Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
सोलहवाँ सूक्त
समस्त स्पृहणीय कल्याणके लानेवालेके प्रति
[ ऋषि मानवमें स्थित भागवत संकल्पकी इस रूपमें स्तुति करता है कि वह एक होता [ हविर्दाता ] और पुरोहित (प्रतिनिधि) है जो प्रकाश, शक्ति, अन्तःस्फूर्त ज्ञान एवं प्रत्येक वरणीय कल्याण लाता है; क्योंकि वह एक अभीप्सु है जो कार्योंके द्वारा अभीप्सा करता है और जिसमें सब देवोंकी शक्ति और उनके बलका परिपूर्ण वैभव विद्य-मान है । ]
१
बृहद् वयो हि भानवेऽर्चा देवायाग्नये ।
यं मित्र न प्रशस्तिभिर्मर्तासो दधिरे पुर: ।।
(भानवे) उस भास्वर ज्योतिके प्रति, (देवाय) उस देवके प्रति (अग्नये) संकल्पाग्निके प्रति तू (बृहत् वय:) विशाल आविर्भाव का (अर्च) शब्द द्वारा स्तुतिगान कर, (यं) जिसको (मर्तास:) मर्त्य (प्रशस्तिभि:) उसके देवत्वके अनेकों वर्णन करनेवाली वाणियोंसे (मित्र न) मित्र1 के रूपमें (पुर: दधिरे) अपने सामने रखते हैं ।
2
स हि द्युभिर्जनानां होता दक्षस्य बाह्वो: ।
वि हव्यमग्निरानुषग्भगो न वारमृण्वति ।।
(स: हि जनाना होता) वही संकल्परूप अग्निदेव मनुष्योंकी भेंटको वहन करनेवाला पुरोहित है । (बाहवो:) अपनी दोनों भुजाओंमें (दक्षस्य द्युभि:) विवेकशील मनकी दीप्तियोसे वह (हव्यम् आनुषक् ऋण्वति) उनकी
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1. मित्र । अग्नि सब देवोंको धारण किये है और स्वयं सब देव है ।
मर्त्योंको दिव्य संकल्पकी क्रियामें प्रकाश और प्रेमको, सच्चे ज्ञान
एवं सच्चे अस्तित्वके सामंजस्यको अर्थात् मित्र-शक्तिको खोजना
है, इसी रूपमें दिव्य संकल्पाग्निको यज्ञके पुरोहितके तौरपर मानव
चेतनाके अग्रभागमें स्थापित करना है ।
९०
हवियोंकी अविच्छिन्न परम्पराको उस पार ले जाता है1 और (भग: न) दिव्य भोक्ता2के रूपमें (वारम् ऋण्वति) मनुष्यके कल्याणकी ओर गति करता है ।
३
अस्य स्तोभे मघोन: सख्ये वृद्धशोचिष: ।
विश्वा यस्मिन् तुविष्वणि समर्ये शुष्ममादधु: ।।
(वृद्धशोचिष: अस्य) जब वह अग्निदेव पवित्रताकी अपनी ज्वालाको बढ़ा लेता है तब उसके (स्तोमे) स्तुतिगीतमें और (सख्ये) उसकी मित्रतामें ही (मघोन:) प्रचुर ऐश्वर्यके सब प्रभु3, सब देव अवस्थित होते है, क्योंकि (यस्मिन् तुवि-स्वनि विश्वा) उसकी अनेकों वाणियोंकी ध्वनिमें सभी पदार्थ विद्यमान है । (अर्ये) मानवके कार्योमें अभीप्सा करनेवाले उस देवपर (शुष्मं सम् आदधु:) उन्होंने अपनी शक्तिका सब भार डाल दिया है ।
४
अधा ह्मग्न एषां सुवीर्यस्य मंहना ।
तमिद् यहं न रोदसी परि श्रवो बभूवतु: ।।
(अध हि) अब भी (अग्ने) हे संकल्पशक्ते ! (एषां सुवीर्यस्य मंहना) उनकी समग्र शक्तिका पूरा प्राचुर्य हो । (त यव्ह्मं परि) इस शक्तिशाली
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1. पुरोहितके रूपमें, यश में प्रतिनिधिरूप पुरोहित, यज्ञकी यात्राके रथके
नेताके रूपमें । भगवन्मखी कार्यके पथ-प्रदर्शन और सतत संचालनके
लिए वह हमारी सब शक्तियोंका नेता बनकर हमारी चेतनाके अग्रभागमें
स्थित रहता है ताकि इममें कोई वाधा न हों और यज्ञकी व्यवस्थामें,
देवोंकी ओर उसकी प्रगतिकी समुचित क्रमिक अवस्थाओंमें एवं सत्यके
कालों और ऋतुओंके अनुसार इसकी क्रियाओंको यथावत् स्थान देनेमें
कोई अन्तराल न रहे ।
2.भागवत संकल्प भोक्ता भग, मित्रकी भ्रातृशक्ति, बन जाता है
जो सत्ताके समस्त आनन्दका आस्वादन करती है, किन्तु ऐसा वह मित्रकी
विशुद्ध विवेक-शक्तिके द्वारा तथा दिव्य जीवनके प्रकाश, सत्य व सामं-
जस्यके अनुसार ही करती है ।
3.देव; भगवती शक्ति अन्य सभी दिव्य शक्तियोंको अपने अन्दर समाए
हुए है और उनके कार्य-व्यापारमें उन्हें सहारा देती है; अतः अन्य सब
देवोंकी शक्ति उसी में निहित है ।
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संकल्पबलके चारों ओर (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक (श्रव: न) मानों अन्तःस्फुरित ज्ञान1की एकात्मक वाणी (बभूवतु:) बन गये हैं ।
५
नू न एहि वार्यमग्नैं गृणान आ भर ।
ये वयं ये च सूरय: स्वस्ति धामहे सचोतैधि पृत्सु नो वृधे ।।
(अग्ने) हे संकल्पशक्तिरूप अग्निदेव ! (गृणान नः आ इहि नु) हमारे वचनोंसे स्तुति किया हुआ तू हमारे पास अभी आ और (नः वार्यम् आ भर) हमारा अभिलषित कल्याण हमारे पास ले आ । (ये वयं ये च सूरय:) हम जो यहाँ हैं और वे जो ज्ञानके प्रकाशमय स्वामी हैं (स्वस्ति धामहे) इकट्ठे मिलकर अपनी सत्ताकी उस आनन्दपूर्ण स्थितीकी नींव डालें । (उत स:) और वह तू (नः पृत्सु) हमारे संग्रामोंमें (एधि) हमारे साथ अभियान कर ताकि (वृधे) हम अभिवृद्धि प्राप्त करें ।
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1. संपूर्ण भौतिक और संपूर्ण मानसिक चेतना एक ऐसे ज्ञानसे परिपूर्ण हो
जाती हैं जो अतिमानसिक स्तरसे उनके अंदर प्रवाहित होता है
मानों वे दिव्य-द्रष्टा संकल्पके चारों ओर अतिमानसिक प्रकाश तथा
क्रियामें परिणत हो जाती हैं क्योंकि बह अपने रूपान्तरके कार्यके लिए
उनके अन्दर सर्वत्र गति करता है ।
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