Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
नवां अध्याय
सरस्वती और उसके सहचारी
वेदका प्रतीवाद देवी सरस्वतीके अलंकारमें अपमे आपको अत्यधिक स्पष्टताके साथ प्रकट कर देता है, छुपा नहीं रख सकता । वहुतसे अन्य देवताओंमें आन्तरिक अर्थका तथा बाह्य अलंकारका संतुलन बड़ी सावधानीके साथ सुरक्षित रखा गया है । वेदवाणीके सामान्य श्रोता तकके लिये ऐसा तो होता है कि अलंकारका यह आवरण कहीं-कहीं पारदर्शक हो जाता है या कहीं-कहींसे उसके कोने उठ जाते हैं, पर यह कभी नहीं होता कि वह बिलकुल ही हट जाय । कोई यह संदेह कर सकता है कि 'अग्नि' क्या इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि यज्ञिय आगका या पदार्थोमें रहनेवाले प्रकाश या ताप के भौतिक तत्त्वका मानवीकृत रूप है; अथवा 'इन्द्र' क्या इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि वह आकाश और वर्षाका. या भौतिक प्रकाश (विद्यत् ) का देव है; अथवा 'वायु' इसके अतिरिक्त भी कुछ है कि वह आंधी और पवनमें रहनेवाला या अधिक-से-अधिक भौतिक जीवन-श्वासका देवता है । पर अपेक्षाकृत छोटे देयताओंके विषयमें प्रकृतिवादी व्याख्यापर विश्वास करनेके लिये बहुत. कम आधार है । क्योंकि यह प्रकट है कि 'वरुण' केवल वेदका यूरेनस ( Uranus) या नैपचून (Neptune) ही नहीं है परंतु वह एक ऐसा देवता भी है जिसके बड़े महान् और महत्त्वपूर्ण नैतिक व्यापार हैं । 'मित्र' और 'भग' का भी इसी प्रकारका आध्यात्मिक स्वरूप है । 'ॠभू' जो मनके द्वारा वस्तुओंकी रचना करते हैं और कर्मोंके द्वारा अमरताका निर्माण करते हैं, कठिनतासे ही कूटे-पीटे आकर प्रकृतिवादी गाथाशास्त्रके प्रोक्रिस्टियन1 सांचेमें डाले जा सकते है । फिर भी वैदिक ऋचाओंके कवियोंके सिर पर विचारोंकी अस्तव्यस्तता और गड़बड़ीका दोष मढ़कर इस कठिनताको हटाया नहीं तो कुचला तो जा ही सकता है ।
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1. ग्रीक गाथाशास्त्रमें प्रोक्रस्टी नमक एक असुर था जो सब लोगों को अपनी चारपाईके विलकुल अनुकूल कर लेता था, जो लंबे होते थे उनके पैर काट देता था, वो छोटे होते थे उनको खींचकर उतना लम्बा कर देता था । उससे प्रोक्रस्टियन शब्द बना है, जिसका अर्थ है जबरदस्ती काट-छांटकर, खींचतान कर अनुकूल बनानेवाला ।
--अनुवादक
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पर 'सरस्वती' तो इस प्रकारके किसी भी उपायके वशमें नहीं होगी । वह तो सीधे तौरसे और स्पष्ट ही वाणी की देवी है, एक दिव्य अन्तःप्रेरणाकी देवी है ।
यदि सब कुछ इतना ही होता, तो यह हमें इस स्पष्ट तथ्यसे विशेष अधिक दूर नहीं ले जाता कि वैदिक ऋषि केवल प्रकृतिवादी जंगली नहीं थे, बल्कि वे अपने आध्यात्मिक विचार रखते थे और गाथात्मक प्रतीकोंकी रचना करनेमें समर्थ थे, जो प्रतीक कि न केवल भौतिक प्रकृतिके उन स्पष्ट व्यापारोंको सूचित करते थे जिनका सरोकार उनके कृषिसंबंधी, पशुपालन-संबंधी तथा उनकें खुली हवामें रहनेके जीवनसे था पर साथ ही वे मन तथा आत्माके आन्तरिक व्यापारोंके सूचक भी थे । यदि हम प्राचीन धार्मिक विचारके इतिहासको यों समझे कि यह एक क्रमिक बिकास है जो प्रकृति और जगत् तथा देवताओंके संबंधमें भौतिकसे