Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
दसवां अध्याय
समुद्रों और नदियोंका रूपक
मधुच्छन्दसूके तीसरे सूक्तकीवे तीन ॠचाएँ जिनमें सरस्वतीका .आवाहन किया गया है इस प्रकार हैं-
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ||
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।.
यज्ञं दुधे सरस्वती ।|
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ।।
प्रथम दो ॠचाओंका आशय पर्याप्त स्पष्ट हो जाता है जब हम यह जान लेते हैं कि सरस्वती सत्य की वह शक्ति है जिसे हम अन्त:प्रेरणा कहते है । सत्यसे आनेवली अन्त:प्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्वसे छुड़ाकर पवित्र कर देती है ( पावका ), क्योंकि भारतीय विचारके अनुसार सब पाप केवल मिथ्यापन ही है, मिथ्या रूपसे प्रेरित भाव, मिथ्या रूपसे संचालित संकल्प और क्रिया ही है । जीवनका और हमारे अपने-आपका केंद्रभूत विचार, जिसको लेकर हम चलते हैं, एक मिथ्यात्व है और वह अन्य सबको भी मिथ्यारूप दे देता है । सत्य हमारे अंदर आता है एक प्रकाश, एक वाणीके रूपमें, और वह आकर हमारे विचारको बदलनेके लिये बाधित कर देता है, हमारे अपने विषयमें और जो कुछ हमारे चारों ओर है उसके विषयमें एक नवीन विवेकदृष्टि ला देता है । विचारका सत्य दर्शन ( Vision) के सत्यको रचता है और .दर्शन का सत्य हमारे अंदर सत्ताके सत्यका निर्माण करता है और सत्ताके सत्य ( सत्यम् ) मेंसे स्वभावत: भावनाका, संकल्पका और क्रियाका सत्य. प्रवाहित होता है. । यह है वास्तवमें वेदका केंद्रभूत विचार ।
सरस्वती, अन्त:प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओंसे भरपूर हैं ( वाजेभि-वार्जिनिवती ), विचारकी संपत्तिसे ऐश्वर्यवती ( धियावसु:) है । वह यज्ञको धारण करती है, देवके प्रति दी गयी मर्त्य जीवकी क्रियाओंकी हविको धारण करती है, एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्यकी चेतनाको जागृत कर देती
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है (चेतन्ती सुमतीनाम् ), जिससे वह चेतना भावना की समुचित अवस्थाओंको और विचारकी समुचित गतियोंको पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियां उस .सत्ये अनुरूप होती हैं जहांसे सरस्वती अपने प्रकाशोंको उँडेला करती है और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य्की इस चेतनाके अंदर उन सत्योंके उदय होनेको प्रेरित कर देती है ( चोदीयत्री सूनृतानांम्), जो. सत्य कि वैदिक ऋषियोंके अनुसार जीवन और सत्ताको असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिये परम सुखके द्वारोंको खोल देते हैं ।
इस सतत जागरण और प्रेरण (चेतन और चोदन ) के द्वारा जो 'केतु' (अर्थात् बोधन ) इस एक शब्दमें संगृहीत हैं--जिस 'केतु'को वस्तुओंके मिथ्था मर्त्यदर्शनसे भेद करनेके लिये 'दैव्य-केतु' (दिव्य बोधन ) करके प्राय: कहा गया है,--सरस्वती मनुष्यकी क्रियाशील चेतनाके अंदर बड़ी भारी बाढ़को या महान् गतिको, स्वयं सत्य-चेतनाको ही, ला देती है और इससे वह हमारे सब विचारोंको प्रकाशमान कर देती है (तीसरा मंत्र ) । हमें