योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अनुक्रमणिका

 

 

अंतर्ज्ञान १५०, १५२, २५७, ५८१-९०;

बोधि-ज्ञान ३१७; संबोधि  ४७९

तीन, मनोमय पुरुष को प्राप्त कर लेने के

६४१ - २

गुप्त अतिमानसिक शक्ति है ८१०

शक्ति का कार्य भौतिक ऊर्जा, परमाणु

प्राणमय भूमिका और मनुष्य में

८११-२

अनुकरणात्मक ८४४

की क्रिया में मन का मिश्रण ८६९, ९१४

( दे० वि०७९)

अंतर्ज्ञानात्मक चिंतन ८२५

अंतर्ज्ञानात्मक मन ४६२, ६८४, ८२९,

 ८४४, ८४५, ८७५;   बोधिमय

मन ३१३; संबोधि मानस ३१७

और तर्क बुद्धि ४८४-५, ४८७, ८१४

मि थ्या ४८५

सच्चा ४८५- ६

का विकास ४८७-८

और साधारण मन में भेद ९२०

(दे ० वि ०७४, ७५, ७९)

अंतर्दृष्टि २२०, ३०६- ७, ४९०

अंत:स्थ आत्मा [अन्तरात्मा ]  ६०३,

६५५, ७७०

को पीड़ा पहुंचाना ११०

विवरण २१७-८

के अंधकार के भीतर आने का हेतु

२६२ (दे० 'पुरुष' ने भी)

का साक्षात्कार प्रधान लक्ष्य ३४४-५

को ढूंढ लेने पर हम सब में विद्यमान

एक आत्मा को भी ढूंढ़ लेते हैं ३४५,

३७३

जीवन-विषय अनुभवों को पोषक

सामग्री में... ७१२, ७३०

की सामर्थ्य बाह्य  स्पर्शों को सहने की

 

 

 ७२२

जब मुक्त हों जाता है तो पीछे स्थित

भगवान् समस्त ज्योति, सुषमा सहित

आविर्भूत... ७५६

अंतर्ज्ञानमय आत्मा है ८२१

(दे० 'चैत्यपुरुष' भी)

अंतःस्थ पथप्रदर्शक

की प्रच्छन्न क्रिया व पद्धति ६१-२, ६४,

७१

को पूरी तरह पहचानना और अंगीकार

करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण ६२-३

छुपा क्यों रहता है ६२

की सहायता को तब हम विगत जीवन

पर दृष्टि डालकर नहीं, तत्क्षण

पहचानने... ६२-३

वैयक्तिक रूप में अनुभूत ६३

'इस एकमेव को जानना और चरितार्थ

करना अब सचेतन उद्देश्य ६३-४;

 इस कृतार्थता का पथ और वैसा

करना अहंमय चेतना के लिये कठिन

क्यों ६४

हमारे विद्रोह से, हमारी श्रद्धा की कमी

से निरुत्साहित नहीं होता परन्तु उससे

अपनी अनुमति हटा लेने के

कारण... ६४-५

अंतःस्थ भगवान् ७१७

को अब हमारे मन के समक्ष सदा

उपस्थित... ११३

का स्थान गुह्य  हृदय में १५२

ही उसके कर्म का भार अपने ऊपर...

५०८

तब योग को अपने हाथ में ले लेते हैं

६३६

अंधकार ६१, १२७,२३२, २६४

की घड़ियां २२२, २४६-७

 

९६१


 

अंध प्रेरणा ४८७,८११

अंध विश्वास ४६०,४६७

'अंध श्रद्धा ७८९,७९०

अक्षमता [असमर्थता] ३९९, ४१९,

 ४८१,७९६ दे० दुर्बलता भी

अक्षर पुरुष ३८३

अचेतनता अन्यविध चेतनता है ३९१

अज्ञान १६२, १७०, १७३, २१८, २३५,

 २४९, २५७, २८५, २८९, ३११,

 ३९९, ४१९, ४४४, ६४६, ७२०,

 ७३१

के प्रधान चतुष्टय : अंधकार, असत्य,

मृत्यु दुःख २६४

अतिमानस २५७, ३९४, ४२३, ४२८,

 ४६२, ६५७,८२४

आत्मा का करण है ६३२, ६६२

का स्वरूप ६३२-३

और मन-इनमें एकता और भिन्नता,

ज्ञान और अज्ञान ६३२

निम्नतर करणों में--जड़तत्त्व, प्राण और

मन में ६३२-३

अनन्त में से किस चीज को सामने

लायेगा, यही इसे निश्चित करता है

८६५

(दे० 'विज्ञान' अतिमानसिक और वि०

१८,७३,७५,७६,७७)

अतिमानसिक अवलोकन ८७६-८०

अतिमानसिक इन्द्रिय दे० वि० ७८

अतिमानसिक करण दे० वि० ७७

अतिमानसिक कल्पना-शक्ति ८८१

अतिमानसिक काल-दृष्टि दे० विद ७९

अतिमानसिक चिंतन ८७६

अतिमानसिक चेतना २१०

का अवतरण संभव नहीं जबतक

प्राण-शक्ति पर्याप्त विकसित और

उदात्त... १७६

और आध्यात्मिक जीवन को सार्वभौम

 

बनाना ही व्यक्तिगत और सामूहिक

पूर्णता ला सकता है २०६

तथा आध्यात्मिक जीवन की भित्ति है :

विश्वमयता २०७

परिपूर्ण, समग्र, सुस्थिर की प्राप्ति

तभी... ९०३

अतिमानसिक जाति ९२, ९३

अतिमानसिक ज्योति १५०

जैसे-जैसे बढ़ती है अशांति, शोक या

क्षोभ उत्पन्न ही नहीं हो सकते, एक

महत्तर आनन्द... ७३८,७४०

अतिमानसिक ज्ञान ८७७ दे० वि० ७६

अतिमानसिक तर्क ८८१-२

अतिमानसिक दृष्टि ८८९-९०

अतिमानसिक बुद्धि दे० वि० ७५,७८

अतिमानसिक लोक

जहां से लौटना नहीं होता ६४३ दे०

'स्तर' भी

अतिमानसिक विकास

का प्रभाव : विश्वमयता ९०२

अतिमानसिक विचार

बोध, संवेदन... की ओर प्रगति

५००-३

(दे० वि० ७६,७७ भी)

अतिमानसिक विवेक शक्ति ८८१

अतिमानसिक समुदाय

यदि बनाया जा सके तो दिव्य सृष्टि...

२०९

अतिमानसिक स्मरण शक्ति ८८०-१

अतीन्द्रिय दर्शन, अतीन्द्रिय श्रवण,

अतीन्द्रिय बोध ८९८

द्वैतवादी ३६०,३६४,४०४,५६६

अधिमानस १५०,२५७,४८२,४९८

अनासक्ति २४०, ३४६, ६४३, ६७९,

७३५

अनुभव [साक्षात्कार] (भगवान् का,

आत्मा का, आध्यात्मिक) ११४,

९६२


 

३३३, ४९९अ, ७९२, ७९५

बहुमुख, आवश्यक ११६

आधारभूत तीन, ११६-२०

का आरंभ पहले अपने अंदर या पहले

दूसरे में ११८-९, ३७४

जगत् के स्वप्न या भ्रम प्रतीत होने का

दे० 'जगत्'

अन्य, भी आवश्यक १२०, १३१

द्वैत का दे० 'द्वैत'

में पूर्णता क्रमश: २४५अ

उच्चतर, जब विस्मृत २४६

विश्वमय, विश्वातीत, व्यष्टिरूपों में

 २५५-६३

अतिबौद्धिक, में संतुलन आदि चीजों की

आवश्यकता २८४

एकीकारक २९६

में तीन क्रमिक अवस्थाएं ३०६-९

प्रत्यक्ष ३०७; इसके बाद तिरोभाव के

चाहे कितने भी अंतराय...३०७

स्थायी कब और कितनी शीघ्रता से

यह... ३०७

'सोऽहम्' का, करने के बाद 'तत्त्वमसि'

