वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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वरुण

 

'वरुण ' शब्द हमें एक् ऐसी धातुसे प्राप्त हुआ है जिसके अर्थ हैं-चारों ओरसे घेरना, अच्छादित या व्याप्त करना । इ स नामके इन अर्थोंसे प्राचीन रहस्यवादियोंके काव्यमय चक्षु के सामने ऐसे रूपक उभरे जो हमारे लिए अनंतका निकटतम ठोस प्रतिनिधित्व करते हैं । उन्होंने भगवान्को हमारे ऊपर छाए उच्चतम द्युलोकके रूपमें देखा, दिव्य सत्ताको सर्वतोव्यापी सागरके समान अनुभव किया, उसकी असीम उप स्थिति में उन्होंने ऐसे निवास किया मानों शुद्ध और सर्वव्यापी व्योममें निवास कर रहे हों । वरुण है य ह उच्चतम द्युलोक, आत्माको चतुर्दिक् व्यप्त करने वाला यह सागर, यह है आकाशीय प्रभुता और अनंत व्यापकता ।

 

इसी धातुने उन्हें अंधकारपूर्ण आच्छादक-विरोधी वृत्र-के लिए भी नाम प्रदान किया था, क्योंकि इस धातुके अनेक सजातीय अर्थोंमेंसें कुछ ये भी हैं--बाधा डालना और प्रतिरोध करना, पर्दा डालना या बाड़ लगाना, घेरना और परिवेष्टित करना । परन्तु अंधकारपूर्ण वृत्र सघन बादल और आवरणकारी छाया है । उसका ज्ञान-क्योंकि उसे भी ज्ञान है जिसे माया कहते हैं-सीमित सत्ताका बोध है और अन्य सारी समृद्ध और विशाल सत्ताका जो हमारी होनी चाहिए, अवचेतन रात्रिमें छिपाए रखना है । सर्जनशील ज्ञानके इस निषेधके लिए और उसकी विरोधिनी शक्तिके लिए वह देवोंके विरुद्ध दृढ़तासे खड़ा होता है, - -यह प्रभु और मानवके दव्य अधिकारके वरुद्ध उसका आदिव्य अधिकार है । वरुण अपनी विशाल सत्ता और बृहत् दृष्टिसे इन सीमाओकों पीछे धकेल देता है; उसकी प्रभुता हमें अपने प्रकाश से चतुर्विदक् व्याप्त करती हुई उस चीज़को प्रकट कर देती है जिसे अंधकारमय वृत्रके पुन :-पुन: आत्रमणने रोक रखा और तिरोहित कर रखा था । उसका देवत्व आलिंगनकारी और प्रकाशप्रद अनंतताकी एक आकृति या आध्यात्मिक प्रतिमा है ।

 

इस कारण वरुणकी भौतिक आकृति जाज्वल्यमान अग्नि या दे दीप्यमान सूर्य

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             (पिछले पृष्ठकी टिप्पणीका शेष भाग).

 

अग्निरीशे वसव्यस्याऽग्निर्मह : सौभगस्य । तान्यस्मभ्यं रासते ।।8।।

उषो मघोन्या वह सूनृते वार्या पुरु । अस्मभ्यं वाजिनीवति ।।9।।

तत् सु न : सविता भगो वरुणो मित्रो अर्यमा । इन्द्रो नो राधसा गमत ।।10।।

                                                     ॠ.IV. 55.1-10

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और ज्योतिर्मय उषाकी अपेक्षा बहुत कम सुनिश्चित है । प्राचीन भाष्यकारोंने विचित्र ढंगसे यह कल्पनाकी कि वह रात्रिका देवता हैं । पुराणोंमे वह जलोंका देवता है और उसका पाश, जो वेदमें मनोवैज्ञानिक रूपकसे अधिक कुछ होनेका दावा कभी नहीं करता, समुद्र-देवताका उग्र चाबुक बन गया है । यूरोपीय विद्वानोंने उसे यूनानी देवता यूरेनससे अभिन्न माना है और उसकी आदिम आकाशीय प्रकृतिके कुछ अंश देखकर एक विचारगत परि-वर्तनकी कल्पना की है जो वरुणका ऊर्ध्ववर्ती नीलाकाशसे अधोवर्ती नीलाकाश-की ओर एक प्रकारका पतन या पदच्युति तक है । संभवतः इन्द्रके अन्त-रिक्षका स्वामी और देवोंका राजा बन जानेसे आदि राजा वरुणको जलोंके आधिपत्यसे संतुष्ट होना पड़ा । यदि हम रहस्यवादियोंकी प्रतीकात्मक पद्धतिको समझें तो हम देखेंगे कि ये सब कल्पनाएँ अनावश्यक हैं । उनकी पद्धति है एकत्र ररवे हुए नाना विचारों और रूपकोंको एक ऐसे सर्वसामान्य विचारमें संयुक्त कर देना जो उन्हें जोड़नेवाली सभी कड़ियाँ प्रदान करता है । इस प्रकार वेदका वरुण राजा है--वास्तविक द्युलोकोंका नहीं, क्योंकि उनका राजा है द्यौष्पिता, प्रकाशके द्युलोकोंका भी नहीं, क्योंकि उनका राजा है इन्द्र, वल्कि वह सबपर छाए हुए उच्चतम व्योमका और साथही सब सागरोंका राजा है । सब विस्तार वरुणके हैं, प्रत्येक अनन्तता उसीका ऐश्वर्य और संपदा है ।