आध्यात्मिककी ओर, विसूद्ध प्रकृतिवादसे एक उत्तरोत्तर बढ़ते हुए नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोणकी ओर हुआ है (और यही, इस समय माना हुआ दृष्टिकोण है,1 यद्यपि यह किसी भी प्रकार निश्चित नहीं है ) तो हमें अवश्यमेव यह कल्पना करनी चाहिये कि वैदिक कवि कमसे-कम पहलेसे ही देवताओंके सम्बन्धमें भौतिक और प्रगतिवादी विचारसे नैतिक तथा आत्मिक विचारकी ओर प्रगति कर रहे थे । परन्तु 'सरस्वती' केवल अन्तःप्रेरणाकी देवी ही नहीं है, इसीके साथ-साथ वह प्राचीन आर्य जगत्की सात नदियोंमेंसे भी एक है । यहाँ तुरन्त यह प्रश्न उठता है कि यह असाधारण एकरूपता-अन्तःप्रेरणा और नदीकी एकरूपता कहांसे आ गई ? और किस प्रकार इन दो विचारोका सम्बन्ध वैदिक मंत्रोंमें आ पहुंचा? और इतना ही नहीं, कुछ और भी है; क्योंकि 'सरस्वती' केवल अपने आपमें ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि अपने संबंधोंके कारण भी महत्त्वपूर्ण है । आगे चलनेसे पहले हम उन सम्बन्धों पर भी शीघ्रताके साथ एक स्थूल दृष्टि डाल जायं, यह देखनेके लिये कि उनसे हमें क्या पता लगता है ।
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।. मैं नहीं समझता कि हमारे पास कोई वास्तविक सामग्री है जिससे हम धार्मिक विचारोंके प्रारीम्मक उद्दगम तथा उनके आदिम इतिहासका निश्चय कर सकें । असलमें तथ्य जिसकी ओर सकेत करते हैं वह यह है कि एक प्राचीन शिक्षा थी जो एक साथ ही आध्यात्यि और प्रकृतिवांदी दोनों थी अर्थात् उसके दो पार्श्व थे, जिनमेंसे पहला कम या अधिक धुंधला पड़ चुका था, परन्तु पूर्ण रूपसे लुप्त तो वह जंगली जातियोंमें भी कमी नहीं हुआ था, वैसी जातियों तकमें मी नहीं जैसी उत्तरीय अमेरिका की थीं । पर यह शिक्षा यद्यपि प्रागैतिहासिक थी, तथापि किसी भी प्रकारसे आदिम नहीं थी |
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कविताकी अन्तःप्रेरणाके साथ नदीका साहचर्य ग्रीक गाथाशास्त्रमें भी आता है; पर वहाँ म्यूजिज (Muses) नदियोंके रूपमें नहीं समझी गयी हैं उनका सम्बन्ध केवल एक विशेष पार्थिव धाराके साथ है, वह भी बहुत सुबोध रूपमें नहीं । वह धारा है 'हिप्पोक्रेन' (Hippocrene) नदी, घोड़ेकी धारा, और इसके नामको व्याख्या. करनेके लिये एक कहानी है कि यह दिव्य घोड़े पैगेसत ( pegasus)के सुमसे निकली थी; क्योंकि उसने अपने सुमसे चट्टान पर प्रहार किया और उसमेंसे अन्तःप्रेरणाके जल वहाँसे बह निकले जहाँ चट्टान पर इस प्रकार प्रहार किया गया था । क्या यह कथानक केवल एक् यूनानी परी-कथा ही था ? अथवा इसका कुछ विशेष अर्थ था ? और यह स्पष्ट है कि यदि इसका कुछ अर्थ था, तो क्योंकि यह स्पष्ट ही एक आध्यात्मिक घटना का अन्त:प्रेरणाके जलोंकी उत्पत्तिका संकेत करती है इसलिये वह अर्थ अवश्यमेव आध्यात्मिक अर्थ होना चाहिये था; अयश्य ही यह किन्हीं आध्यात्मिक तथ्योंको मूर्त्त रूपके अन्दर रखनेका एक प्रयास होना चाहिये था । हम इसपर ध्यान दे सकते हैं कि पैगेसस (pegasus) शब्दको यदि प्रारंभिक आर्यजातीय स्यरशास्त्रके अनुसार लिखें, तो यह पाजस बन जाता है और स्पष्ट ही इसका संबन्ध संस्कृतके 'पाजस्' शब्दसे लगता है जिसका मूल अर्थ था शक्ति, गति या कभी-कभी पैर रखाना | स्वयं ग्रीक भाषामें भी इसका संबंध पैगे (pege) अर्थात् धाराके साथ है । इसलिये इस कथानकके शब्दोंमें अन्तःप्रेरणाकी शक्तिशाली गतिके रूपकके साथ इसका सतत संबंध है । यदि हम वैदिक प्रतीकोंकी ओर आएं तो हम देखते हैं कि वहां 'अश्व' या घोड़ा जीवनकी महान् क्रियाशील शक्ति-की, प्राणमय या वातिक शक्तिकी मूर्त प्रतिमा है और निरंतर उन दूसरी प्रतिमाओंके साथ जुड़ा हुआ है जो चेतनाकी द्योतक हैं । 