Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
सातवाँ अध्याय
वरुण, मित्र और सत्य
यदि सत्यका यह विचार जिसे हमने वेदके पहले-पहले ही सूक्तमें पाया है अपने अंदर वस्तुत: उस आशयको रखता है जिसकी हमने कल्पनाकी है और उस अतिमानस चैतन्यके विचार तक पहुँचता है जो अमरता या परम पदको पानेकी शर्त है और यदि यही वैदिक ऋषियोंका मुख्य विचार है तो हमें अवश्य सारे-के-सारे सूक्तोंके अंदर यह विचार बार-बार आया हुआ मिलना चाहिये, अध्यात्म-विज्ञान-संबंधी अन्य सिद्धियों तथा तदाश्रित सिद्धियोंके लिये केंद्रभूत विचारके तौरपर मिलना चाहिये । ठीक अगले ही सूक्तमें, जो इन्द्र और वायुको संबोधित किया गया मधुच्छंदसका दूसरा सूक्त है, हम एक और संदर्भ पाते हैं जो स्पष्ट और बिलकुल ही अकाटय आध्यात्मिक निर्देशोंसे भरा पड़ा है, जिसमें 'ॠतम्'का विचार अग्निसूक्तकी अपेक्षा भी अधिक बलके साथ रखा गया है । इस संदर्भम इस सूक्तकी अंतिम तीन ॠचाएँ आती हैं--
मित्र हुवे पूतदक्ष वरुणं च रिशादसम् ।
धियं घृताचीं साधन्ता ।।
ॠतेन मित्रावरुणा ॠतावृधा ॠस्पुशा ।
ॠतुं बुहन्तमाशापे ।।
कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया ।
रक्षं वधाते अपसम् ।। (1 .2. 7-9 )
इस संदर्भकी पहिली ॠचामें एक शब्द 'दक्ष' आया है जिसका अर्थ सायणने प्रायः बल किया है, पर वस्तुत: जो अध्यात्मपरक व्याख्याके योग्य है, एक महत्वपूर्ण शब्द 'घृत' आया है जो 'धृताचीं' इस विशेषणमें है और एक अपूर्व वाक्यांश है-'धियं घृचाचीम्' । शब्दशः इस ॠचाका यह अनुवाद किया जा सकता है- "मैं मित्रका आह्वान करता हूँ, जो पवित्र बलवाला (अथवा, पवित्र विवेकशक्तिवाला ) है और वरुणका जो हमारे शत्रुओंका नाशक है, (जो दोनों ) प्रकाशमय बुद्धिको सिद्ध करनेवाले (या पूर्ण करनेवाले ) है ।''
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दूसरी ऋचामें हम देखते हैं कि .'ऋत्तम्'को तीन बार दोहराया गया है और 'बृहत्' तथा 'ॠतु' शब्द आये हैं, जिन दोनोंको ही वेद की अध्यात्मपरक व्याख्यामें हम बहुत ही अधिक महत्त्व दे चुके हैं । 'ॠतु'का अर्थ यहाँ या तो यज्ञका कर्म हो सकता है या सिद्धिकारक शक्ति । पहले अर्थके पक्षमें हम वेदमें इस-जैसा ही एक और संदर्भ पाते हैं जिसमें वरुण और मित्र को कहा गया है कि वे 'ॠतु'के द्वारा यज्ञको अधिगत करते हैं या उसका भोग करते हैं, 'ॠतना यज्ञमाशाथे' (ऋ० 1-15-6) । परंतु यह. समानान्तर संदर्भ निर्णायक नहीं है; क्योंकि एक प्रकरणमें यदि स्वयं यज्ञका ही उल्लेख किया गया है, तो दूसरे प्रकरणमें उस शक्ति या बलका उल्लेख हो सकता है जिससे यज्ञ सिद्ध होता है । और यज्ञके साथ 'ॠतना' शब्द वहाँ भी है ही । इस दूसरी ऋचाका अनुवाद शब्दशः वह हो सकता है-''सत्यके द्वारा मित्र और वरुण, जो सत्यको बढानेवाले हैं, सत्यका स्पर्श करनेवाले हैं, एक वृहत् कर्मका अथवा एक विशाल (साधक ) शक्तिका भोग करते हैं (या उन्हें अधिगत करते हैं ) ।''
अंतमें तीसरी ऋचामें हमें फिर 'दक्ष' शब्द मिलता है, 'कवि' शब्द मिलता है जिसका अर्थ 'द्रष्टा' है और जिसे पहले ही मधुच्छंदस् 'ॠतु'के कर्म या संकल्पके साथ जोड़ चुका है, सत्यका विचार मिलता है और, 'उरु-क्षया' यह प्रयोग मिलता है । 'उरुक्षया'में 'उरु ( अर्थात् विस्तृत या विशाल ) 'महान्'के वाचक उस 'बृहत्'का पर्यायवाची हो सकता है जो अग्निके 'स्वकीय घर' सत्यचेतनाके लोक या स्तरका वर्णन करनेके लिये प्रयुक्त हुआ है । शब्दशः मैं इस ऋचाका अनुवाद यों करता हूं-''हमारे लिये मित्र और वरुण, जो द्रष्टा हैं, बहु-जात हैं, विशाल घरवाले हैं, उस बल (या विवेक-शक्ति ) को धारण करते हैं जो कूर्म करनेवाली है ।''
