Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
IV
वेदकी व्यारव्या
एक प्रारम्भिक समालोचना का प्रत्युत्तर
अपनी समालोचनामें आपने ''आर्य''की जो उदारतापूर्ण सराहनाकी है उसके लिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ । क्या मैं भी अपने 'The Secret of Veda (वेद-रहस्य)'--विषयक लेखपर आपकी आलोचनाका उत्तर देनेके लिए, या यूँ कहें कि अपने दृष्टिकोणकी व्याख्याके लिए आपके दैनिक पत्रके स्तंभोंमें कुछ स्थान पानेकी अभिलाषा कर सकता हूँ । मेरे भाव-प्रकाशनकी त्रुटियोंके कारण तथा ''Arya (आर्य)" में मेरे लेखके संक्षिप्त और सारांशरूप ही होनेके कारण आप मेरे दृष्टि-बिन्दुको कुछ अंशोंमें गलत समझ बैठे हैं । मुझे पता नहीं कि एक ऐसे समयमें, जब संपूर्ण संसार यूरोपको आलोड़ित करनेवाले भीषण मानवघाती संघर्षमें डूबा हुआ है, आप, मेरे लेखके लिए इतना स्थान दे भी पाएंगे या नहीं ।
निश्चय ही मैंने यह कहीं नहीं कहा कि ''जिस ज्ञानका कोई उद्गम पहलेके मूल स्रोतोंमें नहीं पाया जा सकता उसका अवश्यमेव तिरस्कार और त्याग कर देना चाहिए ।'' यह निःसन्देह एक बीभत्स स्थापना होगी । मेरा असली कथ्य यह था कि ऐसा ज्ञान जब विकसित दर्शन और मनोविज्ञानको प्रकढ करता हो तो उसकी ऐतिहासिक व्याख्याकी आवश्यकता है-यह एक बहुत ही भिन्न बात है । यदि हम मानवजातिमें ज्ञानके उत्तरोत्तर विकासके
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1. वेदपर श्रीअरयिन्दका सबसे पहला लेख, जो उनकी एक धारावाहिक
लेखमाला 'The Secret of Veda (वेद-रहस्य)' का पहला अध्याय
ही था, अंग्रेजी मासिक पत्र ''Arya (आर्य) ''के पहले अंकमें 15 अगस्त,
1914 को प्रकाशित हुआ था ।
संभवत: वह अध्याय ऐसे क्रान्तिपूर्ण विचारोंसे युक्त पाया गया कि
एक कट्टरपंथी पण्डित प्रोo सुन्दरराम ऐय्यरने ''Hindu (हिन्दु ''के
सम्पादकीयमें उसकी समीक्षाकी । श्रीअरविन्दने उसका तुरन्त उत्तर
दिया जो यहाँ ऊपर प्रकाशित किया जा रूहा है ।
2. 27 अगस्त 1914 को मद्रासके अंग्रेजी दनिक The Hindu (हिन्दू) में
प्रकाशित एक पत्रका हिंदी अनुवाद ।-अनुवादक
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यूरोपीय विचारको स्वीकार करें-और मेरा तर्क इसी आधारपर आरम्भ हुआ था-तो हमें ब्रह्मवादका मूल किसी बाह्य उद्गममें ढूंढना होगा, जैसे कि पहलेकी द्राविड़ संस्कृतिमें--पर यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि मैं तथाकथित आर्यों और द्रविड़ोंको एक ही सरूप जाति मानता हूँ, अथवा हमें ब्रह्मवादका मूल किसी पूर्वतर विकासमें ढूंढ़ना होगा जिसके अभिलेख या तो खो गए हैं या स्वयं वेदमें ही मिलेंगे । मैं यह नहीं देख पाता कि कैसे इस तर्कमें 'अनवस्था'-दोष ( regressus ad infinitum ) अन्तर्भूत है सिवाय उस हद तक जिस तक कि विकास और उत्तरोत्तर कार्यकारण-भावका सारा विचार ही इस आक्षेपके प्रति खुला हुआ है । जहाँ तक वैदिक धर्मके मूल उद्गमोंका प्रश्न हैं, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे अभी तथ्य-सामग्रीके, अभावमें हल नहीं किया जा सकता । इससे यह परिणाम नहीं निकलता कि इसका उदूगम है ही नहीं या, दूसरे शब्दोंमें, कि मानवता विकसनशील आध्यात्मिक अनुभवके द्वारा सत्यके साक्षा-त्कारके लिए तैयार ही नहीं हुई थी । और फिर उपनिषदोंके विषयमें इस वर्णनमें कि वे वेदोंके कर्मकाण्डीय आधिभौतिकवादके विरुद्ध दार्शनिक मनीषियों-का विद्रोह हैं, मेरा उद्देश्य, निश्चय ही, अपना निजी मत प्रकट करना नहीं था । यदि यह मेरा अपना मत होता तो मैं न तो प्राचीनतर श्रुति (वेद) - को अन्त:प्रेरित धर्मग्रन्थ मान सकता था और न उपनिषदोंको वेदान्त, और तब मैं 'वेदका रहस्य' खोजनेका कष्ट न उठाता । य्रोपीय विद्वानोंका मत है और मैंने यह माना था कि यदि सूक्तोंकी साधारण व्याख्याओंको, वे चाहे भारतीय हों या यूरोपीय, स्वीकार करना है तो उक्त मत उनका तर्कसंगत परिणाम होगा । यदि वैदिक सूक्त, पाश्चात्य विद्वानोंकी व्याख्यानुसार, हर्षोत्फुल्ल और ह्रष्ट-पुष्ट बर्बरोंकी याज्ञिक रचनाएं हैं तो उपनिषदोंको वेदों-के कर्मकाण्डीय आधिभौतिकवादके विरुद्ध विद्रोह ही समझना होगा । पर मैंने इस स्थापना और इसके परिणाम दोनोंसे ही इन्कार किया है और मैंने अन्तिम रूपसे यह निरूपित किया है कि न केवल उपनिषदें बल्कि उनके सभी परवर्ती रूप (स्मृति आदि) वैदिक धर्मसे ही विकसित हुए हैं और वे उसके सिद्धान्तोंके प्रति विद्रोह-रूप नहीं हैं । भारतीय सिद्धान्त इस कठिनाईका परिहार एक और प्रकारसे करता है, वह वेदकी व्याख्या तो याज्ञिक सूक्तोंके ग्रन्थके रूपमें करता हैं और उसका आदर करता है ज्ञानके गन्थके रूपमें । वह इन दो प्राचीन सत्योंमें प्रभावी ढंगसे समन्वय स्थापित किए बिना इन्हें साथ-साथ स्थान देता है । मेरी दृष्टिमें वह समन्वय केवल तभी साधित हो सकता है यदि हम सूक्तोंके बाहरी पक्षमे भी कर्मकाण्डीय आधिभौतिकवाद
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नहीं बल्कि प्रतीकात्मक कर्मकाण्ड देखें । इसमें सन्देह नहीं कि कर्मकाण्डको आत्मज्ञानकी अनिवार्य आधारशिला माना जाता था । यह धार्मिक श्रद्धाकी वस्तु था और श्रद्धाकी वस्तुके नाते मुझे इसकी युक्तियुक्ततामें सन्देह नहीं । परन्तु बौद्धिक छानबीनमें मुझे बौद्धिक साधनोंसे ही अग्रसर होना होगा । कर्मकाण्ड बुद्धिके लिए तभी युक्तियुक्त बनता है यदि हम इसकी ऐसी व्याख्या करें जिससे यह दिखाया जा सके कि कैसे इसका अनुष्ठान उच्चतर ज्ञानमें सहायक होता है, उसे तैयार या साधित करता है । अन्यथा सिद्धान्त-रूप- में वेदका चाहे कितना ही अधिक सम्मान क्यों न किया जाय, व्यवहारमें उसे न तो अनिवार्य समझा जायगा न सहायक और अन्तमें क्रियात्मक रूपसे उसे एक ओर ही रख दिया जायगा जैसा कि वस्तुत: हुआ है ।