का ३४५

उच्चतम और विस्तृतम ३६५

उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ ३६६-८

मानसिक, आध्यात्मिक अनुभव में

 परिणत ३६६

जो मायावाद का आधार हैं ३६९

वह, चरम नहीं ३९०; आंशिक है ७९५

सर्व ब्रह्म का ४०७-८

सर्वप्रथम और बाद में जिस रूप में

४१६-७

परमोच्च ४३१,७८६

जो भी प्राप्त हो, उससे संतोष न कर,

उसे और अधिक शुद्ध, तीव्र

करने... ६०२

तबतक रुक-रुक कर ६०३

 

कि मर्त्यता आनन्द कलश बन जाती है,

फिर उसी पुरानी मर्त्यता में जा गिरती

है ६०५

सच्चिन्मय अनंत का और भगवती

महाशक्ति का ७७५

निरपेक्ष शांति और आनन्द का, और

उसका सहचारी निरपेक्ष तत्त्व : दिव्य

कर्म का आनन्द ७९५

मन, अंतर्ज्ञानात्मक मन और अतिमानस

में ८२९-३०

(दे० 'उपस्थिति'; वि० १६, २८, ३०,

३२, ३३,३४,४४,७०,७१)

अनेकेश्वरवादी धर्म ५९२

अन्नमय पुरुष ४६८-९, ४७३-५, ६४२

का आध्यात्मिक विकास ४७४-५

की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम ६३८

(दे० 'भौतिक मनुष्य' भी)

अपूर्णता ६४,२१८,२२६,२४७,५९९,

 ७१७,७३३

का जरा-सा कंकड़ भी... १०५

क्रियाशील अंगों में २५३-४

अभिमान ६२, ५५८

अभीप्सा ५८,२२२,५७६,५७७

दूसरों में, उद्दीप्त करनेवाली चीज ६७

भी कर्म और रूप के बिना शरीर-रहित

शक्ति १६५

'आध्यात्मिक कामना ६२५

अभ्यास

प्राण, शरीर और हृदय के ६५७-८

अमरता ३,२०,४४३,४४५

अर्ध्य [हवि] ८३, १११-२, ११३

अवचेतन सत्ता १८३,३९२

अवतरण १३२, १३३,२६२, ६०५

प्रकाश, शक्ति, आनन्द का १३०-१

'दिव्य सत्ता को पुकार कर अपने अंदर

उतार लाने की संभावना ४०३

(दे० 'आरोहण'-अवरोहण भी)

९६३


 

अवतार ६५,६६, १३२, ३३०,७८६

अशुद्धता [अपवित्रता] ३५३, ५३९,

५४०,६५४,६७९

का अर्थ ३१४,३१९

और अपूर्णता से हीं सीमाओं एवं बंधनों

का जन्म ६४८

के दो रूप ६५५

(दे० 'शुद्धि' भी)

अशुभ [अशिव] १२७, १८६, २१४,

२२६,३३६,५१७

(दे० 'शुभ' भी)

असत्य १५५,२६४,३२८

असफलता [विफलता] २५,६३,२२७,

२४७,२४८,७४१

असुर ११०, ११८,४७६

असूया ७८९

अहं ६२, ८७, ९४, ११८, १४२, १५९,

२२१, २३२, २३९, ५१३, ६३८,

 ६४८,६५६,८५७

का समाज के साथ यथार्थ संबंध २१

का समर्पण : ४६, ५९-६०, ६४,९१,

आवश्यक ८८

से मुक्ति : ४८,६०,९७,१२९,१६२,

२८२, ४४४, ५००, ५७५, ७२७,

के सोपान २४९-५३, की कसौटी

३३४-५

का ग्रसन ५८

-कर्तृत्व की भावना : का भ्रम ५९,

२३८,४३५, का त्याग ९४, २१७,

 २१९, २३०-१, २४५,२४९,२५०,

७७८, ७८०अ

के संकल्प, ज्ञान, बल की अपर्याप्तता

५१ दे० 'प्रयत्न' भी

की [स्वतंत्रता इच्छा] ६०,९७,

९८-९, १००, १०४, १०८, १९०,

 १९१, २१६, २१९, ४५२, ६४५,

 ७६८, ७६९अ

 

 

का प्रयत्न दे० 'प्रयत्न', 'संकल्प'

वैयक्तिक

का पृथक्-अस्तित्व का बोध ७७,१०८,

४४४, ४९७, ५००, ५०६, ५०७,

६४८-९, ६९९

-व्यक्तित्व : और सच्चा आध्यात्मिक पुरुष

८६, २१८, नश्वर, सांस्थानिक स्व है

२७७, प्रकृति की एक रचना है (दे०

नीचे [मन] प्रकृति), क्षर पुरुष है

३८२-३, के प्रति आसक्ति ही अज्ञान,

असामंजस्य, कलह का मूल है ३८९

 [मन] अपने बल पर रूपांतर नहीं साध

सकता ८८,६२५,७७४

का त्याग करना होगा ९२,११५,१५४,

१७७, १८९, २४४, ३३१, ३३२,

३३३-५, ४४७,६४०,७२८

के स्थान पर प्रतिष्ठा : ईश्वर की ९२,

केन्द्रीय पुरुष की १७९, दिव्य शक्ति

तथा प्रज्ञा की गति की २०८, सच्चे

केन्द्र की २३१, सच्चे व्यक्तित्व की

४४४

में रहते हम प्रकृति के गुणों के अधीन हैं

९७

से ऊपर उठ कर हम विश्व-प्रकृति को

लांघ जाते हैं ९७

में नहीं

का कुछ सशोधन भर १०४अ, १५५

का स्थान १०४,३५५,६८८

और यज्ञ-विधान १०८

उग्र, के लिये उग्रता ११०

का विलय : १११,११९,१७९,२०७,

२५८, २८९, ४४४, ५००, ५०६,

५०७, यदि न हो भगवान् के अनुभव

के बाद... ११८

-अस्तित्व के लिये संघर्ष १६६

ईश्वर में निवास १०३,४४१

-व्यक्तित्व और अविभाज्य विश्व-कर्म

१९१

 ९६४


 

[मन] प्रकृति की एक रचना, उसका

यंत्र, खिलौना १९१, २१६, २१९,

२३८, २५६, ६४०, ६४१, ७६९;

मन, प्राण, शरीर में इसका रूप २१६

और सामाजिक नियम १९६अ, २१२अ

तथा कर्मसंबंधी सत्य २१६-८

विषयक सत्य २१६,४४३,४४६

-मय तृप्तियां २२४

के पीड़ाव २२४

गुणों की परस्पर-क्रिया की धारक ग्रंथि है

२४०

सात्त्विक, राजसिक, तामसिक से मुक्ति

२४०अ

यंत्र-भाव का २५०-२

को वश में तो कर लिया जाये, पर

उन्मुलन न किया जाये तो... २५३

यंत्र-स्वरूप, को समर्पित करने के बाद

भगवती शक्ति के सत्य-स्वरूप के

प्रति उन्मीलन २५३-४

-पूर्ण तरीके से अतिमानस की खोज

संकटपूर्ण २८१अ, २८३अ

से मुक्ति पहली शर्त विज्ञान की प्राप्ति

की २८२, ४९७

'अहंतापूर्ण स्वेच्छा का त्याग ३३१,

३३२-३

के सूक्ष्म छद्मवेश ३३३-४ (दे०

 'कर्म-यज्ञ' भी)

के लिये जीना ३९५

के साथ तादात्म्य ४१५

की दीवारों को तोड़ना चारों ओर से या

ऊपर से ४१५,४२१

के साथ जकड़ा हुआ नहीं है

विज्ञान-केन्द्र ४९८

बन्धन की प्रधान ग्रन्थि है ६४८

को विस्तृत करने के आवेग के द्वारा ही

 मनुष्य एकता की ओर प्रेरित ६४९

एकत्व को नहीं पा सकता ६९१

का विकास, फिर उससे छुटकारा ७७८

(दे० वि० १४,२७,७१)