यह एकदम स्पष्ट हो जायगा कि दूसरे सूक्तके इस संदर्भमें हमें विचारों-का ठीक वही क्रम मिलता है और बहुत-से वैसे ही भाव प्रकाशित किये गये हैं जिन्हें पहले सूक्तमें हमने अपना आधार बनाया था । पर उनका प्रयोग भिन्न प्रकारका है और पवित्रीकृत विवेकका विचार, अत्यधिक प्रकाशमय बुद्धि, 'धियं घृताचीम्'का विचार और यज्ञकर्ममें सत्यकी क्रिया 'अपस्'का विचार कुछ अन्य नवीन यथार्थ तथ्योंको प्रस्तुत करते हैं, जिनसे ऋषियोंके जो केंद्रभूत विचार हैं उनपर और अधिक प्रकाश पड़ता है ।
दक्ष शब्द ही इस संदर्भमें अकेला ऐसा है जिसके आशयके संबंधमें वस्तुत: ही संदेहकी गुंजाइश हो सकती है और इसका अनुवाद सायणने प्रायश: 'बल' किया है । यह एक ऐसी धातुसे बनता है जिसका अपनी
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सजातीय अन्य धातुओंमेसे अनेकों (जैसे दश्, दिश्, दह् )की तरह मूलमें अपने विशेष अर्थोमेंसे एक अर्थ 'आक्रामक दबाव' था और इस कारण पीछे से किसी भी प्रकारकी क्षति पहुंचाना इससे प्रकट होने लगा, पर विशेषकर विभाग करने, काटने, कुचलने या कभी-कभी जलानेकी क्षति पहुंचाना । बलके वाचक बहुतसे शब्द ऐसे हैं जो मूलमें 'क्षति पहुंचानेका सामर्थ्य' इस अर्थको रखते थे, योद्धा और घातककी आक्रामक शक्तिके द्योतक थे, जो एक ऐसी शक्ति थी जिसकी आदिकालके मनुष्यके लिये बहुत अधिक कीमत थी, क्योंकि उससे वह बलके प्रयोगसे उस भूमि पर अपना स्थान बना सकता था जिसे उसने उत्तराधिकारमें पाया होता था । इस शृंखलाको हम साधारण संस्कृतके शक्तिवाची शब्द 'बलम्'में भी देखते हैं जो उसी परिवार-का है, जिसका ग्रीक शब्द 'बलो' (Ballo) जिसका अर्थ है 'प्रहार करना, और बैलोस (Belos) जिसका अर्थ है शस्त्र । 'दक्ष' शब्दका जो 'बल' अर्थ लिया जाता है उसका भी मूल यही है ।
पर विभाग करनेका यह विचार भाषा-विकासके मनोविज्ञानमें हमें एक बिल्कुल दूसरे ही विचार-क्रमकी ओर भी ले गया, क्योंकि जब मनुष्यकी यह इच्छा हुई कि उसके पास मानसिक विचारोंके लिये भी शब्द हों तो उसके पास सबसे सुलभ श्रणाली यह थी कि वह भौतिक क्रियाके रूपोंको ही मानसिक क्रियामें भी प्रयुक्त करने लगे । इस प्रकार भौतिक विभाग या पृथक्करणको मानसिक क्रियामें प्रयुक्त किया गया, जो वहाँ परिवर्तित होकर 'भेद करना' इस अर्थको देने लगा । ऐसा प्रतीत होता है कि पहले तो यह चाक्षुष प्रत्यक्षके द्वारा भेद करनेके अर्थमें प्रयुक्त हुआ और पीछेसे मानसिक पृथक्करण, विवेचन, निर्घारणके अर्थको देने लगा । इसी प्रकार 'विद्' धातु जिसका संस्कृतमें अर्थ पाना या जानना है, ग्रीक और लेटिनमें 'देखना' अर्थको देती है । दर्शनार्थक 'दृश्' धातुका मूलमें अर्थ था चीरना, फाड़ डालना, पृथक् करना; दर्शनार्थक 'पश्' धातुमें भी मूल अर्थ यही था । हमारे सामने लगभग एक-सी .ही तीन धातुएं हैं जो इस विषयमें बहुत बोध-प्रद हैं--'पिष्' चोट मारना, क्षति पहुंचाना, बलवान् होना, कुचलना, चूरा करना; और 'पिश्' रूप देना, आकृति गढ़ना निर्माण करना, घटक अवयवोंमें पृथक् होना । इन सारे अर्थोंसे पृथक् करने, विभाजित करने, काटकर टुकड़े करनेका जो मौलिक अर्थ है उसका पता चल जाता है । इसके साथ हम देखें इन धातुओंसे बने यौगिक शब्द 'पिशाच'को जो असुरके अर्थमें आता है और 'पिशुन'को . जिसका अर्थ एक तरफ तो कठोर, क्रूर, दुष्ट, धोखेबाज चुगल-
