वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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पाँचवाँ अध्याय

 

वेदकी भाषावैज्ञानिक पद्धति

 

वेदकी कोई भी व्याख्या प्रामाणिक नहीं हो सकती, यदि वह सबल तथा सुरक्षित भाषावैज्ञानिक आधारपर टिकी हुई न हो,  तो भी यह धर्म-पुस्तक (वेद ) अपनी उस धुंधली तथा प्राचीन भाषाके साथ जिसका केवलमाक् यही लेख अवशिष्ट रह गया है अपूर्व भाषा-सम्बन्घी कठिनाइयोंको प्रस्तुत करती है । भारतीय विद्वानोंके परम्परागत तथा अधिकतर काल्पनिक अर्थोपर पूर्णरूपसे विश्वास कर लेना किसी भी समालोचनाशील मनके लिये असम्भव है । दूसरी तरफ आधुनिक भाषा-विज्ञान यद्यपी अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और वैज्ञानिक आघारको पानेके लिये प्रयत्नशील है, पर अभी तक वह इसे पा नहीं सका है ।

 

वेदकी अध्यात्मपरक व्याख्यामें विशेषतया दो कठिनाइयाँ ऐसी हैं झिनका सामना केवलमात्र सन्तोषप्रद भाषावैज्ञानिक समाधानके द्वारा ही किया जा सकता है । पहली यह कि इस व्याख्यापद्धतिको वेदकी बहुत-सी नियत संज्ञाओं के लिये-उदाहरणार्थ, ऊति अवस्, वयस् आदि संज्ञाओंके लिये-कई नये अर्थोंको स्वीकार करनेकी आवश्यक्ता पड़ती है । हमारे ये नये अर्थ एक परीक्षामें तो पूरे उतरते हैं,  जिसकी न्यायोचित रूपसे मांगकी जा सकती है,  अर्थात् वे प्रत्येक प्रकरणमें ठीक बैठते हैं,  आशय को स्पष्ट कर देते हैं और हमें इससे मुक्त कर देते हैं कि वेद जैसे अत्यधिक निश्चित स्वरूंपवाले ग्रन्थमें हमें एक ही संज्ञाके बिल्कुल भिन्न-भिन्न अर्थ करनेकी आवश्यकता पड़े । परन्तु यही परीक्षा पर्याप्त नहीं है । इसके अतिरिक्त, अवश्य ही हमारे पास भाषाविज्ञानका आधार भी होना चाहिये, जो न केवल नये अर्थका समाधान करे, परन्तु साथ ही इसका भी स्पष्टीकरण कर दे कि किस प्रकार एक ही शब्द इतने सारे भिन्न-भिन्न .अर्थोंको देने लगा--इस .अर्थको जो अध्यात्मपरक व्याख्याके अनुसार होता है,  उन अर्थोंको जो प्राचीन वैयाकरणोंने किये है और उन अर्थोंको भी जो ( यदि वे कोई हों ) वदकी संस्कृतमें हो गये हैं । परंतु यह तबतक आसानीसे नहीं हो सकता जबतक हम अपने. भाषाविज्ञानसम्बन्धी परिणामोंके लिये उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक आधार नहीं पा लेते जो हमारे अबतकके ज्ञानसे प्राप्त है |

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दूसरे यह कि अध्यात्मपरक व्याख्याका सिद्धांत अधिकतर मुख्य शब्दोंके--उन शब्दोके जो रहस्यमय वैदिक शिक्षामें कुञ्जीरूप शब्द है-द्वयर्थक प्रयोग पर आश्रित है । यह वह अलंकार है जो परम्परा द्वारा संस्कृतसाहित्यमें भी आ गया है और कहीं कही पीछेके संस्कृतग्रंथोंमे अत्यधिक कुशलताके साथ प्रयुक्त हुआ है, यह है श्लेष या द्विविघ अर्थका अलंकार । परन्तु इसकी यह कुशलतापूर्ण. कृत्रिमता ही हमें यह विश्वास करनेके लिये प्रवृत्त करती है कि यह कवितामय चातुर्य अवश्य ही अपेक्षाकृत उत्तरकालका तथा अधिक मिश्रित व कृत्रिम सांस्कृतिका होना चाहिये । तो अधिकतम प्राचीन कालके किसी ग्रन्थमें इसकी सतत रूपसे उपस्थितिका हम कैसे समाधान कर सकते हैं ? इसके अतिरिक्त वेदमें तो हम इसके प्रयोगको अद्भूत रूपसे फैला हुआ पाते हैं; वहाँ संस्कृत धातुओंकी "'अनेकार्थता"  के नियमको जानबूझकर इस प्रकार प्रयुक्त किया गया है जिससे एक ही शब्दमें जितने भी सम्भव अर्थ हो सकते हैं वे सब-के-सब आकर संचित हो जायँ, और इससे, प्रथम दृष्टिमें ऐसा लगता है कि, हमारी समस्या और भी असाधारण रूपसे बढ़ गयी है ।

 