अहंबुद्धि ६४०

का विलय ११९

से छुटकारा २४९-५३

इस सब बुराई की जड़ ३५५

का स्थान ३५५

 

का विकास, फिर उससे छुटकारा ७७८

(दे० वि० १४,२७,७१)

अहंबुद्धि ६४०

का विलय ११९

से छुटकारा २४९-५३

इस सब बुराई की जड़ ३५५

का स्थान ३५५

की आग्रहपूर्ण ग्रन्थि: चैत्य प्राण,

कामनामय मन ३५५

आत्मा का एक करण ६५६,६६२

से मुक्ति ६८८-९३

से मुक्ति का उपाय ६८८

का पूर्ण उन्मुलन करणों की शुद्धि के

बिना संभव नहीं ६८८

से मुक्ति के लिये एकता के विचार को

स्थापित करना आवश्यक ६८८-९

 से मुक्त होने के यत्न और पूर्णयोग का

मार्ग ६८९-९०

समस्त दुःख, अज्ञान और पाप का मूल

६९०-३

सीमाकारी ६९०

विश्व के साथ असामंजस्य में रहती और

अपनी सत्ता के साथ भी कलहरत

६९०-१

को उत्पन्न करनेवाली चीज ६९३

का निमज्जन वैश्व साक्षात्कार में ७८०

 

 

 

आकाश ब्रह्म ३७४,३७५

आकाश लिपि ९१७

आत्म-अविश्वास ७९६

आत्मख्यापन १७७

आत्मज्ञान ९१,३९०

का सबसे पहला कदम २१६

भौतिक विज्ञान या बुद्धि से लभ्य नहीं

३०३-४

के लिये यथार्थ धारणा आवश्यक पूर्व

९६५


 

साधन ३०४- ५

पूर्ण बौद्धिक निष्क्रियता में ३१८

और शुद्धि व मुक्ति परस्पराश्रित ३५८

के साथ विश्वज्ञान भी ३७६अ, ३७८

का कार्य ४४२

की शक्ति ४४४

का फल ४४४

आत्मदान

है परम पुरुष के साथ अविच्छिन्न संबंध

की पराकाष्ठा २०६अ

आत्मनिवेदन

कर्मों में समग्र, का अभ्यास २२३-५

भक्तियोग में ५८१ - ३

का स्वरूप सर्वांगीण योग में ५८२

(दें ० वि ०७)

आत्म-प्रभुत्व २४८, ६४०

और परिस्थितियों पर प्रभुत्व ७१४- ५

और आत्मसमर्पण को समन्वित कैसे करें

७८४; इस साधना में तीन अवस्थाएं

७८४- ६

(दें० 'प्रभुत्व' भी)

आत्मभाव २१४

आत्म-यंत्रणा [ आत्मपीड़न ] ११०, १११,

३३५

आत्मा

का सर्वोच्च सत्ता के साथ यथार्थ संबंध

२१

जड़पदार्थ और मन के परस्पर संबंध

२९, ४७३

के साहसिक कर्म का लक्ष्य ८६

की स्वतंत्रता कर्मों के भीतर भी ९७,

२१५ २३४, ३७०, ४११

बन जाते हैं हम, अहं से ऊपर उठकर

९७

में हम प्रकृति के गुणों से उत्कृष्ट हैं ९८

की प्राप्ति, समता के द्वारा ९८

हमारी सच्ची, सबके साथ एकीभूत है

९८,३७३,४१७

हमारी सच्ची, अहं [प्राकृत व्यक्तित्व या

मानसिक सत्ता] नहीं है ९९, ११८,

२९८,३४०,३४६,३७३,३८२

९८,३७३,४१७

हमारी सच्ची, अहं [प्राकृत व्यक्तित्व या

मानसिक सत्ता] नहीं है ९९, ११८,

२९८,३४०,३४६,३७३,३८२

 

९८,३७३,४१७

हमारी सच्ची, अहं [प्राकृत व्यक्तित्व या

मानसिक सत्ता] नहीं है ९९, ११८,

२९८,३४०,३४६,३७३,३८२

का अनुभव [प्राप्ति, साक्षात्कार] : ११८,

२५०, ३०७, ३४१, ३५५, ३५६,

३५८,३६५, ४७२अ, ६५२,६७६,

व्यक्ति को ही ३१,३८१, अपने अंदर

और बाहर ३७४, अंतर्व्यापी स्वरूप का

३७५-६ को पाने का अर्थ है

आत्मानन्द को पाना ३९४-५

का अनुभव [प्राप्ति, साक्षात्कार] : ११८,

२५०, ३०७, ३४१, ३५५, ३५६,

३५८,३६५, ४७२अ, ६५२,६७६,

व्यक्ति को ही ३१,३८१, अपने अंदर

और बाहर ३७४, अंतर्व्यापी स्वरूप का

३७५-६ को पाने का अर्थ है

आत्मानन्द को पाना ३९४-५

प्रकृति में से प्रकट १२८

की स्थितिशीलता में ही नहीं, प्रकृति की

गति में भी दिव्य चरितार्थता २५४

की अभिव्यक्ति नीरवता में ३१८, ३५८

 की जागरित, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाएं

३२४ टि०, ५२८,

के बंधन : ३३२-३, की त्रिविध रज्जु

४८८

में निवास का अर्थ ३३५

को निज स्वरूप की विस्मृति ३४६

को पा लेने के बाद जगत् के साथ सच्चे

संबंध की स्थापना ३७१-२

पहले परोक्ष प्रत्यय... ३७१; तब

महज एक नाम ४१२ दे० 'भौतिक

मन' का प्रभुत्व भी

और जगत् के संबंध को जोड़नेवाला

सूत्र ३७२

और जगत्-सत्ता के संबंध ४४१,

४५५-७

के संबंध में अन्नमय पुरुष का सर्वोच्च

प्रत्यय ४७४

की भूमिका के अनुसार प्रकृति की

भूमिका ४८२

शरीर में नहीं, शरीर आत्मा में ४९८

के प्रत्यक्ष करण : अतिमानसिक ज्ञान,

संकल्प और आनन्द ६२०; आत्मा के

९६६


 

चार करण : अतिमानस, मन, प्राण,

शरीर ६३२-४ आत्मा के करण :

शरीर, चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार

६५२-६३

की समस्त शक्ति-सत्ता और

चेतना -इन दो रूपों में कार्य करती

है ६३३

के स्वातंत्र्य और प्रभुत्व का पहला पग :

अहंबुद्धि से मुक्ति ६४०

को शुद्धि की आवश्यकता नहीं ६५२

की मुक्ति ६९४

सम और अचलायमान हैं ७११

की समता ७३५-६

(दे० 'पुरुष', 'जीवन', 'द्वैत', 'संकल्प'

भी)

आध्यात्मिक आत्मसात्करण ८६७

आध्यात्मिक चेतना

जो रसग्राही नहीं १६६

आध्यात्मिक जीवन १९,२११

और जागतिक कर्ममय जीवन में विरोध

६,३२८,३२९,३३०

की विशेष शक्ति २०

का सच्चा कार्य २७

पूर्ण ४८-५०

के प्रति जागरण ७०, १८६,६२४

को वास्तविक बनाने, जीवन में उतारने

की आवश्यकता ७०,२०६, ३८८

 का वास्तविक रूप ४३६

(दे० वि० २, ३ भी)

आध्यात्मिक ज्ञान ३१५,५२१

में हम बच्चे हैं : चिह्र ४६७

आध्यात्मिकता

और सामाजिक जीवन २३, २७-८

और नैतिकता १३९

आध्यात्मिक भविष्य हमारा ५९५

आध्यात्मिक शक्यता विशालतर ६१९

आध्यात्मिक सत्ता

 