यह अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि वैदिक ऋषियोंकी यह सत्य-चेतना एक अति- मानस (मनसे परेका, मनोतीत ) स्तर है, जीवनकी पहाड़ीकी सतहपर है (अद्रे: सानु: ) जो हमारी सामान्य पहुँचसे परे है और जिसपर हमें बड़ी कठिनतासे चढ़कर पहुँचना होता है । यह हमारी जागृत सत्ताका भाग नहीं है, यह हमसे छिपा हुआ अति-चेतनकी निद्रामें रहता है । तो अब हम समझ सकते हैं कि मधुच्छंद्स्का क्या आशय है, जब वह कहता है कि सरस्वती अन्त:प्रेरणाकी सतत क्रियाके द्वारा सत्यको हमारे विचारोंमें चेतनाके प्रति जागृत कर देती है ।
परंतु जहां तक केवल व्याकरणके रूपका संबंध है, इस पंक्तिका इसकी अपेक्षा बिलकुल भिन्न अनुवाद भी किया जा सकता है; हम ''महो अर्ण:'' को सरस्वतीके समानाधिकरण मानकर इस ऋचाका यह अर्थ कर सकते हैं कि ''सरस्वती जो बड़ी भारी नदी है, बोधन (केतु ) के द्वारा हमें ज्ञानके प्रति जागृत करती है और हमारे सब विचारोंमें प्रकाशित होती है ।'' यदि हम यहां "बड़ी भारी नदी" इस मुहावरेको भौतिक अर्थमें ले और इससे पंजाबकी भौतिक नदी समझें, जैसा कि सायण समझता प्रतीत होता है, तो यहाँ हमें विचार और शब्द-प्रयोगकी एक बड़ी असंगति दिखायी पड़ने लगेगी, जो किसी भयंकर स्वप्न या पागलखानेके अतिरिक्त कहीं संभव नहीं हो सकती । यर यह कल्पनाकी जा सकती है कि इसका अभिप्राय है, अन्तःप्रेरणाका बड़ा भारी प्रवाह या समुद्र और यह कि यहां सत्य-चेतनाके महान् समुद्र कोई संकेत नहीं है | तो भी, दूसरे ऐसे स्थालोंमें देवातओंके
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संबंधमें यह संकेत बार-बार आता है कि वे महान् प्रवाह या समुदकी विशाल शक्तिके द्वारा कार्य करते है (मह्ना महतो अर्णवस्य 10-67-12), जहां कि सरस्वतीका कोई उल्लेख नहीं होती और यह असंभव होता है कि वहाँ उससे अभिप्राय हो । यह सच है कि वैदिक लेखोंमें सरस्वतीके विषयमें यह कहा गया है कि वह 'इन्द्र' की गुप्त आत्मशक्ति है (यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि यह एक ऐसा प्रयोग है जो कि अर्थसून्य हो जाता है, यदि सरस्वती केवल एक उत्तरकी नदी हो और इन्द्र आकाशका .देवता हो, पर तब इसका एक बड़ा गंभीर और हृदयग्राही अर्थ हो जाता है यदि इन्द्र हो प्रकाशयुक्त मन और. सरस्वती हो वह अन्त:प्रेरणा जों अतिमानस सत्यके गुह्य स्तरसे निकलकर आती है ) । परंतु इससे यह नहीं हो सकता कि सरस्वतीको अन्य देवोंकी अपेक्षा इतना महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया जाय जितना कि तब उसे मिल जाता है यदि '' मह्ना महतो अर्णवस्य''का यह अनुवाद करें कि ''सरस्वतीकी महानताके द्वारा" । यह तो बार-बार प्रतिपादित किया गया है कि देवता सत्य की शक्तिके द्वारा 'ऋतेन', कार्य करते हैं, पर सरस्वती तो सत्यके देवताओंमेंसे केवल एक है, यह भी नहीं कि वह उनमेंसे सबसे अघिक महत्त्वपूर्ण या व्यापक हो ।. इसलिये 'महो अर्ण:'का जो अर्थ मैंने किया है वही एकमात्र ऐसा अर्थ है जो वेदकके सामान्य विचारके साथ और दूसरे संदर्भोंमें जो इस वाक्यांशका प्रयोग हुआ है उसके साथ संगीत रखता है ।