'अद्रि', पहाड़ी या चट्टान, साकार सत्ताका और विशेषकर भौतिक प्रकृतिका प्रतीक है और इसी पहाड़ी या चट्टानमेंसे सूर्यकी गौएं छूटकर आती हैं और जल प्रवाहित होते हैं । 'मधु'की शहदकी, 'सोम'की धाराओंके लिये भी कहा गया है कि वे इस पहाड़ी या चट्टानमेंसे दुही जाती हैं । इस प्रकार चट्टान पर घोड़े के सुमका प्रहार,1 जिससे अन्तःप्रेरणाके जल छूट निकलते हैं, एक बहुत ही स्पष्ट आध्यात्मिक रूपक हो जाता है । न ही इसमें कोई युक्ति है कि यह कल्पनाकी जाय कि प्राचीन ग्रीक और भारतीय इस योग्य नहीं थे कि वे इस प्रकारका आध्यात्मिक निरूपण कर सकें या इसे कवितात्मक औंर रहस्यमय अलंकारमें रख सकें के प्राचीन रहस्यवादका असती कलेवर ही था |
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अवश्य ही हम और दूर तक जा सकते हैं और इसकी पइताल कर सकते हैं कि वीर बैलेरोफन ( Bellerophon) का, जो बैलेरस (Bellrus)का वध करनेवाला है और जो दिव्य घोड़े पर सवार होता है, कुछ मौलिक संबंन्ध उस 'वलहन् इन्द्र'के साथ तो नहीं था जो वेदमें 'वल'का चातक है, उस 'वल' शत्रुका जो .प्रकाशको अपने कब्जेमें कर रखता है । पर यह हमें हमारे विषयकी. सीमासे परे ले जायगा । न ही 'पैगेसस'के कथानककी यह व्याख्या इसकी अपेक्षा किसी और सुदूर परिणाम पर पहुंचा सकती है कि यह पूर्वजोंकी स्वाभाविक 'कल्पना-पद्धतिको दर्शाये और उस प्रणालीको दर्शाये जिसमें वे अन्त:प्रेरणाकी धाराको बहते हुए पानीकी एक सचमुचकी धाराके रूपमें चित्रित कर सके । 'सरस्वती'का अर्थ है ''वह जो धारावाली है, प्रवाहकी गतिसे युक्त है", और इसलिये यह दोनोंके लिये एक स्वाभाविक नाम है, नदीके लिये और अन्त:प्रेरणाकी देवीके लिये । परन्तु विचारणा या साहचर्यकी किस प्रक्रियाके द्वारा यह सम्भव हुआ कि अन्तःप्रेरणाकी नदीके सामान्य विचारका सम्बन्ध एक विशेष पार्थिव धाराके साथ जुड़ गया ? और वेदमें यह एक ही नदीका प्रश्न नहीं है, जो अपने चारों ओरकी प्राकृतिक और गाथात्मक परिस्थितियोंके द्वारा पवित्र अन्त:- प्रेरणाके विचारके साथ किसी अन्य नदीकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त रूपसे सम्बद्ध प्रतीत होती हो । क्योंकि यहाँ यह एकका नहीं अपितु सात नदियों- का प्रश्न है, जो सातों कि ऋषियोंके मनोंमें सदा परस्पर-संबद्ध रूपसे रहती हैं और वे सारी ही इकट्ठी 'इंद्र' देवताके प्रहारके द्वारा छूटकर निकली हैं, जब उसने 'पाइथन' 1 ( Python, बड़े भारी सांप, अजगर, वेदके 'अहि' ) पर प्रहार किया, जो उनके स्रोतके चारों ओर कुंडली मारकर बैठा हुआ था और जिसने उनके बाह्य प्रवाहको रोक रखा था । यह असम्भव प्रतीत होता है कि हम यह कल्पना कर लें कि इन सप्तविध प्रवाहोंमेंसे केवल एक नदी आध्यात्मिक अभिप्राय रखती थी और शेषका सम्बन्ध केवल पंजाब-में प्रति वर्ष आनेवाले वर्षाके आगमनसे था । जब हम 'सरस्वती'की अध्यात्म-परक व्याख्या करते हैं, तो इसके साथ ही यह आवश्यक हो जाता है कि हम वैदिक ''जलों''के संपूर्ण प्रतीककी ही अध्यात्मिक व्याख्या करें ।2
