वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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वैदिक अग्नि

 

I*

 

इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया ।

भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(जातवेदसे) उस सर्वज्ञ अग्निदेवके लिये जो हमारी सत्ताके विधानको जानता है और (अर्हते) अपने कार्योके लिए स्वतः-पर्याप्त है, (मनीषया) अपने विचारसे हम (इमं स्तोमं सं महेम) उसके सत्यका यह गति रचें और इसे (रथम् इव [ सं महेम ] ) एक ऐसा रथ-सा बनाएँ जिसपर वह आरोहण करे । (अस्य संसदि हि) जब वह हमारे साथ निवास करता है तब (न: भद्रा प्रमति:) एक कल्याणकारी बुद्धि हमारी सम्पदा बन जाती है । (अग्ने) हुए अग्ने ! (तव सख्ये) तेरी मित्रतामें अर्थात् जब तू-वह1--हमारा मित्र बन जाता है तब (वयं मा रिषाम) हम कभी नष्ट व हिंसित नहीं हो सकते ।

यस्मै त्वमायजसे स साधत्यनर्वा क्षेति दुधते सुवीर्यम् ।

स तूताव नैनमश्नोत्यंहतिरग्ने सखे मा रिषामा वयं तव ।।

 

(यस्मै त्वम् आयजसे) जिसके लिये तू यज्ञ करता है अर्थात् जो कोई भी तुझे अपने यज्ञका पुरोहित बनाता है (स: साधति) वह पूर्णताको प्राप्त करता है जो उसके श्रमका फल है । (अनर्वा क्षेति) वह अपनी सत्ताके

_______________ 

 * ऋ. 1.94

1. श्रीअरविन्दने इस सारे सूक्तमें मध्यम पुरुष (तव, त्वम् आदि )को प्रथम

   पुरुषके अर्थमें लिया है, इस सूक्तके अनुसार वैदिक अग्निका स्वरूप प्रति-

   पादित करनेके लिये त्वम्, तव आदिका अर्थ ''वह, उसका'' आदि किया

   है । वस्तुतु: इस सूक्तकी व्याख्यामें उनका अभिप्राय है वैदिक अग्निके

   स्वरूपका वर्णन, न कि सूक्तका शाब्दिक अर्थ । हमने यहाँ मूल शब्दोकें

   सामने श्रीअरविन्दके दिए भावार्थ और सीधे-सादे शब्दार्थ दोनोंको

   प्रस्तुत कर दिया है । श्रीअरविन्दका दिया भावार्थ 'पुरुष व्यत्यय'का उदा-

   हरण भी माना जा सकता है जो वेदमें बहुलतासे पाया जाताहै ।--अनुवादक

२४६


शिखरपर एक ऐसे धाममें निवास करता है जहाँ न कोई युद्ध है, न शत्रु । (सुवीर्य दधते) वह अपने अंदर विपुल सामर्थ्यको दृढ़तया धारण करता है । (स तूताव) वह अपने बलमे सुरक्षित रहता है । (अंहति: एनम् न अश्नोति) बुराई उसपर अपने हाथ नहीं रख सकती । शेष पूर्ववत् ।

शकेम त्वा समिधं साधया धियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम् ।

त्वमादित्याँ आ बह तान् ह्य श्मस्यग्ने सखे मा रिषामा वयं तव ।।

 

यही हैं हमारे यज्ञकी अग्नि । (त्वा समिधं शकेम) हम तुझे (उसे) ऊँचे-सा-ऊँचा प्रदीप्त करनेमें समर्थ हों, (धिय: साधय) हमारे विचारोंको तू पूर्ण बना [ वह पूर्ण बनाए ] । (त्वा आहुतं हवि: देवा: अदन्ति) देवता तेरे अन्दर डाली गई आहुतिका ही भक्षण करते हैं, अर्थात् जो कुछ भी हम देते हैं वह सब इसी अग्निमें डाला जाना चाहिए ताकि यह देवोंके लिए अन्न बन जाए ।  ( आदित्यान् त्वम् आ वह तान् हि उश्मसि) अनन्त चेतनाके देवोंको, जिन्हे हम चाहते हैं, हमारे पास ले आ [ यह अग्नि लें आए ] शेष पूर्ववत् ।

