Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
दूसरा अध्याय
वैदिकवादका सिंहावलोकन
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.तो वेद एक ऐसे युगको रचना है जो हमारे बौद्धिक दर्शनोंसे प्राचीन था । उस प्रारम्भिक युगमें विचार हमारे तर्कशास्त्रकी युक्तिप्रणालीकी अपेक्षा भिन्न प्रणालियोंसे आयुम्भ होता था और भाषाकी अभिव्यक्तिके प्रकार ऐसे होते थे जो हमारी वर्तमान आदतोंमें बिल्कुल अस्वीकार्य ही ठहरेंगे । उस समय बुद्धिमान्से बुद्धिमान् मनुष्य अपने सामान्य व्यवहारिक बोधों तथा दैनिक क्रियाकलापोंसे परेके बाकी सब ज्ञानके लिये आभ्यन्तर अनुभूतिपर और अन्तर्ज्ञानयुक्त मनकी सूझोंपर निर्भर करते थे । उनका लक्ष्य था ज्ञानालोक, न कि तर्कसम्मत निर्णय; उनका आदर्श था अन्तःप्रेरित द्रष्टा, न कि यथार्थ तार्किक । भारतीय परम्पराने, वेदोके उद्धवके इस तत्त्वको बड़ी सच्चईके साथ संभालकर रखा है । ऋषि स्वयं वैयक्तिक रूपसे सूक्तका निर्माता नहीं था, वह तो द्रष्टा था एक सनातन सत्यका और एक अपौरुषेय ज्ञान का । वेदकी भाषा स्वयं 'श्रुति' है एक छन्द है जिसका बुद्धि द्वारा निर्माण नहीं हुआ बल्कि जो श्रुतिगोचर हुआ, एक दिव्य वाणी है जो असीममेंसे स्पंदित होती हुई आयी और उस मनुष्यके अंत:श्रवणमें पहुँची जिसने पहलेसे ही अपने आपको अपौरुषेय ज्ञानका पात्र बना रखा था । 'दृष्टि' और 'श्रुति', दर्शन और श्रवण, ये शब्द स्वयं वैदिक मुहावरे हैं; ये और इनके सजातीय शब्द, मंत्रोंके गूढ़ परिभाषाशास्त्रके अनुसार स्वत:प्रकाश ज्ञानको और दिव्य अन्तःश्रवणके विषयोंको बताते हैं ।
स्वत:प्रकाश ज्ञान (इलहाम या ईश्वरीय ज्ञान ) की वैदिक कल्पनामें किसी चमत्कार या अलौकिकताका निर्देश नहीं मिलता । जिस ऋषिने इन शक्तियों का उपयोग किया .उसने एक उत्तरोत्तर वृद्धिशील आत्मसाधनाके द्वारा इन्हें पाया था । ज्ञान स्वयं एक यात्रा और लक्ष्यप्राप्ति थी, एक अन्वेषण और एक विजय थी; स्वत:प्रकाशकी अवस्था केवल अन्तमें आयी; यह प्रकाश एक अन्तिम विजयका पुरस्कार था । वेदमें यात्राका यह अलंकार, सत्यके पथपर आत्मा का प्रयाण, सतत रूपसे मिलता है । उस पथपर जैसे यह अग्रसर होता है,