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खोर है,--ये सारे अर्थ क्षति पहुंचानेके विचारमें से ही लिये गये हैं,--तथा साथ ही दूसरी तरफ इसके अर्थ, ' सूचना देनेवाला, व्यक्त करनेवाला, दर्शाने-वाला स्पष्ट करनेवाला' भी हैं, जो कि दूसरे 'भेद'के अर्थसे निकले हैं । ऐसे ही 'कृ' धातु जिसका अर्थ क्षति पहुंचाना, विभक्त करना, बखेरना है, ग्रीक क्रिनो (Krino) में देखनेमें आती है जिसका अर्थ है मैं छानता हूं, चुनता निर्धारण करता, निश्चय करता हूं । दक्षका भी यही इतिहास है । इसका सम्बन्ध 'दश्' धातुसे है जिसका लैटिनमें एक रूप है 'डोसिओ' (Doceo) अर्थात् मैं सिखाता हूं और ग्रीक में है 'डोकिओ' (Dokeo) अर्थात् मैं विचारता, परखता हूं, गिनता हूं और 'डोकाजो' (Dokazo), मैं निरीक्षण करता हूं, सम्मति रखता हूं ।
इसी प्रकार हमारे पास इसकी सजातीय धातु 'दिश्' है, जिसका अर्थ होता है अंगुलिनिर्देश करना या सिखाना, ग्रीकमें 'डेक्नुमि' (Deiknumi) । स्वयं दक्ष शब्दके ही लगभग बिल्कुल समरूप ग्रीक 'डौक्स' (Doxa) है जिसका अर्थ होता है सम्मति, निर्णय और 'डैक्सिअस' (Dexios) है जिसका अर्थ है चतुर, कुशल, दक्षिण-हस्त । संस्कृतमें दक्ष धातुका अर्थ चोट मारना, मार डालना है, साथ ही समर्थ होना, योग्य होना भी है । विशेषणरूपमें 'दक्ष'का अर्थ होता है चतुर, प्रवीण, समर्थ, योग्य, सावधान, सचेत । 'दक्षिण'का अर्थ 'डेक्सिअस'की तरह चतुर कौशलयुक्त, दक्षिण-हस्त है, और संज्ञावाची 'दक्ष'का अर्थ बल तथा दुष्टता भी होता ही है जो चोट पहुंचानेके अर्थसे निकलता है, पर इसके अतिरिक्त इस परिवारके अन्य शब्दोंकी तरह इसका अर्थ मानसिक क्षमता या योग्यता भी होता है । हम इसके साथ 'दशा' शब्दकी भी तुलना कर सकते हैं जो मन, बुद्धिके अर्थमें आता है । इन सब प्रमाणोंको इकट्ठा कर लेने पर पर्याप्त स्पष्ट तौरसे यह निर्देश मिलता प्रतीत होता है कि एक समयमें 'दक्ष'का अर्थ विवेचन, निर्धारण, विवेचक विचारशक्ति अवश्य रहा होगा और इसका मानसिक क्षमताका अर्थ मानसिक विभाजन (विवेचन ) के इस अर्थसे लिया गया है, न कि यह बात है कि शारीरिक बलका विचार मनकी शक्तिमें बदल गया और इस तरीकेसे यह अर्थ निकला ।
इसलिये वेदमें दक्षके लिये तीन अर्थ सम्भव हो सकते हैं, सामान्यतः बल, मानसिक शक्ति या विशेषत: निर्धारणकी शक्ति-विवेचन | 'दक्ष' निरन्तर 'ॠतु'के साथ मिला हुआ आता है, ऋषि इन दोनोंको एक साथ अभीप्सा करते है 'दक्षाय ॠत्वे' (जैसे 1-111-2, 4-37-2, 5-43-5 में ) जिसका सीधा अर्थ हो सकता है, 'क्षमता और साधक शक्ति' अथवा 'विवेक
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और संकल्प' । लगातार हम इस शब्दको उन संदर्भोमें पाते है जहाँ सारा प्रकरण मानसिक व्यापारोंका वर्णन कर रहा होता है । अन्तिम बात यह है कि हमारे सामने देवी 'दक्षिणा' है जो 'दक्ष'का ही स्त्रीलिंग रूप हो सकती है, जो दक्ष अपने-आपमें एक देवता था और बादमें पुराणमें आदिम पिता, प्रजापतियोंमसे एक माना जाने लगा । हम देखते हैं कि 'दक्षिणका सम्बन्ध ज्ञानके अभिव्यक्तीकरणके साथ है और कहीं-कहीं हम यह भी पाते हैं कि उषाके साथ इसकी एकात्मता कर दी गयी है, उस दिव्य उषाके साथ जो प्रकाशको लानेवाली है । मैं यह सुझाव दूंगा कि 'दक्षिणा' अपेक्षया अधिक प्रसिद्ध 'इणा', 