भरामेध्यं कृणवामा हवींषि ते चितयन्तः पर्वणापर्वणा वयम् ।

जीवातवे प्रतरं साधया धियोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(वयं ते इध्मं भराम) हम तेरे लिए [ इस अग्निके लिए ] समिधा इकट्ठी करें, (हवींषि कृणवाम) हवियोंको तय्यार करें, (पर्वणा-पर्वणा चितयन्त:) तेरे [ इसके ] कालों और ऋतुओंकी संधियोंसे अपनेको सचेतन बनाएं । (धिय: साधय) तू [ वह ] हमारे विचारोंको इस प्रकार बना    [ बनाए ] कि वे (प्रतरं जीवातवे) हमारी सत्ताका विस्तार करें और हमारे 'लिए एक बृहत्तर जीवनका निर्माण करें । शेष पूर्ववत् ।

विशां गोपा अस्य चरन्ति जन्तवो द्विपच्च यदुत चतुष्पदक्तुभि: ।

चित्र: प्रकेत उषसो महाँ अस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

यह अग्निदेव (विशां गोपा:) जगत् और उसके प्राणियोंका संरक्षक है, इन सब यूथोंका पालक है । (जन्तव:, यत् च द्विपत् उत चतुष्पत्) वह सब जो उत्पन्न हुआ है, द्विपाद् और चतुष्पाद् दोनों प्रकारके प्राणी (अस्य अस्तुभि: चरन्ति) उसकी रश्मियोके द्वारा गति करते है और उसकी

२४७


 

ज्वालाओंसे प्रेरित होते हैं । (उषस: चित्र: महान् प्रकेत: असि) तू है [ यह है ] हमारे अन्दरकी उषाका समृद्ध तथा महान् विचार-जागरण ।, शेष पूर्ववत् ।

त्वमध्वर्युरुत होतासि पूर्व्य: प्रशास्ता पोता जनुषा पुरोहित: ।

विश्वा विद्वाँ आर्त्विज्या धीर पुष्यस्यग्ने सख्य मा रिषामा वयं तव ।।

 

(त्यम् अध्वर्यु: असि) तू [ यह ] है वह अध्वर्यु जो यज्ञके प्रयाणका संचालक है, (उत) और (पूर्व्य: होता) वह प्रथम और सनातन जो देवोंका आवाहक है और उन्हें हवि देता है, (प्रशास्ता पोता) वह प्रशासक और पावक जिसका कार्य है प्रशासन और पवित्रीकरण । (जनुषा पुरोहित:) हमारे यज्ञका पुरोहित तू [ वह ] अपने जन्मसमयसे ही हमारे अग्रभागमें स्थित है । (विश्वा आर्त्विज्या विद्वान्) तू [ वह ] इस दिव्य पौरोहित्यके सब कार्योंको जानता है, क्योंकि तु [ वह ] (धीर पुष्यसि) हमारे अन्दर बढ़नेवाला चिंतक है । शेष पूर्ववत् ।

यों विश्वत: सुप्रतीक: सदृतङसि दूरे चित्सन्तळिदिवाति रोचसे ।

रात्र्याश्चिदन्धो अति देव पश्यस्यग्ने सखये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(य: विश्वत: सुप्रतीक:) तुझ अग्निदेवके [ उस अग्निदेवके ] मुख हर तरफ हैं और तू [ वह ] पूर्णतया सच वस्तुओंके संमुख स्थित है । (सदृङ असि) तेरे [ उसके ] चक्षु है, और है अंतर्दृष्टि । (दूरे सन् चित् तळि इव) जब हम तुझे [ उसे]  दूरसे देखते हैं तो भी तू [वह] हमारे निकट प्रतीत होता है, क्योंकि तू [ वह ] (अति रोचसे) इतनी तेजस्वितासे खाइयोंके पार चमकता है । (देव) हे अग्निदेव ! तू [ वह अग्निदेव ] (रात्र्या: अन्ध: चित् अति पश्यसि) हमारी रात्रिके अंधकारके परे भी देखता है, क्योंकि तेरी [उसकी]  दृष्टि दिव्य है । शेष पूर्ववत् ।

