती । परिणामस्वरूप, ध्यानपूर्वक देखी या न देखी प्रत्येक वस्तुकी स्मृति हम चित्त द्वारा अपने अन्दर संजोए हैं, पर वह ज्ञान तमसाच्छन्न पड़ा  होनेके कारण हमारे जीवनके लिए निरर्थक है; (4) हृदय (हृत्), या चित्तपर पड़े संस्कारोंके प्रति राजसिक प्रतिक्रिया जिसे हम वेदन या भावावेश कहते हैं, अथवा जब यह हमारे अभ्यासका अंग बन जाती है तो इसे स्वभाव कहते हैं; (5) मनस् या सक्यि, सुनियत, इन्द्रियबोधात्मक चेतना जो सब प्रकारके संस्कारोंको एक सात्त्विक प्रतिक्रियाके द्वारा-जिसे बोधशक्ति या बिचार कहते हैं और जो मनुष्योंकी तरह पशुओंमें भी पाई जाती है--प्रत्यक्ष बोध

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या प्रत्ययमें बदल देती है; ( 6)) बुद्धि या तार्किक, कल्पना-कुशल और बौद्धिकत: स्मृतिसहायक शक्ति, जो निरीक्षण और संधारण करती है, तुलना, तर्क-वितर्क, समवबोध, सयोजन और सर्जन करती है, इन व्यापारोंके संमिश्रण को ही हम बुद्धि कहते है; ( 7) मानस आनन्द, या सत्ताका विशुद्ध आनन्द जो अपवित्र मन, देह और प्राण द्वारा अपवित्र रूपमें अर्थात् नाना प्रकारकी व्यथा-वेदनासे मिश्रित रूपमें प्रकट होता है, पर जो अहैतुक ( निःस्वार्थ) होनेके कारण अपने-आपमें शुद्ध है; ( 8) मानस तपस्, या शुद्ध संकल्पशक्ति जो अशुद्ध मन, देह और प्राण द्वारा अशुद्ध रूपमें, अर्थात् दुर्बलता, ज निष्क्रिय-ता एवं अज्ञान या भ्रान्तिसे मिश्रित रूपमें, ज्ञान, वेदन, और कर्मके संपादन के लिए क्रिया करती है, पर वह अपने-आपमें शुद्ध ही है क्योंकि वह अहैतुक, नि :स्वार्थ होती है, किसी ऐसे परोक्ष प्रयोजन या अभिरुचिसे शून्य होती है जो विचार, कार्य और भावावेगके सत्यमें हस्तक्षेप कर सकें; ( 9) अहैतुक सत्, या सत्ताकी शुद्ध उपलब्धि जो अशुद्ध करणोंके द्वारा अहंकार और भेदकी शक्तिके रूपमें क्रिया करती है, पर अपने-आपमें वह शुद्ध ही है और है भेद-मे अभेदके प्रति सचेतन, क्योंकि वह अहैतुक है, अभिव्यक्तिमें किसी विशेष नाम या रूपके प्रति आसक्त नहीं; और अन्तमें, ( 10) मनमें अवस्थित आत्मा । यह आत्मा सत् और असत् है, भावात्मक और अभावात्मक, सत् ब्रह्म और शून्यं ब्रह्म; भावात्मक और अभावात्मक दोनों स: या वासुदेव तथा सत् या परब्रह्ममें अन्तर्निहित है, और स: एवं तत् दोनों एक ही है । पुनश्च, बुद्धि कई शक्तियोमें विभक्त है-- (1) मेधा जो इन्द्रियानुभवके द्वारा प्रदत्त ज्ञानका प्रयोगमात्र करती है और मनस्, चित्त, हृत् तथा प्राण-के समान ही अधीन, अनीश, है, इन्द्रियानुभव पर आश्रित है; (2) तर्क-शक्ति या यथार्थ बुद्धि, ( स्मृति या धी जिसे प्रज्ञा भी कहते है), जो इन्द्रिया-नुभवसे श्रेष्ठतर हैं और उच्चतर ज्ञानकी विभक्त ज्योतिमें इसका प्रतिषेध करती है, और ( 3) प्रत्यक्ष ज्ञान, सत्य, या सत्त्व जो अपने आपमें उच्च ज्ञानकी वही ज्योति है । इन सब शक्तियोंके अपने-अपने देवता है, एक या अनेक; प्रत्येक देवताके अपने गण या अधीनस्थ मन्त्री है । इन शक्तियोंका प्रयोक्ता जीव हंस कहलाता है, हंस अर्थात् वह जो ऊपरकी ओर उता या विकसित होता है; जब बह निम्न शक्तियोंको त्याग देता है और मनमें सच्चिदानन्दकी ओर उठ जाता है, केवल सत्, चित् और आनन्दका ही प्रयोग करता है तथा सद् आत्मा या वासुदेवमें प्रतिष्ठित रहता है तब वह परब्रह्म कहलाता हैं, अर्थात् वह जो क्रमविकासकी उस अस्थामें पराकाष्ठा तक पहुंच गया या विकसित हो चुका है । वेदका आधारभूत ज्ञान यही हैं,

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जिसका विलोप, निरुक्तकी विकृतिके साथ मिलकर, उसके अर्थकी वर्तमान अव्यवस्था एवं हीनताका कारण बना है ।

 

चन्द् स्मृति या प्रज्ञाका देवता है; सूर्य सत्यका; इन्द्र मेधा और मनस्-का; वायु सूक्ष्म प्राणका; मित्र, वरुण, अर्यमा और भग भावप्रधान मन या स्वभाव-के चार अधिपति हैं; बृहस्पति सहैतुक चित् या ज्ञानके तपका देवता है; ब्रह्य सहैतुक सत्का; अग्नि सहैतुक तपस्का इत्यादि । यह एक संकेतमात्र है । देवोंके विविध गुण-कर्मस्वभाव और शक्तियाँ तो स्वयं वेदकी परीक्षासे उत्तमतय प्रकट होती हैं । देवता प्रभु या यज्ञके लिए, ईशके लिए अर्थात् आधार या अभिव्यक्तिके सप्तविध माध्यमके स्वामीके लिए पूर्णताके साथ कार्य करनेका यत्न करते हैं; दैत्ग, जो देवोंकी तरह ही भगवान्की संतानें हैं, इस पूर्व कार्य-व्यापारको उलट देनेफी चेष्टा करते हैं । उनका कार्य है-जो कुछ स्थापित हो चुका है उसे उलट-पलट देना जिससे मनुष्यको नीचे ढकेला जा सके, या फिर जो कुछ अपने-आपमें अच्छा और सामंजस्यमय था पर था अपूर्ण उसे तोड़कर मनुष्यको और ऊंचा उठनेका अवसर प्रदान करना; और चाहे जो हो, पूर्णतासे ओछी किसी भी वस्तुसे उसे सन्तुष्ट न रहने देना और उसे निरन्तर अनन्तकी ओर परिचालित करना, या तो उत्तमगति द्वारा वासुदेवकी ओर प्रेरित करना या, यदि वह उसे प्राप्त नहीं करना चाहता तो उसे अधमगतिसे प्रकृतिकी ओर धकेल देना । वैदिक आर्य देवोंकी सहा-यतासे दैत्यों या दस्युओं को अभिभूत करनेका यत्न करते थे; तदनन्तर स्वयं देवोंको भी अभिभूत (अतिकान्त) करना होता था जिससे मनुष्य अपने लक्ष्य पर पहुंच सकें ।