 

और मानसिक सत्ता ३९८-९

(दे० वि० ३१ भी )

आध्यात्मिक सिद्धि [सिद्धि]

का स्थिर आधार और उसका सक्रिय

सिद्धांत ६३२

(दे० वि० ५८,६४,६५ भी)

का स्थिर आधार और उसका सक्रिय

सिद्धांत ६३२

(दे० वि० ५८,६४,६५ भी)

आध्यात्मिक स्थातंत्र्य [आत्मा में स्वतंत्र]

९७, १९२अ, २३४,४११,४५०,

 ६८७ दे० 'स्वतंत्रता' भी

आनन्द ४४, ४९, ६४, १०६, ३२९,

३५७,३९४,३९९, ४००अ, ४२८,

४२९, ४५६अ, ४९६,७३०,७३१

और सुख १५, १२२, १८६, २२४,

५०५,७१६

से ही जगत् बना है ८४,५१४

का अवतरण १३१

और दुःख कष्ट १३१,३९२, ४५६

वस्तुओं में हमें अवश्य लेना चाहिये

३३२

मनुष्य का ४५६-७

और विज्ञान-शक्ति ५०२-३

आत्मा का मूल स्वभाव ५०५

का अनुभव देह, प्राण, मन के स्तरों पर

भी ५०६; की प्राप्ति सभी स्तरों पर

५१२

और प्रेम : ५५५, ५७९, और सौंदर्य

५९९

का मतलब ६५५

की प्राप्ति ६६५

का तत्त्व सभी वस्तुओं में ७३०अ

(दे० वि० ४२,५२,५३ भी)

 

आनन्द-आकाश ८८७

आनन्द-कोष १५,४६२

आनन्दमय पुरुष ४८१ (दे० वि० ४२

भी)

आनन्द-भूमिका दे० 'स्तर'

आराधना ५८०-२

९६७


 

आरोहण

महत्तर चेतना की ओर : ९२, १३४,

,१३६,१९४,२५६,२५७, ६४६-७,

७७४, ७९२ में कठिनाई का कारण

६४६

-अवरोहण ९२, १३४, १८६-७, २५७,

२५८,२६२,३२६,५०६

'यत्सानो: सानुमारुहद्... १३४ टि०,

 ८५५

जहां पूरा हो जाता है ४८१

आवश्यकता (भौतिक) १४०, १९५

२०७,२१०,२११, २६७अ

आवेग [आवेश, भावावेग... ] ८७,

१५२, २३९, २४३, ४५८, ४७६,

५०२, ७१८-९, ७८८,७९४

शुभ कार्य, कृपा एवं प्रेम का ३५६अ

आवेगात्मक मन [सक्रिय मन]

की शुद्धि ६७२

के कार्य का ठीक रूप ६७२

आसक्ति (का त्याग) २१९,५९९,६७०,

७०२,७३६

जीवन की किसी वस्तु के प्रति १८८,

३३१-२

विचार, सम्मति, दृष्टिकोण के प्रति ३१६,

३३२, ७१९अ, ७३१

मोक्ष के प्रति ३३१

सत्यों के प्रति ३३३,७९२

अहं को छुपा सकनेवाले चिथड़ों के प्रति

३३३-५ अहं-व्यक्तित्व के प्रति

३८९

अकर्म के प्रति ३३५,३५०

पुण्य के बाह्य रूपों के प्रति ३३५

आत्मा की किन्हीं भूमिकाओं एवं

साक्षात्कारों के प्रति ३३६,७९२

देह व प्राण के प्रति ३४१, ३४७,३५२

प्रतिमा या प्रतीक में ६०२

(दे० 'कर्मयश' भी)

 

 

 आसन ३४,३६,५४८,५४९,७४६

 

 

 

इच्छा शक्ति ८६, १३७,२२२, ३१४

मानसिक, और दिव्य इच्छा शक्ति ९९

व्यक्तिगत, का हस्तक्षेप त्रिकाल-ज्ञान में

९२१-२

(दे० 'कामना'; 'संकल्पशक्ति' भी)

इन्द्रिय [इन्द्रियां] २९३अ, २९४, २९५,

३०८, ३३५, ४९५, ५००, ५०१,

५०२, ८५२

स्थूल, की समाधि में बाधा और उपाय

५३०-१

सूक्ष्म, का ज्ञान-क्षेत्र ५३०-१

विवरण ६६०,६७३-४

मूलत: संज्ञान है ८८३

के व्यापार के विषय में हमारा विचार

८८५

शुद्ध, आत्मा की ही शक्ति है ८८५

(दे० वि० ७८ भी)

इन्द्रियाश्रित मन २९५,३११अ, ६५६

का मिश्रण बुद्धि में ३१५-६

का निज स्वरूप ३१६

से मुक्ति ३१६

का यथार्थ धर्म ३५४

में प्राण का हस्तक्षेप ३५४

को सबमें सर्व-सुन्दर का समरस प्राप्त

करना होगा ३५७

विवरण ६६०-१, ६७३-५

और इन्द्रियों की क्रिया ६६०

आभ्यन्तरिक, में सूक्ष्म शक्ति भी

६६०-१, ६७४

भौतिक और अतिभौतिक, दोनों प्रकार

का हमारे अंदर ६६०-१

का सर्वप्रथम कार्य ६७४

में प्राथमिक विचार-तत्त्व ६७४

इष्ट देवता ६५,६६,३८५, ६०७अn

 ९६८


 

के पास पहुंचने के तीन सोपान ३८६- ७

ईक्षण २२०, ८५२

ईसाई आचार-शास्त्र   २०५

 

 उ

 

उच्चतर जीवन [दिव्य जीवन] १४-८,

 ४८-५०, ६९१

उच्चतर प्रकृति ४४

की क्रिया की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएं

४६-८

उच्चतर बुद्धि

और इन्द्रिय मानस २९५

और बौद्धिक प्रज्ञा ३१३

में निरीक्षण, कल्पना, तर्क, निर्णय और

स्मृति का रूप ३१३-४

उच्चतर मन ८०,८१,८२

और तर्क बुद्धि ८१

उत्सर्ग

पत्र-पुष्प-फल-तोय का १११,१६४ टि०

उत्साह ५३,५८-६१

(दे० 'प्रयत्न' भी)

उदासीन १०२, २४१, ३६टटि०

उदासीनता ३३३,७२३

एवं तटस्थता का काल समता की प्राप्ति

में २२९, ७२५-६, ७३३

नहीं, सक्रिय प्रेम और आनन्द ३५७

उदाहरण

'मीडिया' का कड़ाह ३

यहूदी लोग जिन्होंने पैगंबरों को पत्थरों से

मारा २२

अंधे को देखने और लंगड़े को... ४६

जैसे लुहार कच्ची धातु से कोई चीज

गढ़ता है ४७

मानों सारे संसार को दो हाथों में भर

लेना चाहें ८०

समिधाएं, सूखी और आर्द्र १४४

जैसे सूर्यमुखी का स्वभाव सूर्य की ओर

 

मुड़ना... १५६

मानव-प्रकृति कुत्ते की दुम के समान

१७४

जैसे सूर्य से प्रकाश निकलता है...

२२०

जैसे एक बार चलाकर काम में लगायी

हुई मशीन २३७अ

जैसे लड़की पुतलियों से खेलती है २३८

सोने की जंजीर भी वैसे ही तोड़ फेंकनी

होगी जैसे बेड़ियां २४०

कुंभकार यदि एक पात्र को दूसरे की

अपेक्षा अधिक पूर्णता से गढ़ता है तो

उसका श्रेय... २५२

मिट्टी के ढेले की जड़ता भी एक कर्म है

२६८

स्थिर, निश्चेष्ट बैठा मनुष्य अज्ञान से

उतना ही बंधा... २६८

सैनिक का कर्तव्य... २७६

स्वच्छ, शांत, निस्तरंग सागर के समान

३१८

भले हम दुर्बलता और भय के पुंज रहे

हों... ३२०

जाले में मकड़े की तरह ३३२

घड़ा मिट्टी का एक रूप ३४२

जैसे कोई बच्चे के काल्पनिक

सुख-दुःखों पर मुस्कराता... ३५६,

 ७२६.