 

रहस्यवादी विचारमें आकाश और सागर परस्पर मिलकर एक हो जाते है; इस एकताका उद्गम ढूँढ़नेके लिए दूर जानेकी जरूरत नहीं । सृष्टिके विषयमें हिमालयसे आंडिज (Andes) तक सारे संसारमें जो प्राचीन धारणा थी उसमें यह कल्पना की गई थी कि पदार्थोंका उपादान-तत्त्व है जलोंका आकाररहित विस्तार, जो प्रारंभमें अंधकारसे आच्छादित था और जिसमेंसे दिन और रात तथा द्युलोक और पृथ्वी और सब लोक बाहर निकले हैं । यहूदियोंके सृष्टचुत्पत्ति-प्रकरणमें कहा गया हैं कि ''समुद्रके ऊपरी तल पर अंधकार था और ईश्वरकी आत्मा जलोंपर विचरण कर रहीं थी ।'' शब्दके द्वारा उसने समुद्रको अंतरिक्षसे विभक्त किया, जिसके परिणामस्वरूप अब यहाँ दो समुद्र हैं, एक पार्थिव जो अंतरिक्षके नीचे है, दूसरा द्युलोकीय जो अंतरिक्षके ऊपर है । इस. सार्वभौम विश्वासको या इस वैश्व रूपकको गुह्यवादियोंने पकड़ा और इसमें अपने समृद्ध मनोवैज्ञानिक मूल्योंको भर दिया । एक अंतरिक्षकी जगह उन्होंने दो को देरवा,-एक पार्थिव और दूसरा दिव्य । दो सागरोंके स्थानपर उनकी अनावृत दृष्टिके सामने तीन सागर प्रसारित हो उठे ।

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जो कुछ उन्होंनें देखा वह एक ऐसी वस्तु थी जिसे मानव कभी आगे चलकर देखेगा जब प्रकृति और जगत्को देखनेकी उसकी भौतिक दृष्टि आंत-रात्मिक दृष्टिमें बदल जायगी । उनके नीचे उन्होंने देखी अगाध रात्रि और तरंगित होता हुआ तमस्, अंधकारमें छिपा अंधकार, निश्चेतन समुद्र जिससे 'एकमेव' के शक्तिशाली तपस्के द्वारा उनकी सत्ता उद्भूत हुई थी । उनके ऊपर उन्होंने देखा प्रकाश और मधुरताका दूरवर्ती समुद्र जो उच्चतम व्योम है, आनन्दस्वरूप विष्णुका परम पद है, जिसकी ओर उनकी आकर्षित सत्ता-को आरोहण करना होगा । इनमेंसे एक था अंधकारपूर्ण आकाश, आकार-हीन, जड़, निश्चेतन असत्; दूसरा था ज्योतिर्मय व्योमसदृश सर्व-चेतन एवं निश्चेतन सत् । ये दोनों 'एकमेव'के ही विस्तार थे, एक अंधकारमय, दूसरा प्रकाशमय ।

 