तो चाहे हम यह समझें कि यह बड़ा भारी प्रवाह, ''महो अर्ण:", स्वयं सरस्वती ही है और चाहे हम इसे सत्यका समुद्र समझें, यह एक निश्च-यात्मक तथ्य है, जो इस संदर्भके द्वारा असंदिग्थ रूपमें स्थापित हो जाता है कि वैदिक ॠषि जलके, नदीके या समुद्रके रूपकको आलंकारिक अर्थमें और एक आध्यात्मिक प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त करते थे । तो इसको लेकर हम आगे विचार प्रारम्भ कर सकते हैं और देख सकते हैं कि यह हमें कहाँतक ले जाता है । प्रथम तो हम यह देखते हैं कि हिंदू लेखोंमें, वेदमें, पुराण में और दार्शनिक तर्को तथा दृष्टांतों तकमें सत्ताको स्वयं एक समुद्रके रूपमें वर्णित किया गया है । वेद दो समुद्रोंका वर्णन करता है, उपरले जल और निचले जल । वे समुद्र हैं--तो अवचेतनका जो अंधकारमय और अभिव्यक्ति-रहित है और दूसरा अतिचेतनका जो प्रकाशमय है और नित्य अभिव्यक्त है, पर है मानवमनसे परे ।
ॠषि वामदेव चतुर्थ मण्डलके अंतिम सूक्तमें इन दो समुद्रोंका वर्णन करता है | वह कहता है कि एक मधुमय लहर समुद्रसे ऊपरको आरोहण
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करती है और इस आरोहण. करती हुई लहर के द्वारा जो कि 'सोम' ( अंशु ) है, मनुष्य पूर्ण. रूपसे अमरताको पा लेता है; वह लहर या!वह सोम निर्मलता ( 'धृतस्य', जो शुद्ध. किये हुए .मक्खनका, घीका, सुचक है ) गुह्य नाम है; वह देवताओंकी जिह्वा है, वह अमरताकी नाभि है ।
समुद्राढ़ूर्मिर्मषुमां उवारद् उपाशुना सममृतत्वमानट् ।
धृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभि : ।। ( 4-58-1 )
मैं समझता हूँ कि इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि समुद्र, मधु, सोम, धृत ये सब कम-से-कम इस संदर्भमें तो अवश्य आध्यात्मिक प्रतीक हैं । निश्चथ ही वामदेवका यह आशय नहीं है कि शराबकी एक लहर या प्रवाह हिन्दमहासागर या बंगालकी खाड़ीके खारे पानीसे निकलकर अथवा यह भी सही कि, सिन्ध नदीके या गंगा नदीके ताजे पानीसे निकलकर ऊपर चढ़ती हुई आयी, और यह शराब धीका गुह्म नाम है । जो वह कहना चाहता है वह स्पष्ट यह है कि हमारे अन्दर जो अवचेतनकी गहराइयां हैं उनमेंसे आनन्दकी या सत्ताके विशुद्ध आह्लादकी एक मधुमय लहर उठती है और इसी आनन्दके द्वारा हम अमरता तक पहुंच पाते हैं, यह आनन्द वह रहस्यमय सत्ता है, वह गुह्य वास्तविकता है, जो अपनी चमकती हुई निर्मलताओंसे युक्त मनकी क्रियाके पीछे छिपी हुई है । वेदान्त भी हमें बताता है कि इस आनन्दका देवता 'सोम' वह वस्तु है जो मन या संवेदनात्मक बोध बन गया है । दूसरे शब्दोमें, समस्त मानसिक संवेदन अपने अन्दर सत्ताके एक गुप्त आनन्दको रखता है और अपने ही अस्तित्वके उस रहस्यको व्यक्त करना चाहता है । इसलिये आनन्द देवताओंकी जिह्वा है, जिससे वे सत्ताके आनन्द का आस्वादन करते हैं; यह नाभि है जिसमें अमर अवस्था या दिव्य सत्ताकी सब क्रियाएं इकठ्ठी बंधी हुई हैं । वामदेव अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे कहता है, ''आओ हम निर्मलता (धृत ) के इस रहस्यमय नामको व्यक्त करें,-अभिप्राय यह कि हम इस सोम-रसको, सत्ताके इस गुह्य आनन्द-को, बाहर निकाले; इसे इस विश्व-यज्ञमें अग्निके प्रति, अर्थात् उस दिव्य संकल्प या सचेतन-शक्तिके प्रति जो सत्ताका स्वामी ( ब्रह्मा ) है, अपने सम-र्पणों या प्रणतियोंके द्वारा ( नमोभि: ) थाम लें । वह लोकोंका चार सींगों-वाला बैल है, और जब वह मनुष्यके व्यक्त होते हुए आत्मिक विचारोंको सुनता है तब वह आनन्दके इस गुह्य नामको इसकी गुहासे बाहर निकाल देता है ( अवमीत् ) ।"