 

भौतिक शक्तियोंके क्षेत्रमें अग्नि है तेजस्का अधिपति, वैदिक प्रकृति-विज्ञानके विदित पांच तत्त्वोंमेंसे तीसरा और मध्यगत भौतिक तत्त्व । स्वयं तेजस् सात प्रकारका है, ( 1) छाया या अभावात्मक प्रकाश जो अन्न-कोषका तत्त्व हैं; ( 2) दषा या सान्ध्य प्रकाश, जो प्राणकोषका आधार है और छायाके द्वारा विकृत तेजस् है; ( 3) वास्तविक तेजस् या सरल विशदता एवं उज्जवलता, शुष्क प्रकाश, जो मन:कोषका आधार है; ( 4) ज्योति, या सौर प्रकाश, वह प्रोज्ज्वलं प्रभा जो विज्ञानकोषका आधार है है; ( 5) अग्नि या आग्नेय प्रकाश, जो चित्कोषका आधार है; (6) विद्युत् या वैद्युत प्रकाश, जो आनन्दकोषका आधार है और ( 7 ) प्रकाश, जो सत्कोषका आधार है । सातोमेंसे प्रत्येककी अपनी अनुरूप शक्ति हैं; क्योंकि शक्ति तात्त्विक सद्वस्तु है और प्रकाश तो शक्तिका एक विशिष्ट सहचारी तत्त्वमात्र  है । इन सबमें अग्नि जगत्में सबसे महान् है, विद्युत्से भी महान्--यद्यपि

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 वैद्युत शक्तिका देव है स्वयं विष्णु जो आनन्दका अधिपति है, उपनिषदोंका वैद्युत मानव (वैद्युतो मानव:) है । विज्ञानमें, सूर्य एवं विष्णु अग्निसे अधिक महान् हैं, किन्तु यहां वह और विष्णु दोनों अग्निकी प्रभुत्वपूर्ण शक्तिके अधीन और इन्द्रकी तुष्टिके लिए कार्य करते हैं,--उपनिषदोंमें विष्णु इन्द्रसे 'छोटा, उपेन्द्र है । भौतिकीकी भाषामें अनुवाद करें तो इसका अर्थ यह हुआ कि अग्नि ताप और शीतका नियन्ता होनेके कारण प्रकाश और तापके समस्त दृग्विषयके पीछे स्थित आधारभूत सक्रिय शक्ति है; सूर्य तो केवल प्रकाश और तापका एक भण्डार है, सूर्य की अपनी विलक्षण देदीप्यमान प्रभा तेजस्का केवल एक रूप है और जिसे हम आतप ( धूप) कहते हैं वह सत्कोषके आधारभूत प्रकाश या सारभूत ज्योतिकी स्थितिशील शक्तिसे, वैद्युत ऊर्जा या वैद्युतम् से तथा अग्निके उस तेजस्से बना है जो सूर्यकी प्रकृतिके द्वारा किंचित् परिवर्तित हो गया है और प्रकाशके अन्य सब रूपोंका निर्धारण करता है । प्रकाश और वैद्युतम् केवल तभी सक्रिय बन सकते हैं जब वे अग्निमें प्रवेश कर जाते हैं  और उसकी सत्ताकी अवस्थाओंके अधीन कार्य करते हैं; सूर्यकी शक्ति देनेवाला है स्वयं अग्नि, वही ज्योतिको रचता है, वही तेजस्को रचता है, और वही, अभावात्मक रूपमें, छायाको रचता है । ठीक हो या गलत, यही है वेदकी भौतिकी । इसे मनोविज्ञानकी भाषामें अनूदित किया जाय तो इसका अभिप्र यह होगा कि बुद्धिप्रधान मनमें, जो इस समय सत्तापर प्रभुत्व रखता है, न तो ज्ञानका पूर्ण विकास किया जा सकता है न आनन्दका, यद्यपि यह बुद्धिप्रधान मन तत्त्वत: मनसे उत्कृष्ट हैं; यहाँ तक कि सोम अर्थात् तार्किक बुद्धि भी वास्तवमें शासन नहीं कर सकती; बल्कि सोम से परिपूर्ण इन्द्र ही, अर्थात् इन्द्रियोंपर आधारित और बुद्धिके द्वारा सम्पुष्ट मेधा ही, परमोच्च शासिका है और इसीकी तुष्टिके लिए सोम, सूर्य, अग्नि और यहाँ तक कि सर्वोच्च विष्णु कार्य करते हैं । जिस तर्कबुद्धिपर मनुष्य गर्व करता है वह तो मनसे विज्ञानकी ओर होनेवाले विकासमें एक कड़ीमात्र है । और इसे या तो इन्द्रियोंकी या आदर्श संबोधकी सेव्य करनी होगी; यदि वह अपने लिए ही काम करे तो वह केवल अज्ञेयवाद, दार्शनिक संदेह और ज्ञानमात्रके अवरोधकी ओर ही ले जाती है । ऐसा बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि वेद इन ( देवोंके) नामोंका प्रयोग केवल मनोवैज्ञानिक और भौतिक शक्तियोंके मानवीकृत भावोंके अर्थमें ही करता है; वह तो इन देवोंको मनोवैज्ञानिक और भौतिक क्रियाओंके पीछे स्थित सच्ची सत्ताएँ मानता है, क्योंकि कोई भी शक्ति अपना संचालन आप नहीं कर सकती, बल्कि सभी शक्तियोंको किसी चेतन केन्द्र या किन्हीं

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 चेतन केन्द्रोंकी आवश्यकता पड़ती है, जिस (जिन) से या जिस (जिन) के द्वारा वे क्रियामें प्रवृत्त होती हैं । एक सन्देह स्वभावत: ही उत्पन्न होगा, कैसे वह परमोच्च प्रभु विष्णु वेदोंका उपेन्द्र हो सकता है ? उत्तर यह है कि विकासकी किसी विशेष अवस्थामें जो भी शक्ति सर्वाधिक महत्त्वकी होती है उसे विष्णु-विराट् उसकी विशेष देखभालके लिए अपने हाथमें लें लेते हैं । हम देख चुके हैं कि आनन्द अब समुन्नत विकासमें सबसे उच्च तत्त्व है । अतएव अब विष्णु प्रमुख रूपसे आनन्दका अधिपति है और जब वह जड़ जगत्में उतरता है तो वह सूर्यमें एक परमोच्च वैद्युत शक्तिके रूपमें स्थित होता है । यह वैद्युत शक्ति अग्निमें अन्तर्निगूढ़ है और उसमें से विकसित होती है, यह आनन्दका भौतिक प्रतिरूप है और इसके बिना संसारमें कोई क्रिया आरम्भ नहीं हो सकती । विष्णु अवर (कोटिका) नहीं है, हां केवल सेवा करनेके बहाने वह अपने को दूसरे के अधीन कर देता है, जब कि वास्तवमें सेवाके द्वारा वह शासन करता है । पर उपेन्द्रत्व विष्णुकी अभिव्यक्तिका उच्चतम स्तर, परमधाम नहीं है, सच पूछो तो वह यहाँ उसके निम्नतम धाम का विशेष व्यापार है । उपेन्द्रत्व विष्णुत्व नहीं वरन् उसका केवल एक अन्यतम कार्यमात्र है ।

 