इन दो अज्ञात अनन्तताओंके अर्थात् अनन्त संभाव्य शून्य और अनन्त परिपूर्ण 'क्ष'के बीच उन्होंने अपने चारों ओर अपनी आंखोंके सामने, नीचे, ऊपर, नित्य विकसनशील चेतन सत्ताका तीसरा समुद्र देखा, एक प्रकारकी असीम तरंग देखी, जिसका उन्होंनें एक साहसपूर्ण रूपकके द्वारा इस प्रकार वर्णन किया कि वह द्युलोकसे परे परमोच्च समुद्रों तक आरोहण करती या उनकी ओर प्रवाहित होती है । यह है वह भयानक समुद्र जो हमें पोत द्वारा पार करना है । इस समुद्रमें शक्तिशाली और प्रचण्ड-वेगमय राजा तुग्रका पुत्र, आनन्दोपभोगका अभिलाषी भुज्यु डूबने ही वाला था, क्योंकि उसे उसके मिथ्याचारी साथियोंने, दुष्टाचारी सत्ताओंने इसमें फेंक दिया था, परन्तु अश्विनीकुमारोंका रथ-पोत उसे बचानेके लिये द्रुत गतिसे आ पहुंचा । यदि हम छेसे संकटोंसे बचना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हमारा सीमित संकल्प और विवेक वरुणके विशाल ऋत और सत्यके द्वारा अनुशासित हों । हम किसी मानवीय नाव पर न सवार हों, अपितु ''निर्दोष और अच्छे चप्पूवाली दिव्य नौकापर आरोहण करे जो डूबती नहीं, जिसके द्वारा हम पाप और कलुषको पार कर सुरक्षित रूपसे समुद्रके पार पहुंच सकें ।'' इस मध्यवर्ती समुद्रके. बीचमें पृथ्वीके 'ऊपर' हमने ज्ञानके सूर्यको निश्चेतनाकी गुहासे उदित होते हुए और द्रष्टाओंके नेतृत्वमें समुद्र-यात्रा करते हुए देखा है । क्योंकि यह भी तो एक समुद्री आकाश है । अथवा हम यूं कहें कि यह आकाशोंकी क्रमपरंपरा है । यदि हम इस वैदिक रूपक-मालाका अनुसरण करना चाहें तो हमें यह कल्पना करनी होगी कि सागरके ऊपर सागर रखा हुआ है । यह जगत् एसी चोटियोंकी शृंखला है जो कि गहराइयां हैं और हैं अन्तहीन विशालताओंका एक दूसरीमें अवगुण्ठित होना

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और एक दूसरीमेंसे विकसित होना । अध:स्थ व्योम ऊपरके सदा अधिका-धिक ज्योतिर्मय व्योमकी ओर उठता है, चेतनाका प्रत्येक स्तर बहुतसे निम्न स्तरोंपर आधारित है और बहुतसे उच्चतर स्तरोंकी अभीप्सा करता है ।

 

परन्तु हमारे दूरतम आकाशोंसे परे प्रकाशके परम सागरमें और उच्चतम अतिचेतनात्मक विस्तारमे हमारा द्युलोक सत्यके रूपमे हमारी प्रतीक्षा कर रहा है । वह सत्य निम्नतर सत्यसे उसी प्रकार छिपा है जिस प्रकार निश्चे-तन रात्रिमें अन्धकार उत्तरोत्तर बड़े अन्धकारके द्वारा परिवेष्टित और रक्षित होता है । वह है राजा वरुणका सत्य । उस ओर उषाएँ चमकती हुई उदित होती हैं, नदियां यात्रा करती हैं और सूर्य वहाँ अपने रथके अश्व खोल देता है । वरुण इस सबको अपनी विशाल सत्ता में तथा अपने असीम ज्ञानके द्वारा धारण करता है, देखता है और इसपर शासन करता है । ये सब सागर उसीके हैं, और निश्चेतन समुद्र एवं उसकी रात्रियांतक जो अपने बाह्य रूपमें उसकी प्रकृतिके इतनी विपरीत हैं, उसीकी हैं । उसकी प्रकृति तो है सुखमय ज्योति और सत्यके एकमेव सनातन विशाल सूर्यकी विस्तृत जाज्वल्यमान प्रभा । दिन और रात, प्रकाश और अंधकार, उसकी अनंतता में प्रतीक-रूप हैं । ''ज्योतिर्मय वरुण रात्रियोंको आलिंगित किए है, वह उषाओंको अपने सर्जनशील ज्ञानके द्वारा अपने अन्दर धारण करता है । अंतर्दृष्टिसे संपन्न वह प्रत्येक पदार्थके चारों ओर विद्यमान है ।''

 

सागरोंके इस विचारसे ही संभवत: वैदिक नदियोंकी मनोवैज्ञानिक परि-कल्पनाका उदय हुआ । ये नदियां सर्वत्र विद्यमान हैं । ये वे धाराएं हैं जो पर्वतसे नीचेकी ओर बहती हैं और वृत्रके अंधकारमय रहस्योंमेंसे गुजरती हुई ओर उन्हें अपने प्रवाहसे प्रकाशित करती हुई मनकी ओर आरोहण करती हैं, वे है द्युलोककी शक्तिशाली धाराएँ जिन्हें इन्द्र पृथ्वीपर लाता है; वे हैं सत्यकी धाराएँ, वे हैं इसके ज्योतिर्मय आकाशोंसे पड़नेवाली वर्षा; वे है सात शाश्वत बहिनें और सहेलियां; वें हैं दिव्य धाराएँ जिनके पास ज्ञान है । वे पृथ्वीपर उतरती हैं, सागरसे उद्भ्त होती हैं, सागरकी ओर बहती हैं, पणियोंके द्वारोंको तोड़कर बाहर निकल जाती हैं, परम समुद्रोंकी ओर आरोहण करती हैं ।