वयं नाम प्र ब्रवामा धृतस्य अस्मिन् यज्ञे घारयामा नमोभिः |
उप ब्रह्या शृणवच्छस्यमानं चतु-शृङ्गोऽवमिद् गौर एतत् || (4-58-2)
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समुद्रों और नदियों का रूप
यहां हम इस वासकी तरफ भी ध्यान देते चलें कि क्योंकि सोमरस और धृत प्रतीकात्मक हैं इसलिये यक्षको भी अवश्यमेव प्रसीकात्मक ही होना चाहिये । इस प्रकारके सूक्तोंमें जैसा यह वामदेवका सूक्त है कर्मकांडका आवरण जिसे वैदिक रहस्यवादियोंने ऐसे प्रयत्नपूर्वक बुना था इस. प्रकार विलुप्त हो जाता है जैसे हमारी आंखोके सामनेसे विलीन होता हुआ कोहरा और वहां वैदांतिक सत्य, वेदका रहस्य स्पष्ट. दीखने लगता है ।
वामदेव हमें अपने द्वारा वर्णित इस समुद्रके स्वरूपके विषयमें बिल्कुल भी सन्देहका अवकाश नहीं देता; क्योंकि पांचवी ॠचामें उसने साफ. ही इसे हृदयका समुद्र. कह दिया है, "हृधात् समुद्रात्", जिसमेंसे निर्मलताकी धाराएं, "धृतस्य धारा:'', उठती हैं । वह कहता है कि वे मन और आन्त-रिक ह्रदयके द्वारा उत्तरोत्तर पवित्रकी जाती हुई बहती हैं, "अन्तर्ह्रदा मनसा पूयमाना:'' । और अन्तिम ऋचामें वह सारी ही सत्ताको तीन स्थाननोंमें स्थित हुआ वर्णित करता है, प्रथम तो 'अग्नि' के धाममें जिसके विषयमें दूसरी ॠचाओंसे हम यह जानते हैं कि वह सत्यचेतना है, अग्निका अपना घर है, "स्वं दमम्, ऋतम् बृहत्'', --दूसरे, हृदयमें, समुद्रमें जो स्पष्ट ही वह है जो कि ' हृध समुद्र' --तीसरे, मनुष्यके जीवनमें ( आयुषि ) ।
वामन् ते विश्वम् भुवनम् अधि श्रितम्, अन्तः समुद्रे ह्रुधन्तरायुषि |
( 1 ) अतिचेतन और ( 2 ) अवचेतनका समुद्र, तथा ( 3 ) इन दोनोंके मध्यमें प्राणीका जीवन,---यह ( तीनों मिलकर ) है सत्ताका वैदक विचार ।
अतिचेतनका समुद्र निर्मलताकी नदियोंका, मधुमय लहरका, लक्ष्य है, जैसे कि ह्रदयके अन्दरका अवचेतनका समुद्र उनके उठनेका स्थान है । इक उपरले समुद्रको "सिन्धु" कहा गया है और 'सिन्धु' शब्दके नदी या समुद्र दोनों अर्थ हो सकते है; पर इस सूक्तमें स्पष्ट ही इसका अर्थ समुद्र है । आइये जरा हम इस अदभुत भाषा पर दृष्टि डालें जिस भाषामें कि वामदेव निर्मलताकी इन नदियोंका वर्णन कुरता है । सबसे पहले वह यह कहता है कि देवताओंने उस निर्मलताको, 'धृतम्' को खोजा और पा, लिया, जो 'धृत' तीन रूपोंमें स्थित था, तथा जिसे पणियोंने गौके अन्दर, 'गवि', छिपाया हुआ था ।1 यह नि:संदिग्ध है कि 'गौ' वेदमें दो अर्थोंमें :प्रयुक्त हुआ है, गाय और प्रकाश; गाय बाह्म प्रतीक है, आन्तरिक अर्थ है प्रकाश । गौओं--
1.त्रिधाहितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो धुतमन्वविन्दन् |