अतएव अग्नि तेजस्का, विशेषतया आग्नेय तेजस्का स्वामी है और मनमें सहैतुक तपस्का कारण है । आधुनिक मनोविज्ञानकी भाषामें, यह सहैतुक तपस् है क्रियारत संकल्प,-कामना नहीं, बल्कि कामनाका आलिंगन करके उसका अतिक्रमण कर जानेवाला संकल्प । यह पसंदगी, इच्छा या मनोरथ भी नहीं । वैदिक विचार-पद्धतिमें संकल्प तत्त्वतः ज्ञान ही है जो शक्तिका रूप धारण कर लेता है । अतएव अग्नि विशुद्ध रूपमें मानसिक शक्ति है जो सब प्रकारकी एकाग्रताके लिए आवश्यक है । एक बार जब हम इस वैदिक परिकल्पनाको हृदयंगम कर लेते हैं तो हम अग्निका अपरिमित महत्त्व अनुभव करते हैं और जिस सूक्तका हम अब अध्ययन कर रहे हैं उसे समझने योग्य स्थितिमें होते हैं ।

 

अग्रिम्

 

'अग्नि' शब्द 'अग्' धातुसे संज्ञावाची 'नि' प्रत्यय लगानेसे बना है । 'अग्' धातु स्वयं ''होना'' अर्थवाली एक मूल धातु 'अ'से बना है जिसके चिह्न अनेक भाषाओंमें पाये जाते हैं । 'ग' शक्तिके भावको सूचित करता है और इसलिए 'अग्'का अर्थ है शक्तिके साथ प्रधान रूपमें अस्तित्व रखना- तेजस्वी, बलशाली, श्रेष्ठ होना और अग्निका अर्थ है शक्तिमान्, परम महान्,

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तेजोमय, प्रबल, दीप्तिमान् । यूनानी शब्द agathos  (ऑगॉथोस्, जिसका अर्थ है उत्तम, और मूलत: जिसका अर्थ बलशाली, श्रेष्ठ वीर था), agan, ऑगॉन् अर्थात् अत्यधिक मात्रामें, ago, आगो अर्थात् मैं नेतृत्व करता हूँ, लैटिन शब्द ago, age, aglaos, आगो, आगे, आग्लाओस् अर्थात् दीप्तिमान्, व्यक्तिवाचक नाम Agis, Agamemnon, आगिस, आगामेम्नोन् तथा संस्कृत शब्द 'अग्र' और ' अगस्ति' -इन सभीमें हम यही ' अग्' धातु पाते हैं । यह अपने बंधु धातु 'अज्'से परस्पर परिवर्तनीय हैं, जिस ( अज्) से यूनानी शब्द ago ( आगो) के कुछ अर्थ निकलते हैं । प्रतीत होता है कि इसका अर्थ ' प्रेम करना' भी रहा होगा जो अर्थ ' आलिङ्न' के विचारसे निकला होगा, तुल0  यूनानी agape ( आगापे), पर इस अर्थमें प्राचीन संस्कृत 'अंग्' धातुका प्रयोग पसन्द करती थी । अग्, अंग् इन दो धातुओंमें सबन्धके लिए इन शब्दोंकी तुलना कीजिए-अंगति, जिसका अर्थ है अग्नि, अंगिर: जो अग्निका एक नाम है, अंगार:, जलता हुआ अंगारा ।

 

ईळे

 

 

इस शब्दमें जो धातु है उसके दो रूप हैं ईळ् और ईळ्l, जैसे सरल संस्कृत धातुओंके होते हैं । मूल धातु था इळ् जिसके अर्थ हैं प्रेम करना, आलिंगन करना, चाटुकारी या प्रशंसा करना, स्तुति करना, मूर्धन्य 'ळ' बाद का रूप है, -एक उपभाषागत विशेषता है जो द्वापर-युगकी कुछ एक प्रभुत्वपूर्ण जातियोंसे सम्बद्ध है । इस विशेषताने कुछ काल तक अपने को प्रतिष्ठित रखा पर अपना अधिकार जमाए नहीं रख सकी और या तो 'ळ'  फिरसे 'ल'मे बदल गया या और भीं बदलकर कोमल मूर्धन्य 'ड' बन गया जिसके साथ इसका परिवर्तन किया जा सकता था1। अतएव ठीक इसी अर्थमें हमें ' ईळ्' धातुका 'ईड्' रूप भी मिलता है । इस धातुमें बड़े की आराधनाका भाव निश्चित रूपसे अन्तर्निहित हो ऐसी बात नहीं, प्रधान भाव हैं प्रेम, प्रशंसा और कामना । यहाँ ( इस मन्त्रमें) इसका अर्थ '' प्रशंसा' ' या पूजा करना नहीं, बल्कि ''कामना '' या''  "उत्कण्ठा"  वा ''अभीप्सा'' करना है ।

 

पुरोहितम्

 

 

यहाँ दो पद हैं, एक नहीं । वेदकी परवर्ती कर्मकाण्डीय ब्याख्यामें इस समस्त पदका  ''पुरोहित'' यह जो अर्थ किया गया है वह इस सूक्तमें कतई

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1.  डलयोरभेद: अर्थात् 'ड' और 'ल' में कोई भेद नहीं, इन्हें परस्पर बदला जा सकता हैं । -अनुवादक

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नहीं है । 'पुर:' शब्द मूलतः 'पुर्-का षष्ठयन्त रूप था जिसका प्रयोग क्रिया-विशेषणकी भांति होता था । पुर्-का अर्थ था द्वार, कपाट, सम्मुख भाग, दीवार, बादमें इसका अर्थ हो गया घर या नगर; तुल० यूनानी pule  (प्युँले, द्वार), pulos  (प्युँलोस्, प्राकार-वेष्टित नगर या किला), polis (पोलिस्, नगर); इस प्रकार 'पुर:'का अर्थ है सामने । हितम् 'हि' धातुसे बना कृदन्त विशेषण है, 'हि'का अर्थ हैं झोंक देना, फेंक देना, रोपना, रखना । यह धातु ग्रीकमें cheo (खेओ) इस रूपमें दिखाई देता है जिसका अर्थ है 'मैं डालता हूँ' haya, हया), अतएव पुरोहितम्का अर्थ है सामने स्थापित या रोपित (सामने रखा या रोपा हुआ) ।

 

 यज्ञस्य

 

यज्ञ शब्दका वेदमें सर्वोच्च महत्त्व है । कर्मकाण्डीय ब्याख्यामें यज्ञका अर्थ सदा याज्ञिक क्रियाकलाप ही समझा जाता है और किसी अन्य अर्थकी परिकल्पनाको स्वीकार ही नहीं किया जाता । यदि इस आधिभौतिक व्याख्याको स्वीकार कर लिया जाय तो यह समझमें ही नहीं आ सकता कि कैसे वेद सम्पूर्ण भारतीय आध्यात्मिकता एवं दिव्य ज्ञानका उद्गम है । वास्तवमें यज्ञ स्वयं परम प्रभु विष्णुका नाम है; इसका अर्थ धर्म या योग भी है और आगे चलकर एक विशेष अर्थकी पसंदगीके कारण यह याज्ञिक कर्मके अर्थको सूचित करने लगा, क्योंकि द्वापर-युगके उत्तर भागमें याज्ञिक क्रियाकलाप एकमात्र धर्म एवं योग बन गया जिसने अन्य सबको अपने अधिकारमें कर लिया और अधिकाधिक उनका स्थान लेने लगा । अत: निरुक्तके द्वारा इस महत्त्वपूर्ण शब्दका ठीक अर्थ फिरसे खोज निकालना आवश्यक है, और ऐसा करनेके लिए निरुक्तका सिद्धान्त संक्षेपमें प्रतिपादित करना अनिवार्य है ।