 

सागरसदृश वरुण इन सब धाराओंका राजा है । यह कहा गया है कि ''नदियोंके उद्भवमें वह सात बहिनोंका भाई है, वह उनके मध्यमें स्थित यह'' (ऋ. V111.41 2)1 । एक दूसरे ऋषिने गाया है ''नदियोंमें वरुण अपने

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1. नाभाकस्य प्रशस्तिभिर्य: सिन्धूनामुपोदये सप्तस्वसा स मध्यमो

   नभन्तामन्यके समे ।।                      ऋ. VII.41.2

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कार्योंके विधानको धारण करता हुआ, साम्राज्यके लिए अपने संकल्पमें पूर्णता से युक्त होकर बैठा है'' (ऋ. 1.25.10)1 । वशिष्ठ ऋषि उन धाराओं के विषयमें मनोवैज्ञानिक संकेतोंका स्पष्ट अंबार लगाते हुए कहता है कि ''वे दिव्य, पवित्र, पावक और मधुस्रावक हैं जिनके मध्यमें राजा वरुण प्राणियोंके सत्य और असत्यको देखता हुआ प्रयाण करता है'' (ऋ. V11.49.3 )2 वरुण भी इन्द्रकी तरह जिसके साथ प्रायः ही उसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है जलधाराओंको मुक्त करता है; उसके शक्तिशाली हाथोंसे वेगपूर्वक प्रचा-लित होकर वे भी उसकी तरह सर्वव्यापक बन जाती हैं और असीम लक्ष्यकी ओर प्रवाहित होती है । ''विशाल धारक, अनंतताके पुत्रने उन्हें सब और मुक्त कर दिया है; नदियां वरुणके सत्यकी ओर यात्रा करती है'' (ऋ. 11.28.4)3

 

न केवल लक्ष्य अपितु प्रयाण भी उसीका है । ''शक्ति और सहश्र-विध दृष्टिसे युक्त वरुण इन नदियोंके लक्ष्यको देखता है । वह राज्योंका राजा है, वह नदियोंका साक्षात् रूप है, उसीके लिए है परम और वैश्व शक्ति ।''  उसकी समुद्रीय गति सत्ताके साम्राज्योंको आच्छादित किए है और द्युलोकोंके भी द्युलोकके स्वर्गकी ओर आरोहण करती है । यह कहा गया है कि ''यह है गुप्त सागर और द्युलोकको पार करता हुआ वह ऊपर आरोहण करता है; जब वह इन उषाओंमे यज्ञीय शब्दको स्थापित कर चुकता है, तब अपने ज्योतिर्मय पगसे भ्रांतियोंको रौंदकर चूर-चूर कर देता है और स्वर्गकी ओर आरोहण करता है'' (ऋ. V11. 41.41.8)4 । हम देखते है कि वरुण जब उत्तरोत्तर अभिव्यक्त होकर भगवन्मुक्त ऋषिकी आत्मामे अपनी अनन्त विशालता एवं परमानन्दकी ओर उठता है, तब वह प्रच्छन्न भगवान्की समुद्रीय तरंग ही होता है ।

 

वह अपने पदचापसे जिन भ्रांतियोंको छिन्न-भिन्न करता है वे पापके

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1. नि षसाद धृतवतो वरुण: पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतु: ।।             