(इन्द्र एकं सूर्य एकं बब्रान वेनादेकं स्वषया निष्टत्तक्षु:) || (4-58-4)
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का अलंकार कि उन्हें पणि चुरा ले गये थे और ले जाकर छिपा लिया था, वेदमें निरन्तर आता है । यहां यह स्पष्ट है कि क्योंकि 'समुद्र' एक आध्यात्मिक प्रतीक है--ह्रदयका समुद्र ''समुद्रे हृदि",-- और 'सोम' एक आध्यात्मिक प्रतीक है तथा 'धृत' एक आध्यात्मिक प्रतीक है इसलिये वे गौएं भी जिनमें देवता पणियों द्वारा छिपाये गये 'धृत'को ढ़ूंढ़कर पा लेते हैं अवश्य ही एक आन्तरिक प्रकाशका प्रतीक होनी चाहियें, न कि भौतिक प्रकाशकी सूचक । गौ वास्तवमें 'अदिति' है, असीम चेतना है जो अवचेतनके अन्दर छिपी हुई है, और त्रिविध धुत है त्रिविध निर्मलता, एक तो मुक्त संवेदनकी जो अपने आनन्दके रहस्यको पा लेता है, दूसरे, उस विचारात्मक मनकी जो प्रकाश और अन्तर्ज्ञानको उपलब्ध करता है और तीसरे, स्वयं सत्यकी, चरम अतिमानसिक साक्षात्कारकी । यह इस ॠचा ( 4-58-4) के उत्तरार्धसे स्पष्ट हो जाता है, जिसमें यह कहा गया है कि ''एकको इन्द्रने पैदा किया, एकको सूर्यने, एकको देवताओंने 'वेन'के स्वाभाविक विकाससे रचा"; क्योंकि 'इंद्र' विचारशील मनका, 'सूर्य' अतिमानस प्रकाशका अधिपति है और वेन है सोम, सत्ताके मानसिक आनन्दका अधिपति, इन्द्रिय-मनका रचयिता ।
अब यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि यहांपर वर्णित 'पणि' अवश्य और बलात् आध्यात्मिक शत्रु, अन्धकारकी शक्तियां ही होने चाहियें, न कि द्राविड देवता या द्राविड़ जातियाँ या द्राविड़ सौदागर । अगली (पांचवीं ) ॠचामें वामदेव 'धृतम्' की धाराओंके विषयमें कहता है कि वे ह्रदयके समुद्रसे चलती हैं, जहाँ वे शत्रु द्वारा सैकड़ों कारागारों ( 'व्रजों', वाड़ों ) में इस प्रकार बंदकी हुई पड़ी हैं कि वे दिखायी नहीं देतीं । निश्चय ही, इसका यह अभिप्राय नहीं है कि घीकी या पानीकी नदियाँ ह्रदय-समुद्रसे या किसी भी समुद्रसे उठती हुई वीचमें दुष्ट और अन्यायी द्रीवड़ियोंसे पकड़ ली गयीं और सैकड़ों बाड़ोंमें बन्द कर दी गयीं, जिससे कि आर्योंके लोगोंको या आर्योंके देवताओंको उनकी झांकी तक न मिल सके । तुरन्त हम अनुभव करते हैं कि यह शत्रु, वेदमंत्रोंका पणि, वृत्र एक विशुद्ध आध्यामिक विचार है न कि यह बात है कि हमारे पूर्वजोंका प्राचीन भारतीय इतिहासके तथ्योंको अपनी सन्ततिसे छिपानेके लिये उन्हें जटिल और दुर्गम्य गाथाओंके बादलोंसे ढक देनेका एक प्रयास हो! । ॠषि वामदेव हक्का-बक्का रह जाता, यदि वह कहीं देख पाता कि उसके यझसंबन्धी रूपकोंको आज ऐसा अप्रत्याशित उपहास-रूप दिया जा रहा है । इससे भी कुछ बात नही बनती यदि हम 'धृत'को पानीके अर्थमें लें, 'ह्र्ध समुद्र'को मनोहर झीलके अर्थमें और यह कल्पना
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कर लें कि द्रविड़ियोंने नदियोंके पानीको सैकड़ों बांध लगाकर बन्द कर लिया था, जिससे कि आर्य लोग उनकी एक झांकी तक नहीं पा सकते थे । क्योंकि यदि पंजाबक नदियाँ सब-की-सब हृदयको आनन्द देनेवाली एक मनोहर झील-से निकलती भी हों, तो भी यह नहीं हो सकता कि उनकी पानीकी धाराओं को बहुत ही चालाक तथा अत्यन्त उपायकुशल द्रविड़ियोंने इस प्रकारसे एक गायके अन्दर तीन रूपोंमें रख दिया हो और उस गायको ले जाकर एक गुफामें छिपा दिया हो ।