उदाहरणके तौर पर 'अश्व' शब्द जिसका साधारणतः : घोड़ा अर्थ होता है, आलंकारिक रूपसे प्राणके लिये प्रयुक्त हुआ है--प्राण जो कि वात-शक्ति है जीवन-श्वास है, मन तथा शरीरको जोड़नेवाली एक अर्धमासिक, अर्धभौतिक  क्रियामयी शक्ति है । 'अश्व' शब्दके धात्वर्थसे इसके अन्य अभिप्रायोंके साथ-साथ प्रेरणा, शक्ति, प्राप्ति  और सुख-भोगके भाव भी निकलते है और इन सभी अर्थोंको |  हम जीवनरूपी अश्व ( घोड़े ) में एकत्रित हुआ! पाते हैं,  ये सब अर्थ प्राण-शक्तिकी मुख्य--मुख्य प्रवृत्तियोंको सूचित करते हैं |  भाषफा इस प्रकारका प्रयोग संभव नहीं हो सकता था, यदि हमारे आर्य पुर्वजोंकी भाषा उन्हीं रूढ़ अर्थोंको देती होती जिन्हें हमारी आधुनिक भाषा देती है अथवा यदि वह विकासकी उसी अवस्थामें होती जिसमें हमारी वर्तमान भाषा है |  पर यदि हम यह कल्पना कर सकें कि प्राचीन आर्योंकी भाषामें, जैसे कि यह वैदिक ऋषियोंके द्वारा प्रयुक्तकी गयी है, कोई विशेषता थी जिसके द्वारा शब्द अपेक्षाकृत अधिक सजीव अनुभूत होते थे,  वे विचारोंके लिये केवलमात्र रूढ़ सांकेतिक शब्द नहीं थे, अर्थको संक्रान्त करनेमें उसकी अपेक्षा अधिक स्वतंत्र थे जैसे कि वे हमारी भाषाके वादके प्रयोगमें हैं,  तो हम यह पायंगे कि ये शब्दरूपी साधन इनका प्रयोग करनेवालोंके लिये जरा भी कृत्रिम अथवा खींचातानीसे युक्त नहीं थे, बल्कि ये तो इस वातके सर्वप्रथम स्वाभाविक साधन थे कि ये उत्सुक मनुष्योंको उन आध्यात्मिक विचारोंको व्यक्त करनेके लिये जो प्राकृत मनुष्योंकी समझके बाहर हैं,  एकदम

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नवीन, संक्षिप्त और यथोचित भाषासूत्रोंको पकड़ा दें और उन .सूत्रोंमें जो विचार अंतर्निहित हैं,  उन्हें ये अधार्मिक बुद्धिवालोसे छिपाये रखें । मेरा विश्वास है कि. यही सच्चा स्पष्टीकरण है .और मैं समझता हूं कि यदि हम आर्योंकी भाषाके विकासका अध्ययन करें तो यह सिद्ध हो सकता है कि अवश्य भाषा उस अवस्थामेंसे गुजरी है जो शब्दोंके इस प्रकारके रहस्यमय तथा अध्यात्मपरक प्रयोगके किबे अद्भुत रूप से अनुकूल थी,  यद्यपि ये शब्द वैसे अपने प्रचलित व्यवहारमें एक सरल,  निश्चित तथा भौतिक अर्थ को देते थे |

 

यह मैं पहिले ही बतला चुका हूँ कि तामिल शब्दोके मेरें सर्वप्रथम अध्ययनने मुझे वह चीज प्राप्त करा दी थी जो प्राचीन संस्कृतभाषाफे उद्गमों तथा उसकी बनावटका पता देनेवाला सूत्र प्रतीत होती थी और यह सूत्र मुझे यहाँ तक ले गया कि मैं अपनी रुचिके मूल विषय 'आर्य तथा द्राविड़ भाषाओंमें संबंध'को बिलकुल ही भूल गथा और एक उससे भी अघिक रोचक विषय 'मानवीय भाषाके ही उद्गमों और उसके विकासके नियमोंके अन्वेषण'  में तल्लीन हो गया । मुझे लगता है कि यह महान् परीक्षा ही किसी भी सच्चे भाषाविज्ञानका सर्वप्रथम और मुख्य लक्ष्य होना चाहिये,  न कि ये सामान्य बातें जिनमें भाषाविज्ञ विद्धानोंने अभीतक अपने-आपको बांध रखा है ।

 

 आघुनिक भाषाविज्ञानके जन्मके समय जो प्रथम आशाएँ इससे लगायी गयी थीं उनके पूर्ण न होनेके कारण, इसके सारहीन परिणामोंके कारण, इसके एक ''क्षुद्र कल्पनात्मक विज्ञान" के रूपमें आ निकलनेके कारण, अब भाषका भी कोई विज्ञान है इस विचारक़ो उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा जाने लगा .है और इसकी संभवनीयता ही से विलकुल इन्कार किया जग्ने जगा है, यद्यपि इसके लिये युक्तियां बिलकुल अपर्याप्त हैं । इस. प्रकार इसके अंतिम रूपमें इन्कार कर दिये जानेसे सहमत होना मुझे असंभव प्रतीत होता है । यदि कोई एक वस्तु ऐसी है जिसे आधुनिक विज्ञानने सफलताके साथ स्थापित कर दिया है, तो वह है संपूर्ण पार्थिव वस्तुओंके इतिहासमें विकासकी प्रक्रिया तथा नियमका शासन । भाषाका गभीरतर स्वभाव कुछ भी हो, मानवीय भाषाके रूपमें अपनी बाह्य अभिव्यक्तियोंमें यह एक सावयव रचना है,  एक वृद्धि है,  एक लौकिक विकास है । वस्तुत: ही इसके अंदर एक स्थिर मनोवैज्ञानिक तत्व  है और इसलिये यह विशुद्ध भौतिक रचनाकी अपेक्षा अधिक स्वतंत्र,  लच-कीली और ज्ञानपूर्वक अपने-आपको परिस्थितिके अनुकूल कर लेनेवाली है; इसके रहस्यको समझना अपेक्षाकृत अधिक कठिन है, इसके घटकोंको केवल अपेक्षया अधिक सूक्ष्म तथा कम तीक्ष्ण विश्लेषण-प्रणालियोंके द्वारा ही काबू  किया