पूर्वो देवा भवतु सुन्वतो रथोऽस्माकं शंसो अभ्यस्तु दूढय: ।

तदा जानीतोत पुष्यता वचोऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(देवा:) हे तुम देवो ! (अस्माकं सुन्वत: रथ:) हग यज्ञ करनेवालोंका रथ (पूर्व: भवतु) सदा संमुख रहे । (अस्माकं शंस:) हमारा स्पष्ट और ओजस्वी शब्द (दु:-ध्य: अभि अस्तु) उस सबको परास्त करे जो असत्यका

२४८


विचार करता है । (देवा:) हे देवो ! तुम (तत् आ जानीत) हमारे लिए, हमारे अन्दर उस सत्यको जानो (उत) और (वच: पुष्यत) उस वाणीको बढ़ाओ जो उसको पा लेती है तथा उसे उच्चरित करती है । शेष पूर्ववत् ।

वधैर्दु:शंसाँ अप दूढयो जहि दूरे वा ये अन्ति वा के चिदत्रिण: ।

अथा यज्ञाय गुणते सुगं कृध्यग्ने सखये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(अपने) हे अग्निदेव ! तू (वधै:) वध करनेवाले प्रहारोंसे, (दुःशंसान् टु:-ध्य:) उन शक्तियोंको जो बोलनेमें लड़खड़ाती हैं और विचारमें डग- मगाती हैं, (ये के चित् अत्रिण:) जो हमारी शक्ति और हमारे ज्ञानकी भक्षिका हैं, (अन्ति वा दूरे वा) जो हमपर निकटसे कूदती है या हमें दूरसे निशाना बनाती हैं, (अप जहि) हमारे मार्गसे दूर फेंक दे । (अथ) और फिर (यज्ञाय गृणते सुगं कृधि) यज्ञके [ तेरा स्तवन करनेवाले यजमानके] मार्गको एक प्रशस्त और सुखद यात्रा बना दे । शेष पूर्ववत् ।

१०

यदयुक्या अरुषा रोहिता रथे वातजूता वृषभस्येव ते रव: ।

आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाऽग्ने सश्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(अग्ने) हे दिव्य संकल्प  ! (यत्) जब तू (रोहिता) अपने लाल घोड़ोंको जो (अरुषा) उज्ज्वल हैं और (वातजूता) तेरे आवेगके झंझावातसे खीचे आते हैं, (रथे) अपने रथमे (अयुक्था:) जोतता है तब (ते रवः वृषभस्य इव) तू वृषभकी न्याई गर्जना करता है, (आत्) उसके बाद तू (वनिन:) जीवनके वनोंपर, उसके उन रमणीय वृक्षोंपर जो तेरे रास्तेका अवरोध करते हैं, (धूमकेतुना इन्वसि) अपने उस आवेगके धूएँसे टूट पड़ता है जिसमें विचार तथा दृष्टि है । शेष पूर्ववत् ।

११

अध स्वनादुत बिभ्युः पतत्रिणो द्रप्सा यत्ते यवसादो व्यस्थिरन् ।

सुगं तत्ते तावकेभ्यो रथेम्योऽग्ने सखये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(अध) तब (स्वनात्) तेरे आगमनके शोरसे (पतत्रिण: उत) आकाशमें उड़नेवाले पक्षी भी (बिम्यु:) डर जाते हैं, (यत्) जब कि (ते यवस- अद:) चरागाहमें चरनेवाले तेरे पशु (द्रप्सा: वि अस्थिरन्) वेगसे इतस्तत: दौड़ते हैं । (तत्) सो तू (तावकेम्य: रथेम्य: ते सुगमू) अपने रथोंके