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वैसे ही आरोहण भी करता है; शक्ति और प्रकाशके नवीन क्षेत्र इसकी अभीप्साओंके लिये खुल जाते हैं; यह एक वीरतामय प्रयत्नके द्वारा विस्तृत हुए आध्यात्मिक ऐश्वर्योंको जीत लेता है ।
ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे ऐसा माना जा सकता है कि ऋग्वेद उस महान् उत्कर्षका एक लेखा है जिसे मानवीयताने अपनी सामूहिक प्रगतिके किसी एक कालमें विशेष उपायोंके द्वारा प्राप्त किया था । अपने गूढ़ अर्थमें भी, जैसे कि अपने साधारण अर्थमें, यह, कर्मोंकी पुस्तक हैं; आभ्यन्तर और बाह्य यज्ञकी पुस्तक है; यह है आत्माका संग्राम और विजयका स्तोत्र जब कि वह विचार और अनुभूतिके उन स्तरोंको खोजकर पा लेता है और उनमें आरोहण .करता है जो भौतिक अथवा पाशविक मनुष्यसे दुष्प्राप्य हैं; यह है मनुष्यकी तरफ से उस दिव्य, ज्योति दिव्य शक्ति और दिव्य कृपाकी स्तुति जो मर्त्यमें कार्य करती है । इसलिये इस बातसे यह बहुत दूर है कि यह कोई ऐसा प्रयास हो जिसमें बौद्धिक या कल्पनात्मक विचारोके परिणाम प्रतिपादित किये गये हों; नाहीं यह किसी आदिम धर्मके. विधि-नियमोंको बतलानेबाली पुस्तक है । केवल इतना ही है कि अनुभवकी एकरूपतामेंसें .प्राप्त हुए ज्ञानकी निर्व्यक्तिकतामेंसे .विचारोंका एक नियत समुदाय निरन्तर दोहराया जाता हुआ उद्यत हुआ है और एक. नियत प्रतीकमय भाषा उद्गत हुई है, जो सम्भवतः उस आदिम मानवीय बोलीमें इन विचारोंका अनिवार्य रूप थी । क्योंकि केवल यही अपनी मूर्त्तरूपताके और अपनी रहस्यमय संकेतकी शक्तिके-इन-दोनोंके संयुक्त होनेके कारण इस योग्य थी कि उसे अभिव्यक्त कर सके जिसका व्यक्त करना जातिके साधारण मनके लिये अशक्य था ।. चाहे कुछ .भी हो, हम एक ही विचारोंको सूक्त-सूक्तमें दुहराया हुआ पाते हैं, एक ही नियत परिभाषाओं और अलंकारोंके साथ और बहुधा एकसे ही वाक्यांशोंमें और किसी कवितात्मक मौलिकताकी खोजके प्रति या विचारोंकी अपूर्वता और भाषाकी नवीनताकी मांग के प्रति बिल्कुल उदासीनताके .साथ दुहराया हुआ पाते हैं । सौंदर्यमय सौष्ठव आडम्बर या लालित्यका किसी प्रकारका भी अनुसरण इन रहस्यवादी कवियोंको इसके लिये नहीं उकसाता कि वे उन पवित्र प्रतिष्ठापित रूपोंको बदल दे जो. उनके लिये, ज्ञानके सनातन सूत्रोंको दीक्षितोकी अविच्छिन्न परंपरामें पहुँचाते जानेवाले एक प्रकारके दिव्य बीजगणितसे बन गये थे । ...