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जा सकता है । परंतु नियम तथा प्रक्रिया मानसिक वस्तुओंमें भौतिक वस्तुओंकी अपेक्षा किसी हालतमें कम नहीं होते,  यद्यपि ऐसा है कि यहां वे अपेक्षाकृत अधिक चंचल और अधिक परिवर्तनशील प्रतित होते हैं । भाषाके उद्यम और विकासके भी अवश्य ही कोई नियम और प्रक्रिया होने चाहियें । आवश्यक सूत्र और पर्याप्त प्रमाण यदि मिल जायं तो वे नियम और प्रक्रिया पता लगाये जा सकते हैं । मुझे प्रतीत होता है कि संस्कृत- भाषामें वह सूत्र मिल सकता है, प्रमाण वहाँ तैयार रखे हैं कि उन्हें खोज निकोला जाय ।

 

भाषाविज्ञानकी भूल, जिसने इस दिशामें अपेक्षाकृत अघिक संतोषजनक परिणामपर पहुंचनेसे इसे रोके रखा, यह थी कि इसने अपने आपको व्यवहृत भाषाके भौतिक अंगोंके विषयमें भाषाके बाह्य शब्दरूपोंके अध्ययनमें ही लगाये रखा, इसी प्रकार भाषाके मनोवैज्ञानिक अंगोंके विषयमें भी रचित शब्दोके तथा सजातीय भाषाओंमें व्याकरणसंबंधी विभक्तियोंके बाह्य संबंधों-में ही अपने-आपको व्यापृत .रखा । परंतु विज्ञानकी वास्तविक पद्धति तो है मूल तक. जा पहुंचना, गर्भ तक, घटनाओंके तत्त्वों तक तथा उनकी अपेक्षा-कृत छिपी  हुई विकासप्रक्यिाओं,  तक पहुंच जाना । बाह्य प्रत्यक्ष दृष्टिसे तो हम स्थूल दृष्टिसे दीखनेवाली तथा ऊपर-ऊपरकी वस्तुको ही देख पायेंगे, । घटनाओंफें गंभीर तत्वोंको,  उनके वास्तविक तथ्योंको ढूंढ़ निकालनेका सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन छिपे हुए रह्स्योंके अंदर प्रवेश किया जाय जो घटनाओंके बाह्य रूपसे ढके रहते हैं, पहले हो चुके उनके उस विकासके अंदर घुसकर देखा जाय जिसके विषयमें उनके ये वर्तमान परिसमाप्त रूप केवल गूढ़ तथा विकीर्ण निर्देशोंको ही देते हैं,  अथवा उन संभावनाओंके अंदर प्रवेश किया जाय जिनमेंसे आये कुछ वास्तविक तथ्य जिन्हें हम देखते है। केवल एक संकुचित चुनाव ही होते हैं । इस प्रकारकी प्रणाली ही यदि .चह मानव-भाषाके प्राचीनरूपोंपर प्रयुक्तकी जाय तो,  हमें भाषाके एक सच्चे, विज्ञानको दे सकती है । इन रूपरेखाओंके आधारपर मैने जो कार्य करनेका यत्न किया है उसके परिणामोंको इस लैखामालाके, जो स्वयं ही  छोटी-सी है और जिसका असली विषय दूसरा है, एक छोटेसे अध्यायमें उपस्थित क़रना जरा भी संभव नहीं है ।1  मैं केवल संक्षेपसे एक या दो विशिष्ट अंगोंका ही दिग्दर्शन करा सकता हूं, जो सीघे तौर पर वैदिक

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 1. मेरा विचार है कि मैं इनपर एक पृथक ही पुस्तकमें जो 'आर्यों की भाषाके  उद्-गमों'  के संबंध होगा, चर्चा करूंगा  । ( देखो परिशिष्ट )

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व्याख्याके विषय पर लागू होते हैं । और यहाँ मैं उनका उल्लेख केवल इसलिये करूंगा कि मेरे पाठकोंके मनमें से ऐसी किसी भी धारणाका परिहार हो सके कि मैने जो किन्हीं वैदिक शब्दोंके ठीक माने जानेवाले अर्थो-को स्वीकार नहीं किया है वह मैंने केवल उस बुद्धिपूर्ण अटकल लगानेकी स्वाधीनताका लाभ उठाया है जो आधुनिक भाषाविज्ञानके जहां बड़े  भारी आकर्षणोंमेंसे एक है, यहाँ साथ-ही-साथ उस भाषाविज्ञानकी सबसे अधिक गंभीर कम जोरियोमेंसे भी एक है ।
 