वामदेव कहता है, ''ये ह्रदय-समुद्रसे चलती हैं; शत्रु द्वारा सैंकड़ों वाड़ोमें बंदकी हुई ये दीख नहीं सकतीं । मैं निर्मलता ( धृत ) की धाराओंकी ओर देखता हूं, क्योंकि उनके मध्यमें सुनहरा बेंत रखा हुआ है ( 5वां मंत्र ) । अन्त:स्थ हृदय और मनके द्वारा पवित्रकी जाती हुई ये बहती हुई नदियोंकी तरह सम्यक् प्रकारसे स्रवण करती हैं; ये निर्मलताकी लहरें ऐसे चलती हैं जैसे पशु अपने. हांकनेवालेकी अध्यक्षतामें चलते हैं (6ठा मंत्र ) । ये महती धाराएं, निर्भलता (घृत ) की धाराएं वेगयुक्त गतिसे भरपूर, किन्तु प्राणकी शक्ति ( वात, वायु ) से सीमित हुई-हुई चलती हैं, मानो कि ये उस रास्ते पर चल रही हों जो समुद्र ( 'सिन्धु' उपरले समुद्र ) के सामने है; ये एक जोर मारते हुए घोड़ेके समान हैं जो अपने सीमित करनेवाले बंधनोंकों तोड़ फेंकता है, जब कि वह लहरों द्वारा परिपुष्ट हो जाता है, ( 7वां मंत्र1 ) ।'' देखते ही यह मालूम हो जाता है कि यह एक रहस्यवादीकी कविता है, जो अपने अभिप्रायको अधार्मिकोंसे छिपानेके लिये रूपकोंके आवरणके नीचे ढक रहा है, जिसे वह कहीं-कहीं पारदर्शक हो जाने देता है ताकि जो देखना चाहते हैं वे उसमेंसे देख सके ।
जो वह कहना चाहता है वह यह है कि दिव्य ज्ञान हर समय हमारे विचारोंके पीछे सतत रूपसे प्रवाहित हो रहा है, परंतु आन्तरिक शत्रु .उसे हमसे रोके रखते हैं । वे हमारे मनके तत्त्वको इन्द्रिय-क्रिया और इंद्रियाश्रित बोध तक ही सीमित कर देते हैं जिससे कि, यद्यपि हमारी सत्ताकी लहरें
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1. एता अर्षन्ति ह्रुधात् समुद्राच्छातव्रजा रिपुणा नावचक्षे ।
धृतस्य धारा अभि चाकशीमि हिरण्य यो चेतसो मध्य आसाम् ||५।|
सम्यक् भवन्ति सरितो न घेना अन्तर्ह्रदा मनसा पूयमान: |
एते अर्वन्स्युर्मयो वृतस्य मृगा इव क्षिपणोरीषमानणा: ||६||
सिन्धोरिय प्राष्यने झूषमासो वातप्रमियः पतयन्ति वह्वा:|
धृतस्य धारा अरुषो न वाणी काष्ठा भिन्दभुर्मिभि: पिस्वमानः ||७|| (4-58)
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उन किनारों पर टकराती हैं जो अतिचेतन तक, असीम तक पहुंचते हैं तो भी वे इन्द्रियाश्रित मनकी स्नायवीय क्रिया द्वारा सीमित हो जाती हैं और अपने रहस्यको प्रकट नहीं कर पातीं । वे उन घोड़ोके समान हैं जो नियंत्रण से काबूमें रखे हुए और लगामसे रोके हुए हैं; जब प्रकाशकी धाराएं अपनी शक्तिको बढ़ाकर भरपूर कर लेती हैं, केवल तभी जोर मारता हुआ घोड़ा इन बंधनोंको तो! पाता. है. और वे धाराएं स्वच्छंदततपूर्वक उस ओर बहने लगती है, जहांसे सोमरस अभिषुत हुआ है और वश पैदा हुआ .है-
त्रय सोमः सूयते यत्र यज्ञो धृतस्य धारा अभि तत् पवन्ते | (9)