वैदिक मंत्र वस्तुत: ही एक पूर्ण छंदोबद्ध रूप रखते हैं, .उनकी पद्धतिमें एक सतत सूक्ष्मता और. चातुर्य है, उनमें शैलीकी तथा काव्यमय व्यक्तित्वकी महान विविधताएँ है; वे असभ्य, जंगली और आदिम कारीगरोंकी कृति
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नहीं है बल्कि वे एक परम कला और सचेतन कलाके संजीव नि नि:श्वास हैं, जो कला अपनी. रचनाओंको एक. आमदर्शिका अंत:प्रेरणाकी सबल् किंतु सुनियन्त्रित गतिमें उत्पन्न करती है । फिर भी ये सब उच्च उपहार जानबूझकर एक ही अपरिवर्तनीय ढांचेके बीचमें और सर्वदा एक ही प्रकारकी सामग्रीसे रचे गये हैं । क्योंकि व्यक्त करनेकी कला ऋषियोंके लिये केवल एक साघनमात्र थी न कि लक्ष्य; उनका मुख्य प्रयोजन अविरत रूपसे व्यावहारिक था बल्कि उपयोगिताके उच्चतम अर्थमें लगभग उपथोगितावादी था ।
वैदिक मंत्र उस ॠषिके लिये जिसने उसकी रचना की थी, स्वयं अपने लिये तथा दूसरोंके लिये आध्यात्मिक प्रगतिका साधन था । यह उसकी आत्मामेंसे उठा था, यह उसके मनकी एक शक्ति बन गया था, यह उसके जीवनके आंतरिक इतिहासमें कुछ महत्त्वपूर्ण क्षणोंमें अथवा संकट तकके क्षणमें उसकी आत्माभिव्यक्तिका माध्यम था । यह उसे अपने अंदर देवको अभिव्यक्त करनेमें, भक्षकको, पापफे अभिव्यंजकको विनष्ट करनेमें सहायक था; पूर्णताकी प्राप्ति के लिये संघर्ष करनेवाले आर्यके हाथमें यह एक शस्त्रका काम देता था; इन्द्रके वज्रके समान. यह आध्यात्मिक मार्गमें आनेवाले ढालू भूमिके आच्छादक पर, रास्तेके भेड़ियेपर, नदी-किनारेके लुटेरोंपर चमकता था ।
वैदिक विचरकी अपरिवर्तनीय नियमितताको जब हम इसकी गंभीरता, समृद्धता और सूक्ष्मताके साथ लेते हैं तो इससे कुछ रोचक विचार निकलते हैं । क्योंकि हम युक्तिमुक्त रूपसे यह तर्क कर सकते हैं कि एक ऐसा नियत रूप और विषय उस कालमें आसानीसे संभव नहीं हो सकता था जो विचार तथा आध्यात्मिक अनुभवका आदिकाल था, अथवा उस कालमें भी जब कि उनका प्रारंभिक उत्कर्ष और विस्तार हो रहां था । इसलिये हम यह अनुमान कर सकते हैं कि हमारी वास्तविक संहिता एक युगकी समाप्तिको सूचित करती है, न कि इसके प्रारंभको और न ही इसकी क्रमिक अवस्थाओंमें. से किसी एक कालको । .यह भी, संभव है कि इसके प्राचीनतम सूक्त अपनसे भी अधिक प्राचीन1 उन गीतिमय छंदोंके अपेक्षाकृत नवीन विकसित रूप अथवा पाठांतर हो जो और भी पहलेकी मानवीय भाषाके अधिक स्वच्छंद तथा सुनम्य रूपोंमें ग्रथित थे । अथवा यह भी हो सकता
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1. वेद में स्वयं सतत रूप से ''प्राचीन" और ''नवीन'' (पूर्व...नूतन) ॠषियों का वर्णन आया है, इनमेंसे प्राचीन इतने अधिक पर्याप्त दूर हैं कि उन्हें एक प्रकार के अर्ध-देवता, ज्ञानके प्रथम संस्थापक समझना चाहिये ।