मेरे अन्वेषणोंने प्रथम मुझे यह विश्वास करा दिया कि शब्द पौधोंकी तरह, पशुओंकी तरह, किसी भी अर्थमें कृत्रिम उत्पत्ति नहीं हैं, किन्तु उपचय हैं वृद्धि है-ध्वनिकी सजीव बृद्धि हैं और कुछ एक बीजभूत ध्वनियाँ उनका आधार हैं । इन बीजभूत ध्वनियोंसे कुछ प्रारंभिक मूलशब्द अपनी संततियों सहित विकसित होते हैं जिनकी परंपरागत पीढ़ियाँ चलती हैं और जो जातियोमें, वर्गोंमें, परिवारोंमें, चुने हुए गणोंमें, अपने-आपको व्यवस्थित कर लेते हैं, जिनमेंसे प्रत्येकका एक साधारणा शब्द-भण्डार तथा साधाया मनो-वैज्ञानिक इतिहास होता है । क्योंकि भाषाके विकास पर अधिष्ठान करने-वाला तत्त्व है साहचर्य-किन्हीं सामान्य अभिप्रायोंका, वरंच किन्हीं साभान्य उपयोगिताओं तथा ऐन्द्रियक मूल्योंका स्पष्ट विविक्त ध्वनियोंके साथ साहचर्य, जो आदिकालके मनुष्यके नाड़ीप्रधान (प्राण-प्रधान ) मनके द्वारा स्थापित किया जाता था । यह साहचर्यकी पद्धति भी किसी भी अर्थमें कृत्रिम नहीं बल्कि स्वाभा-विक होती थी और सरल तथा निश्चित मनोवैज्ञानिक नियमोंसे नियंत्रित थी |

 

 

अपनी प्रारम्भिक अवस्थाओंमें भाषा-ध्वनियां उसे व्यक्त करनेके काममें नहीं आती थीं जिसे हम विचारके नामसे कहते हैं; बल्कि वे किन्हीं सामान्य इंद्रियानुभवो तथा भावावेशोंके शाब्दिक पर्याय थीं । भाषाकी रचना करनेवाले थे ज्ञानतन्तु, न कि बुद्धि । वैदिक प्रतीकोंका प्रयोग करें तो  'अग्नि', और 'वायु', न कि 'इंद्र', मानवीय भाषाके आदिम रचयिता थे । मन निकला है प्राणकी तथा इन्द्रियानुभवकी क्रियाओंमेंसे । मनुष्यमें रहने- वाली बुद्धिने अपना निर्माण इन्द्रियकृत साहचर्यों तथा ऐन्द्रियक ज्ञानकी प्रतिक्रियाओंके आधार पर किया हैं । इसी प्रकारकी प्रक्रियाद्वारा भाषाका बौद्धिक प्रयोग इंद्रियानुभव-सम्बन्धी तथा भावावेशसम्बन्धी प्रयोगमेंसे एक स्वाभाविक नियमके द्वारा विकसित हुआ है । शब्द अपनी प्रारम्भिक अवस्था में इंद्रियानुभवों व अर्थोंकी अस्पष्ट संभावनासे भरे, प्राणप्रेरित आत्म-निस्सरण-रूप थे । पीछे वे विकसित होकर ठीक-ठीक बौद्धिक अर्थोंके नियत प्रतिकोंके रूपमें परिणित हो गये हैं |

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फलतः, शब्द प्रारम्भमें किसी निश्चित. विचारके लिये नियत नहीं किया हुआ था । इसका एक सामान्य स्वरूप था, सामान्य 'गुण' था, जो बहुत प्रकारसे प्रयोगमें लाया जा सकता था और इसीलिये बहुतसे सम्भव अर्थोंको दे सकता था । और अपने इस 'गुण'को तथा इसके परिणामोंको यह अनेक सजातीय ध्वनियोंके साथ साझेमें रखता था, इसमें अनेक सजातीय ध्यनियां भागीदार होती थीं । इसलिये सर्वप्रथम शब्दवर्गोंने, अनेक शब्दपरिवारोंने एक प्रकारकी सामाजिक ( सामुदायिक ) पद्धतिसे अपना जीवन प्रारम्भ किया जिसमें उनके लिये .संभव तथा सिद्ध अर्थोंका एक सर्वसाधाया भंडार था और उन अर्थोंके  प्रति सबका एक-सा सर्वसाधारणा अधिकार था । उनका व्यक्तित्व किसी एक ही विचारको अभिव्यक्त करनेके एकाधिकारमें नहीं, किन्तु इससे कहीं अधिक उसी एक. विचारके अभिव्यक्त करनेके अपने छायाभेदमें प्रकट होता था ।
 

 