स्वच्छ सरोवर में आकाश की भांति

३६६, ४०३

गगन में मुक्त किये गये पक्षी की तरह

या मुक्त प्रवाह की तरह ३६७

जैसे आकाश घट को अपने अंदर...

३७५

एक ही समुद्र की लहरें... ३७९

मैं शक्कर बनना नहीं चाहता, शक्कर

खाना चाहता हूं ३८१

मैं था तो सही, पर अचेतन था ३९१

९६९


 

 

स्वच्छ दर्पण ४०३,५२३

मनोवैज्ञानिक परीक्षण : सब क्रियाएं

प्रत्यक्ष कर्ता के विचार और संकल्प

के बिना... ४१०

भारतीय संत : बैल पर पड़े कोड़े के

निशान उनकी देह पर ४२२

बंद पुस्तक के समान ४५६

हवा में लुढ़कते पत्ते की तरह ५०६,

५१०

 हृदय की धड़कन स्थगित करना ५४२

जैसे बीज में से पत्ता और फूल...

५८४

फूल के खिलने के समान ५१९,६०३

जिस प्रकार वाद्य-तार गायक की अंगुली

के संकेत पर... ६१०

पशु के मन को यदि तर्कशील बुद्धि के

संक्टपूर्ण साहस के लिये ऐन्द्रिय

आवेग, समझ व सहज-प्रेरणा के

सुरक्षित आधार को छोड़ने को कहा

जाये तो... ८१७

जैसे कोई कमरे में रखी, पहले से विदित

वस्तुओं पर दृष्टि डालता है ९१०

(दे० 'उद्धरण-सूची' भी)

उपस्थिति (भागवत) ११३, १३२, १४०,

१७९,२०५,२४९

का अधिकाधिक अनुभव ११६, १३५,

७७५

सर्वव्यापी, का बोध ११७,२६४

का अनुभव प्रत्येक गतिविधि में २५४

स्थितिशील विद्यमान, पर प्रकृति की

क्रियाएं त्रिगुण का अनुसरण...

४८३

के प्रति आकर्षण ६००

आश्रयदायिनी ६०१

का नित्य-निरन्तर चिंतन यदि... ६०४

के साथ भी प्रेम एवं उसकी उपासना

संभव ६०६

 

की क्रिया, और रूपांतर ६२८

उपभोग दे० 'भोग'

ऋषि ३०६,९०८

-यों की साधन-पद्धति ४०६

को विचार की सहायता... ८५२अ

ॠतम् ४९३ टि०

 

 

एकत्व [एकता] १६६, २०९, ४९१,

 ७११,७५२

और समता ९७, १८, ७२८-९,

 ७३५अ, ७३८

सक्रिय, स्थितिशील ही नहीं ९७,६४६,

 ७८६

ब्रह्म के साथ और सबके साथ १०२,

३३१, ३४४, ३६६, ३८२, ५१९,

 ६९१,७०९

निगूढ़, सभी अहं की १०८,६४८-९

प्राणियों की समस्त, आत्म-गवेषणा है

१०९

सच्चा, संगठन और निकटता नहीं ११०

द्वैत में, का अनुभव क्रियाशील और

फलोत्पादक १२३, १२५

और बहुत्व (विविधता] १३१, ३९९,

४२० टि०,  ५५९,६३७

और संबंधों की क्रीड़ा साथ-साथ १७१

विश्व-कर्म की १९०

विश्वमय, से परात्परता के एकत्व में

आरोहण २५६

सर्वभूतों के साथ सारतः ही नहीं, लीला

में भी २५८

आत्मा और भूतमात्र की : ३४५,३७२,

का आधार ३७३

उच्चतम और विस्तृततम ३६५

वास्तविक ३७९

का अनुभव ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग व

प्रेममार्ग में ३८१अ

९७०


 

 

ही सत्ता का मूल सत्य ३८८,४४१-२

वह, जो सच्चे ज्ञान को प्राप्त करना होगा

३९०

पूर्णरूपेण तृप्त करनेवाली ३९०-१

को फिर से पाना ही सर्वोपरि साधन,

मानव कष्ट में से निकलने का

३९५अ

देश-काल-गत अभिव्यक्ति के साथ भी

३९८

पर आधारित है दिव्य स्तर ३९९,६३७

पूर्ण, से जुगुप्सा ४२०-१

विराट् ४३१

पर बल देने का कारण ४४१-२

को फिर से पाना आत्म-ज्ञान का मूल

कार्य ४४२

विश्वमय, विज्ञान-प्राप्ति की पहली शर्त

४९६-७

परमदेव के साथ, का अर्थ ५३६

व्यक्ति और विश्व की ६४८-९

के विचार को स्थापित करना अहं-बुद्धि

से मुक्ति के लिये आवश्यक

६८८-९

और अतिमानसिक ज्ञान ८७७

(दे० 'तादात्म्य' और वि० २८,३४ भी)

एकाग्रता २९०, ४६९, ५००अ, ५२५,

५३०,५३८,८७८

आवश्यक एवं पहली शर्त ७०, ७९,

८०,८८,

एकांगी ७४-५, ७८,७९,४०८

सर्वांगीण ७९,८०

विचार, संकल्प, हृदय की ८२, ८४-५,

 ८६-७, ९१

और शुद्धता ३१९,३२०,३२८

और त्याग की दोहरी शक्ति की सहायता

३३७,३४१,३६६

की आवश्यकता दो कारणों से ५२३-४

सर्व समर्थ साधन, इन्द्रियों के द्वारों को

 

 बंद करने का ५३१

के अवलंबन ५८३

(दे० वि०७, २२ भी)

ओ३मू ३२१,५३७

 

 

 कठिनाइयां सर्वश्रेष्ठ सुअवसर १०

कर्तव्य कर्म २७६

कर्म ३७८, ४६९, ५००, ५२२, ६८१,

६८६,६८७,७४२, ८४१,८६५

सभी ईश्वरार्पण भाव से ९७, ११३

में आत्मा की स्वतंत्रता ९७, २१५,

२३४

अचल शांति में से ९७, २४३, ३८४,

४०९

यंत्रारूढ़ की भांति ९७, ९९, २५५,

८२१

का प्रेरक बल कामना नहीं, महत्तर

शक्ति १०३, १४८

का चुनाव १०३,२१२,६७१

समस्त, करने ही होंगे १०६; 'सर्वकृत्

३०१

 का [कर्मों के परिणाम का] निर्धारण

११२, १९०, २१७, २९२,४३५,

४७३, ७३९-४०, ७७०; के परिणाम

ही नहीं, प्रारंभ, क्रिया-प्रक्रिया का

निर्धारण भी १९१

का अर्पण अपने-आपको, दूसरों को

या जाति को नहीं, बल्कि इनके द्वारा

एकमेव को ११३

कीं प्रक्रियाएं और परिणाम भगवान्

को अर्पित ११३

हम ही करते हैं, की भावना दे०

 'अहं'-कर्तृत्व

को अपने हाथ में लेना भगवान् द्वारा

१३२

 

९७१


 