मुझे ज्ञात है कि वेदके कुछ सूक्तोंकी व्याख्या याज्ञिक अर्थसे भिन्न अर्थमें की जाती है; यहाँ तक कि यूरोपीय विद्वान् भी वेदोंके ''परवर्ती सूक्तों''में उच्चतर एव धार्मिक विचारोंको स्वीकार करते हैं । मुझे यह भी विदित है कि पृथक्-पृथक् मन्त्रोंको दार्शनिक सिद्धांन्तोंके समर्थनमें उद्धृत किया जाता है । मेरा कथ्य यह था कि वेदकी उपलब्ध वास्तविक व्याख्याओंमें सूक्तोंको जो सामान्य भाव-ध्वनि एवं आशय प्रदान किया गया है उसमें ऐसे अपवाद-रूप स्थल कोई हेर-फेर नहीं करते । उन व्याख्याओंके साथ हम ऋग्वेदको, समग्रतया, उच्च आध्यात्मिक दर्शनके आधारके रूपमें प्रयुक्त नहीं कर सकते, जैसा कि उपनिषदोंको समग्रतया इस रूपमें प्रयुक्त किया जा सकता है । अब मैंने वेदकी समग्र रूपमें व्याख्या और वेदके सामान्य स्वरूपके निरूपणके कार्यमें ही ध्यान लगाया है । मैं यह पूर्णतया स्वीकार करता हूँ कि एक पार्श्वधाराके रूपमें ऐसी प्रवृत्ति सदा रही है जो वेदकी समूचे रूपमें भी आध्यात्मिक व्याख्याका पोषण करती आई है । यह विचित्र बात होगी यदि इतनी अध्यात्मचेता जातिमें ऐसे प्रयत्नोंका सर्वथा अभाव ही रहा हो । किन्तु फिर भी वे पार्श्वधाराएं ही हैं और उन्हें सर्वजनीन स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई । सामान्यतया भारतीय विद्वान्की दृष्टिमें केवल दो ही व्याख्याएं हैं, सायणकी और यूरोपीय । क्योंकि मैं इस सामान्य मतके माननेवालोंके लिए ही लिख रहा हूँ, अतः क्रियात्मक दृष्टिसे मेरा प्रयोजन इन दो व्याख्याओंसे ही हैं ।
अभी भी मेरा यह मत है कि प्राचीन वेदान्तियोंकी पद्धति और परिणाम सायणकी पद्धति और परिणामोंसे पूर्णतया भिन्न थे । इसके जो कारण हैं वे मैं ''Arya (आर्य) ''के दूसरे और तीसरे अंकोंमें प्रस्तुत करूंगा । सिद्धा-न्तत: नहीं व्यवहारतः, सायणके भाष्यका परिणाम क्या है ? वह भाष्य मन
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पर क्या सामान्य छाप छोड़ता है ? क्या यह एक महान् ''ईश्वरीय ज्ञान वेद" की, उच्चतम ज्ञानके ग्रन्थकी छाप है ? इसकी अपेक्षा क्या यह वास्तव- में वह छाप नहीं है जो यूरोपीय विद्वानोंने पाई और जिससे उनके सिद्धान्त आरम्भ हुए-क्या यह ऐसे आदिम पुजारियोंका चित्र नहीं है जो मित्र देवताओं, मित्र किन्तु संदिग्ध स्वभाववाले देवों, आग, वर्षा, वायु, उषा, रात, पृथ्वी और आकाशके देवताओंके प्रति धन, अन्न, गाय-बैलों, घोड़ों, स्वर्ण, अपने शत्रुओं यहाँ तक कि अपने आलोचकों एवं निन्दकोंके भी वध, युद्धमें