 

संस्कृतभाषा देवभाषा है या वह मूल भाषा है जिसे वर्तमान मन्वन्तरके आरम्भमें उत्तर मेरुके निवासी बोलते थे; पर अपने विशुद्ध रूपमें यह द्वापर या कलियुगकी संस्कृत नहीं है, यह सत्ययुगकी भाषा है जो वाक् ओर अर्थके सच्चे और पूर्व सम्बन्ध पर प्रतिष्ठित है । इसके प्रत्येक स्वर एवं व्यंजनमें एक विशेष एवं अविच्छेद्य शक्ति है जो वस्तुओंकी निज प्रकृतिके कारण ही अपना अस्तित्व रखती है न कि विकास या मानवीय चुनावके कारण, ये मूलभूत ध्वनियाँ हैं जो तान्त्रिक बीज-मन्त्रोंके आधार हैं और स्वयं मन्त्रका प्रभाव निर्मित करती हैं । मूलभाषामें प्रत्येक स्वर ओर प्रत्येक व्यंजनके कुछ एक प्राथमिक अर्थ थे जो इस मूलभूत शक्तिसे उद्भूत होते थे तथा

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अपनेसे निकले दूसरे अर्थोंके आधार थे । स्वयं स्वर स्वरों एवं व्यञ्जनोंके साथ मिलकर और उनके साथ मिले बिना भी अनेक प्राथमिक धातु बनाते थे जिनसे अन्य व्यंजनोंके संयोगसे, द्वितीय श्रेणीके धातु विकसित हुए । सभी शब्द इन धातुओंसे बनाए गए, सरल शब्द इनमें पुन: शुद्ध या मिश्रित स्वर-एवं-व्यंजन-रूप प्रत्यय लगाकर धातुमें कुछ परिवर्तन करके या बिना किए, बनाए जाते थे तथा अधिक जटिल शब्द संयोजनके सिद्धान्तके अनुसार । यह भाषा अर्थ और ध्वनिमें अधिकाधिक विकृत होकर त्रेता, द्वापर और कलियुगकी परवर्ती संस्कृत बन जाती है, कभी-कभी कुछ शुद्ध होकर फिर बगड़ जाती है और कभी फिर अशंत: शुद्ध हों जाती है । परिणामतः यह अपने मूल रूप और रचनाके साथ प्रत्यक्ष सम्बन्धको पूर्ण रूपसे कभी नहीं खोती । अन्य प्रत्येक भाषा, चाहे वह इससे कितनी ही दूर पड़ गई हो, एक अपभ्रंश ही है जो मूल भाषामें घिसाई, ह्रास एवं विकार होकर उसके प्राकृतमें या प्राकृतकी प्राकृतमें और इसी प्रकार और भी आगे अशुद्धता-की बढ्ती हुई अवस्थाओं तक बदल जानेसे बना है । भारतीय भाषाकी उत्कृष्ट शुद्धता ही वह कारण है जिससे इसे संस्कृत नामसे पुकारा जाता है और इसे कोई स्थानीय नाम नहीं दिया गया, इसका आधार सार्वभौम और सनातन है; और आदि भाषाके रूपमें संस्कृतवाणीकी पुनर्गवेषणा ही सदा पहले तो मानवको सच्चे रूपमें समझनेके लिए और दूसरे, स्वयं संस्कृतको भी नये सिरेसे शुद्ध करनेके लिए भूमि तैयार करती है ।

 

यह विशेष धातु 'यज्' जिससे 'यज्ञ' शब्द बना है ' य् ' व्यंजनके आधारपर बनी द्वितीयस्थानीय ( यौगिक) धातु है, 'य् 'के गुण ( अर्थकी विशेषताएँ) हैं क्रिया, गति, रचना और सम्पर्कमें प्रयुक्त की गई सामर्थ्य और मृदुता । 'य्' से बनी प्राथमिक धातुएं है य, यि और यु और दीर्घीकृत रूप हैं या, यी और यू -क्योंकि मूल देवभाषा केवल तीन शुद्ध स्वर मानती थी, शेष या तो किंचित् परिवर्तित या मिश्रित स्वर हैं । यज्की प्राथमिक धातु है 'य' जिसका मूल अर्थ है शान्त-स्थिरभावसे गति करना, शान्तिसे और बल तथा स्थिरताके साथ कार्य करना या काममें लगना, स्थिर मनोयोगके द्वारा ( ज्ञान या किसी वस्तु या व्यक्तिको) अधिकृत करना, भद्रताके साथ या प्रीतिपूर्वक और प्रभावकारी रूपसे किसीके संपर्कमें आना या किसीके संपर्कमें लाना, स्पष्टताके साथ आकार देना या अभिव्यक्त करना इत्यादि । इनमें से पहला भाव दीर्घीकृत रूप 'या' में, ' यक्ष्' में और यम् आदि धातुओंके एक अन्यतम अर्थमे दिखाई देता है, पर इसका रंग घिस चुका है; दूसरा भाव 'यत् ' और 'यश्' मे; तीसरा यज्, यम् और यन्त्र्में; चौथा यज् और याच्में

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 जो मूलत: 'यच्' ( देना) का प्रेरणार्थक हैं, यह 'यच्' धातु अब 'यम्'के कुछ एक तिडन्त रूपोंको छोड़कर लुप्त हो चुका है, पांचवां 'यम्'के एक अन्यतम अर्थ (दिखाना) में इत्यादि । यच्के अतिरिक्त अन्य लुप्त धातु भी हैं- ( १) 'यl' जिसका अर्थ है खोजना, प्रेम करना, कामना करना ( ग्रीक iallo, याल्लो), ( २) यश्, इसका अर्थ भी यल्के अर्थसे मिलता-जुलता है । इससे हमें 'यश:' शब्द प्राप्त होता है जो आरम्भमें एक विशेषण था जिसका अर्थ था कमनीय, मोहक । यह एक संज्ञा भी था जिसका अर्थ कभी तो प्रेम या खोजका विषय होता था और कभी सौन्दर्य, मत्त्वाकांक्षा, कीर्ति इत्यादि, या स्वयं प्रेम भी, एवं अनुग्रह व पक्षपात । मूल भाषामें, जैसी कि वह आज भी देखी जा सकती है, जिस विधिका अनुसरण किया जाता था उसका यह एक संक्षिप्त उदाहरण है, हां, उस भाषाके अर्थोंके विभेद और छायाएं तो मिल-मिला गई है और शब्दोंके रंग मिट गए हैं ।

 