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1. ग्रीक गाथाशास्त्रमें यह एक भीषणताय सांप या दैत्य था, जिसे अपोलो (Apollo) ने, जो सूर्यका देवता है, मारा था | यही समानता वेदमें इस रूपमें पायी जाती है कि वहां 'इन्द्र'ने 'अही'का वध किया है । - अनुवादक
2. नदियां उत्तरकालके भारतीय विचारमें एक प्रतीकात्मक अर्थ रखती हैं; उदाहरण के लिये, गंगा, यमुना और सरस्वती और उनके संगम तांत्रिक कल्पनामें यौगिक
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'सरस्वती'का सम्बन्ध न केवल अन्य नदियोंके साथ है, किन्तु अन्य देवियोंके साथ भी है जो देवियां स्पष्ट तौरसे आध्यात्मिक प्रतीक हैं, और विशेषकर 'भारती' और ' इला' के साथ । बादके, पौराणिक पूजा-रुपोंमें 'सरस्वती' वाणीकी, विद्याकी और कविताकी देवी है और 'भारती' उसके नामोंमेंसे ही एक है, पर वेदमें 'भारती' और 'सरस्वती' भिन्न-भिन्न देवियाँ हैं । 'भारती' को 'मही' अर्थात् विशाल, महान् या विस्तीर्ण भी कहा गया है । 'इला', 'मही' या ' भारती' और 'सरस्वती' ये तीनों उन प्रार्थनामन्त्रोंमें जिनमें 'अग्नि'के साथ देयताओंको यज्ञमें पुकारा गया है, एक स्थिर सूत्रके रूपमें इकट्ठी. आती हैं ।
इणा सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुव : |
बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः || (ॠ. 1-13-9 )
'' 'इलां, 'सरस्वती' और 'मही' ये तीन देवियाँ जो सुखको उत्पन्न करने- वाली हैं, यज्ञिय आसन पर आकर बैठें, वे जों स्खलनको प्राप्त नहीं होतीं, या 'जिनको हानि नहीं पहुंचती' अथवा 'जो हानि नहीं पहुंचाती' ।'' इस अन्तिम विशेषण 'अस्रि :'का अभिप्राय मेरे विचारमें यह है--वे जिनमें कोई भी मिथ्या गति और फलत: उसका कोई बुरा परिणाम-- 'दुरितम्' नहीं होता जिनका पाप और भ्रांतिके अन्ध कूपोंमें किसी प्रकारका स्खलन नहीं होता । दशम मण्डलके 110 में सूक्तमें यह सूत्र और विस्तारके साथ आता है-
आ नो यज्ञं भारती तूयमेतू इला मनुष्वविह चेतयन्ती ।
तिस्त्रो देवीर्बर्हिरेवं स्योनं सरस्वती स्वपस: शदन्तु ।। ( ऋ. .10-110-8 )
'' ' भारती' शीघ्रताके साथ हमारे यज्ञमें आवे और 'इला' यहाँ मनुष्यो-चित चित प्रकारसे हमारी चेतनाको ( या ज्ञानको अथवा बोधोंको ) जागृत करती हुई आवे, और 'सरस्वती' आवे, --ये तीनों देवियाँ इस सुखमय आसन पर बैठें, कर्मको अच्छे प्रकार करती हुई ।"
यह स्पष्ट है तथा और भी अधिक स्पष्ट हो जायगा कि ये तीनों देवियां परस्पर अत्यधिक संबद्ध व्यापारोंको रखतीं हैं, जो 'सरस्वती' की अन्त: -प्रेरणाकी शक्तिके सजातीय हैं । ' सरस्वती' वाणी है, अन्त:प्रेरणा है जो जैसा कि मेरा विचार है, ' ऋतम्' से, सत्यचेतनासे आती है । 'भारती' और ' इला' भी अवश्यमेव उसी वाणी या ज्ञानके विभिन्न रूप होने चाहियें ।
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प्रतीक हैं और वे सामान्य रूपसे यौगिक प्रतीकवादमें प्रयुक्त किये गये हैं, यद्यपि एक भिन्न तरीके से |