और जीवन के स्वीकार में तीन अवस्थाएं

१४०-१

अज्ञानमय, से अकर्म के निकृष्टतर

अज्ञान में नहीं गिराना १४६

का कर्ता (कर्त्री) १८०, २१७, २१८,

 २२५, २६८, ४१०, ४११, ४१८,

 ४३५,७५४,७६९,७८५

हमारा, अविभाज्य विश्व-कर्म का भाग

१९०

की यह सार्वभौम दृष्टि और अहंमय

वैयक्तिक स्थिति १९१

निरदोंष, तभी संभव २०८

अतिमानसिक, और आचार के मानदण्ड

 २०८

में, कामना के बिना, रहने का अर्थ

२१३

की परिस्थिति २१३-४, २७०-१

हम नहीं करते, हममें घटित होता है

२१६

-विषयक सत्य २१६-८

में सबसे पहले साधक को जो करना

होगा २१८-२०

का भर्तामात्र, कर्म करता दुआ भी

अकर्ता २४४

भगवान् का, हमारे अंदर अपूर्ण यदि

हमारी प्रकृति अपूर्ण २५३-४

में यथा 'नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि' की

स्थिति २५४, इससे भी महान्

अतिमानसिक संभावना २५५

 में भगवान् से मिलन २५५-६, २८०,

५५५,५६२

में भगवान् से मिलन विश्वमय,

विश्वातीत व्यष्टिरूप में २५५-६०

 में वैश्व-शक्ति से परिचालित होने का

अनुभव २५५-६

तब आद्या भगवती सत्य-शक्ति से

उद्धृत २५५

 

में विश्वमय एकत्व से परात्पर एकत्व में

आरोहण २५६-७

 में भगवान् से मिलन--जो दूसरे

में विश्वमय एकत्व से परात्पर एकत्व में

आरोहण २५६-७

 में भगवान् से मिलन--जो दूसरे

पराभक्ति या शुद्ध ज्ञान से उपलब्ध

करते हैं २५६

की प्रेरणा, प्राणिक प्रकृति को, तीन निम्न

आशयों से २६७

अनिवार्य है, जबतक जीवन है २६८

मनुष्य नहीं करता, प्रकृति करती है २६८

का कोई बंधन नहीं रहता २६८, २६९,

३६९, ३७०, ३८४, ४११

प्रथम अपने विकास और परिपूर्णता के,

बाद में दिव्य चरितार्थता के साधन के

रूप में २६८, ३००--१

बिना कामना के, असंभव, यह समझना

भूल २६९

ज्ञानमार्ग में दे० ' ज्ञानमार्ग '

शारीरिक, करने या न करने का प्रश्न

३५०--१

अत्यधिक, योग में बाधक ३५०

से विरत होने की शक्ति ३५०

प्रकृति की शक्तियों की तरह--बिना

द्वेग, श्रम, प्रतिक्रिया के ३५०अ

में युक्ताहारविहार ३५१

'पूर्ण स्थिरता, एकांतवास, निष्कर्मता के

अवसर परम वांछनीय ३५१

हमारी प्रकृति का और भगवान् का ३६८

तो होता है, पर व्यक्तिरूप कर्ता नहीं

३६९

के पूर्ण प्रवाह में भी ईश्वर के साथ एक

३७०

बुद्धिप्रधान भी, निष्क्रिय यंत्र के रूप में

४०९-११

हमारा अधिकांश, यांत्रिक गति द्वारा

४०९

केवलैरिन्द्रियै : ४१०

बाह्य, साक्षात्कार के बाद ५०७, ५०८

९७२


 

का नियमन निम्न स्तरों पर और विज्ञान

में ५०९-१०

जीवन की प्रमुख शक्ति ५५५

को भगवान् की ओर मोड़ देने का

परिणाम ५५५

ज्ञान में परिसमाप्त ५५५

सभी, आनन्द से उत्पन्न ५५७

बाहरी तथा विक्षिप्त करनेवाले तभीतक

५६१

मनुष्य का, सामान्यत: भय और कामना

से प्रेरित ५६३

के गण पर नहीं, कर्म के मूल स्रोत-रूप

आत्मा के गुण पर बल ५७४

भी करना है, शुद्ध आत्मस्वरूप की

प्राप्ति ही नहीं ६५२

का त्याग, त्रिगुणातीत अवस्था पाने के

लिये ७००-१

आध्यात्मिक, का स्वभाव ७०५

विज्ञान के आधार पर ७०८अ

तब सर्वोच्च प्रभु का ही कर्म होगा ७४०

आंतरिक, और ही ढंग का हो जाता है

७४१

विषयक, पूर्णयोग का, ध्येय ७४३

कठोर या प्रचण्ड हिंसापूर्ण, में भी समर्थ

७५१

जीवन में मनुष्य का समस्त, पुरुष और

प्रकृति की ग्रन्थि ३७५४-५

करने का केन्द्र तब पहले की तरह हमारे

अंदर नहीं रहता ७७६

करना अंतःस्थ परमेश्वर को, अंतर्ज्ञानमय

पुरुष को सौंपकर ८२१-२

कामना से परिचालित दे० 'कामना'

(दे० 'आध्यात्मिक जीवन', 'प्रेम',

 'भागवत शक्ति', 'विज्ञान',

'समर्पण'; वि० ८, १०, ११, १७

भी)

 

 कर्म (मुक्त आत्मा का) [आध्यात्मिक

 

कर्म, दिव्यकर्म] ८६, ३६८,३८२,

४२०,४३०, ६५३-४, ६८०, ७०५,

 ७८४

तब भी शेष २७४,३०१

का ढंग ७१४

(दे० वि० १७ भी)

कर्म-मार्ग [कर्मयोग] ३२, २१५,२५३,

 २८०, ३६९, ३८१, ५६२, ५७३,

 ५९६,५९७,६१६

का स्वरूप ३९-४०

पूर्णयोग का अनिवार्य अंग ९३

का मूल साधन और साध्य ९४

भक्ति मार्ग से जा मिलता है ११४

ज्ञान मार्ग में बदल जाता है ११५ (दे०

वि०४७ भी)

का शिखर २१५

में प्रकृति की मुक्ति २४४

की पूर्णता २७८,४३०

में हमारे सामने एक और ही भविष्य

खुलता है २७९

तबतक पूर्ण नहीं ३६५

कर्म-यज्ञ

के दो पहलू : स्वयं कर्म और कर्मगत

भाव २२३

का निर्धारक प्रकाश २२३

का मूल तत्त्व : फल कामना का समर्पण

२२३

जब भगवान् को नहीं, अहं को अर्पित

२२३-४

में फल कामना और अहं के छद्म रूपों

के प्रति जागरूकता आवश्यक २२४,

३३३-४

में फल के प्रति, कर्म के प्रति और

कर्ताभाव के प्रति आसक्ति का त्याग

२२४-५

कर्मयोगी

की श्रद्धा ११४

९७३


 

 

की चेतना १९०

पूर्ण, के कार्य को प्रेरित करनेवाले उद्देश्य

२११,२७५

में दिव्य सत्य उसके स्वधर्म के अनुसार

ज्ञानी, शूरवीर, योद्धा, प्रेमी, कर्मी

आदि रूप में कार्य करेगा २१५

की और ऊंची उपलब्धि. आनंत्य की

२१५

(दे० 'परिस्थिति'; वि० १३ भी)

कर्म-शृंखला ४०२

कला २४, १४४, १४५,४३१,५२१

कल्पना [कल्पना-शक्ति] ३१३, ४५९,

४९०,८७४

कामना ७९, १०३, १३९, १४२, १४८,

१८१, २८३, ५०२, ५६३, ५७६,

५७८,७८८,७९४

प्रकृति का शक्तिशाली उपकरण ८०

पर वशित्व ८०,८१

का तत्त्व ऊर्ध्वमुख प्रयत्न में ८५

को प्रशिक्षित करना ८५-६

का त्याग ९२, ९७, १७७, १७९,

१८९,२४४,२४९,३३१,७४९

 'फल कामना का त्याग १०४, १७९,

२४९; 'फल कामना का अर्पण

२२३-४

'फल कामना के बिना कर्तव्य कर्म करना

१०४-५

के रूप १०४, १०६, २२४ (दे०

 'प्रलोभन' भी)