'सरस्वती' और 'सरमा'के समान ही उन चार देवियोंमेंसे एक है जो 'ॠतम्' या सत्यचेतनाकी चार शक्तियोंकी द्योतक है; 'इणा' सत्य-दर्शन या दिव्य स्वत:प्रकाश (Revelation)की द्योतक है; 'सरस्वती' सत्य-श्रवण, दिव्य अन्त:प्रेरणा (Inspiration) या दिव्य शब्दकी, 'सरमा' दिव्य अन्तर्ज्ञान (Intution) की और 'दक्षिणा' विभेदक अन्तर्ज्ञानमय विवेक (Separative intuitional discrimination) की । तो 'दक्ष'का अर्थ होगा यह विवेक, चाहे यह मनोमय स्तरमें होनेवाला मानसिक निर्धारण हो अथवा 'ऋतम्'के .स्तरका अन्तर्ज्ञानमय विवेचन ।
ये तीन ॠचाएं, जिनके सम्बन्धमें हम विचार कर रहे हैं, उस एक सूक्तका अन्तिम संदर्भ हैं जिसकी सबसे पहली तीन ॠचाएं अकेले वायुको सम्बोधित करके कही गयी हैं और उससे अगली तीन इन्द्र और वायुको । मन्त्रोंकी अध्यात्म-परक व्याख्याके अनुसार इन्द्र, जैसा कि हम आगे देखेंगे, मन:शक्तिका प्रतिनिधि है । ऐन्द्रियक ज्ञानकी साधनभूत शक्तियोंके लिये प्रयुक्त होनेवाला 'इंद्रिय' शब्द इस 'इन्द्र'के नामसे ही लिया गया है । उसका मुख्य लोक 'स्व:' है, इस 'स्व:' शब्दका अर्थ सूर्य या प्रकाशमान है, यह सूर्यवाची 'सूर' और 'सूर्य'का सजातीय है और तीसरी वैदिक व्याह्यति तथा तीसरे वैदिक लोकके लिये प्रयुक्त होता है जो विशुद्ध, अन्धकाररहित व अनाच्छादित मनुका लोक है । सूर्य द्योतक है 'ॠतम्'के उस प्रकाशका जो मन पर उदित होता है, स्वः:' मनोमय चेतनाका वह लोक है जो साक्षात् रूपसे इस प्रकाशको ग्रहण करता है । दूसरी ओर 'वायु'का सम्बन्ध हमेशा प्राण या जीवन-शक्तिके साथ है । यह जीवन-शक्ति हमारे नाड़ी-संस्थानको वे सारी-की-सारी वातिक क्रियाएँ प्रदान करती है जो मनुष्यके अन्दर इन्द्रके द्वारा अधिष्ठित मानसिक शक्तियोंका अवलम्ब होती हैं । इन दोनों, इन्द्र और वायुके संयोगसे ही मनुष्यकी साघारण मनोवृत्ति बनी है । इस सुक्तमें इन दोनों देवताओंको निमन्त्रित किया गया है कि वे आयें और
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दोनों मिलकर सोम-रसको पीनेमें हिस्सा लें । यह सोम-रस उस आनन्दकी मस्तीका, सत्ताके उस दिव्य आनन्दका प्रतिनिधि है जो अतिमानस चेतनासे उद्भूत होकर 'ऋतम्' या सत्यमेंसे होता हुआ मनमें प्रवाहित होता है । अपने इस कथनकी पुष्टिमें हमें वेदमें असंख्यों प्रमाण मिलते हैं; विशेषकर नवम मण्डलमें जिसमें सोमदेवताको कहे गये सौसे ऊपर सूक्तोंका संग्रह है । यदि हम इन व्याख्याओंको स्वीकार कर लें, तो हम आसानीके साथ इस सूक्तको इसके अध्यात्म-परक अर्थमें अनूदित कर सकते हैं ।
इन्द्र और वायु, सोम-रसके प्रवाहोंके प्रति चेतनामें जागृत रहते हैं ( चेतथ: ); अभिप्राय यह कि मनःशक्ति और प्राण-शक्तिको मनुष्यकी मनोवृत्तिमें एक साथ कार्य करते हुए, ऊपरसे आनेवाले इस आनन्दके, इस अमृतके, इस परम सुख और अमरताके अन्तःप्रवाहके प्रति जागृत होना है । वे उसे मनोमय तथा वातिक शक्तियोंकी पूर्ण प्रचुरतामें अपने अन्दर ग्रहण करती हैं, चेतयः सुतनां चाजिनीवसू' (पाँचवां मन्त्र ) । इस प्रकार ग्रहण किया हुआ आनन्द एक नयी क्रिया करता है, जो मर्त्यके अन्दर अमर चेतनाका सृजन करती है और इन्द्र तथा वायुको निमन्त्रित किया गया है कि वे आयें और विचारके योगदान द्वारा इन नयी क्रियाओंको शीघ्रताके साथ पूर्ण करें, आयातम् उप निष्कृतम् मक्षु घिया (छठा मंत्र ) । क्योंकि 'घी' है विचार-शक्ति, बुद्धि या समझ । यह 'घी' इन्द्र तथा वायुकी संयुक्त क्रिया द्वारा प्रदर्शित होनेवाली साधारण मनोवृत्तिके और, 'ऋतम्' या सत्य-चेतनाके मध्य- वर्तिनी है, इन दोनोके वीच में स्थित है ।