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मधुच्छंदस्के आठवें सूक्तमें हमें एक ॠचा मिलती है जिसमें 'भारती' का 'मही' नामसे उल्लेख हुआ है--
एक ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही ।
पक्वा शाखा न दाशुषे || ( ॠ. 1-8-8 )
'इस प्रकार 'मही' इन्द्रके लिये किरणोंसे भरपूर, अपनी बहुलतामें उमड़ती हुई एक सुखमय सत्यके स्वरूपवाली, हवि देनेवालेके लिये इस प्रकार- की हो जाती है मानो वह पके फलोंसे लदी हुई कोई शाखा हो ।'
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किरणें वेदमें 'सूर्यंकीं' किरणें हैं | क्या हम यह कल्पना करें कि यह देवी भौतिक प्रकाशकी कोई देवी है, अथवा 'गो' का अनुवाद हम गाय करें और इस प्रकार यह कल्पना करें की 'मही'के पास यज्ञके लिये गायें भरीं पड़ी हैं ? 'सरस्वती'का आध्यात्मिक स्वरूप हमारे सामने आकर हमें इस दूसरी बेहूदी क्ल्पनसे. मुक्त करा देता है, पर साथ ही यह पहली प्रकृति-वादी व्याख्याका भी उसी प्रकार प्रतिषेध करता है । .'मही'का, जो यज्ञमें सरस्वतीकी सहचारिणी है, अन्त: प्रेरणाकी देवीकी बहिन है, उत्तरकालीन गाथाशास्त्रेमें जो सरस्वतीके साथ बिलकुल एक कर दी गयी है इस प्रकारसे वर्णित होना दूसरे सैकड़ों प्रमाणोंके बीचमें इसका एक और प्रमाण है कि वेदमें प्रकाश ज्ञानका, आत्मिक ज्योतिका प्रतीक है । 'सूर्य' अधिपति है अत्युच्च दृष्टिका,. महान् प्रकाशका, 'बृहज्ज्योतिः' अथवा जैसा कि कहीं- कहीं इसके लिये कहा गया है, 'ॠतं ज्योति: ', सच्चे प्रकाशका । और 'ॠतम्' तथा 'बृहत्' इन शब्दोमें संबंध वेदमें सतत रूपसे पाया जाता है ।
यह मुझे असंभव प्रतीत होता है कि इन शब्दप्रयोगोंका इसके. अतिरिक्त कुछ और अर्थ समझा जाय कि इनमें प्रकाशमय चेतनाकी अवस्थाका निर्देश है, जिसका स्वरूप यह है कि वह विस्तृत या विशाल है 'बृहत्', सत्ताके सत्य-से भरपूर है, 'सत्यम्', और ज्ञान तथा क्रियाके सत्यसे युक्त है, 'ॠतम्' । देवताओंके पास यही चेतना होती है । उदाहरणके लिये 'अग्नि' को ' ऋत-चित् ' कहा गया है, अर्थात् वह जो सत्यचेतनावाला है । 'मही' इस सूर्यकी किरणोंसे भरपूर है, वह अपने अन्दर इस प्रकाशको रखती है । इसके अति-रिक्त वह ' सूनृता' है, सुखमय सत्यकी वाणी है, ऐसे ही जैसे कि सरस्वतीके विषयमें भी कहा गया है कि वह सुखमय सत्योंकी प्रेरयित्री है, चोदयित्री सूनृतातानाम् । अतमें वह 'विरप्शी' है, विशाल है या प्रचुरतामें फूट. निकलने-वाली है और यह शब्द हमें इसका स्मरण करा देता है कि सत्य विशालता-रूप भी है ' ऋतम् बृहत्' । और एक दूसरे मंत्र ( ऋ. 1-22-10 ) में उसका वर्णन इस रूपमें आता है की वह 'वरूत्री धिषणा' है, विचार-शक्तिको विशाल
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रूपसे ओढ़े हुए या आलिंगन किये हुए है । तो 'मही' सत्यकी प्रकाशमय व्यापकता है, हमारे अन्दर अपनेमें सत्यको,. 'ॠतम्' को धारण किये हुए जो अतिचेतन. ( Superconscient) है उसकी विशालताको, वृहत्'को प्रकट करनेवाली वह है । इसलिये वह यज्ञकर्ताके लिये पके फलोंसे लदी हुई एक शाखाके -समान है ।
