वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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स्रष्टा सविता

 

तेजस्वी उंषाओंके प्रयाणके, सूर्यके दिव्य पुनरावर्तनोंके, पूषाके संवर्धनों एवं मार्गपर उसके नेतृत्वके परिणामको साररूपमें ज्योतिर्मय स्रष्टा सविताकी सृष्टि कहकर वर्णित किया गया है । सविता देव ही हमें वहाँ प्रतिष्ठित करता हैं जहाँ कर्मके प्राचीन कर्ता हमसे पहले जा चुके हैं । इस दिव्य स्रष्टाकी उस वरणीय ज्वाला और तेज पर ही ऋषिको ध्यान करना होता है2 और उस तेजकी ओर ही यह देव हमारे विचारोंको प्रेरित करता है, सविता देवके आनंदके विविध रूपोंपर ही हमारी आत्माको ध्यान करना होता है जब कि वह उसकी ओर यात्रा करती है । उस परम सृष्टिमें ही अखंड और अनंत देवी अपनी वाणी उच्चरित करती है और सर्व-शासक राजा वरुण, मित्र तथा अर्यमा भी वहीं अपनी वाणी उच्चरित करते हैं । उस परम सिद्धिकी ओर ही इन सब देवताओंकी शक्ति संयुक्त सहमतिके साथ मुड़ती है ।

 

वह दिव्य वाणी सत्यकी ही वाणी है । क्योंकि अतिचेतन सत्य गुप्त पड़ा है और उस अनंत सत्ताका आधार है जो हमारे आरोहणके उन उच्चतर शिखरोंपर प्रकाशित हो उठती है । जिसे हम आज जीवन मानते हैं वह

___________ 

१. आयुर्विश्वाय : परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।

   यत्रासते सुकृँतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देव: सविता दधातु ।।

                                                      ॠ. X.17.4 

   पूषेमा आशा अन वेद सर्वा: सो अस्माँ अभयतमेन नेषत् ।

   स्वस्तिदा आघृणि: सर्ववीरोऽप्रयुच्छन् पुर एतु प्रजानन् ।।

                                                       ॠ. X.17.5 

   प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा_ प्रपथे दिव: प्रपथे पृथिव्या: ।

   उभे अधि प्रियतमे सधस्थ आ च परा च चरति प्रजानन् ।।

                                                        ॠ. X. 17.6

   तत् सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यों नः प्रचोदयात् ।।

                             ऋ. 3.62.10; यजु. 3.35; साम. 1462

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दु:स्वप्न है, एक मृत्यु है जो हमपर शासन करती है, क्योंकि हम मिथ्या ज्ञानमें, एक सीमित और विभक्त अस्तित्वमें नवास करते हैं जो प्रत्येक भक्षकके प्रति खुला है । वह असली जीवन नहीं । जीवन के लिए हमें सूर्यपर चिरकाल तक दृष्टि जमानेमें समर्थ होना होगा । जीवनके लिए हमें अपने विचारमें ऐसा ज्ञान औरं शब्द धारण करनेमें समर्थ होना होगा जो सर्वोच्च अनुभुतिसे पूर्ण हों । हमें एक आहुतिके रूपमें सत्यको आगे लाना होगा ताकि ज्योतिर्मय देव प्रकाशसे पूर्ण अपने स्वर्णिम हाथोंके साथ हमारे द्युलोकोंमें ऊँचा उदित हो सकें और हमारा शब्द सुन सकें । जो शक्तिशाली एकमेव ज्ञानके विचारसे संपन्न है और देवोंके लिए अमरता व परमोच्च आनंदोपभोगका सर्जन करता है उसकी उस परम और विशाल अवस्थाको हमें अपने अंदर वरण और ग्रहण करना होगा । हमें सविता देवका सूत्र विस्तारित करना होगा, ताकि वह हमें जीवनकी उन उच्चतर भूमिकाओंकी ओर उन्मुक्त कर दे जो मनुष्योंके लिए प्राप्य बना दी गई हैं और उनकी सत्तासे समस्वरत हैं । उस परम आनंदको धारण करनेके लिए हमें वरुणकी विशालता और पवित्रतामें, मित्रकी सर्वालिंगी समस्वरतामें, सविताकी परम सृष्टिमें पाप और बुराई से मुक्त होना होगा ।