ठीक इसी स्थल पर वरुण और मित्र बीचमें आते हैं और हमारा संदर्भ शुरू होता है । अध्यात्म-सम्बन्धी उपर्युक्त सूत्रको बिना पाये इस सूक्तके पहिले हिस्से और अन्तिम हिस्सेमें परस्परसम्बन्ध बहुत स्पष्ट नहीं होता, न ही वरुण-मित्र तथा .इन्द्र-वायु इन युगलोंमें कोई. .स्पष्ट सम्बन्ध, दीखता है ।. उस सूत्रके पा लेने पर दोनों सम्बन्थ बिस्कूल स्पष्ट .हो जाते हैं; वस्तुत: वे एक दूसरे पर आश्रित हैं । क्योंकि सूक्तके पहले भागका विषय है--पहले तो प्राण-शक्तियोंकी तैयारी, जिनका द्योतक वायु है, जिस अकेले का पहिली तीन ॠचाओंमें आह्वान किया गया हैं, फिर मनोवृत्तिकी तैयारी जो इन्द्र-वायुके जोड़ेसे प्रकटकी गयी है, जिससे मनुष्यके अन्दर सत्यचेतना- की क्रियाएं हो सकें; सूक्तके अन्तिम भागका विषय है-मानसिक वृत्ति पर इस प्रकार सत्यकी क्रियाका होना जिससे कि बुद्धि पूर्ण हो और कार्यों-का रूप व्यापक हो । वरुण और मित्र उन चार देवताओंमेंसे दो हैं जो मनुष्यके .मन और स्वभावमें 'हिनेवाली सत्यकी इस क्रियाके, प्रतिनिधि हैं ।
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यह वेदकी शैली है कि उसमें जब कोई इस प्रकारका विचार-संक्रमण होता है--विचारकी एक धारा उसमेंसे विकसित हुई दूसरी धारामें बदलती है--तो उनके सम्बन्धकी कड़ी प्रायः इस प्रकार दर्शाई जाती है कि नयी धारामें एक ऐसे महत्वपूर्ण शब्दको दुहरा दिया जाता है जो पूर्ववर्ती धारा-की समाप्तिमें पहले भी आ चुका होता है । इस प्रकार यह नियम, जिसे कोई 'प्रतिध्वनि द्वारा सूचना देनेका नियम' यह नाम दे सकता है, सूक्तोंमें व्यापक रूपसे पाया जाता है और यह सभी ॠषियोंकी एक-सी पद्धति है । दो धाराओंको जोड़नेवाला शब्द यहाँ 'घी' है; जिसका अर्थ है विचार या बुद्धि- । 'घी' मतिसे भिन्न है, जो अपेक्षया अधिक साधारण शब्द है । मति . शब्दका अर्थ होता है, सामान्यतया मानसिक वृत्ति या मानसिक क्रिया, और यह कभी विचारका, कभी अनुभवका तथा कभी सारी ही मानसिक दशाका निर्देश करता है । 'घी' है विचारक मन या बुद्धि, बुद्धि (समझ )के रूपमें यह जो इसके पास आता है उसे धारण करती है, प्रत्येक वस्तुका स्वरूप निरधारित करती है और उसे उचित स्थानमें रखती है,1 अथवा यों कहना चाहिये कि 'धी' प्रायः बुद्धिकी, विशिष्ट विचार या विचारोंकी क्रियाको निर्दिष्ट करती है | विचार (धी ) के द्वारा ही इन्द्र और वायुका आवाहन किया गया है कि वे आकर वातिक (प्राणमय ) मनोवृत्तिको पूर्णता प्राप्त करायें, निष्कृतं धिया । पर यह उपकरण 'विचार, स्वयं ऐसा है जिसे पूर्ण करनेकी, समृद्ध करनेकी, शुद्ध करनेकी आवश्यकता है, इससे पहिले कि मन सत्यचेतनाके साथ निर्बाध संसर्ग करनेके योग्य हो सके । इसलिये वरुण और मित्रका, जो सत्यकी शक्तियाँ है, इस रूपमें आवाहन किया गया है कि वे 'एक अत्यधिक प्रकाशमय विचारको पूर्ण करनेवाले, धियं धृताचीं साधन्ता हैं ।
वेदमें यहीं पहले-पहल धृत शब्द आया है, एक प्रकारसे परिणत हुए विशेषणके रूपमें आया है और यह अर्थपूर्ण वात है कि वेदमें बुद्धिके लिये प्रयुक्त होनेवाले शब्द 'घी'का विशेषण होकर आया है । दूसरे संदर्भोंमें भी हम इसे सतत रूपसे 'मनस्', 'मनीषा' शब्दोंके साथ संबद्ध पाते हैं अथवा उन प्रकरणोंमें देखते हैं जहां विचारकी किसी क्रियाका निर्देश है । 'घृ' धातुसे एक तेज चमक या प्रचण्ड तापका विचार प्रकट होता है, वैसी चमक या तापका जैसा अग्नि या ग्रीष्मकालीन सूर्यका होता है । इसका अर्थ सिंचन या अभ्यंजन भी है जो ग्रीक थातु 'क्रिओ' (chrio) का अर्थ है । एवं