                                               ऋ. 1.25.10

2. यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् ।

   मधुश्चुत: शुचयो या: पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।।

                                             ऋ. V11.49.3

3. प्र सीमादित्यो असृजद् विधतां ऋतं सिन्धवो वरुणस्य यन्ति ।।

                                               ऋ. 11.28.4

4. स समुद्रो अपीच्यस्तुरो द्यामिव रोहति नि यदासु यजुर्दधे ।

   स माया अर्चिना पदाऽस्तृणान्नाकमारुहन्नभन्तामन्यके समे ।।

                                             ऋ. V111.41.8

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अधिपतियोंकी मिथ्या कृतियाँ हैं । क्योंकि वरुण दिव्य सत्यका यह व्योम एवं दिव्य सत्ताका सागर है, इसलिए वह एक ऐसी सत्ता है कि कोई मानवी-कृत भौतिक समुद्र या आकाश वैसी सत्ता कभी नहीं बन सकता । वह है पवित्र और महामहिम सम्राट् जो बुराईका ध्वंस करता और पापसे मुक्त करता है । पाप है दिव्य सत्य और ऋतकी पवित्रताका उल्लंघन; इसकी प्रतिक्रिया है पवित्र और बलशाली देवका कोप । जो लोग अंधकारके पुत्रों-की तरह अपने अहंकी इच्छा और अज्ञानकी गुलामी करते हैं उनके विरुद्ध दिव्य विधानका राजा वेगपूर्वक अपने अस्त्र फेंकता है, उनपर उसका पाश उतर आता है । वे वरुणके जालमें फंस जाते हैं । परन्तु जो यज्ञके द्वारा सत्यकी खोज करते हैं वे रस्सेसे खोले गए बछड़ेकी तरह या वध-स्तंभसे छोड़े गए पशुकी तरह पापके बंधनसे मुक्त हो जाते हैं । ऋषिगण वरुणकी प्रतिशोधात्मक हिंसाकी बारबार निन्दा करते हैं और उससे प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें पापसे और उसके प्रतिफल-रूप मृत्युसे मुक्त कर दे । वे ऊंचे स्वरसे पुकारते हैं किं ''विनाशको हमसे दूर हटा दे । जो पाप हमने किया है उसे भी हमसे अलग कर दे''; अथवा सदा ही शृंखला व बंधनके उसी प्रसिद्ध अर्थमें वे कहते हैं कि ''पापको पाशके समान मुझसे काटकर पृथक् कर दे ।''

 

पाप स्वभावगत दुष्टताका परिणाम है,--इस अपरिपक्व धारणाको इन गंभीर मनीषियों और सूक्ष्म मनोविज्ञान-वेत्ताओंके विचारमें कोई स्थान नहीं था । जो कुछ उन्होंने अनुभव किया वह थी अज्ञानकी बड़ी हठीली शक्ति, या तो मनमे ऋत एवं सत्यको न अनुभव करना या इच्छाशक्तिमें उसे न पकड़ पाना या उसका अनुसरण करनेमें प्राणकी सहजप्रेरणाओ और काम-नाओंकी असमर्थता या दिव्य विधानकी महत्ताकी ओर उठनेमें भौतिक सत्ता-की निरी अक्षमता । वशिष्ठ एक भावुकतापूर्ण स्तोत्रमें शक्तिशाली वरुण-को पुकारकर कहता हैं ''हे पवित्र ! हे बलशाली देव ! संकल्पकी दीनता-के वश ही हमने तुम्हारे विरुद्ध आचरण किया है, हमारे प्रति दयालु हो, हमपर कृपा करो । तुम्हारे स्तोताको तृष्णाने आ घेरा है यद्यपि वह जलोंके बीच खड़ा है; हे बलशाली प्रभो ! दया दिखाओ, कृपा करो । हे वरुण ! जो कुछ हम मानवप्राणी करते हैं वह चाहे जो भी हो, दिव्य जन्मके विरुद्ध हम जो अभिद्रोह करते हैं, जहां कहीं भी अज्ञानसे हमने तुम्हारे नियमोंकी अव-हेलना की है, हे प्रभो ! उस पापके लिए हमपर प्रहार मत करो'' (ऋ. प्रो V11.89.3-5)1

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1.  ॠत्व: समह दीनता प्रतीपं जगमा शुचे । मृळा सुक्षत्र मृळय ।।

    अपां मध्ये तस्यिवांसं तृष्णाविदज्जरितारम् । मृळा सुक्षत्र मृळय ।

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पापकी यह जननी अविद्या अपने सारभूत परिणाममें एक त्रिविध पाश-का--सीमित मन, कार्य-अक्षम प्राण और तमसाच्छन्न भौतिक पाशविक सत्ता की त्रिविध रज्जुका--रूप धारण करती है, जिससे ऋषि शुन:शेपको बलि-पशुके रूपमें यज्ञ-स्तंभसे बांधा गया था । इसका पूरा परिणाम है सत्ताकी संघर्षरत या निष्क्रिय दीनता । मर्त्य निरानंदताकी तुच्छता और सत्ताकी अपूर्णता ही प्रतिक्षण पतनको प्राप्त होती हुई मृत्युकी ओर जा रही है । जब शक्तिशाली वरुण आता है और इस त्रिविध बंधनको काट फेंकता है तब हम ऐश्वर्य और अमरताकी ओर मुक्त हो जाते हैं । हमारे अन्दरका वास्तविक पुरुष उन्नीत होता हुआ अविभक्त सत्तामें अपने सच्चे राजत्वकी ओर उठता है । ऊर्ध्व पाश ऊपर उडता है और जीवात्माके पंखोंको अति-चेतन शिखरोंमें खोल देता है । मध्यका पाश दोनों ओर और सब ओर खुल पड़ता है,--संकुचित जीवन अपनी सीमाएँ तोड़कर सत्ताके सुखमय विस्तारमें जा मिलता है; नीचेका पाश खुलकर नीचे गिर जाता है और हमारी शारीरिक सत्ताकी मिश्रधातुको अपने साथ ले जाता है ताकि वह लुप्त हो जाए एवं निश्चेतनकी मूल धातुमें विलीन हो जाए । यह मुक्ति ही शुन:शेपके दृष्टांत तथा वरुणके प्रति उसके दो महान् सूक्तोंका आशय है ।