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है कि इसकी प्रार्थनाओंका संपूर्ण विशाल समुदाय आर्योंके अधिक विविधतया समद्ध भूतकालीन वाछङ्यमेंसे वेदव्यासके द्वारा किया गया .केवल एक संग्रह हो । प्रचलित विश्वासफे अनुसार उस परंपरागत महर्षि कृष्ण द्वैपायन, उस महान्. संहिताकार (व्यास) के. द्वारा कलियुगके आरंभकी ओर, बढ्ती हुई संध्याकी 'तथा उत्तरवर्ती अंघकारकी शताब्दियोंकी ओर, मुंह मोड़कर बनाया हुआ यह संग्रह शायद दिव्य अंतर्ज्ञानंके युगकी, पूर्वजोंकी ज्योतिर्मयी उषाओंकी केवल अंतिम ही वसीयत है जो अपने वंशजोंको दी गयी है, उस. मानव-जातिको दी गयी है जो पहलेसे ही आत्मामें निम्नतर स्तरोंकी ओर तथा भौतिक जीवनकी, बुद्धि और तर्कशास्त्रकी थुक्तियोंकी अधिक सुगम और सुरक्षित-शायद केवल दीखनेमें ही सुरक्षित-प्राप्तियोंकी ओर .मुख मोड़ रही थी ।
परंतु थे केवल कल्पनाएँ और अनुमान ही हैं । निश्चित तो इतना ही है कि मानव विकासक्रमके नियमके. अनुसार. जो यह माना जाता है कि वेद उत्तरोत्तर अंघकारमें आते गये और उनका विलोप होता गया, यह बात घटनाओंसे पूरी तौरपर प्रमाणित .होती है । यह वेदोंका अंधकारमें आना पहलेसे ही प्रारंभ हो चुका था, उससे बहुत पहले जब कि भारतीय आध्यात्मिकताका अगला महान् युग; वैदांतिक युग, आरंभ हुआ, जिसने उस समयकी परिस्थितियोंके अनुसार इस पुरातन ज्ञानके यथासंभव अधिकसे अधिक अंशको सुरक्षित या पुनः प्राप्त. करनेके लिये संघर्ष किा ।. और तब कुछ और हो सकना प्रायः असंभव ही था .। क्योंकि वैदिक रहस्यवादियोंका सिद्धांत अनुभूतियोंपर आश्रित था । ये अनुभूतियाँ साधारण मनुष्यके लिये बड़ी कठिन होती हैं और रहस्यवादियोंको ये उन शक्तियोंकी सहायतासे होती थीं, जो हममेंसे बहुतोंके अंदर. केवल प्रारंभिक अवस्थामें होती हैं और अभी अधूरी विकसित हैं । .ये शक्तियाँ यदि कभी हमारे अंदर सक्रिय होती भी हैं तो मिले-जुले रूपमें ही और अतएव थे अपने व्यापारमें अनियमित होती हैं । एवं एक बार जब सत्यके अन्वेषणकी प्रथम तीव्रता समाप्त हो चुकी, तो उसके बाद थकावट और शिथिलताका काल. बीचमें आना अनिवार्य था, जिस कालमें पुरातन सत्य आंशिक रूपसे लुप्त हो ही जाने थे । और एक. बार लुप्त हो जानेपर वे प्राचीन सूक्तोंके आशयकी छानबीनके द्वारा आसानीसे पुनरुज्यीवित नहीं किये आ सकते थे; क्योंकि वे सूक्त ऐसी भाषामें ग्रथित थे जो जानबूझकर संदिग्धार्थक रखी गयी थी ।.
एक ऐसी भाषा भी जो हमारी समझके बाहर है, ठीक-ठीक समझमें