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1. 'धी' धातुका अर्थ होता है धारण करना या रखना |
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इसका प्रयोग किसी तरल (क्षरित होनेवाले ) पदार्थके किये हो सकता है, पर मुख्यतया चमकीले, घने द्रवके लिये । तो इन दो संभावित अर्थोंके कारण घृत शब्दकी जो द्वचर्थकता है उसका ऋषियोंने यह लाभ उठाया कि बाह्य रूपसे तो इस शब्दसे यज्ञमें काम आनेवाला घी सूचित हो और आभ्यन्तर रूपमें मस्तिष्क-शक्ति, मेधाकी समृद्ध और उज्ज्वल अवस्था या क्रिया जो प्रकाशमय विचारका आधार और सार है । इसलिये धियं धुताचीम्से अभिप्राय है वह बुद्धि जो समृद्ध और प्रकाशमय मानसिक क्रियासे भरपूर हो ।
वरुण और मित्रकी जो बुद्धिकी इस अवस्थाको सिद्ध या परिपूर्ण करते हैं, दो पूथक्-पूथक् विशेषणोंसे विशेषता बतायी गयी है । मित्र है पूतदक्ष, एक पवित्रीकृत विवेकसे मुक्त, वरुण रिशादस् है, सब हिंसकों या शत्रुओंका विनाश करनेवाला है । वेदमें कोई भी विशेषण सिर्फ शोभाके लिये नहीं लगाया जाता । प्रत्येक शब्द कुछ अभिप्राय रखता है, अर्थमें कुछ नयी बात जोड़ता है और जिस वाक्यमें यह आता है, उस वाक्यसे प्रकट होनेवाले विचारके साथ इसका घनिष्ठ संबंध होता है । दो बाधाएँ हैं जो बुद्धिको सत्य-चेतनाका पूर्ण और प्रकाशमय दर्पण बननेसे रोकती हैं । पहली तो है विवेक या विवेचनाशक्तिकी अपवित्रता जिसका परिणाम सत्यमें गड़बड़ी पड़ जाना होता है | दूसरे वे अनेक कारण या प्रभाव है जो सत्यके पूर्ण प्रयोगको सीमामें बाँधकर अथवा इसे व्यक्त करनेवाले विचारोके संबंधों और सामजस्योंको तोड़कर सत्यकी वृद्धिमें हस्तक्षेप करते हैं और इस प्रकार, परिणामत:, इसके विषयोंमें दरिद्रता तथा मिथ्यापन ले आते हैं । जैसे देवता वेदमें सत्य-चेतनासे अवतरित हुई उन सार्वत्रिक शक्तियोंके प्रतिनिधि हैं तो लोकोंके सामंजस्यका और मनुष्यमें उसकी वृद्धिशील पूर्णताका निर्माण करती हैं, ठीक वैसे ही जो विरोधी शक्तियाँ इन उद्देश्योंके विरोधमें काम करनेवाले प्रभावोंका प्रतिनिधित्व करती हैं वे 'दस्यु' और 'वृत्र' हैं, जो तोड़ना, सीमित करना, रोक रखना और निषेध करना चाहती हैं । वरुणकी वेदमें सर्वत्र यह विशेषता दिखलाई गयी है .कि वह विशालता तथा पवित्रताकी शक्ति है, इसलिये जब वह मनुष्यके अंदर सत्यकी जागृत शक्तिके रूपमें आकर उपस्थित हो जाता है तब उसके संस्पर्शसे वह सब के दोष, पाप, बुराईके प्रवेश द्वारा स्वभावको सीमित करनेवाला और क्षति पहुँचानेवाला होता है, विनष्ट हो जाता है । वह 'रिशादस्' है, शत्रुओंका उन सबका जो वृद्धिको रोकना चाहते हैं, विनाश करनेवाला है । मित्र जो वरुणकी तक प्रकाश और सत्यकी एक शक्ति है, मुख्यतया प्रेम, आह्वाद, समस्वरताका धोतक है, जो वैदिक नि:श्रेय 'मयस्'का आधार हैं | वरुणकी पवित्रताके
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साथ कार्य करता हुआ और उस पवित्रताको विवेकमें जाता हुआ वह विवेकको दस योग्य कर देता है कि यह सब बेसुरेपन और गड़बड़ीसे मुक्त हो जाय तथा दृढ़ और प्रकाशमय बुद्धिके सही व्यापारको स्थापित कर सके ।