भाषाका प्राचीन इतिहास एक विकास है, जो शब्दोंके इस सामाजिक  ( सामुदायिक.) पद्धतिके जीवनसे निकलकर एक या अधिक बौद्धिक अर्थोंको रखनेकी एक वैयक्तिक संपत्तिकी पद्धति तक आनेमें हुआ है । अर्थ-विभाग का नियम पहले-पहल बहुत लचकीला था, फिर उसकी कठोरता बढ्ती गई, जबतक कि शब्दपरिवार और अन्तमें पृथक्-पृथक् शब्द अपने ही द्वारा अपना निजी जीवन आरम्भ करने योग्य नहीं हो गये । भाषाकी बिल्कुल स्वाभाविक वृद्धिकी अन्तिम अस्था तब आती है जब शब्दका जीवन पूर्णरूपसे उस विचारके जीवनके अधीन हो जाता है जिसका वह द्योतक है । क्योंकि भाषाकी प्रथम अवस्थामें शब्द  वैसी ही सजीव अथवा उससे भी अधिक सजीव शक्ति होता है, जैसा कि इसका विचार; ध्वनि अर्थको निश्चित करती है । इसकी अन्तिम अवस्थामें ये स्थितियाँ उलट जाती हैं सारा-का-सारा महत्त्व विचार को मिल जाता है, ध्वनि गौण हो जाती है ।
 

भाषाके प्रारम्भिक इतिहासका दूसरा विशिष्ट अंग यह है कि पहिले-पहल यह विचारोंके विलक्षणतया. बहुत-ही-छोटे भंडारको प्रकट करती है और ये विचार अधिकसे. अघिक जितने सामान्य हो सकते हैं उतने सामान्य प्रकारके होते हैं और सामान्यतया अधिक-से-अधिक मूर्त भी होते हैं, जैसे कि प्रकाश, गति, स्पर्श, पदार्थ, विस्तार,  शक्ति वेग इत्यादि । इसके बाद विचारकी विविधता और निश्चिततामें उसरोत्तर वृद्धि होती जाती है । यह वृद्धि होती है सामान्यसे विशेषकी ओर, अनिश्चितसे निश्चितकी ओर,  भौतिकसे मानसिककी ओर,  मूर्तसे अमूर्तकी ओर, और सदृश वस्तुओंके विषयमें इन्द्रियानुभवोंकी अत्यधिक विविधताके  व्यक्तिकरणसे सदृश वस्तुओं,

 

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अनुभवों और क्रियाओंके बीच निश्चित भेदके व्यक्तीकरणकी ओर । यह प्रगति सम्पन्न होती है विचारोंमें साहचर्यकी प्रक्रियाओंके द्वारा,  जो सदा एक-सी होती है सदा लौट-लौटकर आती है और जिनमें (यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि ये भाषाको बोलनेवाले मनुष्यकी परिस्थितियों तथा उसके वास्तविक अनुभवोंके कारण ही बनती हैं तो भी ) विकासके स्थिर स्वाभाविक नियम दिखलाई देते हैं । और आखिरकार नियम इसके अतिरिक्त और क्या है कि यह एक प्रक्रिया है जो वस्तुओंकी प्रकृतिके द्वारा उनकी परिस्थितियों- की आवश्यकताओंके उत्तरमें निर्मित हुई है और उनका अपनी क्रिया करनेका एक स्थिर अभ्यास बन गयी है ?
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 भाषाके इस भूतकालीन इतिहाससे कुछ परिणाम निकलते हैं जो वैदिक व्याख्याकी .दृष्टिसे अत्यधिक महत्त्वके हैं । प्रथम तो यह कि इन नियमोंके ज्ञानके द्वारा जिनके अनुसार कि ध्वनि तथा अर्थके संबंध संस्कृतभाषामें बने हैं तथा इसके शब्द-परिवारोंके एक सतर्क और सूक्ष्म अध्ययनके द्वारा बहुत हद तक यह संभव है कि पृथक्  शब्दोंके अतीत इतिहासको फिरसे प्राप्त किया जा सके । यह संभव है कि शब्द असलमें जिन अर्थोंको रखते हैं उनका कारणा बताया जा सके, यह दिखाया जा सके कि किस प्रकार वे अर्थ भाषाविकासकी विविध अवस्थाओंमेंसे गुजरकर बने हैं,  शब्दके भिन्न-भिन्न अर्थोंमें पारस्परिक संबंध स्थापित किया जा सके और इसकी व्याख्या की जा सके कि किस प्रकार विस्तृत भेदके होते. हुए तथा कभी-कभी उनके अर्थ-मूल्योंमें स्पष्ट विपरीतता तक होते हुए भी उसी शब्दके वे अर्थ है । यह भी सम्भव है कि एक. निश्चित तथा वैज्ञानिक आघार पर शब्दोंके लुप्त अर्थ फिरसे पाये जा सकें और उन्हें साहचर्यके उन दृष्ट नियमोंके प्रमाण द्वारा जिन्होंने प्राचीन आर्य भाषाओंके विकासमें काम किया है तथा स्वयं शब्दकी ही छिपी हुई साक्षीके द्वारा और इसके आसन्नतम सजातीय शब्दकी समर्थन करनेवाली साक्षीके द्वारा प्रमाणित किया आ सके । इस प्रकार वैदिक भाषाके शब्दों पर विचार करनेके लिये एक बिल्कुल अस्थिर तथा आनुमानिक आधारके स्थान पर हम विश्वासके साथ एक सुदृढ़ और भरोसे के लायक आधार पर खड़े होकर काम कर सकते हैं ।
 