'यज्' धातुमें 'ज्' व्यंजनकी भावशक्ति अर्थका निर्णय करती है । उसका तात्त्विक स्वभाव है क्षिप्रता, निर्णायकता, तीव्र भास्वरता और आतुरता । अतएव इसमें पौनःपुन्य और आतिशय्यकी, बारंबार और अतिशय मात्रामें करनेकी, यङ् प्रत्यग्रकी शक्ति है । इसका अर्थ है स्वभाववश और उत्कट रूपसे प्रेम करना, अतएव पूजा एवं उपासना करना । इसका अर्थ है मुक्त-भावसे, सम्पूर्ण या सतत रूपसे देना; अर्थकी इन्हीं छायाओंसे यज्ञका अर्थ आता है । इसका अर्थ है पूर्ण रूपसे प्रभुत्व स्थापित करना, स्वभाववश, प्रभुत्व-स्थापनकी क्रियाकी सतत आवृत्तिके साथ प्रभुत्व प्राप्त करना, 'यत्' धातुका अर्थ हे यत्न, पर यह नहीं हो सकता कि 'यज्'का अर्थ कभी यत्न रहा हो, यह अत्यन्त निर्णयात्मक एवं विजयशील है और अवश्य ही इसका अर्थ होना चाहिए-प्रभुत्वकी उपलब्धि, इस उपलब्धिके परिणामका क्रिया मय भाव । अतएव इसका अर्थ है राज्य करना, शासन करना, व्यवस्था करना, उपलब्ध करना । यही कारण है कि यज्ञ है विष्णु, इस अर्थमें कि वह सर्वशक्तिमान् शासक है, मनुष्यके कार्य, तन और मनका स्वामी है, परमेश्वर है जो मनुष्यमें स्थित उच्चतर शक्ति-स्तरसे, परार्द्ध या सच्चि-दानन्दके स्तरसे शासन करता है ।

 

'यज्ञ' शब्द 'यज्' धातुसे 'न' प्रत्यय लगानेसे बना है जो एक कार्यवाचक नामिक (संज्ञा बनानेवाला) प्रत्यय है । यह विशेषणात्मक या संज्ञावाचक हो सकता है । यह कर्त्ता, करण, करनेकी विधि या कार्यके फलके भोक्ता-को सूचित कर सकता है । अतएव 'यज्ञ:' का अर्थ हो गया-वह जो राज्य करता है, शासक या प्रभु; प्रेम और आराधना करनेवाला, साथ ही प्रेमका

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विषय भी, प्रभुत्व-प्राप्तिका साधन और अतएव योग,-योगकी प्रक्रियाएं न कि उसकी उपलब्धियाँ; प्रभुत्वकी रीति और अतएव धर्म, अर्थात् कार्य या आत्मशासनका नियम; आराधना या पूजाकी क्रिया, यद्यपि यह अर्थ सामान्यतया 'यजु: 'के लिए रखा गया था जिसका अभिप्राय है देना, अर्पण या उत्सर्ग करना । विष्णुके नामके रूपमें, प्रधानतया, यज्ञका अर्थ था 'प्रभु ' जो संचालित और प्रेरित करता है तथा शासन करता है; परन्तु प्रेमी और प्रियतम, दाता और समस्त कर्मोंके लक्ष्य, कर्ममात्रके विधि-विधान और पूजा-पाठका विचार भी पूजकके संस्कारोंमें यज्ञके अन्दर आ घुसा और कभी-कभी तो यह प्रमुख हो उठता था ।

 

विष्णुपुराण हमें बताता है कि सत्ययुगमें विष्णु यज्ञके रूपमें .अवतरित होते हैं, त्रेतामें विजेता और राजा तथा द्वापरमें व्यास, संकलनकार, संहिता-कार, शास्त्रकारके रूपमें । उसका अर्थ यह नहीं कि वे याज्ञिक कर्मके रूपमें अवतरित होते हैं । सत्ययुग मानव पूर्णताका युग है जिसमें सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था स्थापित होती है, पूर्ण या चतुष्पाद् धर्मका युग है जिसका पालन योगकी पूर्ण और सार्वभौम उपलब्धिपर या परमेश्वरके साथ सीधे संबन्ध पर निर्भर करता है और फिर योगकी उपलब्धि या परमेश्वरके साथ अप-रोक्ष संबन्ध इसपर निर्भर है कि मानवावतीर्ण विष्णु पूजापात्र, प्रभु और धर्म एवं योगके केन्द्रके रूपमें सतत उपस्थित रहें । चतुष्पाद् धर्म है ब्राह्मण (ब्राह्मणत्व), क्षत्र (क्षत्रियत्व) वैश्यत्व और शूद्रत्व-इन चारों धर्मोका पूर्ण सामंजस्य । इसी कारण सत्ययुगमें पृथक् वर्ग अस्तित्व नहीं रखते । त्रेता में ब्राह्मण्यका ह्रास होने लगता है, पर वह क्षत्र (क्षत्रियत्व) की सहायता करनेके लिए एक गौण शक्तिके रूपमें बना ही रहता है । उस समय क्षत्र ही मानवजाति पर शासन करता है । मनुष्यजाति तब पहलेकी तरह अन्त-र्निष्ठ बह्मज्ञानसे सहजतया धारित वीर्य या तपस्के द्वारा रक्षित नहीं होती, बल्कि वह एक ऐसे वीर्य या तपस् द्वारा रक्षित होती है जो कुछ कीठेनाई से ही ब्रह्मज्ञानको पोषित करता हैं और उसे ध्वस्त होनेसे बचाता है । तब विष्णु क्षत्रिय अर्थात् वीर्य और तपस्के विग्रहधारी केन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होते हैं । द्वापरमें ब्राह्मण्य और अधिक ह्रासको प्राप्त होकर कोरे ज्ञान या बौद्धिकतामें परिणत हो जाता हैं; क्षत्र वैश्यत्वको आश्रय देनेवाली एक अधीनस्थ शक्ति बन जाता है और वैश्यत्वको अपने प्रभुत्वका अवसर प्राप्त होता है 1 वैश्यके मुख्य गुण हैं-- ( 1) कौशलम्, व्यवस्था और प्रणाली, और इसीलिए द्वापर संहिता-निर्माण, कर्मकाण्ड और शास्त्रका युग है, जो ह्रासोन्मुख आन्तरिक आध्यात्मिकताको बनाए रखनेके लिए बाह्य उपकरण

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 हैं; ( 2) दानम्, और अतएव अतिथि-सेवा, तर्पण, यज्ञ और दक्षिणा अन्य धर्मोंको निगलने लगते हैं--यह यज्ञिय युग है, यज्ञ का युग, ( 3) भोग, और इसीलिए वेदका उपयोग इहलोक और परलोकमें भोग-सम्पादनके लिए किया जाता हैं; भोगैश्वर्यगतिं प्रति । इसमें विष्णु बुद्धि और अभ्यासकी अर्थात् बौद्धिक ज्ञान पर आधारित नित्य अनुष्ठानकी सहायतासे धर्मके ज्ञान और आचरणको सुरक्षित रखनेके लिए स्मृतिकार, कर्मकाण्डी और शास्त्रकार- के रूपमें अवतरित होते हैं । कलिमे शूद्रके धर्म प्रेम और सेवाके सिवाय सब कुछ छिन्न-भिन्न हो जाता है, इस शूद्र-धर्मके द्वारा ही मानवताका धारण एवं रक्षण और समय-समय पर पवित्रीकरण भी होता है; क्योंकि ज्ञान ( ज्ञानम् छिन्न-भिन्न हो जाता है और उसका स्थान सांसारिक, व्यावहारिक बुद्धि ले लेती है, वीर्य ( वीर्यम्) छिन्न-भिन्न हो जाता है और उसका स्थान ले लेते हैं ऐसे आलस्यपूर्ण यान्त्रिक साधन जिनसे सब कार्य निर्जीव ढंगसे, कमसे कम कष्टके साथ कराए जा सकें, दान, यज्ञ और शास्त्र छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उनके स्थानपर नपी-तुली उदारता, कोरा कर्मकाण्ड और तामसिक सामाजिक रूढ़ियां एवं शिष्टाचार प्रतिष्ठित हो जाते हैं । इन निर्जीव रूपोंको छिन्न-भिन्न करनेके लिए अवतार प्रेमको उतार लाते हैं जिससे जगत्को नवयौवन प्रदान किया जा सके और एक नई व्यवस्था एवं नया सत्ययुग जन्म ले सके, जब कि परमेश्वर पुन: यज्ञके रूपमें अर्थात् ज्ञान, बल, सुखोपभोग और प्रेमरूपी चतुष्पाद् धर्मकी पूर्ण अभिव्यक्तिसे संपन्न परम विष्णुके रूपमें अवतीर्ण होंगे ।