 

जैसे सत्तामें विद्यमान अज्ञान या असत्य--वेद साधारणतया कम गूढ़ शब्दा-वलीको पसंद करता है--पाप और तापका कारण है, उसी प्रकार ज्ञान या सत्य वह साधन है जो पवित्र और मुक्त करता है । जिस आंखसे वरुण देखता है वह है ज्योतिर्मय प्रतीकात्मक सूर्य । इस आंखके कारण ही वह पवित्र करनेवाला है । दिव्य विचारका शिक्षण देते समय जबतक वह हमारे संकल्पपर शासन नहीं करता और हमें विवेक नहीं सिखाता तबतक हम देवोंकी नौकापर आरूढ़ नहीं हों सकते और न ही उसके द्वारा सब पाप और स्सलनसे परे जीवन-सागरके पार पहुंच सकते हैं । हमारे अन्दर ज्ञान-संपन्न मनीषीके रूपमें निवास करता हुआ वरुण हमारे किए पापको काटकर पृथक् कर देता है; हमारी अज्ञानावस्थाके ऋणोंको वह अपनी राजशक्तिसे रद्द कर देता है । या एक भिन्न रूपकका प्रयोग करते हुए वेद हमें बतलाता है कि इस सम्राट्की सेवामे एक हजार चिकित्सक हैं, उनके द्वारा हमारी

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                    (पिछले पृष्ठकी टिप्पणीका शेष)

          यत्किं चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनष्याश्चरामसि ।

          अचित्ती यत् तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिष: ।।

                                                 ऋ. V11. 89.3,4,5

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मानसिक तथा नैतिक दुर्बलताओंका उपचार हो जानेपर ही हम वरुणकी विशाल और गंभीर सुमति1में एक सुरक्षित आधार पाते हैं ।

 

महान् वरुणका राजत्व है समस्त सत्तापर असीम साम्राज्य । वह है शक्तिशाली विश्व-शासक राजाधिराज, 'सम्राट्' ! उसके विशेषण और वर्णन ऐसे है जिन्हें धार्मिक और साथ-ही-साथ दार्शनिक मनवाला मनीषी बिना परिवर्तनके या बहुत ही कम परिवर्तनके साथ परम तथा वैश्व देवके लिए प्रयुक्त कर सकता है । वह साक्षात् विशालता और बहुविधता है । उसके सामान्य विशेषणोंमें कुछ ये हैं--विशाल वरुण, प्राचुर्यमय वरुण, ऐसा वरुण जिसका निवासस्थान है विस्तार, बहुत जन्मोंवाला2 वरुण । परन्तु उसकी बलशाली सत्ता न केवल एक वैश्व विस्तार है वह एक वैश्व शक्ति और सामर्थ्य भी है । वेदने उसका वर्णन ऐसे शब्दोंमें किया है जिनके दोनों अर्थ हैं--बाह्य और आंतरिक । ''तेरी शक्ति और सामर्थ्य एवं मन्यु-को न तो ये पक्षी अपने प्रयाणमें प्राप्त कर सकते हैं, न निर्निमेष गति करती हुई ये धाराएँ, और न ही वे प्राप्त कर सकते हैं जो वायुकी विपुलतामें बाधा डालते हैं''  (ऋ. 1. 24.6)3 । यह वैश्व सत्ताकी एक शक्ति है जो सब जीवधारियोंके चारों ओर और उनके अन्दर सत्रिय है । शक्ति और सत्ता-की इस विशाल विश्वमयताके पीछे विश्वमय ज्ञानकी विशाल विश्वमयता निरीक्षण और कार्य कर रही है । राजत्वका विशेषण निरंतर ही ऋषित्वके विशेषणके साथ युगल-रूपमें प्रयुक्त किया गया है, निष्प्रभाव ढंगसे नहीं अपितु प्रबल, अर्थगर्भिंत प्राचीन शैलींसे । वरुण शूरवीरकी अनेकविध ऊर्जा और मनीषीकी विशाल अभि-व्यक्तिसे संपन्न हैं : वह शक्तिकी महिमासे मंडित देवताके रूपमे हमारे पास आता है और उसी गतिमें हम उसमें विशाल- दृष्टिमय आत्मा पाते हैं ।

 

उसके लिये राजा और ऋषिके इन दो विशेषणोंके सतत संयोजनका पूरा तात्पर्य उसकी प्रभुताके द्विविध स्वरूपमें प्रकट होता है । वह है 'स्वराट्', और 'सम्राट्, आत्मशासक और सर्वशासक । आर्य राजत्वके ये दो