स्वभावतः, इसका यह अभिप्राय नहीं है कि क्योंकि एक वैदिक शब्द एक संभयमें शायद या अवश्य ही किसी विशेष अर्थको रखता था,  इसलिये वह अर्थ सुरक्षित रूपसे वेदके असली मूलग्रन्थमें  प्रयुक्त किया जा सकता है । परन्तु हम शब्दके एक युक्तियुक्त अर्थको और वेदमें उसका वही ठीक अर्थ है इसकी स्पष्ट संभावना अवश्य स्थापित करते हैं | शेष जो रह

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जाता है वह विषय है उन सन्दर्भोंके तुलनात्मक अध्ययनका जिनमें वह शब्द आता है, और इसका कि प्रकरणमें वह अर्थ निरंतर ठीक बैठता है या नहीं । मैंने लगातार यह पाया है कि एक अर्थ जो इस प्रकार प्राप्त किया जाता है जहाँ कहीं भी लगाकर देखा जाता है सदा ही प्रकरणको प्रकाशित कर देता है और दूसरी ओर मैंने यह देखा है कि प्रकरणके द्वारा सदा जिस अर्थकी भांग होती है, वह ठीक वही अर्थ होता है जिसपर हमें शब्दका इतिहास पहुंचाता है । नैतिक निश्चयात्मकताके लिये तो यह पर्याप्त आधार है, बिल्कुल निश्चयात्मकताके लिये चाहे न भी हो |
 

दूसरे, भाषाके उद्गमकालमें उसकी एक विलक्षण विशेषता यह थी कि एक ही शब्द  बहुत सारे भिन्न-भिन्न अर्थोंको दे सकता था और साथ ही बहुत सारे शब्द ऐसे थे जो एक ही विचारको देनेके लिये प्रयुक्त होते थे । पीछेसे शब्दों और अर्थोंकी यह आलङ्कारिक बहुलता घटने लगी । बुद्धि अपनी निश्चयात्मकताकी बढ़ती हुई मांग और मितव्ययताकी बढ़ती हुई दृष्टिके साथ बीचमें आयी । शब्दोंकी धारण-क्षमता उत्तरोत्तर कम होती गयी; और यह कम और कम सह्य होता गया कि एक ही विचारके लिये अपने ऊपर आवश्यकतासे अधिक शब्दोंका बोझ लादा जाय, एक ही शब्दके द्वारा आवश्यकतासे अधिक भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किये जायं । इस विषयमें एक बहुत बड़ी परिमितता, इस मांगके द्वारा नियमित होकर कि विभिन्नताका समर्याद वैभव होना ही चाहिये, भाषाका अन्तिम नियम हो गयी, यद्यपि वह परिमितता अत्यधिक कठोरतापूर्ण नहीं थी । परन्तु संस्कृतभाषा इस विकासकी अन्तिम अवस्थाओं तक पूर्ण रूपसे कभी नहीं पहुंची; बहुत जल्दी ही यह प्राकृत भाषाके अन्दर विलीन हो गयी । इसके अघिक-से-अधिक उत्तरकालीन और अधिक-से-अधिक साहित्यिक रूप तकमें एक ही शब्दके लिये अत्यधिक विभिन्न अर्थ पाये जाते हैं, यह आवश्यकता-से अधिक पर्यायोंकी सम्पत्तिसे लदी हुई है । इसलिये आलंकारिक प्रयोगोंके लिये संस्कृत भाषा असाधारण क्षमता रखती है, जिसका किसी दूसरी भाषामें होना एक कठिन, जबर्दस्तीसे किया गया, तथा निराशाजनक रूपसे कृत्रिम कार्य ही होगा, और यह क्षमता संस्कृतें द्वचर्थकताके अलंकार, श्लेष, के लिये विशेष रूपसे पायी जाती है |
 

फिर वेदकी संस्कृत तो भाषाके विकासमें और भी अधिक प्राचीन स्तरको सूचित करती है । अपने बाह्य रूपोंतकमें किसी भी प्रथम वर्गकी भाषाकी अपेक्षा यह अपेक्षाकृत कम नियत है; यह रूपों और विभक्तियोंकी विविधता से भरी पड़ी, यह द्रवकी तरह अस्थिर और आकारमें अनिश्चित है, फिर

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भी अपने कारकों तथा कालोके प्रयोगमें यह अत्यधिक सूक्ष्म है । यह अपने मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक पार्श्वमें अभी नियमिताकार नहीं हुई है, यह बौद्धिक निश्चयात्मकताके दृढ़ रूपोंमें जमकर अभी पूर्ण रूपसे कठोर नहीं बनी है । वैदिक ऋषियोंके लिये शब्द अब भी एक सजीव वस्तु है, एक शक्तिमय वस्तु है जो सर्जनशील और निर्माणकारी है । अब भी यह विचारके लिये एक रूढ़िसंकेत नहीं है, बल्कि स्वयं बिचारोंका जनक और निर्माता है । यह अपने अंदर अपनी मूल धातुओंकी स्मृतिको रखे हुए है, अबतक भी यह अपने इतिहाससे अभिज्ञ है ।
 