 

तब सविता देव दु:स्वप्नके दुखदर्दको हमसें दूर कर मिटा देगा । ऋजुताके अभिलाषी के लिए वह अपने अस्तित्वकी वर्धनशील विशालताका सर्जन करेगा ताकि हम अपने अधूरे ज्ञानके साथ भी अपनी सत्तामें देवोंकी ओर आभिवर्धित हों । देवताओंके द्वारा वह हमारे ज्ञानको पोषित करेगा तथा हमें अनंत अदितिकी अखंड चेतनामें देवोंके उस विश्वमय स्वरूपकी ओर ले जाएगा जिसे हमने अपना लक्ष्य चुन  लिया है । हमने अपने अज्ञानमें, पदार्थोंके अपने खंडित और संकुचित अवलोकनमें, अपनी निरी मर्त्य संभूति और मनावितामें देवों य मनुष्योंके विरुद्ध जो कुछ भी किया है उस सबको वह मिटा देगा तथा हमें पापसे मुक्त कर देगा । क्योंकि वह ऋतका स्रष्टा है, वह एक ऐसा रचयिता है जो सत्यका सर्जन करता है ।

 

हमारी भौतिक सत्ताकी महान् विशालत तथा शक्तिमें, हमारे मनकी समृद्ध विपुलतामें वह उस सत्यका सर्जन करेगा एवं उस सत्यकी अक्षय विशालताके द्वारा हमारी सत्ताके सब लोकोंको धारित करेगा । इस प्रकार, सत्य ही जिसकी सुष्टि है ऐसे सविताकी एवं मित्र और वरुणकी क्रियामें, देवगण उस सत्यके विविध प्रकाशक सारतत्त्वको और उसके सामर्थ्यें और आलोकोंके आनंदको हमारे अंदर तब तक धारण करते रहेंगे जब तक संपूर्ण अस्तित्व, हमारे पीछे और आगे, नीचे और ऊपर, सवितृदेव-रूप ही

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नहीं बन जाता और जबतक हम सुविस्तृत जीवन अधिगत नहीं कर लेते एवं अपनी सत्ताका विश्वमय रूप निर्मित नहीं कर लेते । इस विश्वमय रूपका सर्जन वह हमारे लिए तब करता है जब वह स्वर्णिम प्रकाशके हाथोंसे, मधुर सोमरस का आस्वादन करनेवाली जिह्वासे, सत्यके उच्चतम द्युलोकके त्रिविध ज्ञानमें संचरण करता है, देवोंमें उस दिव्य लयको प्राप्त करता है जिसे वह अपने पूर्णतः चरितार्थ विधानके लिए बनाता है, और जब प्रकाशका अंबर पहने हुए वह कवि, जिसने विश्वका निर्माण करनेके लिए प्रारम्भमें ज्ञान और शक्तिकी अपनी दोनों भुजाओंको फैलाया था, अपने उस स्वर्णिम सामर्थ्यमें निज धाममें आसीन हो जाता है । वस्तुओंको आकार देनेवाले त्वष्टाके रूपमें जिसने सदा नृ-देवताओं और उनकी स्त्रीरूप शक्तियोंके साथ अर्थात् पुरुषकी शक्तियों और प्रकृतिकी शक्तियोंके साथ मिलकर सब वस्तुओंकी रचनाकी है और करता है, वही सविताके रूपमें मानवके लिये, देहमें उत्पन्न मननशील प्राणीके लिए, उसी सत्य और अमरताका अवश्यमेव सर्जन करेगा ।

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