की जन्मभूमि १०४,६८६

के बिना काम करना कैसे संभव १०६,

२६९

ही हमारे कर्म की चालिका १०६,१७७,

 ६६८,६८६

से मुक्ति १२९,६८६-८

के विनाश का अचूक चिह्न : पूर्ण समता

१७९

 

की मृत्यु १८०

और आवश्यकता का नियम १९५'

 २०७,२१०,२११-२, २६७अ

और अहंभाव जहां-जहां, आवेग और

विक्षोभ भी वहां-वहां २३९

'फल-कामना और श्रद्धा २४६

प्रकृति का एकमात्र इंजन नहीं २६९

सहायक इंजन कबतक २६९

मुक्ति की दे० 'मुक्ति'

का मिश्रण बुद्धि में ३१४-५

इच्छा शक्ति की एक अशुद्धि ३१४,

 ६६८

का अर्थ ३३२,६६६

की तृप्ति प्राण का प्रधान रूप ३५३,

४५८

 सब कार्य-सिद्धियों का, साथ ही सब

दुःखों का मूल ३५३

को ज्ञान की उच्चतर शक्ति हाथ में

लेकर... ५०२

जब मिट जाती है तो दुःख-शोक भी

मिट जाते हैं ५०२

'आध्यात्मिक कामना ६२५; दिव्य

कामना ६६९,७०९

का मिश्रण प्राण की क्रिया में ६५५

का मिश्रण मन-बुद्धि की क्रिया में ६५५,

६७९

सूक्ष्म प्राण की सबसे बड़ी विकृति

६६६,७१६

का मूल ६६६

की सुधा अनंत, दुष्पूर ६६६

समस्त दुःख, निराशा, वेदना की जड़

६६७

से मुक्ति, सूक्ष्म प्राण की शुद्धि है ६६७

को निकाल फेंकने से जीवन के स्रोत

कहीं बंद तो नहीं हो जायेंगे ६६८-९

और शुद्ध इच्छाशक्ति में भेद जानना

आवश्यक ६६८-९

९७४


 

की दो ग्रन्थियां : प्राणिक लालसा और

आत्मिक संकल्प-शक्ति ६८६

के इस आध्यात्मिक बीज का भी

बहिष्कार करना होगा : निष्क्रिय मार्ग

और सक्रिय मार्ग ६८७-८

से मुक्ति का मतलब ७१५अ

कामनामय पुरुष [कामनात्मा, कामनामय

 मन] ८५,५२०, ६७९,७४९

का जन्म १५२,१७७,६५७, ६५९; की

सृष्टि ४६१

और जीवनेच्छा १७२-३

स्वरूप १७७

के स्थान पर प्रतिष्ठा : हृत्पुरुष की १७७

वास्तविक आत्मा की ३५६ सच्चे

प्राणमय पुरुष की १७८ मनोमय पुरुष

की ६६७

के पीछे वास्तविक प्राणमय पुरुष १७७

के नाश का अर्थ जीवन पर बलात्कार

नहीं १७७

पर विजय आवश्यक ३५३

से तादात्म्य-विच्छेद ३५५

पूर्णता की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा

६५७

और सच्चा भावप्रधान पुरुष ६५९

पर बुद्धि की क्रिया ६७८

(दे० 'प्राण' (चैत्य) भी)

कारण-शरीर [विज्ञान-कोष] १५,४६२,

४८०,५२८,६३४,६८३,७०८

काल ५३,६८-९

के संबंध में आदर्श वृत्ति ६९

के साथ संबंध, बुद्धि का और विज्ञान

का ४९०

(दे० वि ०७९ भी)

कुण्डलिनी शक्ति ३४,३६, ५४६अ

कृपा

और दया ३३४

और दिव्य करुणा ३५६अ

 

कोष ४६०अ

अन्नमय और प्राणमय दे० 'शरीर'

मनोमय दे० 'सूक्ष्म शरीर'

विज्ञानमय दे० 'कारण शरीर'

आनन्दमय दे० 'आनन्द-कोष'

के ज्ञान का फल ४६१

क्षर पुरुष ३८२-३

क्षत्रिय ७५८-९

 

 

गीता

का मार्ग (कर्म-विषयक) ९६-१०७

(दे० वि० ७ भी)

(दे० 'उद्धरण-सूची' भी)

गुण (प्रकृति के) २५४, ३६८, ३८९,

७७९

सत्त्व १०१, ७७४

रजसू १०१

तमस् १०१,१४६

के द्वारा प्रकृति ही सब प्राणियों में

 कर्मकर्त्री  है २१७

को निश्चित किसने किया ? २१७

(दे० वि० १५, ६३ भी)

गुरू २८, ५३, ६४, १३२, १५८, १८९,

६०९,६१०

अंतःस्थ पथ-प्रदर्शक ६१-५

मानव रूप में व्यक्त भगवान् ६५-६

मेरा, की प्रवृत्ति ६६

मानव : ६६-७, के तीन साधन--

शिक्षण, दृष्टांत, प्रभाव ६७-८, का

सर्वोत्कृष्ट लक्षण ६८

की शिष्य को सहायता चैत्य

आदान-प्रदान के द्वारा ९०१

गुह्य विद्या ४५३

यूरोपीय ४६०

गुह्य शक्तियां ५०३,५५०-१

गोलार्द्ध

 ९७५


 

 

उच्च और निम्न ४७२-३, ४८०

निम्न, का आरंभ वहां... ६३७

 

 च

 

चक्र छ: ५४३,५४६

चमत्कार ६४,८२२

चिंतन

सर्वोच्च ३१७

का केन्द्र तब... ४९७

मस्तिष्क से नहीं, बल्कि सिर से ऊपर या

बाहर... ८२२

और संकल्प हमारे, का उद्गम ऊपर ही

है ८३६

चितनात्मक मन दे० वि० २६

चित् ३९२-४, ४०४, ५५६

चित्त ६५६

की दो प्रकार की क्रियाएं : निष्क्रिय और

सक्रिय ६५७

में यह शक्ति भी कि बिलकुल न देखी

या बिलकुल ध्यान न दी गयी वस्तु

को भी उपरितल पर... ६५७

आत्मा का एक करण ६५७-६०

चित्तवृत्तियां ६५८

चिदाकाश [चित्ताकाश] ५३१,८९७

चेतना १२९,३९९,४००,४५६,५५६

का विपर्यय [पलटाव] १३७,५११

का परिवर्तन १४९, १६३, १७८, १८९

महत्तर ३०३

प्रत्येक वस्तु में है ३९२

ही निर्धारक तत्त्व हैं, शारीरिक जीवन

नहीं ४०२

को विस्तृत करना होगा ४३६

हमारी स्थूल, पीछे स्थित प्रदेशों का प्रांत

भाग ४६५

की चार अवस्थाएं : जाग्रत्, स्वप्न,

सुषुप्ति, तुरीय ५२८

चैतन्यधन ४८३,४९३

 

चैत्य अग्नि प्रज्वलित करनी होगी १६७

चैत्य चेतना

और चैत्य शक्तियों के उद्घाटन का

परिणाम ११५-८

(दे० वि० ७८ भी)

चैत्य दृग्विषय ८९६,९०३-४

चैत्य पुरुष [हत्पुरुष] ९३, १७९, ५४८,

७१७

और उच्चतर मन, ये मनुष्य में भगवान्

के दो अंकुश ८०अ, ८२

का सामने आना १३५, १४०,१५२-३

अचूक पथ-प्रदर्शक १४०, १६८-९,

१८०-१

यज्ञ का नेता १६०, १६८, १७९

और निम्न गतियों की बाधा एवं उनके

गर्तजाल १६८-९

का पथ-प्रदर्शन तबतक पर्याप्त नहीं

जबतक... १६९-७०

का कार्य १८०-१

का सारतत्त्व है आनन्द ७५१

का उद्धव ७५१

के जागरण से प्राणिक व चैत्य दृग्विषय

प्रकट... ८९६

(दे० वि० १० भी)