 

यह कहा गया है कि हमारे विकासकी वर्तमान अवस्थामें विष्णु प्रमुख-रूपसे आनन्दके अधिपति हैं पर वे सन्मय एवं तपोभय ब्रह्य भी हैं ।

सन्मय ब्रह्यके  रूपमें ही वे यज्ञ हैं--ऐसे सत् हैं जो चित् या तपस् और आनन्दको अपने अन्दर रखे हैं । यह स्मरण रखना होगा कि जहाँ अपरार्द्धमें हम ब्रह्मको विचार, वेदन, कार्य आदि द्वारा अपनी दृश्टिमें लाते हैं, वहाँ परार्द्ध में हम उसे विचार, वेदन और कार्यसे ऊँचे एक सारभूत साक्षात् अनुभव द्वारा दृष्टिगत करते हैं । आनन्द ( आनन्द-ब्रह्म) में हम तात्त्विक आह्लाद अनुभव करते है; चित् ( चिद्-ब्रह्म) में तात्त्विक शक्ति, प्रज्ञा और संकल्प, सत् ( सद्-ब्रह्म) में तात्त्विक सत्य या सत्-त्व । अतएव सत्को महासत्यम् और महाब्रह्म कहा जाता है, अर्थात् वह अभिव्यक्तिगत उच्च-तम सत्य जिसमेंसे प्रत्येक वस्तु नि:सृत होती है । यह महासत्य ( महासत्यम्) उस साधारण सत्य या कारण ( सत्यम्, कारणम्) से भिन्न है जिसे बाह्यत : महत् कहा जाता है और अन्तरत: विज्ञानम्, जो

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सात भूमिकाओंमेंसे चौथी है । इस महासत्यम् द्वारा ही यज्ञरूप विप्णु सत्ययुगमें धर्म और योगको धारण करते हैं । वे अभिव्यक्तिमें सद्ब्रह्म हैं । जब हम ऋत्विजम्' शब्दका विवेचन करेगें तो हम देखेंगे कि किस अर्थमें अग्नि परमेश्वरके पहले स्थित है ।

 

 देवम्

 

देवताको--'देव' शब्द द्वितीयस्थानीय ( यौगिक) धातु 'दिव्' से बना है जिसका अर्थ है चमकना, दमकना, स्पंदित होना, क्रीड़ा करना । 'द्' व्यंजनके गुण है शक्ति, भारी उग्रता, घनता, सघन प्रवेश, सघन गति । इस व्यंजनके आधारपर हमें ये धातु मिलते हैं--दा ( काटना), दि ( स्पंदित होना) और दु ( पीड़ा पहुंचाना) और दि सें हमें द्यु और दिव् या दीव् धातु प्राप्त होते हैं जिनका अर्थ है जगमगाते हुए स्पंदित होना, चमकना, टिमटिमाना या क्रीड़ा करना । देव वे हैं जो प्रकाशकी क्रीड़ा करते हैं ,-- उनका निज धाम विज्ञान ( विज्ञानम्), महर्लोक, कारण-जगत् में है, जहाँ अन्न ( जड़तत्त्व) ज्योतिर्मय है और सभी वस्तुएं अपनी स्वभावसिद्ध दीप्तिसे, स्वेन धाम्ना, प्रकाशमान है, और जहाँ जीवन व्यवस्थित लीला है । अतएव जब भागवत पुराण स्वर्गमें देवताओंके जीवनको देखनेकी शक्तिकी चर्चा करता है तो वह उस विशेष सिद्धिको देवक्रीडानुदर्शनम् ( देवताओंके खेल देखना) का नाम देता है, क्योंकि उनके लिए समस्त जीवन लीला ही है । परन्तु हमारे लिए देवता नीचेके स्वर्लोक अर्थात् चन्द्र-लोकमें निवास करते हैं जिसका शिखर है कैलास और आधार स्वर्ग जिसके ठीक ऊपर है पितृ-लोक । तथापि वहाँ भी वे अपना ज्योतिर्मय एवं लीलामय स्वरूप और अपनी उन प्रकाशमान देहों तथा स्वयं-सत् आनन्दके लोकोंको सुरक्षित राखते  हैं जो मृत्यु और चिंतासे मुक्त है ।

 

 ऋत्विजम्

 

वेदकी यज्ञानुप्ठान-परक ब्याख्यामें इस शब्दको ऋत्विक् अर्थात् यज्ञके पुरोहितके अर्वाचीन अर्थमें लिया जाता है, और इसकी व्याख्या इसे 'ऋतु- इज्' इस प्रकार विभक्त करके की जाती है, जिससे इसका अर्थ बनता है, 'वह जो ऋतुके अनुसार यज्ञ करता है' । वास्तवमें ऋत्विज् एक बहुत ही पुराना शब्द है जो प्राचीन सस्कृतमें सन्धिके अर्वाचीन नियमोंकी रचनासे पहले ही समासके रूपमे बन चूका था । यह ऋत् ( सत्य) और विज्

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( आनन्दोन्माद या आनन्दोन्मत्त) इन दो शब्दोंसे बना है । इसका अर्थ है 'वह जो सत्य ( सत्यम्) के आनन्दोन्मादसे युक्त है' ।

 

ऋत् एक भाववाचक संज्ञा ( नामपद) है । यह 'ऋ' धातुसे बना है जिसका मूल अर्थ था स्पन्दन करना, हिलना, झपटना, सीधे जाना; और इन अर्थोंसे निकले इसके अन्य अर्थ हैं-पहुंचना, अधिगत करना, या फिर आक्रमण करना, चोट या आघात पहुंचाना, या सीधा होना, उठना या उठाना; चमकना,  सोचना, सत्यको उपलब्ध करना इत्यादि । ' सीधे जाना' इस अर्थ-से यौगिक धातु ऋतु और तज्जन्य विशेषण ऋजु ( सीधा, सरल) बने हैं, तुल० लैटिन rego, rectus  ( रेगो, रेक्टुस्); इसी प्रकार उससे ये शब्द भी बने हैं-ऋंत् अर्थात् सीधा, यथातथ, सच्चा; ऋतम्, सत्य, याथातथ्य, प्रतिष्ठित विधि-विधान या आचार; ( 'सत्यम्' शब्दका प्रयोग परब्रह्मके लिए होता है, इस अर्थमें कि वे सत्य या महाकारण,-सत्यम्, महाकारणम्--हैं), ऋतु, नियम, सुनिश्चित व्यवस्था, सुनिश्चित काल ग्रा ऋतु; ऋषि, विचारक, सत्यका साक्षात् द्रष्टा, तुल० लैटिन reor ( रेओर, मैं विचार करता हूँ), ratio ( रातियो, विधि, क्रमव्यवस्था, तर्क, स्थापना इत्यादि) । विलुप्त शब्द ऋत्का अर्थ था अपरोक्षता, सत्य, विधान, नियम, विचार, सत्यम् ।