'इला' भी सत्यकी वाणी है, उत्तरकालमें होनेवाली अस्तव्यस्ततामें इसका नाम वाक्का सभानार्थक हो गया है । जैसे सरस्वती है सत्य विचारों या मनकी सत्य अवस्थाओंकी ओर चेतनाको जगृत करनेवाली; चेत्नी सुमतीनाम्, उसी प्रकार 'इणा' भी चेतनाको ज्ञानके - प्रति जागृत .करती हुई, 'चेतयन्ती, यज्ञमें आती है । वह शक्ति से भरपूर है, 'सुबीरा', और ज्ञानको लती है । . उसका भी सम्बन्ध 'सूर्य' के साथ है, जैसे ५-४-४ में अग्निका, संकल्पशक्तिका, आवाहन किया गया है कि वह 'इणा' के साथ समना होकर सूर्यकी, सत्य प्रकाशके अधिपतिकी, किरणोंके द्वारा यत्न करता हुआ आवे, इणया सजोषा यतमानो रश्मिभि: सूर्यस्य । वह - किरणों की, 'सूर्य'की गौओंकी माता है । उसके नामक शब्दार्थ है--वह जो कि खोजती है और पा लेती है और वह नाम या शब्द अपने अन्दर उसी विचार-साहचर्य-को रखता है, जो 'ॠतम्' और 'क्षषि' शब्द में है ।.'इणाको इसलिये ठीक-ठीक यह समझा जा सकता है कि यह द्रष्टाकी दर्शनसक्ति है जो सत्य-को पा लेती है ।
जैसे सरस्वती सत्यश्रवणकी, 'श्रुति' की सूचक है क अन्त:प्रेरणाकी वाणी को देती है, वैसे ही इणा 'दृष्टि' को,. सत्य-दर्शनको सूचित करती. है । यदि ऐसा हो, तो क्योंकि 'दृष्टि' और 'श्रुति' ये ऋषि, कवि, सत्यके द्रष्टाकी दो शक्तियाँ हैं, इसलिये हम 'इणा' और ' सरस्वती'के घनिष्ठ सम्बन्धको समझ सकते हैं । .'भारती' वा या 'मही' सत्यचेतनाकी विशालता है, जो मनुष्यके सीमित मनमें उदित होकर उक्त दो शक्तियोंको, जो दो बहिनें हैं, अपने साथ लाती है । यह भी हम समझ सकते हैं कि किस प्रकार ये सूक्ष्म और सजीव अन्तर पीछे जाकर उपेक्षित हो गये, जब कि वैदिक ज्ञानका ह्रास हुआ और 'भारती',.' सरस्वती', ' इणा' तीनों एकमें परिणत हो गयीं ।
हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि इन तीन देवियोंके विषयमें यह कहा गया है कि ये मनूष्यके लिये सुख, 'मयस्' को उत्पन्न करती हैं । वैदिक ऋषियोंकी धारणानुसार जो सत्य और सुख या आनन्द के बीचमें सतत सम्बन्ध है उसपर मैं पहले ही बल दे चुका हूं । मनुष्य अपने अन्दर स्थित सत्य या असीम चेतानके उदयके द्वारा ही पीड़ा और कष्टके इस दु:स्वप्न
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मेंसे, इस विभक्त (द्वन्द्वमय) रचनामेंसे निकलकर उस आनन्दमें, सुखमय अवस्थामें पहुंच जाता है जिसका वरर्ण वेदमें ' भद्रम्', ' मयस्' ( प्रेम और आनन्द ),' स्वस्ति' ( सत्ताकी उत्तम अवस्था, सम्यक् अस्तित्व ) शब्दोंसे तथा अन्य कई अपेक्षाकृत कम पारिभाषिक रूपमें प्रयुक्त ' वार्यम', 'रयि:', 'राय:' जैसे शब्दोंसे किया गया है । वैदिक ऋषिके लिये सत्य एक रास्सा है तथा प्रारंभिक 'कोठरी है और दिव्य सत्ताका आनन्द लक्ष्य है, अथवा यों कहें कि सत्य है नींव, आनन्द है सर्वोच्च परिणाम ।