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आ सकती है यदि एक बार उसका मूलसूत्र पता लग जाय; पर एक भाषा जो जानबूझकर संदिग्धार्थक रखी गयी है, अपने रहस्यको अपेक्षाकृत अधिक : दृढ़ता और सफलताके साथ छिपाये. रख सकती है, क्योंकी यह उनं प्रलोभनों और निर्देशोसे भरी रहती है जो भटका देते 'हैं । इसलिये जब भारतीय मन फिरसे वेदके आशयके अनुसंधानकी ओर मुडा तो यह कार्य दुस्तर था और इसमें जो कुछ सफलता मिली. वह केवल आंशिक थी । प्रकाशका. एक स्रोत अब भी विद्यमान था, अर्थात् वह परंपरागत ज्ञान जो उनके हाथमें था जिन्होंने मूलवेदको कण्ठस्थ कर रखा था और जो उसकी व्याख्या करते थे, अथवा जिनके जिम्मे वैदिक कर्मकाण्ड था-ये दोनों कार्य प्रारभमें एक ही थे, क्योंकि पुराने दिनोंमें जो पुरोहित होता था वही शिक्षक और द्रष्टा भी होता था । परंतु इस प्रकाशकी स्पष्टता पहलेसे ही धुँधली हो चुकी थी । बड़ी ख्याति पाये हुए पुरोहित भी जिन शब्दोंका वे बार-बार पाठ करते थे, उन पवित्र शब्दोंकी शक्ति और उनके अर्थका बहुत ही अधूरा ज्ञान रखते हुए याज्ञिक क्रियाऍ करते थे । क्योंकि वैदिक पूजाके भौतिक रूप बढ़कर. आंतरिक ज्ञानके ऊपर एक मोटी तहके रूपमें चढ़ गये थे और वे .उसीका गला धोंट रहे थे जिसकी. किसी समय वे रक्षा करनेका काम करते थे । वेद पहले. ही गाथाओं और यज्ञविधियोंका एक समुदाय बन चुका था । इसकी शक्ति प्रतीकात्मक विधियोंके पीछेसे ओझल होने लग गयी थी; रहस्यमय अलंकारोंमें जो प्रकाश था वह उनसे पृथक् हो चुका था और केवल एक प्रत्यक्ष असंबद्धता और कलारहित सरलताका ऊपरी स्तर ही अवशिष्ट रह गया था ।
ब्राह्मणग्रन्ध और उपनिषदें उस एक जबरदस्त पुनरुज्वीवनके लेखचिह्न हैं जो मूलवेद तथा कर्मकाण्डको आधार रखकर प्रारंभ हुआ और जो. आध्यात्मिक विचार तथा अनुभवको एक नवीन रूपमें लेखबद्ध करनेके लिये था । इस पुनरुज्यीवनके ये दो परस्परपूरक रूप थे, एक था कर्मकाण्डसंबंधी विधियोंकी रक्षा. और दूसरा वेदकी आत्माका पुन: प्रकाश-पहलेके द्योतक हैं ब्राह्मणग्रन्थ1, दूसरेकी उपनिषदें ।
ब्राह्यणग्रन्ध वैदिक कर्मकाण्डकी सूक्ष्म विधियोंको, उनकी भौतिक फलोत्पादकताकी शर्तोंको, उनके विविध अंगों, क्रियाओं व उपकरणोंके प्रतीकात्मक अर्थ और प्रयोजनको, यज्ञके लिये जो महत्त्वपूर्ण मूल मंत्र हैं
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1. निश्चय ही,ये तथा इस अध्यायमें किये गये दूसरे विवेचन कुछ मुख्य प्रवृत्तियों के सारभूत .और संक्षिप्त आलोचन ही हैं । उदाहरणत: ब्राह्यणग्रथों में हम दार्शनिक संदर्भ भी पाते हैं ।
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उनके तात्परर्यको धुँधले संकेतोंके आशयको तथा पुरातन गाथाओं और परिपाटियोंकी स्मृतिको नियत और सुरक्षित करनेका प्रयत्न करते हैं । उनमें आनेवाले कथानकोंमेसे बहुत-से तो स्पष्ट ही मंत्रोंकी अपेक्षा उत्तरकालके हैं, जिनका आविष्कार उन संदर्भोंका स्पष्टीकरण करनेके लिये किया गया था जो तब समक्षमें नहीं आते थे, दूसरे कथानक संभवत: मूलगाथा और अलंकारकी उस सामग्रीके अंग है जो प्राचीन प्रतीकवादियोंके द्वारा प्रयुक्तकी गयी थी, अथवा उन वास्तविक ऐतिहासिक परिस्थितियोंकी स्मृतियां हैं जिनके वीचमें सूक्तोंका निर्माण हुआ था ।