 

'विज्' शब्द 'विज्' धातुसे बनी संज्ञा या विशेषण है । इस धातुके अर्थ हैं -हिलना, क्षुब्ध या उत्तेजित होना, कांपना, आनन्दोन्मत्त या हर्षोत्फुल्ल .होना, हर्षोल्लास, परमाह्लाद या हर्ष-विभोर शक्तिसे परिपूर्ण होना । तुल० लैटिन vigeo और vigor ( विजेओ और वीगोर) जिससे अंग्रेजीका vigour  (विगर अर्थात् बल, उत्साह) शब्द आता है । अतएव ऋत्विज् वह हैं जो सत्य ( सत्यम्) की पूर्ण समृद्धिसे आनन्दविभोर है । यह दिखाया जा चुका है कि अग्नि तपस् या शक्ति का देवता है जो बुद्धिके स्तरपर नि:स्वार्थ भावसे कार्यरत है, उच्चतर देवोंमेंसे एक है जो निम्न स्तरपर अवर देवता इन्द्रकी सेवार्थ कार्य कर रहा है । वह सीघ्रे चित्से उद्भूत होता है । यह चित् जब सक्रिय होती है तो महातपस या चिच्छक्तिके नामसे पुकारी जाती है, महातपस् या चच्छक्तिका अभिप्राय हैं सद्-ब्रह्म, यज्ञ या विष्णुमें विद्यमान तात्त्विक प्रज्ञाकी शक्ति । शक्ति निश्चल सद् आत्मामें क्षोभ या आनन्दोन्मत्त स्पन्दन के द्वारा सर्ज न आरम्भ करती है और यह आनन्दोन्मत्त स्पन्दन या विज् ( वेग:) एक गति, शक्ति, ताप ( तप:) या अग्निके रूपमें निर्गत होता है जो ( गति आदि) जीवन एवं अस्तित्वका आधार हैं । चिच्छक्ति ( शक्ति, देवी, काली, प्रकृति) से उत्पन्न यह तपस् अपनेको अभिव्यक्त कर रहे सत् या महासत्य ( महासत्यम्) की आनन्दोन्मत्त गतिसे

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 परिपूर्ण है । इस कारण अग्निको ऋत्विज्, अर्थात् सत्य ( सत्यम्) से आनन्दोन्मत्त हो स्पन्दन करता हुआ, कहा गया है । इसी कारण उसे जातवेदा: भी कहा जाता है, अर्थात् वह जिससे उच्चतर ज्ञान उत्पन्न होता है, क्योंकि वह वेद या सत्य ( सत्यम्) को अपने अन्दर धारण किए है और उसे प्रकट करता है; तपस् चित् ( चैतन्य) की समस्त एकाग्रताका ( पतञ्जलि-प्रोक्त संयमका) आधार है । चित् (चैतन्य) की अपने विषय पर एकाग्रता या संयम (ज्ञानयोग एवं अध्यात्मयोग) के द्वारा ही सत्य और वेद योगीके सम्मुख साक्षात् स्वत: -व्यक्त एवं प्रकाशित हों जाते हैं । संयम ( एकाग्रता) के बिना कोई भी योग संभव नहीं, किसी प्रकारकी कोई भी फलप्रद क्रिया संभव नहीं । जब ब्रह्माने सृष्टि-क्रियाकी ओर अपना मन मोड़ा, तो कारणसमुद्र ( महाफारणम् या सद्ब्रझन्) की धाराओंपर ''तपस्, तपस्''का घोष ही सुनाई दिया । अतः ऋत्त्विज्के रूपमें योगीके लिए अग्निका अपरिमित महत्त्व हमारे सामने सुप्रकट हो जाता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि क्यों वह यज्ञका पुरोहित है (पुरोहितं यज्ञस्य), क्योंकि तपस् ही सत्यसे पहले स्थित होता है; पहले हम इस सत्यपर पहुँचते है और उसके बाद ही 'सत्' को प्राप्त कर सकते है । चिच्छक्ति ही हमें सत् की ओर ले जाती है,-देवी, शक्ति या काली ही हमें ब्रह्म, वामुदेव तक पहुँचाती है, इसीलिए अग्नि जो मनमें तपस् के लिए उस शक्तिका एक विशेष अभिकरण है, हमारे और यज्ञके बीच एक विशेष मध्यस्थ है । जैसा कि हम देख चुके हैं, यज्ञ बिष्णु, वासुदेव या ब्रह्म ही है जो बुद्धिके स्तरपर सच्चिदानन्द या परार्द्धमें स्थित है । औसत मनुष्य अभी जहाँ तक पहुँचा है वह बस अग्नि द्वारा यज्ञ-रूप विष्णु की प्राप्ति ही है । यही कारण है कि अग्नि ऋषियोंके लिए इतना महान् देव था । निरे यज्ञकर्त्ताओं और कर्मकाण्डियोंके लिए तो बह केवल इस रूपमें महान् था कि वह उनके समस्त क्रियाकलापके लिए अनिवार्य आगका देवता है, पर योगीके लिए उसका महत्त्व कहीं अधिक महान् है, उतना महान् जितना प्रकाशके अधिपति सूर्य और अमृतके अधिपति सोमका । वेदमें जिन प्रणालियोंपर प्रकाश डाला गया है और जिनमें वह सहायता भी पहुँचाता है उनके अत्यन्त अनिवार्य सहायकों में अग्नि भी एक था ।

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 होतारम्

 

यह एक और शब्द है जिसका वेदमें अधिक महत्त्व है । वेदकी सभी उपलब्ध व्याख्याओंमें '' होता'' का अर्थ 'आहुति देने वाला पुरोहित' किया जाता है, ''हवि:'' का अर्थ 'आहुति' और 'हु'  का 'आहुति डालना' । इन शब्दोके अर्थोंके विषयमें यह विचार, जो वेदके सभी महत्त्वपूर्ण शब्दोंके साथ जोड़े गए याज्ञिक अर्थोंके कई सहस्राब्दियों तक प्रभुत्व रहनेके कारण उत्पन्न हुआ हैं, इतना रूढ़ हों चुका है कि इनका कोई दूसरा अर्थ असम्भव ही समझा जायगा । पर मूल वे दमें 'होता' का अर्थ ' यज्ञका पुरोहित' नहीं था नाही हवि:का अर्थ 'आहुति' । अग्निको रूपकालंकारके द्वारा यज्ञका पुरोहित कहा जा सकता हैं यद्यपि इस अलंकारमें कोई बहुत अधिक संस्कृतानुरूप यथार्थता नहीं होगी, पर किसी भी तरह वह 'आहुति डालनेवाला' नहीं हो सकता । वह हविका भक्षण करता है, हवि देता या डालता नहीं । अतएव 'होता'का कोई अन्य अर्थ अवश्य होना चाहिए जो तथ्य और साधारण बुद्धिका उल्लंघन किए बिना अग्निके लिए प्रयुक्त हो सके ।

 