यह प्रगति सत्यचेतनाको, 'ॠतेन', मनुष्यकी मनोवृत्तिमें कार्य करने योग्य बना देती है । सत्यरूपी साधनसे, 'ॠतेन', मनुष्यके अन्दर सत्यकी क्रियाको बढ़ाते हुए, 'ऋतावृधा', सत्यका स्पर्श करते हुए या सत्य तक पहुँचते'हुए, अभिप्राय यह कि मनोमय चेतनाको सत्यचेतनाके साथ सफल संस्पर्शके योग्य और उस सत्यचेतनाको अधिगत करने योग्य बनाते हुए, ऋतस्पृशा', मित्र और वरुण विशाल कार्यसाधक संकल्पशक्तिको उपयोगमें लानेका आनंद लेने योग्य होते हैं, ॠतुं बृहन्तम् आशाषे । क्योंकि संकल्प ही आभ्यन्तर यज्ञका मुख्य कार्य-साधक अंग है, परन्तु संकल्प ऐसा जो सत्यके साथ समस्वर है और इसीलिये जो पवित्रीकृत विवेक द्वारा ठीक मार्ग में प्रवर्तित है । यह संकल्प जितना ही अधिकाधिक सत्यचेतनाके विस्तारमें प्रवेश करता है, उतना ही वह स्वयं भी विस्तृत और महान् होता जाता है, अपने दृष्टिकोणकी सीमाओंसे तथा अपनी कार्यसिद्धिमें रुकावट डालनेवाली बाधाओंसे मुक्त होता जाता है । यह कार्य करता है ''उरौ अनिबाधे'', उस विस्तारमें जहाँ कोई भी बाधा या सीमाकी दीवार नहीं है ।
इस प्रकार दो अनिवार्य चीजें जिनपर वैदिक ऋषियोंने सदा बल दिया है, प्राप्त हो जाती हैं, प्रकाश और शक्ति, ज्ञानमें कार्य करता हुआ सत्यका प्रकाश, धियं धृताचीम्, और कार्यसाधक तथा प्रकाशमय संकल्पमें कार्य करती हुई सत्यकी शक्ति, ॠतुं बृहन्तम् । परिणामतः, सूक्तकी अन्तिम ॠचामें मित्र और वरुणको अपने सत्यके पूर्ण अर्थमें कार्य करते हुए दर्शाया गया है, कवी तुविजाता उरुक्षया । हम देख चुके हैं कि 'कवि'का अर्थ है सत्यचेतनासे युक्त और दर्शन, अन्तःप्रेरणा अन्तर्ज्ञान, विवेककी अपनी शक्तियोंका उपयोग करनेवाला । 'तुविजार्ता' है "बहुरूपमें उत्पन्न" , क्योंकि 'द्युवि' जिसका मूल अर्थ है बल या शक्ति, फ्रेंच शब्द फोर्स (Force) के समान 'बहुत'के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । पर देवताओंके उत्पन्न होनेका अभिप्राय वेदमें हमेशा उनके अभिव्यक्त होनसे होता है, इस प्रकार 'तुविजाता' का अभिप्राय निकलता है ''बहुत प्रकारसे अभिव्यक्त हुए" , बहुत-से रूपोंमें और बहुत-सी क्रियाओंमें अभिव्यक्त हुए । 'उरुक्षया'का अर्थ है विस्तारमें निवास करनेवाले, यह एक ऐसा विचार है जो वेदमें बहुधा आता है, 'उरूं' बृहत् अर्थात् महान्का पर्यायवाची है और यह सत्यचेतनाकी निःसीम स्वाधीनताको सूचित करता है ।
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इस प्रकार 'ॠतम्,की बढ़ती हुई क्रियाओंका परिणाम हम यह पाते हैं कि मानवसत्तासामें विस्तार और पयित्रताकी, आह्लाद और समस्वरताकी शक्तियोंका व्यक्तिकरण होता जाता है, एक ऐसा व्यक्तिकरण जो रूपोंमें समृद्ध, 'ॠतम्'कीं विशालतामें, प्रतिष्ठित और अतिमानस चेतनाकी शक्तियोंका उपयोग करनेवाला होता है ।
सत्यकी शक्तियोंका यह व्यक्तीकरण, जिस समय यह कार्य कर रहा होता है, विवेकको घारित करता है. या इसे दृढ़ करता है, 'दक्षं दषाते अपसम्' । विवेक को अब पवित्र और सुधृत हो गया है, सत्यकी शक्तिके रूपमें सत्यकी भावनामें कार्य करता है और विचार तथा संकल्प को उन सब. त्रुटियों तथा गड़वड़ियोंसे मुक्त करता है जो उनकी क्रिया. और परिणामों में आनेवाली होती है और इस प्रकार इन्द्र और वायुकी क्रियाओंकी पूर्वताको सिद्ध करता है ।
इस संदर्भके पारिभाषिक शब्दोंकी हमने जो व्यख्याकी है उसे पुष्ट करनेके लिये हम चौथे मण्डलके दसवें सूक्तफी एक ॠचा उद्घृत कर सकते हैं ।.