ऋषियोंका भाषाका प्रयोग शब्दके इस प्राचीन. मनोविज्ञानके द्वारा शासित था । जब अंग्रेजी भाषामें हम 'वुल्फ़' (wolf) या 'काउ' (cow) शब्दका प्रयोग करते हैं तो हमें इनसे केवलमात्र वे पशु (भेड़िया या गाय ) अभिप्रेत होते हैं जिनके वाचक ये शब्द हैं, हमें इस बातका ज्ञान नहीं होता कि किस कारण हमें, अमुक ध्वनि अमुक विचारके लिये प्रयुक्त करनी चाहिये, सिवाय इसके कि हम कहें कि भाषाका स्मरणातीत अतिप्राचीन व्यवहार ऐसा ही चला आता है; और हम इसे किसी दूसरे अर्थ या अभिप्रायके लिये भी व्यवहृत नहीं कर सकते, सिवाय किसी कृत्रिम भाषाशैलीके कौशलके तौर पर । परन्तु वैदिक ऋषिके लिये 'वृक'का अभिप्राय था 'विदारक' और इसलिये इस अर्थके दूसरे विनियोगोंमें यह भेड़ियेका वाची भी हो जाता था; 'धेनु'का अर्थ था 'प्रीणयित्री', 'पालयित्री' और इसीलिये इसका अर्थ गाय भी था । परंतु मौलिक और सामान्य अर्थ मुख्य है, निष्पन्न और विशेष अर्थ गौण है । इसलिये सूक्तके रचयिताके लिये यह संभव था कि वह इन सामन्य शब्दोंको एक बड़ी लचकके साथ प्रयुक्त करे, कभी वह भेड़िये या गाय की प्रतिमाको अपने सामने रखे, कभी इसका प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक सामान्य अर्थकी रंगत देनेके लिये करे, कभी वह इसे उस आध्यात्मिक विचारके लिये जिसपर उसका मन काम कर रहा है केवल एक रूढिसकेंतके तौरपर रखे, कभी प्रतिमाको दृष्टिसे सर्वथा ओझल कर दे । प्राचीन भाषाके इस मनोविज्ञानके प्रकाशमें ही हमें. वैदिक प्रतीकवादके अद्भूत संकेतोंको समझना है, जैसा कि ऋषियोंने उन्हें प्रयुक्त किया है, यहां तक कि जो संकेत अत्यंत प्रत्यक्षरूपसे सामान्य और मूर्त प्रतीत होते हैं उन्हें भी इसी प्रकाशमें समझना है । इस प्रकारके शब्द जैसे कि ''धृतम्'', घी,  ''सोम'', पवित्र सुरा,  तथा अन्य बहुतसे शब्द भी इसी (सांकेतिक ) रूपमें प्रयुक्त किये गये हैं ।
 

इसके अतिरिक्त, एक ही शब्दके विभिन्न अर्थोंके बीचमें बिचारके द्वारा किये गये विभाग उसकी अपेक्षा बहुत कम भेदात्मक थे जैसे कि वे

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आघुनिक बोलचालकी भाषामें होते हैं .। अंग्रेजी भाषामें ''फ्लीट", (fleet) जिसका अर्थ जहाजोंका बेड़ा है और ''फ्लीट", (fleet) जिसका अर्थ तेल है, दो भिन्न-भिन्न शब्द है,  जब हम पहले अर्थमें ''फ्लीट"का प्रयोग करते हैं तब हम जहाजकी गतिकी. तेजीको विचारमें नहीं लाते, नाहीं जब हम इस शब्दको दूसरे अर्थमें प्रयुक्त करते हैं तो उस समय हम समुद्रमें चहाजके तेजीके साथ चलनेको ध्यानमें लाते है । परन्तु ठीक यही बात भाषाके वैदिक प्रयोगमें प्रायः होती है । 'भग' जिसका अर्थ 'आनन्द' है और  ''भग", जिसका अर्थ 'भाग' है, वैदिक मनके लिये दो भिन्न-भिन्न शब्द नहीं हैं, परन्तु एक ही शब्द है जो इस प्रकार विकसित होते-होते दो भिन्न-भिन्न अर्थोमें प्रयुक्त होने लग पड़ा है । इसलिए ऋषियोंके लिये यह आसान था कि वे इसे दोनोमेंसे किसी एक अर्थमें प्रयुक्त करें और साथमें उसके पृष्ठमें दूसरा अर्थ भी रहे और वह इसके प्रत्यक्ष व्याच्यार्थको अपनी रंगत देता रहे अथवा यहाँ तक हो सकता था कि इसे वे किसी समुच्चय-बोधक अर्थके अलंकार द्वारा एक ही समय एकसमान दोनों अर्थोंमें प्रयुक्त करें ।  ''चनस्'' का अर्थ था 'भोजन'  परन्तु साथ ही इसका अर्थ 'आनन्द, सुख' भी होता था, इसलिथे ऋषि इसका प्रयोग इस रूपमें कर सकते थे कि असंस्कृत मनके लिये इससे केवल उस भोजनका ग्रहण हो जो यज्ञमें देवताओंको दिया जाता था'  पर दीक्षितके लिये इसका अर्थ हो आनन्द, भौतिक चेतनाके अंदर प्रविष्ट होता हुआ दिव्य सुखका आनन्द, और इसके साथ ही यह सोम-रसके रूपककी ओर संकेत करता हो, जो कि एक साथ देवोंका भोजन उमा आनंदका वैदिक प्रतीक दोनों है ।
 