'हा' और 'हि' धातुओंके समान 'ह' धातु भीं 'ह्' व्यंजनपर आधारित है, जिसके मूल गुण ( अर्थ) हैं-उग्रता, प्रचण्ड क्रिया, तीव्रता, जोर-जोरसे श्वास लेना, और अत: ललकारना, आह्वान आदि । 'ह', 'हा' और 'हि' के समान इस धातु 'हु' का भी अर्थ, मूलरूपमें, प्रहार करना या पटक देना, आक्रमण करना, वध करना था, 'उ' स्वरने इन अर्थोमें व्यापकताका भाव जोड़ दिया जो इसमें सहज ही युद्धका विचार ले आया । अतएव हम देखते हैं कि इस धातुका अर्थ था आक्रमण करना, युद्ध करना जैसे कि 'आहव:' ( युद्ध) में; बुलाना, चिल्लाना, आह्वान देना, जैसे कि 'ह्वे' ( मूलत: 'हवे') इत्यादि में; फेंकना, उखाड़ फेंकना, नष्ट करना, निक्षिप्त करना, डालना, आहुति देना । इस अन्तिम अभिप्रायसे ही इसका अधिक आधुनिक अर्थ निकला । धातुका अर्थ बदलकर यु द्धसे यज्ञ हों जानेका समानान्तर दृष्टान्त है यूनानीनी शब्द mache  'माखे' ( युद्ध) जो निश्चय ही संस्कृतका यज्ञवाची 'मख:' शब्द ही है । यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आर्योंके लिए योगका अभिप्राय था देवों और दैत्योंके बीच युद्ध, देव योद्धा होते थे जो मनुष्यके लिए दैत्योंसे लड़ते थे और योगकी क्रिया या उसके प्रभावशाली अभ्यासोंसे बलवान् और विजयी बनते थे । दैत्य थे दस्यु या यज्ञ और योगके शतृ । जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती जायगी । जीवन एवं योगके विषयमे ( योग जीवनका उदात्तीकरण ही है) यह दृष्टि कि वह देवों और दैत्योंके बीच एक संघर्ष है वेद, पुराण एवं तन्त्रके और

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 हिन्दुधर्मकी प्रत्येक क्रियात्मक प्रणालीके अत्यन्त आधारभूत विचारोंमेंसे एक है । अग्नि सर्वोत्कृष्ट योद्धा है जिससे दैत्योंको डरना ही होगा क्योंकि वह एक ऐसे अहैतुक तपस्से परिपूर्ण है जिसके विरुद्ध कोई बुरी शक्ति विजयी नहीं हो सकती यदि यजमान या योगी उसे ठीक प्रकारसे प्रयोगमें लाए और प्रश्रय दे । अहैतुक तपस् उन सभी शक्तियोंको नष्ट कर डालता है । वह एक अति प्रबल, प्रभावक्षम और युद्धशील शक्ति है जिसे यदि एक बार अपने अन्दर पुकार लाया जाय तो वह हमें पूर्ण सिद्धिके लिए और अपनी प्रकृति एवं अपनी परिस्थितियोंपर एक लगभग सर्वशक्तिशाली प्रभुत्व प्राप्त करनेके लिए तैयार कर देती हैं । जब तपस् अशुद्ध, अपवित्र होता है तब भी वह 'तमस्'-रूपी शत्रुसे युद्ध करता है, और जब वह शुद्ध होता है, अग्निकी साक्षात् क्रिया होता है तो वह वीर्य लाता है, ज्ञान लाता है, आनन्द लाता है और लाता है मुक्ति । अतएव 'होतारम्'का अर्थ है योद्धा, दैत्योंका संहारक, जातवेदस् अग्नि; हविस् और हवम्का अर्थ है युद्ध या प्रचण्ड क्रियामें निरत बल, ये 'हु' ( युद्ध करना) धातुसे बने हैं ।

 

रत्नधातमम्

 

यह 'रत्नधा' शब्दका अतिशयबोधक ( आतिशायनिक) रूप है, 'रत्नधा' का अर्थ हैं हर्षप्रद, आनन्दका विधाता । हमारे सामने 'रत्' धातु है जो प्राथमिक धातु 'र'से निकलता है । 'र', 'रि', 'रु' ये तीन धातु स्वयं अपने मूल ' र'के प्रभेद हैं जिसका तात्त्विक अर्थ है सतत सकम्प स्पन्दन । 'र'का तात्त्विक अर्थ है स्पन्दित होना, हिलना, सब ओर कापना; 'अ' स्वर, तात्त्विक रूपसे, निरपेक्षता एवं विशालता तथा सीमारहितता का भाव सूचित करता है जब कि इसके विपरीत 'इ' स्वर संबन्धका तथा एक नियत बिन्दुकी ओर दिशा-दानका भाव बतलाता है । इस मूल भावसे 'क्रीड़ा करना' और चमकना ये तज्जन्य अर्थ निकलते हैं; जैसे कि रत्नम्, रत्न ( मणि), रति:, रम्, रञ्ज, रजतम् ( चांदी), रज: ( धूलि), रजनी, रात्रि ( रात) इत्यादिमें देखनेमें आते हैं । 'क्रीड़ा करना' इस पहले अर्थसे ये भाव निकलते हैं-प्रसन्न या आनन्दित करना, प्रेम करना, आराधना करना इत्यादि, जैसे रामा, राम:, राषू, रज्, रज: ( रजोगुण) इत्यादि में हैं । 'रत्' धातुसे बने 'रत्न' शब्दके प्राचीन संस्कृतमें दो अर्थ-समूह थे, आनन्द, सुख, क्रीड़ा, मैथुन संसर्ग, आनन्दकी वस्तु, गृहिणी इत्यादि; और प्रभा, ज्योति, द्युति, दीप्ति, भास्वर वस्तु, रत्न--जो आधुनिक अर्थ है । प्रथम दृष्टिमें ऐसा प्रतीत होगा कि द्युति, दीप्तिका अर्थ 'अग्नि'के लिए अधिक उपयुक्त है, और यह मनका

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 अन्धकार मिटानेवाले योद्धापर भी ठीक घटेगा, पर सूक्तका केन्द्रीय विचार प्रकाश-का-अधिपति-रूप अग्नि नहीं,--वह तो सूर्य है,-बल्कि शक्ति (तपस्) का अधिपति-रूप अग्नि है, जो यह उद्गम है जिसमेंसे आनन्द उद्भूत होता है । परार्द्धके तीन तत्त्व हैं सत्, चित् और आनन्द । सत्में चित् रहती है और उसीसे उद्भूत भी होती है । उद्भूत होते ही वह चिच्छक्ति-रूप तप:शक्तिको उत्पन्न करती है, जो सम्पूर्ण विश्वमें क्रीड़ा करती है, यह क्रीड़ा (रत्न) है चित्में आनन्द और यह चित्से उद्भूत होता है । अतएव समस्त तपस् आनन्द उत्पन्न करता है, और शुद्ध सहैतुक तपस् शुद्ध सहैतुक आनन्द उत्पन्न करता है । वह आनन्द विश्वव्यापी एवं स्वयं-सत् है और, अपने स्वभावसे ही, दुःखके किसी प्रकारके भी मिश्रण से कलुषित नहीं हो सकता । अतएव यह सर्वाधिक सुनिश्चित, विशाल और तीव्र है । इसी कारण अग्नि अत्यन्त हर्षदायक और आनन्दका महान् विधायक हैं । 'धा' धातुका अर्थ है स्थापित करना, उत्पन्न करना, देना, विधान या व्यवस्था करना; इस मन्त्रमें 'धा' प्राचीन आर्यभाषाका एक संज्ञावाची शब्द है जो 'कर्तृ'कारकका अर्थ प्रकट करता हैं और बहुधा विशेषणके रूपमें प्रयुक्त होता है ।

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