२४९


लिये अपने राज्यकी ओर जानेवाला अपना मार्ग प्रशस्त बनाता है ताकि वे उसकी ओर आसानीसे दौड़ सके । शेष पूर्ववत् ।

१२

अयं मित्रस्य वरुणस्य धायसेऽवयातां मरुतां हेळो अद्भुत: ।

ळासु नो भूत्वेषां मनः पुनरग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(अर्य) यह तेरा भयावह उत्पात,-- (अवयाताम् मरुताम् अद्भुत: हेळ:) क्या यह हमपर ट्ट पडते हुए प्राणके देवताओंका अद्भुत और अतिशय कोप नहीं है, जिससे कि यहाँ (वरुणस्य मित्रस्य धायसे) असीमकी पवित्रता और प्रेमीकी समस्वरता स्थापित हो ? (मृळ अग्ने) कृपा कर, हे प्रचण्ड अग्नि ! (एषां मन:) उनके मन (नः) हमारे प्रति (पुन: सु भूतु) फिरसे मधुर और हर्षप्रद हो जाऐं । शेष पूर्ववत् ।

१३

देवो देवानामसि मित्रो अद्भुतो वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे ।

शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वय तव ।।

 

(देवानां देव असि) नू देवोका देव है क्योंकि तू (अद्भुत: मित्र:) अद्भुत प्रेमी और मित्र है । (वसूनां वसु: असि) निधिके स्वामियों और घरके संस्थापकोंमें तू सबमे अधिक समृद्ध है, क्योंकि तू (अध्वरे चारु:) तीर्थयात्रा तथा यज्ञमें अति उज्ज्वल व रमणीय है । (तव सप्रथस्तमे शर्मन् स्याम) तेरे परमानन्दकी शान्ति बहुत विशाल और दूर-दूर तक विस्तृत है; वही हमारा विश्राम-धाम हो । शेष पूर्ववत् ।

१४

तत्ते भद्रं यत्समिद्ध: स्वे दमे सोमाहुतो जरसे मृळयत्तम: ।

दधासि रत्नं द्रविणं च दाशुषेऽग्ने सस्ये मा रिषामा वयं तव ।।

 

(तत् तै भद्रम्) वह है तेरा [ उसका ] सुरव और आनन्द; क्योंकि (यत्) जब तू [ यह संकल्पशक्ति-रूप अग्निदेव ] (स्वे दमे) अपने दिव्य घरमें (समिद्ध:) उच्च और पूर्ण ज्वालाके रूपमें प्रदीप्त होकर (जरसे) हमारे विचारोंसे पूजित होता है, तब तू [ वह ] (मृळयत्तम:) अत्यन्त दयामय और आनन्दप्रद होता है । (दाशुषे रत्नं द्रविणं च दधासि) तू [ वह ] अपनी मधुर सरसता लुटाता है और जो कुछ हमने तेरे [ उसके ] हाथोंमें दिया है उस सबके प्रतिफलके रूपमें हमें तू [वह ] अपना ऐश्वर्य और सारतत्व प्रदान करता है ।

२५०


यस्मै त्वं सुद्रविणो ददाशोऽनागास्त्वमदिते सर्वताता ।

यं भद्रेण शवसा चोदयासि प्रजावता राधसा ते स्याम ।।

 

(सुद्रविण: अदिते) हे [ उत्तम ऐश्वर्यसे सम्पन्न ] अनन्त और अखण्ड सत्ता ! (यस्मै त्वम् अनागास्त्वं सर्वताता ददाश:) अपने जिन कृपा- पात्रोंके लिए तू यज्ञके द्वारा आत्माकी निष्पाप विश्वमय अवस्था निर्मित या प्रदान करती है, (यम्) अपने जिन कृपापात्रोंको तू (ते भद्रेण शवसा) अपने सुखद और प्रकाशमय बलके द्वारा तथा (प्रजावता राधसा) अपने आनन्दके फल-दायक वैभवके द्वारा (चोदयासि) प्रेरणा और अंत:स्फुरणा प्रदान करती है; (स्याम) हमारी गणना भी उन्हीं कृपापात्रोंमें हो जाए ।