हम देखते हैं कि भाषाका इस प्रकारका प्रयोग वैदिक मंत्रोंकी वाणीमें सर्वत्र प्रघान .रूपसे पाया जाता है । यह एक बड़ा अच्छा उपाय था जिसके द्वारा प्राचीन रहस्यवादी अपने कार्यकी कठिनाईको दूर कर पाये थे । सामान्य पूजकके लिये 'अग्नि'का अभिप्राय केवलमात्र वैदिक आगका देवता हो सकता था, या इसका अभिप्राय भौतिक प्रकृतिमें काम करनेवाला ताप या प्रकाशका तत्त्व हो सकता था अथवा अत्यंत अज्ञानी मनुष्यके लिये इसका अर्थ केवल- एक अतिमानुष व्यक्तित्व हो सकता था जो 'घन-दौलत देनेवाले', मनुष्यकी कामना को पूर्ण करनेवाले ऐसे अनेक व्यक्तित्वोंमें से एक है । पर जो व्यक्ति अधिक गंभीर विचार करनेमें समर्थ थे उनके लिये इस शब्दसे परमेश्वरके आध्यात्मिक. व्यापारोंको कैसे सूचित किया जा ? इस कामको यह शब्द स्वयं कर देता था । क्योंकि 'अग्नि'का अर्थ .होता था  ''बलवान्'', इसका अर्थ था ''चमकीला"  या यह भी कह सकते हैं कि शक्ति,

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तेजस्विता । इसलिये यह जहां कहीं भी आये, आसानीसे दीक्षितको एक प्रकाशमय शक्तिके विचारका स्मरण करा सकता था, जो लोकोंका निर्माण करती है और मनुष्यको ऊँचा उठाकर सर्बोच्च को प्राप्त करा देती है,  महान् कर्मका अनुष्ठान करनेवाली है, मानवयज्ञकी पुरोहित है ।
 

श्रोताके मनमें यह कैसे बैठता कि मे सब देवता एक ही विश्वव्यापक देवके व्यक्तित्व हैं ? देवताओंके नाम,  अपने अर्थमें ही, इसका स्मरण कराते हैं कि ये केवल विशेषण हैं, अर्थसूचक नाम हैं, वर्णन हैं न कि किसी स्वतंत्र व्यक्तिके वाचक नाम । मित्र देवता प्रेम और सामंजस्यका अधिपति है, भग सुखोपभोगका अधिपति है, सूर्य प्रकाशका अधिपति है, वरुण है परमदेवकी सर्वव्यापक विशालता और पवित्रता जो जगत्को धारण तथा पूर्ण करती है । 'सत् तो एक ही है', ऋषि दीर्घतमस् कहता है, 'पर संत लोग उसे भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रकट करते है; वे उसे 'इन्द्र' कहते है, 'वरुण' कहते हैं, 'मित्र' कहते हैं, 'अग्नि'  कहते हैं, वे उसे 'अग्निके' नामसे पुकारते हैं,  'यम'के  नामसे, 'मातरिश्वा'के नामसे' |1 वैदिक ज्ञानके प्राचीनतर कालमें दीक्षित इस स्पष्ट स्थापनाकी आवश्यकता नहीं रखता था । देयताओंके नाम स्वयं ही उसे अपने अर्थ बता देते थे और उसे उस महान् आधारभूत सत्यका स्मरण कराये रहते थे जो सदा उसके साथ रहता था ।
 

परंतु वादके युगोंमें यह उपाय ही, जो ऋषियों द्वारा प्रयुक्त किया गया था, वैदिक ज्ञानकी सुरक्षाके प्रतिकूल पड़ गया । क्योंकि भाषाने अपना स्वरूप बदल लिया, अपनी प्रारंभिक लचकको छोड दिया; अपने पुराने परिचित  .अर्थोंको उतारकर रख दिया; शब्द संकुचित हो गया और सिकुड़कर वह अपने अपेक्षाकृत बाह्य तथा स्थूल अर्थमें सीमित हो गया । आनंदका अमृत-रसपान भुला दिया जाकर भौतिक हवि-प्रदान मात्र रह गया, 'घृत'का रूपक केवल गाथाशास्त्रके देवताओंकी तृप्तिके लिये किये जानेवाले स्थूल निषेकका ही स्मरण कराने लग गया,  आग,  बादल और आंघीके देवता केवलमात्र ऐसे देवता रह गये, जिनमें भौतिक शक्ति और .बाह्य प्रतापके सिवाय और कोई शक्ति नहीं बची । अक्षरार्थ मात्र प्रचलित रहे, जब कि प्राणरूप असली अर्थोंको भुला दिया गया । प्रतीक, वैदिक बादका शरीर बचा रहा, पर ज्ञानकी आत्मा इसके अंदरसे निकल गयी ।
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1. इन्द्रं मित्रं वश्वमभीमादुरयो दिव्य: स गुरुतमान् ।
   एकं सिद्धिप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: |  (ॠ० १-१६४-४६)

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