तो यह है आध्यात्मिकवादके अनुसार 'सरस्वती'का स्वरूप, उसका अपना विशिष्ट व्यापार और देवताओंके बीचमें जो उसके अधिकतम निकट सहचारी हैं उनके साथ उसका समबन्ध । वैदिकि नदीके रूपमें उसका अपनी छ: बहिन नदियोंके साथ जो संम्बन्ध है उसपर ये कहाँ तक कुछ प्रकाश डालते हैं ? सातकी संख्याका वैदिक संप्रदायमें एक बहुत ही मुख्य स्थान है, जैसा कि अधिकतर अति प्राचीन विचार-संप्रदायोंमें है । हम उसे निरन्तर आता देखते हैं--सात आनन्द, सप्त रत्नानि, सात ज्वालाएं, अग्निकी जिह्वाएं या फिरणें, सप्त अर्चिष:, सप्त ज्वालः, विचार-तत्त्वके सात रूप, सप्त धीतय:, सात किराणें या गौएं, जो अवध्य गौ, 'अदिति', देवोंकी माताके रूप हैं, सप्त गाव:, सात नदियाँ, सात माताएं या प्रीणयित्री गौएं, सप्त मातरः, सप्त धेनव:, जो शब्द कि समान रूपसे किरणों और नदियों दोनों-के. लिये प्रयुक्त किया गया है । ये सब सातके समुदाय, मुझे प्रतीत होता है, सत्ताके आघारभूत तत्त्वोंकी वैदिक वर्गीकरण पर आश्रित हैं । इन तत्त्वों-की संख्याका अन्वेषण पूर्वजोंके विचारशी मनके लिये वहुत ही रुचिकर था और भारतीय दर्शनशास्त्रमें हम इसके विभिन्न उत्तर पाते हैं जो 'एक' से शुरू होकर. 20 से ऊपर तक पहुंचते है । वैदिक विचारमें इसके लिये जो आधार चुना गया था वह आध्यात्मिक तत्त्वोंकी संख्या था, क्योंकि ऋषियोंके विचारमें सम्पूर्ण अस्तित्व एक सचेतन सत्ताकी ही हलचल-रूप था । आधुनिक मनको ये विचार और वर्गीकरण चाहे केवल कौतूहल-पूर्ण या निस्सार ही क्यों न प्रतीत हों, पर ये केवल शुष्क दार्शनिक भेद नहीं थे, बल्कि एक सजीव आध्यात्मिक अभ्यास-पद्धतिके साथ निकट रूपसे सम्बन्ध रखते थे, जिसके ये बहुत अंशोंमें विचारमय आधार थे, और चाहे कुछ भी हो, यदि हम इस प्राचीन और दूरवर्ती संप्रदायके विषयमें कुछ भी यथार्थताके साथ अपना विचार बनाना चाहते हों तो हमें अवश्यभेव इन्हें साफ-साफ समझ लेना चाहिये ।.
तो हम वेदमें तत्त्वोंकी संख्याको विविध रूपमें प्रतिपादित हुआ पाते हैं |
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'एक'को समझा गया था मूल और सर्वाधार, इस 'एक'के अन्दर दो तत्त्व रहते थे दिव्य तथा मानव, मर्त्य तथा अमर्त्य । यह द्वित्यसंख्या अन्य प्रकारसे भी दो तत्त्वोंमें प्रयुक्तकी गयी है, आकाश और पृथ्वी, मन और शरीर, आत्मा और प्रकृति, जो सब प्राणियोंके पिता और माता समझे गये हैं । तो भी यह अर्थपूर्ण है कि आकाश और. पृथ्वी जब कि वे प्राकृतिक शक्तिके दो रूपों, मानसिक तथा भौतिक चेतनाके प्रतीक होते हैं, तब वे पिता और माता नहीं बल्कि दो माताएँ होते हैं । तीनका तत्त्व दो रूपोंमें समझा गया था, प्रथम तो त्रिविध दिव्य तत्त्वके रूपमें, जो बादके सच्चिदानन्द, दिव्य सत्ता, दिव्य चेतना और दिव्य आनन्दके अनुरूप है और. दूसरे त्रिविध लौकिक तत्त्व-मन, प्राण, शरीरके रूपमें, जिसपर वेद और पुराणोंका त्रिविध लोक-प्तंस्थान निर्मित हे । परन्तु पूर्ण संख्या जो सामान्यत: मानी गयी हैं वह है 'सात' । यह सातका अंक बना है तीन लौकिक तत्त्वोंके साथ तीन दिव्य तत्त्वोंके योग करने तथा एक सातवें या संयोजक तत्त्वके अन्तर्निवेशसे जो कि ठीक-ठीक सत्यचेतनाका, ॠतम् बृहत्' का तत्त्व है और आगे चलकर जो 'विज्ञान' या 'महः:' के रूपमें जाना । गया है । .इनमेंसे पिछले शब्द (मह:) का अर्थ है विशाल और इसलिये यह 'बृहत्'का समानार्थक है । वेदमें और भी वर्गीकरण आते हैं, पांचका आठका, नौका और दसका तथा जैसा कि प्रतीत होता है, .बारहका भी; पर इस समय हमारा इनसे सम्बन्ध नहीं है ।