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1. शत ते राजन् भिषज: सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु ।

                                                ऋ. 1.24.9

2. विश्वायु । ऋ. 4.42.1

3. नहि ते क्षत्र न सहो ग मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपु: ।

   नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ।।

                                                 ऋ. 1.24.6

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पहलू हैं । मानवमें ये है विचार और कार्यकी प्रभुता एवं प्रज्ञा और संकल्पका पूर्ण वैभव; राजर्षि और वीर मनीषी । उस देवमें अर्थात् ''सर्व-शक्तिमान्, सर्वज्ञ, सहस्राक्ष सत्य-स्वरूप'' बरुणमें, ये हमें परात्पर तथा वैश्व तत्त्वों तक उठा ले जाते हैं; हम दिव्य और शाश्वत प्रभुसत्ताको, चेतनाके पूर्ण ऐश्वर्य और शक्तिके संपूर्ण वैभवको, सर्वशक्तिमान् प्रज्ञा, सर्वज्ञ शक्ति, समथित विधान और पूर्णतया चरितार्थ सत्यको प्रकाशित हुआ देखते हैं ।

 

इस भव्य परिकल्पनाके वैदिक प्रतीक वरुणका वर्णन सुन्दर ढंगसे यूं किया गया है कि वह विराट् मनीषी एवं सत्यका संरक्षक है । यह कहा गया है कि उरसीमें समस्त प्रज्ञाएं अवस्थित हैं और वहां अपने केन्द्रमें एक-त्रित हैं । वह है दिव्य द्रष्टा जो मनुष्यके क्रांतदर्शी ज्ञानोंको इस प्रकार पोषित करता है मानों द्युलोक अपना रूप विस्तारित कर रहा हो । यहां हम ज्योतिर्मय गौओंके प्रतीककी कुंजी पाते है । क्योंकि उसके विषयमें कहा पाया है कि लोकोंका आश्रयदाता वह इन तेजस्वी गौओंके गुप्त नाम जानता है और द्रष्टाओंके विचार उस विशाल दृष्टिवालेकी कामना करते हुए उसकी ओर बहुत परे जाते हैं जैसे गौएं चरागाहकी ओर जाती है । उसके विषय-में यह भी कहा गया है कि वह ज्ञानमें महिमायुक्त मरुतोंके लिए मनुष्योंके विचारोंकी इस प्रकार रक्षा करता है जैसे यूथकी गौओंकी ।

 

यह हे विचारका पक्ष; इसीके समानान्तर कार्यके पक्षके भी वर्णन पाए जाते हैं । महान् वरुण जगत्के उदीयमान विचारोंकी तरह ही उनके ऊर्ध्वीकृतु बलोंका भी आधार और केन्द्र है । अविजित क्रियाएँ जो सत्यसे स्सलित नहीं होतीं उसमें ऐंसी प्रतिष्ठित हैं जैसे कि एक पर्वतपर । क्योंकि वह परात्पर वस्तुओंको इस प्रकार जानता है, अतः वह हमारी सत्तापर सर्वोच्च प्रभुताकी महिमामयी दृष्टि डालनेमें समर्थ है और वहां वह ''जो कार्य किए जा चुके हैं और जो अभी किए जानें शेष हैं'' (ऋ. 1.25.11)1, जिन चीजोंको करना बाकी है-और जिन्हें जानना भी बाकी है उन सबको देखनेकी क्षमता रखता है । वरुणकी प्रज्ञा हमारे अन्दर उस दिव्य शब्दको घड़ती है जो अन्तःप्रेरित और अन्तर्ज्ञानमय होनेके कारण नये ज्ञानका द्वार रवोल देता है । ऋषि पुकारकर कहता है, ''हम पथके अन्वेषकके रूपमें उसकी कामना करते हैं, क्योंकि वह हृदयके द्वारा विचारको अनावृत कर देता हैं; नये सत्यका जन्म हो ।'' क्योंकि यह राजा पाशविक और मूढ़

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1. अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्याँ अभि पश्यति ।

      कृतानि या च कर्त्वा ||                    ॠ. 1. 25.11

 

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चक्रका चालक नहीं; उसके चक्र तिरर्थक विधानके निष्फल चक्र नहीं; वहां है एक पथ; वहां है एक सतत प्रगति एवं लक्ष्य ।

 