मौखिक रूपसे चली आ रही परंपरा सदा एक ऐसा प्रकाश होती है जो वस्तुको धुँधला दिखाता है; जब एक नया प्रतीकवाद उस प्राचीन प्रतीकवादपर कार्य. करता है, जो कि आधा लुप्त हो चुका है, तो संभवत: वह उसे प्रकाशमें लानेकी अपेक्षा उसके ऊपर उगकर उसे अधिक आच्छादित ही कर देता है । इसलिये .वाह्मणग्रन्थ यद्यपि बहुत-से मनोरंजक संकेतोंसे भरें हुए हैं, फिर भी हमारे अनुसंधानमें वे हमें बहुत ही थोड़ी सहायता पहुँचाते हैं, न ही वे पृथक् मूलमंत्रोंके अर्थके लियें एक सुरक्षित पथप्रदर्शक होते हैं जब कि वे मंत्रोंकी एक यथातथ और शाब्दिक व्याख्या .करनेका प्रयत्न करते हैं ।
उपनिषदोंके ऋषियोंने एक दूसरी प्रणालीका अनुसरण किया । उन्होंने विलुप्त हुए या क्षीण होते हुए ज्ञानको ध्यान-समाधि तथा आध्यात्मिक अनुभूतिके द्वारा पुनरुज्जीवित करनेका यत्न किया और प्राचीन मंत्रोंके मूलग्रन्य (मूलवेद ) को अपने निजी अन्तर्ज्ञान तथा .अनुभवोंके लिये आधार या प्रमाणके रूपमें प्रयुक्त किया, अथवा यूं कहें कि वेदवचन उनके विचार और दर्शनके लिये एक बीज था, जिससे कि उन्होंने पुरातन सत्योंको नवीन रूपोंमें पुनरुज्जीवित किया । .
जो कुछ उन्होंने पाया उसे उन्होंने, ऐसी दूसरी परिभाषाओंमें व्यक्तकर दिया जो उस युगके लिये जिसमें वे रहते थे अपेक्षाकृत अधिक समझमें आने योग्य थीं । एक अर्थमें उनका वेदमंत्रोंको हाथमें लेना बिल्कुल निःस्वार्थ नहीं था, इसमें विद्वान् ऋषिकी वह सतर्क सूक्ष्मदर्शिनी इच्छा नियन्त्रण नहीं कर रही थी जिससे वह शब्दोंके यथार्थ भाव तक और वाक्योंकी वास्तव रचनामें उनके ठीक-ठीक विचारतक पहुँचनेका यत्न करता है । वे शाब्दिक सत्यकी अपेक्षा एक उच्चतर सत्यके अन्वेषक थे और शब्दोंका प्रयोग केवल उस प्रकाशके संकेतके रूपमें करते थे जिसकी ओर वे जानेका प्रयत्न कर रहे थे । वे शब्दोंके उनकी व्युत्पत्तिसे बने अर्थोंको या तो जानते ही नहीं थे या उनकी उपेक्षा कर देते थे और बहुधा वे शब्दोंकी घटक अक्षरध्वनियोंको
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लेकर प्रतीकात्मक व्याख्या करनेकी सरणि का ही प्रयोग करते थे, जिसमें उन्हें समझना बड़ा कठिनि पड़ जाता है ।
इस कारणसे, उपनिषदें जहाँ इसलिये अमूल्य है कि वे प्रधान विचारोंपर तथा प्राचीन ॠषियोंकी आध्यात्मिक पद्धतिपर प्रकाश डालती हैं, वहाँ के जिन वेदमंत्रोंको उद्घृत करती हैं उनके यथार्थ आशयको निश्चित करनेमें हमारे लिये उतनी ही कम सहायक हैं जितने ब्राह्यण-ग्रन्थ । उनका असलीं कार्य वेदान्तकी स्थापना करना था, न कि वेद की व्याख्या करना ।
