Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
छठा सूक्त
यात्राकी द्रुतगामी ज्वाला-शक्तियाँ
[ दिव्यसंकल्परूप अग्निकी ज्वालाएँ, जो हमारी सभी संवर्धनशील और प्रगतिशील जीवनशक्तियोंका अपना घर तथा मिलनस्थान हैं, ऐसे चित्रितकी गई हैं कि वे परम कल्याणकी तरफ हमारी मानवीय यात्राके मार्गपर द्रुतगति से बढ़ रही हैं । भागवत संकल्प हमारे अन्दर अन्तःप्रेरणाकी दिव्यशक्ति, प्रदीप्त और अक्षय सामर्थ्य एवं अग्निज्वालाका निर्माण करता है । उस ज्वालाको प्रचुरताके एक ऐसे अश्वके रूपमें वर्णित किया गया है जो हमारे पास उस कल्याणको लाता है और हमें उस लक्ष्य तक ले जाता है । उस अग्निकी शिरवाएँ मार्गपर सरपट दौड़नेवाले घोड़े हैं जो यज्ञके द्वारा संवर्धित होते हैं, निर्बाध वेगसे आगे बढ़ते हैं और हमेशा अधिकाधिक वेग से दौड़ते हैं, वे गुप्त ज्ञानके बाड़ेमें बन्द दीप्तियोंको लाते हैं । जब दिव्य अग्निशक्ति यज्ञकी भेंटोंसे भर जाती और तृप्त हो जाती है तब उन अश्वोंका संपूर्ण बल और वेग एकरस हो जाते हैं । ]
१
अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनव: ।
अस्तमर्वन्त आशवोऽस्त नित्यासो वाजिन इषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(तम् अग्निं मन्ये) मैं उस अग्नि-शक्तिका ध्यान करता हूँ (य:) जो (वसु:) सारतत्त्वमें निवास करता है, (यं धेनव: अस्तं यन्ति) जिसकी तरफ हमारा पोषण करनेवाले गोसमूह ऐसे जाते हैं जैसे अपने घरकी तरफ । (आशव: नित्यास: अर्वन्त:) हमारे युद्धके द्रुतगामी सनातन अश्व1 भी ( [अस्तं ( यन्ति ] उसे अपना घर समझकर उसकी तरफ जाते हैं, (वाजिन: अस्त) हमारी शाश्वत प्रचुरताकी शक्तियाँ उसे घर समझती हुई उधर जाती हैं ।
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1. वेदमें अश्व शक्तिका प्रतीक है, विशेषतया प्राणशक्तिका । यह नाना
प्रकारका है, 'अर्वत्' था युद्धमें युद्धकारी अश्व और ' वाजिन्' अर्थात् यात्राका
अश्व जो हमें आध्यात्मिक ऐश्वर्यकी प्रचुरतामें पहुँचा देता है ।
५८
(स्तोतृभ्य: इषम् आभर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिये तू अन्तःप्रेरणा की अपनी शक्ति1 ले आ ।
२
सो अग्निर्यो वसुर्गृणे सं यमायन्ति धेनव: ।
समर्वन्तो रधुद्रुव: सं सुजातास: सूरय इषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(स: अग्नि: य: वसु:) अग्नि वह शक्ति है जो वस्तुओंके सारतत्त्वमें निवास करती है । (गृणे) मैं उसका वर्णन करता हूँ (यं) जिसमें (धेनव: सम् आयन्ति) हमारा पालन करनेवाले हमारे गोयूथ एक साथ आकर एकत्र होते हैं2, (रघुद्रुव: अर्वन्त: सम् आयन्ति) जिसमें हमारे द्रुतगामी युद्ध-अश्व एक साथ आ मिलते हैं, (यं) जिसमें (सुजातास:) हमारे अन्दर अपने पूर्ण जन्मको प्राप्त किये हुए (सूरय:) ज्ञानप्रदीप्त द्रष्टा (सम् आयन्ति) एकत्र होते हैं ।
(स्तोतृभ्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिये अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
३
अग्निर्हि वाजिनं विशे ददाति विश्वचर्षणि: ।