फिर यह लक्यक्ष्य इस रूपमें व्याख्यात हुआ है कि यह सारा मधु-ही-मधु-है--धृतस्व धारा मधुमत् पवन्ते ( ।0) ; यह आनन्द है, दिव्य परम-सुख है । और यह कि यह लक्ष्य 'सिंधू' है, अतीचेतन समुद्र है, अंतिम ॠचायें स्पष्ट कर दिया गया है जहां वामदेव कहता है 'तिरी मधुमय लहरका हम आस्वादन कर सकें''--तेरी अर्थात् 'अग्नि'की जो दिव्य पुरुष है, लोकोंका चार सींगोवाला बैल है' ''जो लहर जलोंकी शक्ति में, जहां वे इकइठे होते हैं घारणकी हुई है ।''
अपमानिके समिये य आभृतः तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम् । ( 11 )
वैदिक ऋषियोंके इस आधारभूत: विचारको हम 'सृष्टि-सूक्त, ( 1 0-129 ) में प्रतिपादित पाते हैं, जहां अवचेतनका इस प्रकार वर्णन किया गया है, ''अंधकारसे घिरा हुआ अंधकार, यही सब कुछ था जो प्रारम्भमें था, एक समुद्र था जो बिना मानसिक चेतनाके था... इसमेंसें एक पैदा हुआ, अपनी शक्तिकी महत्ताके द्वारा । ( 3 ) । पहले-पहल इसके अन्दर इसने इच्छा ( काम ) के रूपमें गतिकी, जो इच्छा मनका प्रथम बीज थी । उन्होंने जो. बुद्धिके स्वामी थे. असत्मेंसे उसे पा लिया जो सतका मिर्माण करता है; हदयके अन्दर उन्होंने इसे सोद्देश्य अन्त:प्रवृत्तिके द्वारा और विचारात्मक मन द्वारा पाया । ( 4 ) । उनकी किरण दिगन्तसम रूप-से फैली हुई थी; उसके ऊपर भी कुछ था, उसके नीचे भी कुछ था1 । ( 5 ) ।'' इस संदर्भमें वे ही विचार प्रतिपादित हैं जो वामदेवके सूक्तमें,
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1. तम आसीत्तमसा गाळहमऽप्रेकेतं सलिलं इदम् |
(तुच्छधेनाम्वपहितं यदासीत्) सपसस्तन्महिनाऽवायतैकम् ||३||
कामस्तदपे समवर्तताधि मनस्मे रेतः प्रथमं यदासीत् |
ससो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।|४।|
तिरश्चिनो विततो रश्मिरेषामधः स्विवासीदुपरि स्विवासीदुपरित् | ....||५||
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परन्तु 'रुपपोंका आवरण यहाँ नहीं है | 'अचेतनके-समुद्रमेंसे 'एक तत्त्व' ह्रदयमें उठता है जो सर्वप्रथम इच्छा ( काम ) के रूपमें आता है; वहां हृदय- समुद्रमें वह सत्ताके आनंदकी एक अव्यक्त इच्छाके रूपमें गति करता है और यह इच्छा उसका प्रथम बीज है जो बादमें इन्द्रियाश्रित मनके रूपमें प्रकट होता है । इस प्रकार देवताओंको अवचेतनके अंधकारमेंसे सत्को, सचेतन सत्ताको, निर्मित कर लेनेका एक साधन मिल जाता है, वे इसे ह्रदयमें पाये हैं और विचारके तथा सोद्देश्य प्रवृत्तिके विकासके द्वारा बाहर निकाल लाते हैं, 'प्रतीष्या', इस शब्दसे मनोमय इश्च्छाका ग्रहण करना अभिप्रेत. है, वह उस पहली अस्पष्ट इच्छासे भिन्न है जो अवचेतनमेंसे प्रकृतिकी केवल प्राणमय गतियोंमें उठती है । सचेतन सत्ता, जिसे वे इस प्रकार रचते हैं, इस प्रकार विस्तृत होती .है मानो यह अन्य दो विस्तारोंके बीचमें दिगन्तसम रूपमें हो; नीचे अवचेतनकी अंधकारमय निद्रा होती है, ऊपर होती है अतिचेतनकी प्रकाशपूर्ण रहस्यमयता । ये ही उपरले और निचले समुद्र हैं ।