इस महान् आन्दोलनका फल हुआ विचार और आध्यात्मिकता एक नवीन तथा अपेक्षाकृत अधिक स्थिर शक्तिशाली स्थापना, वेदकी वेदान्तमें परिसमाप्ति । और इसके अन्दर दो ऐसी प्रबल प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं जिन्होंने पुरातन वैदिक विचार तथा संस्कृतिके विघटनकी दिशामें कार्य किया । प्रथम यह कि इसकी प्रवृत्ति बाह्य कर्मकाण्डको, मंत्र और यज्ञकी भौतिक उपयोगिताको अधिकाधिक गौणै करके अधिक विशुद्ध रूपसे आध्यात्मिक लक्ष्य और अभिप्रायको प्रधानता देनेकी थी । प्राचीन रहस्यवादियोंमे बाह्य और आभ्यन्तर, भौतिक और आत्मिक जीवनमें जो समन्वय, जो समन्वय कर रखा था, उसे स्थानचुत और अस्तव्यस्त कर दिया गया । एक नवीन संतुलन, एक नवीन समन्वय स्थापित किया गया जो अन्ततोगत्वा संन्यास और त्यागकी ओर झुक गया और उसने अपने-आपको तबतक कायम रखा, जबतक वह समय आनेपर बौद्धधर्ममें आयी, हुई उसकी अपनी ही प्रवृत्तियोंकी अतिके द्वारा स्थानच्युत और अस्तव्यस्त नहीं कर दिया वया ।
. यज्ञ, प्रतीकात्मक कर्मकाण्ड अधिकाथिक. निरर्थक-सा अवशेष और यहाँतक कि भारभूत हो गये तो भी, जैसा कि प्राय: हुआ करता है, यन्त्रवत् और निष्फल हो जानेका ही परिणाम यह हुआ कि उनकी प्रत्येक बाह्यसे बाह्य, वस्तुकी भी महत्ताको वढ़ा-बढ़ाकर कहा जाने लगा और उनकी सूक्ष्म विधियों को राष्ट्र-मनके उस भाग द्वारा जो अब तक उनसे चिपटा हुआ था, बिना युक्तिके ही बल-पूर्वक थोपा जाने लगा । वेद और वेदान्तके बीच एक तीव्र व्यावहारिक भेद अस्तित्वमें आया, जो क्रियामे था यद्यपि सिद्धान्त-रूपसे कभी भी पूर्णत: स्वीकार नहीं किया गया, जिसे इस सूत्रमें व्यक्त किया आ सकता है '' वेद पुरोहितोंके लिये, वेदान्त सन्तोंके लिये'' ।
वैदान्तिक हलचलकी दूसरी प्रवृत्ति थी अपने-आपको प्रतीकात्मक भाषाके भारसे क्रमशः मुक्त करना, अपने ऊपरसे स्थूल गाथाओं और कवितात्मक अलंकारोके उस पर्देको हटाना, जिसमें रस्यवादियोंने अपने विचारको छिपा रखा था और उसका स्थान एक अधिक स्पष्ट प्रतिपादन और अपेक्षाकृत
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अधिक दार्शनिक भाषाको प्रदान करना । इस प्रवृत्तिके पूर्ण विकासने न केवल वैदिक कर्मकाण्डकी बल्कि मूल वेदकी भी उपयोगिताको विलुप्त कर दिया । उपनिषदें जिनकी भाषा बहुत ही स्पष्ट और सीधी-सादी थी सर्वोच्च भारतीय विचारका मुख्य. स्रोत हो गयीं और उन्होंने. वसिष्ठ तथा विश्वामित्रकी अन्त:श्रुत ॠचाओंका स्थान ने लिया ।1
वेद शिक्षाके अनिवार्य आधारके रूपमें क्रमशः: कम और कम बरते जानेके कारण अब वैसे उत्साह और बुद्धिचातुर्यके साथ पढ़े जाने बंद हो गये थे; उनकी प्रतीकमय भाषाने, प्रयोसमें न आनेसे नयी सन्ततिके आगे अपने आन्तरिक आशयके अवशेषको भी खो दिया, जिस सन्ततिकी सारी ही विचारप्रणाली वैदिक पूर्वजोंकी प्रणालीसे भिन्न थी । दिव्य अन्तर्ज्ञान के युग बीत रहे थे और उनके स्थान पर तर्कके युगकी प्रथम उषा का आविर्भाव हो रहा था ।