विजय और विजितोंकी लूट-पाटके लिए प्रार्थना किया करते थे ? और यदि ऐसी बात है तो किस प्रकार ऐसे सूक्त ब्रह्मविद्याके लिए एक अपरिहार्य तैयारी-रूप हो सकते हैं ? निःसन्देह यह दूसरी बात है कि यह एक ऐसी तैयारी हो जो विरोधी वस्तुओं द्वारा की जाती है, अधिकतम भौतिकवादी और अहंकारमय प्रवृत्तियोंको उपभोग द्वारा समाप्त करके या उनका उत्सर्ग करके की जाती है । इसे कुछ-कुछ उसी प्रकार तैयारी कहा जा सकता है जिस प्रकार यहूदी धर्मकी पांच पुरानी अधकचरी पुस्तकोंको ईसाके अविकसित धर्मग्रन्थकी तैयारी-रूप कहा जा सकता है । मेरा अभिमत यह है कि वे सूक्त यज्ञमें निहित किसी यान्तिक लाभके कारण अनिवार्य नहीं थे वरन् इसलिए अनिवार्य थे कि. वे अनुभव जिनकी वे सूक्त कुंजी हैं और याज्ञिक क्रियाकलाप जिनके प्रतीक होते थे, विश्वमें ब्रह्मके समग्रज्ञान और साक्षात्कारके लिए आवश्यक हैं तथा विश्वातीत ब्रह्मके ज्ञान और साक्षात्कारकी तैयारीको सम्पन्नू करते हैं । शंकराचार्यके कथनको सार-रूपमें कहें तो, वे सूक्त, समस्त ज्ञानकी, चेतनाके सभी स्तरोंके ज्ञानकी खान हैं; और हमारी सत्तामें दिव्य, मानव और पाशव तत्त्वोंकी अवस्थाओं एवं उन तत्त्वोंके सम्बन्धोंको अवश्य निर्धारित करते हैं ।
मैं यह दावा नहीं करता कि वेदकी आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत करनेका सर्वप्रथम प्रयत्न यह मेरा ही है । यह वेदका गूढ़ एवं आध्यात्मिक अर्थ प्रस्तुत करनेका एक प्रयत्न है जो आदिसे अन्त तक क्रियात्मक अनुसंधानकी आधुनिकतम पद्धति पर आधारित है । यह पहला प्रयत्न है या सौवां इसका कुछ महत्त्व नहीं । वैदिक शब्दोंकी मेरी व्याख्या तुलनात्मक भाषाविज्ञानके क्षेत्रके एक बहुत बड़े भागके पुनरालोचन पर आधारित है और एक नये आधार पर किए गए पुनर्निर्माण पर प्रतिष्ठित है जो, मुझे कुछ आशा है कि, हमें भाषाके सच्चे विज्ञानके अधिक निकट ले आयगा । इस विषयकी विस्तृत विवेचना मैं एक अन्य कृति ''आर्यभाषाके उद्गम'' 1मे करनेका विचार
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1. देखिये यहीं ग्रन्थ पृ ०259 । -अनुवादक
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रखता हूँ । मुझे यह भी आशा है कि मैं उन प्राचीन आध्यात्मिक विचारों-के आशयकी पुनरुपलब्धिका मार्गदर्शन करूंगा जिनके संकेत हमें पुराने प्रतीक और गाथासे प्राप्त होते हैं और जो मेरा विश्वास है कि, किसी समय एक सार्वजनीन संस्कृतिके अंग थे । वह सस्कृति भूमण्डलके एक बहुत बड़े भाग-में व्याप्त थी जिसका केन्द्र संभवत: भारत था । मेरी इस लेखमाला ''वेद- रहस्य''की एकमात्र मौलिकता इसी बातमें है कि यह उपर्युक्त विधिबद्ध प्रयत्नसे संबद्ध है ।
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