यह ध्यान देने योग्य है कि ये सब तत्त्व वास्तवमें अवियोज्य और सर्वत्र व्यापक समझे .गये हैं और इसलिए प्रकृतिकी प्रत्येक पृथक् रचनामें लागू होते हैं । उदाहरणार्थ सात विचार ( सप्त धीसयः ) हैं मन, जो अपने-आपको, जैसा कि अब हम कह सकते हैं, सात भूभिकाओंमेंसे प्रत्येकमें विनियुक्त करता है और भौतिक मन (यदि हम इसे यह नाम दे सकें ), वातिक मन, विशुद्ध मन, सत्य मन आदि-आदिके रूपमें अपनेकी विन्यस्त करता हुआ सप्तम भूमिकामें सर्वोच्च शिखर, 'परम 'परावत्' तक पहुँचता है । सात किराणें या गौए हैं अदिति जो असीम माता है, अवध्य गाय है, परम प्रकृति या असीम चेतना है, बादके प्रकृति या शक्तिके विचारका आदिस्रोत है, (और इस प्राचीन पशुपालनसंबंधी रूपकमालाके अनुसार पुरुष है बैल, वृषभ ) और फिर यह अदिति वस्तुओंकी माता है जो अपनी सृष्टि-क्रियाकी सात भूमिकाओंपर सचेतन सत्ताकी शक्तिके रूपमें आकार धारण कर लेती है । इसी प्रकार सात नदियाँ चेतन धाराएँ है ये सत्ताके समुद्रके उन सप्तीविध तत्त्वोंके अनुरूप हैं जो परिगणित सात लोकोंके रूपमें
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सूत्रवद्ध हो हमारे सामने प्रकट होते हैं । मानवीय चेतानामें उन नदियोंका पूर्ण प्रवाह ही मनुष्यकी पूर्ण क्रियाशीलताका कारण होता है, सारभूत तत्त्वके उसके पूर्ण खजानेको बनाता है, उसकी शक्तिको पूर्ण क्रीड़ाको चलाता है । वैदिक अलंकारमें, उसकी ये गौएँ उन सात नदियोंका जल पीती हैं ।
यदि नदियोंकी इस रूपक-कल्पना स्वीकार कर लिया जाय, -और यदि एक बार इस प्रकारके विचारोंका अस्तित्व मान लिया जाय तो यह स्पष्ट है कि उन लोगोंके लिये जो प्राचीन आर्योका जीवन बिताते थे और वैसी परिस्थितियों में रहते थे, एकमात्र यही रूपक-कल्पना स्वाभाविक हो सकती थी ( उनके लिये वह ऐसी स्वाभाविक और अनिवार्य थी, जैसी आजकलके हम लोगोंके लिये 'प्लेन्स' [planes=भूमिकाओं] की रूपक-कल्पना जिससे थियोसोफिकल विचारोंमे हमें परिचित कराया है ), हाँ तो, यदि इस. कल्पनाको स्वीकार कर लिया जाय तो सात नदियोंमेंसे एकके रूपमें 'सरस्वती'का स्थान स्पष्ट हो जाता है । 'सरस्वती' वह धारा है जो सत्य तत्त्वसे 'ॠतम्' था 'मह:'से आती है और वस्तुत: ही वेदमें इस तत्त्वका वर्णन-उदाहरणार्थ हमारे तीसरे सूक्त. ( 1.3 ) के अन्तिम संदर्भ में-हम इस प्रकार किया गया पोते हैं कि वह महान् जल, 'महो अर्ण:' है, ( ' महो अर्ण:' यह एक ऐसा प्रयोग है जो एकदम हमें बाद की 'महस्' इस संज्ञाके उदगम को बता देता है ) या कहीं-कहीं इस रूपमें कि वह 'महाँ बर्णव: है । तीसरे सूक्तमें हम ' सरस्वती' तथा इन महान् जलोंमें निकट सम्बन्ध देखते हैं ।. तो इस संबन्धकी हमें जरा और निकटताके साथ परीक्षा कर लेनी चाहिये, इससे पहले कि हम वैदिक गौओंके विचारपर तथा 'इंद्र' देवता और सरस्वतीकी सगी संबंधिनी देवीी 'सरमा' के साथ उग गौओंके सम्बन्धपर आवें । क्योंकि यह आवश्यक है कि पहले हम इन सम्मन्धोंकी परिभाषा कर लें, जिससे हम मधुच्छन्दसके शेष सूक्तोंकी परीक्षा कर सकें । वे. सूक्त बिना अपवादके उस महान् वैदिक देवता, द्यौके अधिपति ( इंद्र ) को संबोधित किये गयें हैं जो हमारी कल्पनाके अनुसार मनुष्यके अन्दर मनकी शक्तिका और विशेषकर दिव्य या स्वत:प्रफाश मनका प्रतीक है ।
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