यह वैदिक अलंकार पुराणोंके इसी प्रकारके प्रतीकात्मक अलंकारोंपर भी एक स्पष्ट प्रकाश डालता है; विशेषकर 'विष्णु'के इस प्रसिद्ध प्रतीक पूर कि वह प्रलयके बाद क्षीरसागरमें 'अनंत' सांपकी कुण्डलीमें शयन करता है । यहां यह आक्षेप किया जा सकता है फि पुराण तो उन अंधविश्वासी हिंदू. पुरोहितों या कवियों द्वारा लिखे गये थे जो यह विश्वास रखते थे कि ग्रहणोंका कारण यह है की एक दैत्य सूर्य और चन्द्रमाको ग्रसता (खा जाता ) है और वे आसानीसे ही इसपर भी विश्वास कर सकते थे कि प्रलयके समय-में परमात्मा भौतिक शरीरमें सचमुचके दूधके भौतिक समुद्रमें एक भौतिक सांपके ऊपर सोने जाता है और इसलिये यह व्यर्थका बुद्धिकौशल दिखाना है कि इन कहानियोंका कोई आध्यात्मिक अभिप्राय खोजा जाय । मेरा उत्तर यह होगा कि वस्तुत: ही उनमें ऐसे अभिप्राय खोजनेकी, ढूंडनेकी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इन्हीं 'अंधविश्वासी' कवियोंने ही वहाँ स्पष्ट रूपसे कहानियोंके उपरिपृष्ट पर ही उन अभिप्रायोंको रख दिया है जिससे उन्हें प्रत्येक व्यक्ति, जो जानबूझकर अंधा नहीं बनता, देख सकता है । क्योंकि उन्होंने विष्णुके सांपका एक नाम भी रखा है, वह-माम है 'अनंत', जिसका अर्थ है असीम; इसलिये उन्होंने हमें पर्याप्त स्पष्ट रूपमें कह दिया है कि यह कल्पना एक अलंकार ही है और विष्णु, अर्थात् सर्वव्यापक देवता, प्रलय-कालमें अनंतकी अर्थात् असीमकी कुण्डलियोंके अन्दर शयन करता है । बाकी क्षीरसमुद्रके विषयमें यह कि वैदिक अलंकार हमें यह दर्शाता है कि यह असीम सत्ताका समुद्र होना चाहिये और असीम सत्ताकासमुद्र है नितान्त
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मधुरताका, दूसरे शब्दोंमें विशुद्ध सुखका एक समुद्र | क्योंकि क्षीर या मधुर दूध ( जो स्वयं भी एक. वैदिक प्रतीक है ) स्पष्ट ही. एक ऐसा अर्थ रखता है जो वामदेवके सूक्तके 'मधु'; शहद या मधुरतासे सारत: भिन्न नहीं है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि वेद और पुराण दोनों एक ही प्रतीकात्मक अलंकारोंका प्रयोग करते हैं; समुद्र उनके लिये असीम और शाश्वत सत्ताका प्रतीक है | हम यह भी पाते हैं कि नदी था बहनेवाली धाराके रूपकको सचेतन सत्ताके प्रवाहका प्रतीकात्मक वर्णन करनेके लिये प्रयुक्त किया गया है । हम देखते हैं कि सरस्वती, जो सात नदियोंमेंसे एक है, अन्त:प्रेरणा-की नदी है जो सत्यचेतनासे निकलकर बहती है । तो हमें वह कल्पना करनेका अधिकार है कि अन्य छ: नदियां भी आध्यात्यिक प्रतीक होनी चाहियें ।
पर हमें सर्वथा कल्पना और अटकल पर ही निर्भर रहनेकी आवश्यकता नहीं है, वे चाहे कितनी ही दृढ़ कर सर्वथा विश्वासजनक क्यों न हों । जैसे कि वामदेवके सूक्तमें हम देख आये है कि नदियां, ' धृतस्य धारा:', वहां घीकी नदियाँ या भौतिक पानीकी नदियां नहीं हैं पर आध्यात्मिक प्रतीक हैं, वैसे ही हम अन्य सूक्तोंमें सात नदियोंके प्रतीक होनेके संबंघमें बड़ी जबर्दस्त साक्षी पाते हैं । इस प्रयोजनके लिये मैं एक और सूक्तेकी परीक्षा करूंगा; तृतीय मण्डलके प्रथम सूक्तक जो ॠषि विश्वामित्रके द्वारा अग्निदेवताके प्रति गाया गया है; क्योंकि यहां वह सात नदियोंका वर्णन वैसी ही अद्भुत और असंदिग्ध भाषामें करता है, जैसी धृतकी नदियोंके विषयमें वामदेवकी भाषा है । हम देखेंगे कि इन दो पवित्र गायकोंकी गितियोंमें ठीक एकसे ही विचार बिलकुल भिन्न प्रकरणोंमें आते हैं ।
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