वरुण इस पथपर हमारा नेता है । शुनःशेप पुकारकर कहता है, ''संकल्पमें पूर्ण, अनन्तताका पुत्र हमें सन्मार्गसे ले चले और हमारे जीवनको आगे-आगे बढ़ाये । वरुणने अपना प्रकाशका सुनहरा वस्त्र पहन रखा है और उसके गुप्तचर उसके चारों ओर विद्यमान है '' (ऋ. 1 .25.12,।3)1 । ये गुप्तचर हमारे हृदयके वेधक, प्रकाशके प्रच्छन्न शत्रुओंको ढूंढ़ निकालते है-जो, हमारी समझमें, हृदय द्वारा सत्य-विचारके अनावरणको रोकना चाहते हैं । क्योंकि, हम इस यात्राको, जिसे हम धाराओंके प्रयाणके रूपमें देख चुके हैं, सूर्यकी यात्राके रूपमें भी देखते हैं जिसका पथ-प्रदर्शक है सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् राजा । उस बृहत्में, जहां कोई आधार नहीं है, वरुण-ने अग्निके लिए यज्ञके ईंधनका एक ऊंचा स्तूप बनाया है जो दिव्य सूर्यकी जाज्वल्यमान सामग्री ही होना चाहिये । ''उसकी किरणें नीचेकी ओर प्रेरित हैं, उनका आधार ऊपर है; ज्ञानकी उनकी अनुभूतियाँ हमारे अन्दर स्थापित हों । राजा वरुणने सूर्यके चलनेके लिए एक विशाल पथ बनाया है; जहाँ चरण रखनेकी कोई जगह नहीं वहां भी उसने उसके चरण रखने-के लिए स्थान बनाये हैं । वह हृयके वेधकोंको भी प्रकाशमें लायगा'' (ऋ. 1.24.7,8 )2 । उसकी पवित्रता है आत्माको हानि पहुंचानेवालेकी महान् भक्षिका ।

 

पथ है नए सत्य नयी शक्तियों, उच्चतर उपलब्धियों और नये लोकोंकी सतत रचना ओर निर्माण । वे सारी चोटियाँ, जिनकी ओर हम अपनी भौतिक सत्ताकी नींवसे आरोहण कर सकते हैं, एक प्रतीकात्मक अलंकारके द्वारा पृथ्वीपर विद्यमान पर्वत-शिखरोंके रूपमे वर्णितकी गई हैं तथा अन्त-दृष्टिमय वरुण उन सबको अपने अन्दर धारण करता है । किसी महान्

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1. स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्य: सुपथा करत् ।

   प्र ण आयूंषि तारिषत् ।।

   बिभ्रद् द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम् ।

   परि स्पशो नि षेदिरे ।।                 ऋ. 1.25.12,13

2. अबुध्ने राजा वरुणो वनस्थोर्ध्व स्तपं ददते पूतदक्षः ।

   नीचीना: स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिता: केतव: स्युः ।।

   उरुं हि राजा बरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ ।।

   अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित ।।

                                                .1,24.7,8

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पर्वतके एक स्तरसे उत्तरोत्तर उच्च स्तरके रूपमें लोकके बाद लोकमें पहुंचा जाता है । ऐसा कहा जाता है कि वरुणके अग्रगामी प्रयाणमें यात्रा करने-वाला पथिक उन सब वस्तुओंपर अपनी पकड़ रखता है जो किन्हीं भी भूमिकाओंमे उत्पन्न होती हैं । परन्तु उसका अन्तिम लक्ष्य देवका उच्चतम त्रिविध लोक ही होना चाहिए । ''तीन आनन्दपूर्ण उषाएं उसकी क्रियाओं के विधानके अनुसार बढ़ती हैं । सर्वदर्शी प्रज्ञासे युक्त वह देव तीन श्वेत उज्ज्वल भूमियोंमें निवास करता है । वरुणके तीन उच्चतर लोक हैं जहाँसे वह सात और सातके सामंजस्योंपर शासन करता हैं । वह उस मूलधामका निर्माता है जिसे वरुणका 'वह सत्य' कहते हैं, और वही हे संरक्षक और संचालक'' (देखो ऋ. V111. 41.9-10)1

 

तो साररूपमें, वरुण विशाल सत्ता, विशाल ज्ञान और विशाल सामर्थ्य-का द्युलोकीय, सागर-सदृश, अनन्त सराट् है, एकमेव परमात्माकी क्रिया-शील सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ताकी अभिव्यक्ति है, सत्यका शक्तिशाली संरक्षक, दंडदाता तथा उपचारकर्ता है, पाशका अधिपति व बंधनोंसे मुक्ति देनेवाला है जो विचार और क्रियाको सुदूरवर्ती व ऊर्ध्वस्थित सत्यकी विशाल ज्योति और शक्तिकी ओर ले जाता है । वरुण सब राज्यों और समस्त दिव्य और मर्त्य सत्ताओंका राजा है; पृथ्वी और द्युलोक तथा प्रत्येक लोक केवल उसीके अधिकार-क्षेत्र हैं ।

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