अग्नी राये स्वाभुवं स प्रीतो याति वार्यमिषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(विश्वचर्षणि:) विराट् श्रमकर्ता (अग्नि:) संकल्पाग्नि (हि) निश्चयसे (विशे वाजिनं ददाति) मानव प्राणीको परिपूर्णताका अश्व प्रदान करता है । (अग्नि:) संकल्पाग्नि [ वाजिनं ददाति ] उस अश्वको देता है जो (राये) परम आनन्दके लिए (स्वाभुवं) हमारे अन्दर पूर्ण अस्तित्वमें आता है, अर्थात् हमारे अन्दर अपना पूर्ण अस्तित्व प्राप्त कर लेता है । (स: प्रीत:) वह तृप्त होकर (वार्य याति) मनोवांछित कल्याणकी ओर यात्रा करता है ।
(स्तोतृभ्य इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिये अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
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1. वह शक्ति जो हमें हमारी सत्ताकी रात्रिमेंसे दिव्य प्रकाश तक यात्रा करनेके योग्य बनाती है ।
2. बल और ज्ञानकी हमारी सब उन्नतिशील शक्तियाँ दिव्य ज्ञान-शक्तिके
आविर्भावकी ओर गति करती हैं और उसमें जाकर मिल जाती और
समस्वर हो जाती हैं ।
५९
४
आ ते अग्न इधीमहि द्युमन्तं देवाजरम् ।
यद्ध स्या ते पनीयसी समिद् दीदयति द्यवीषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! (देव) हे देव ! हम (ते द्युमन्तम् अजरं) तेरी उस प्रकाशपूर्ण, जीर्ण न होनेवाली अग्निको (आ इधोमहि) सब ओरसे प्रदीप्त करते हैं, (यत्) जब (ते स्या पनीयसी समित्) तेरे श्रमकी वह अधिक प्रभावकारी शक्ति (द्यवि दीदयति) हमारे द्युलोकमें देदीप्यमान होती है ।
(स्तोतृम्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिये अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
५
आ ते अग्न ऋचा हवि: शुक्रस्य शोचिषस्पते ।
सुश्चन्द्र दस्म विश्पते हव्यवाट् तुभ्यं हूयत इषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! (शुक्रस्य शोचिष: पते) शुद्ध भास्वर ज्वालाके अधिपति ! (ते हवि) तेरी ही है वह भेंट जो (ऋचा) प्रकाशप्रद मंत्रसे (तुभ्यम् आहूयते) तेरे लिए डाली गई है । (हव्यवाट्) हे हविके वाहक ! (तुभ्यम् आहूयते) वह तेरे लिए ही डाली गई है, (विश्पते) हे प्रजाके स्वामी ! (दस्म) कार्योंको सम्पन्न करनेवाले ! (सुश्चन्द्र) आनन्दमें पूर्ण !
(स्तोतृम्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
६
प्रो त्ये अग्नयोऽग्निषु विश्वं पुष्यन्ति वार्यम् ।
ते हिन्विरे त इन्विरे त इषण्यन्त्यानुषगिषं स्तोतुभ्य आ भर ।।
(त्ये अग्नय:) वे हैं तेरी ज्वालाएँ जो (अग्निषु) तेरी अन्य ज्वालाओंके बीच (विश्वं वार्य) प्रत्येक वांछनीय भलाईका (प्रो पुष्यन्ति) पोषण करती हैं और उसे आगे बढ़ाती हैं । (ते हिन्विरे) वे दौड़ती हैं, (ते इन्विरे) वे सरपट आगे बढ़ती हैं, (ते आनुषक् इषण्यन्ति) वे लगातार अपनी प्रेरणाओंमें अग्रसर होती हैं ।
(स्तोतृभ्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
६०
७
तथ त्ये अग्ने अर्चयो महि वाधन्त वाजिन: ।