बौद्धघर्मने इस क्रान्तिको पूर्ण किया और प्राचीन युगकी बाह्य परिपाटियोंमसे केवल कुछ एक अत्यादृत आडम्बर और कुछ एक यन्त्रवत् चलती हुई रूढियाँ ही अवशिष्ट रह गयीं । इसने वैदिक यज्ञको लुप्त कर देना चाहा और साहित्यिक भाषाके स्थानपर प्रचलित लोक-भाषाको प्रयोगमें लानेका यत्न किया । और यद्यपि इसके कार्यकी पूर्णता, पौराणिक सम्प्रदायोंमें हिन्दूधर्मके पुनरुज्जीवन के कारण, कई शताब्दियों तक रुकी रही, तो भी वेदने स्वयं इस अवकाशसे न के बराबर ही लाभ उठाया । नये धर्मके प्रचारका विरोध करनेके लिये यह आवश्यक था कि पूज्य किन्तु दुर्बोध मुल वेदके स्थानपर ऐसी घर्म-पुस्तकें सामने लायी जायँ जो अपेक्षाकृत अधिक अर्वाचीन संस्कृतमें सरल रूपमें लिखी गयी हों । ऐसी परिस्थितिमें देशके सर्वसाधारण लोगोंके लिये पुराणोंने वेदोंको एक तरफ धकेल दिया और नवीन धार्मिक पूजा-पाठके तरीकोंने पुरातन विधियोंका स्थान ले लिया । जैसे वेद ऋषियोंके हाथसे पुरोहितोंके पास पहुंचा था, वैसे ही अब यह पुरोहितोंके हाथसे निकलकर पण्डितोंके हाथमें जाना शुरू हो गया । और उस रक्षणमें इसने अपने अर्थोंके अन्तिम अंगच्छेदनको और अपनी सच्ची शान और पवित्रताकी अन्तिम हानि को सहा ।
यह बात नहीं कि वेदोंका यह पण्डितोंके हाथमें जाना और भारतीय
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1. यहां फिर इस कथनसे मुख्य प्रवृत्ति ही सूचित होती है ओर इसे कुछ विशेषणोंसे सीमित करनेकी अपेक्षा है । वेदोंको प्रमाण-रूपसे भी उदृत किया गया है, पर सर्वांगरूपसे कहें तो उपनिषदें ही अपेक्षाकृत ज्ञानके ग्रन्थ बन गयीं, वेद अपेक्षाकृत कर्मकाण्डकी पुसतक ही रह गया ।
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पाण्डित्यका वेदमन्त्रोंके. साथ व्यवहार, जो ईसा पूर्वर्की शताब्दियोंसे प्रारम्भ हो गया था; सर्वथा एक घाटेका ही लेखा हो । 'इसकी अपेक्षा ठीक तो यह है कि पण्डितोंके सतर्क अध्यवसाय तथा उनकी प्राचीनताको रक्षित रखने और नवीनतामें अप्रीतिकी परिपाटीके हम ऋणी हैं कि उन्होंने वेदकी सुरक्षा की, इस बातके बावजूद भी रक्षा की कि इसका रहस्य लुप्त हो चुका था और वेदमन्त्र स्वयं क्रियात्मक रूपमें एक सजीव घर्मशास्त्र समझे जाने बन्द हो गये थे | और साथ ही लुप्त रहस्यके पुनरुज्यीवनके लिये भी पाण्डित्यपूर्ण कट्टरताके ये दो सहस्र वर्ष हमारे लिये कुछ अमूल्य सहायतायें छोड़ गये हैं अर्थात् मूल वेदोंके संहिता आदि पाठ जिनके ठीक-ठीक स्वर-चिह्न बड़ी सतर्कताके साथ निश्चित किये हुए हैं, यास्कका महत्वपूर्ण कोष और सायणका वह विस्तृत भाष्य जो अनेक और प्रायः चौंका देनेवाली अपूर्णताओके होते हुए भी अन्वेषक विद्वान्के लिये गंभीर वैदिक शिक्षाके निर्माणकी ओर एक अनिवार्य पहला कदम है |
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