अधा ह्यग्ने ॠतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधो: ।
रथीॠतस्य बृहतो वभूय ।। ४.१०. २
''वस्तुत: तभी, हे अग्ने, तू सुखमय संकल्पका सिद्ध करनेवाले विवेकका, विशाल सत्यका रथी होता है ।'' यहां हम यही विचार पाते हैं जो प्रथम मण्डलके पहिले सूक्तमें है अर्थात् कार्यसाधक संकल्पका जो सत्यचेतनाका स्वभाव है, 'कविॠतु: ', और इसलिये जो महान् सुखकी एक अवस्थामें भलाई को 'भद्रम्'को निष्पन्न करता है । 'दक्षस्य साधो:' इस वाक्यांशमें हम दूसरे सूक्तके अन्तिम वाक्यांश, 'दक्षम् अपसम्'का एक मिलता-जुलता रूप तथा स्पष्टीकरण पाते हैं, 'दक्षस्य साधो:'का अर्थ है वह विवेक जो मनुष्यमें आन्तरिक कार्यको पूर्ण और सिद्ध करता है । वृहत् सत्यको हम इन दो क्रियाओंकी, बलक्रिया और ज्ञानक्रियाकी, संकल्प और विवेककी, 'ॠत' और 'दक्ष'की पूर्णावस्थाके रूपमें पाते हैं ।
इस प्रकारके एक-सी संज्ञाओंको. और एक-से विचारोंको तथा विचारोंके एक-से परस्पर संबंधको फिर-फिर प्रस्तुत करते हुए वैदिक सूक्त सदा एक-दूसरेको पुष्ट करते हैं । यह सम्भव नहीं हो सकता था यदि उनका आधार कोई ऐसा सुसम्बद्ध न होता जिसमें इस प्रकारको स्थायी संज्ञाओं जैसे कवि, क्षतु, दक्ष, ॠतम्, आदिके कोई निश्चित ही अर्थ होते हों । स्वयं ॠचाओंकी अन्त:साक्षी ही इस बातको स्थापित कर देती है कि उनके ये अर्थ आध्यात्म-
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परक हैं, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो परिभाषाएं, संज्ञाएं अपने निश्चित महत्त्वको, नियत अर्थको और अपने आवश्यक पारस्परिक संबंधको खो देती हैं, और एक दूसरेके साथ संबद्ध होकर उनका बार-बार आना केवल आकस्मिक तथा युक्ति या प्रयोजनसे शून्य हो जाता है ।
तो हम यह देखते हैं कि दूसरे सूक्तमें हम फिर उन्हीं प्रधान नियामक विचारोंको पाते हैं जिन्हें पहले सूक्तमें । सब कुछ अतिमानस या सत्यचेतना के उस केन्द्रभूत वैदिक विचारपर आश्रित है जिसकी ओर कि क्रमशः पूर्ण होती जाती हुई मानविय मनोवृत्ति इस रूपमें पहुंचनेका यत्न करती है कि वह परिपूर्णताकी ओर और अपने लक्ष्यकी ओर जा रही है । प्रथम सूक्तमें इसका प्रतिपादन केवल इस रूपमें किया गया है कि यह यज्ञका लक्ष्य है और अग्निका विशेष कार्य है । दूसरा सूक्त मनुष्यकी साधारण मनोवृत्तिकी तैयारीके प्राथमिक कार्यका निर्देश करता है, यह तैयारी इन्द्र और वायु द्वारा, मित्र और वरुण द्वारा आनन्दकी शक्तिसे और सत्यकी प्रगतिशील वृद्धिसे संपन्न की आती है ।
हम यह पायेंगे कि सारा-का-सारा ॠग्येद क्रियात्मक रूपसे इस द्विविध विषयपर ही सतत रूपसे चक्कर काट रहा है, मनुष्यकी अपने मन और शरीरमें तैयारी और सत्य तथा नि:श्रेयसकी प्राप्ति और विकासके द्वारा अपने अन्दर देवत्व या अमरत्वकी परिपूर्णता साधित करना |
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