ये पत्वभि: शफानां व्रजा भुरन्त गोनामिषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(अग्ने) हे अग्ने ! हे संकल्पशक्ते ! (तव ते अर्चय:) वे हैं तेरी आग्नेय किरणें और (वाजिन:) प्रचुरताके अश्व, (महि व्राधन्त:) वे विशालता मे संवर्धन पाते हैं, (ये) वे ऐसे हैं जो (शफानां पत्वभि:) अपने खुरोंसे पददलन करते हुए (गोनां व्रजा भुरन्त) उन्हें देदीप्यमान गौओं4 के बाड़ोंमें लाते हैं ।
८
नवा नो अग्न आ भर स्तोतृभ्य: सुक्षितीरिष: ।
ते स्याम प आनृचुरूस्त्वादूतासो दमेदम इषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! (स्तोतृभ्य:) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए तू (नवा इषः आ भर) अन्तःप्रेरणाकी नई शक्तियाँ ले आ ताकि वे (सुक्षिती:) अपना निवास-स्थान2 ठीक-ठीक पा लें । (न: ते स्याम) हम वे हो जायें (ये) जो (त्वादूतास:) तुझे अपना दूत बनानेके कारण (दमे-दमे) घर-घरमें (आनृचू:) प्रकाशका स्तवन करते हैं ।
(स्तोतृभ्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए अन्त:- प्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
९
उभे सुश्चन्द्र सर्पिषो दर्वी श्रीणीष आसनि ।
उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
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1. गौएं--दिव्य सत्यकी दीप्तियाँ जिन्हें इन्द्रिय-क्रियाके अधिपतियोंने
अवचेतनकी गुफाओंमें बाड़ेकी न्याईं बंदकर रखा है ।
2. अर्थात् वे हमे सत्यके लोकमें हमारे घरकी ओर, अतिचेतनके स्तर अथवा
अग्निदेवके अपने घरकी ओर ले जाती हैं । उधर अग्रसर होती हुई
ये सब प्रेरणाएँ अपना विश्राम और निवास-स्थान पा लेती है । एक
स्तरसे दूसरे स्तर तक आरोहणके द्वारा ही वहाँ पहुँचा जाता है । वे
स्तर दिव्य प्रकाशप्रद शब्दकी शक्तिके द्वारा एकके बाद एक खुलते
जाते है ।
६१
(सुश्चन्द्र) हे आनन्दसे परिपूर्ण ! (सर्पिष: उभे दर्वी) तीब्र गतिशील समृद्धिके दोनों1 कड़छोंको तू (आसनि) अपने मुँह तक (श्रीणीषे) पहुँचाता है । (उत उ नः उक्थेषु उत् पुपूर्या:) हमारे वचनोंमें तू अपने आपको पूरी तरह भर दे, (शवसस्पते) हे देदीप्यमान शक्तिके अधिपति !
(स्तोतृभ्यः इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए अन्त:-प्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
१०
एवाँ अग्निमजुर्यमु गीर्भिर्यज्ञेभिरानुषक् ।
दधदस्मे सुवीर्यमुत त्यदाश्वश्व्यमिषं स्तोतृभ्य आ भर ।।
(एव) इस प्रकार (गीर्भि:) हमारे स्तुतिवचनों और (यज्ञेभि:) यज्ञोंसे वे (अग्निं) शक्तिरूप अग्निको (आनुषक्) निरन्तर (अजुर्यमु:) अग्रसर करते हैं और वशमें लाते हैं । वह (अस्मे) हमारे अन्दर (सुवीयँ दधत्) पूर्णवीर्य2 स्थापित करे और (त्यत् आशु अश्व्यं) उस अश्वके द्रुतगमनकी शक्ति3 (अस्मे दधत्) हमारे अन्दर प्रतिष्ठित करे ।
(स्तोतृभ्य: इषम् आ भर) जो तेरा स्तुतिगान करते हैं उनके लिए तू अन्तःप्रेरणाकी अपनी शक्ति ले आ ।
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1. संभवत:, दिव्य और मानवीय आनंद ।
2. युद्धशील आत्माकी वीरता-युक्त शक्ति ।
3. आशु अश्व्यम्-वेगयुक्त अश्वशक्ति । यहाँ इन दो शब्दोंपर श्लेष है जो
इन्हें ' 'वेगशील अश्वसम शीघ्रगामिता'' का अर्थ देता है ।
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