१६

स त्वमग्ने सौभगत्वस्य विद्वानस्माकमायुः प्र तिरेह देव ।

(तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौ:) ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (स त्वम्) वह तू (सौभगत्वस्य विद्वान्) परमानन्दका ज्ञाता है और (इह अस्माकम् आयु: प्र तिर) यहाँ हमारी आयु बढ़ानेवाला है तथा हमारी सत्ताकी अभिवृद्धि व प्रगति साधित करने-वाला है । (त्वम् देव) सचमुच तू देव है ।..

II*

 

अप नः शोशुचदघमग्ने शुशुग्ध्या रयिम् ।

अप नः शोशुचदधम् ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! ( अघं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे । (रयिम् आ शुशुग्धि) हमें आनन्दकी ज्वालासे देदीप्यमान कर । (अधं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे ।

सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे ।

अप नः शोशुचदघम् ।।

 

(सुक्षेत्रिया सुगातुया) सुखद क्षेत्रकी ओर ले जानेवाले पूर्णता-युक्त मार्गके त्ठिए (च) और (वसूया) अमित ऐश्वर्य-निधिके लिए जब हम

___________

' ऋ. 1.97

२५१


(यजामहे) यज्ञ करें, तब (अघं न: अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे ।

प्र यद्धन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरय: ।

अप नः शोशुचदधम् ।।

 

(अघं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे ' दूर कर दे, (यत्) जिससे कि (एषां भन्दिष्ठ:) इन सब अनेकानेक देवोंमेंसे सबसे अघिक आनन्दमय देव (प्र) हमारे अन्दर उत्पन्न हो और (अस्माकास: सूरय: प्र) क्रान्तदर्शी ऋषि, जो हमारे विचारके अन्दर पैठकर देखते हैं, वृद्धिको प्राप्त करें ।

प्र यत्ते अग्ने सूरयो जायेमहि प्र ते वयम् ।

अप नः शोशुचदघम् ।।

 

(अग्ने) हे दिव्य ज्वाला ! (अघं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे, (यत्) जिससे कि (ते) तेरे (सूरय:) द्रष्टा (प्र) वृद्धिको प्राप्त करें (वयं ते प्र जायेमहि) हम तेरे होकर नव-जन्म प्राप्त करें ।

प्र यदग्ने: सहस्वतो विश्वतो यन्ति भानव: ।

अप नः शोशुचदघम् ।।

 

(यत्) जब (सहस्वत: अग्ने: भानव:) तेरी शक्तिकी जाज्वल्यमान किरणे (विश्वत: प्र यन्ति) प्रचण्डतासे चारों ओर दौड़ती हैं तब (अघं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे ।

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वत: परिभूरसि ।

अप नः शोशुचदधम् ।।

 

(विश्वतोमुरव) हे भगवन्, तेरे मुख सब तरफ हैं ! (त्वं हि विश्वत: परिभू: असि) तू अपनी सत्तासे हमें सब तरफसे घेरे हुए है । (अधं नः अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे ।

द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय ।

अप नः शोशुचदघम् ।।

२५२


(द्वि: विश्वतोमुख) तेरा मुख शत्रुका सामना करे, जिधर भी वह मुंह फेरे, (नावा इव न: अति पारय) हमें भयंकर समुद्रपरसे अपने जहाजसे पार ले जा । (अघं न: अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर कर दे ।

स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये ।

अप नः शोशुचदघमू ।।

 

(नावया सिन्धुमू इव) जैसे जहाज समुद्रसे पार ले जाता हैं, वैसे ही (स:) वह तू अग्निदेव (न: स्वस्तये अति पर्ष) हमें वहन करके, भवसागरसे पार लगाकर अपने आनन्दमें पहुँचा दे । (अघं न: अप शोशुचत्) पापको जलाकर हमसे दूर फर दे ।

२५३

 









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