चैत्य शरीर ५४५अ

 

 

 

जगत् [संसार] २५,३८, १८४,६५५

-जीवन और कर्म का त्याग या कि

स्वीकार ६, १०, २४-६, २८, ३५,

३७, ३८, ३९, ४५, ७४, १२१,

१३७, १६३अ, १७१-२, १७४अ,

२६१, २७३-४, २८९,२९९,३२२,

३२८-३१, ३६४, ३७५, ४०५,

४०९, ४३६, ५१५, ५१९, ६०९,

६२७-८, ६४४,७०२, ७३४,७४४,

७८९

९७६


 

विषयक सत्य १७,२४७,२५६,२९३,

२९८,३७५, ३८३अ

-जीवन को आंतरिक जीवन से पृथक्

कर देने की प्रवृत्ति ७४

को अपने अंदर... ११८, ४१६,

४३६,४४५,४९७

स्वप्न या भ्रम ११९, ३६९, ३७१अ,

 ४०७; के अवास्तविक प्रतीत होने का

कारण ४४७

और जीवन के वर्तमान रूप के साथ

एक साधक को किस प्रकार व्यवहार

करना होगा १३६-४१

को उसकी ऊर्ध्वमुखी अभीप्सा में आगे

बढ़ाना १४६

और दिव्य प्रेम १६६

और भगवान् बिलकुल एक ही चीज

नहीं २५६

के विषय में अनेक दृष्टिकोण ३२८,

३३७

की सहायता ३३०

विषयक पूर्णयोग की दृष्टि ३३०अ,

३३७,५८२

के प्रति, मिथ्या तादात्म्यों से छुटकारे के

बाद, ज्ञानयोग की दृष्टि ३४१-३,

पूर्णयोग की दृष्टि ३४३-५

और पूर्ण आत्मज्ञान ३९०

की वस्तुओं में मुक्त आनन्द भी, केवल

शांति ही नहीं ३९८

को अपनी दिव्यीकृत चेतना में पूर्ण रूप

से अधिकृत करना हो तो... ४३१

के साथ आदर्श संबंध का आधार ४४२

दे० 'आत्मा' भी

-जीवन के प्रति साधारण भौतिक दृष्टि

४६४-५ इस दृष्टिकोण से मनुष्य

देरतक संतुष्ट नहीं रह सकता ४६५

को देखने का हमारा वर्तमान दृष्टिकोण

५२३

 

को अपने अधिकार में लाना आत्मा का

निज स्वभाव तथा प्राणिमात्र की

प्रवृत्ति ६९१

को अपने अधिकार में लाना आत्मा का

निज स्वभाव तथा प्राणिमात्र की

प्रवृत्ति ६९१

(दे० 'विश्व', 'सृष्टि' भी)

जड़तत्त्व [जड़ पदार्थ] ९,२०,२७,२९,

२९३, २९६, २९८, ४२७,४५७,

९०६

पर मन की विजय २२

पर आत्मा की विजय २३

पर पूर्ण विजय के लिये... २३

का प्रतिरोध और विशुद्ध मन २३-४

की निश्चेतना चेतना से भरी १२९, ३९२

का चरम रहस्य १८६

का अभिप्राय एवं ज

६३३-४

प्राण की ही एक रचना है ६३४

[जड़-जगत् प्राण लोक का प्रक्षेप

४५९]

जड़वत् ५०६,५०९,५१०

जड़वाद २९६,४३३,४३५,४६८

और संदेहवाद के युग के बाद गुह्यवाद

और धर्म के युग ४६५

जन्म

'पुनर्जन्म से छुटकारा २७१-४

का अभाव [अपुनर्भव] ४४४

का भय तथा जन्म से छुटकारे की

कामना ५१६-७

-मरण के चक्करों का प्रयोजन ५१७

जीव [जीवात्मा] २५६, ३६०, ७५४,

७८६

विवरण २१८,३६४,३८०

और परमेश्वर ३८०,३८५

परम पुरुष और प्रकृति के एकत्व की

लीला के लिये मिलन-स्थल ७७६,

 ७८४

९७७


 

जीवन १५६

 संपूर्ण, योग है ४-५, ७, ४५, ४७,

५२०, ५६८अ, ६२३

सारा, तबसे एक-एक पंखड़ी कर

के... ५३

सारा, अंतःस्थ पथ-प्रदर्शक द्वारा

आयोजित ६२-३

में उतारना होता है आत्मा के सत्य को

७०,३८८

भगवान् की अभिव्यक्ति का क्षेत्र, जो

पूर्ण नहीं ७५

तब, स्वयं सहायक ७५

समस्त, हमारे योग का क्षेत्र ९१

का लक्ष्य ९१, १३६ दे० 'लक्ष्य' हमारा

भी

का सच्चा उद्देश्य : विकास, स्वामित्व,

उपभोग, विजय और साम्राज्य

१७७अ

का लक्ष्य : नाना मत ३५९-६०

मानव, का अर्थ दे० 'मनुष्य' के अस्तित्व

संपूर्ण, एक सचेतन यज्ञ ११३,११५अ,

१८१,२२३,७६४

के गुप्त रहस्य की कुंजी ११७

-व्यवहार और आत्म-साधना १३६-४१

में अहं-अस्तित्व के लिये संघर्ष १६६

अपने वर्तमान रूप में कामना की

हलचल है... १७८-९

पर नियंत्रण १८३, १८५

सारे, को अपनाना होगा, पर उसका

रूपांतर भी करना होगा १८८ दे०

'पूर्णयोग' भी

जीना भी एक कर्म है २६८

को मुक्त पुरुष यदि अपनाये तभी दिव्य

अभिव्यक्ति साधित... ३०१

हमारा वर्तमान, अज्ञान और मिथ्यात्व पर

आधारित ३३७-

विषयक मिथ्या दृष्टिबिंदु ही समस्त

 

 

दुःख-कष्ट का मूल ३३८

रूपी नाटक का स्वरूप ३५४ [१७३]

सच्चा यापित करने और सच्चा अस्तित्व

धारण करने की शर्त ३७८

दुःख-कष्ट का मूल ३३८

रूपी नाटक का स्वरूप ३५४ [१७३]

सच्चा यापित करने और सच्चा अस्तित्व

धारण करने की शर्त ३७८

और मृत्यु ३९९

दोहरा, बिताना ४२६

आत्मा की अपनी प्रकृति के साथ क्रीड़ा

हैं ४४३

का मूल्य आत्मसाक्षात्कार के बाद

४४८-९

बहिर्मुख, का रूपांतर ५२०

में योग का प्रवेश ५२२,५६९

को भगवान् का मंदिर बनाने लगते हैं

५८१,६०४

के समस्त व्यापार ईश्वर-प्रेमी के लिये

पूजा के क्षेत्र ५९९

में एकमात्र हृदय या एकमात्र बुद्धि का

अनुसरण यदि... ५८९

साधारण, के अनुभव का उद्देश्य ६०७,

६२४

मानवीय, की समस्या ६३०

मानव, की अक्षमता और अपूर्णता का

कारण मूल स्रोत से विच्छेद

६४९-५०

का उच्छेद या जीने की स्थूल इच्छा या

समझौता ६६८अ

हमारा, सत्य की खोज है, संघर्ष और

युद्ध है, सतत अनुकूलन है और है

एक यज्ञ ७६४

(दे० 'जगत्', 'पूर्णयोग' वि० १,२,३

भी)

 

 जीवनेच्छा १७२-३

 ज्ञान १८, ४३, ५४, ५९, ७९, १२०, 

१२९, १६२, १७४, २०८, २३८, 

२४२, २५७, २८९, ३४०, ३४१,

 ४०१, ४९५, ५००, ५०१, ५१३,

६३४,७११

 ९७८


 

नित्य, का कमल ५३

की प्राप्ति अपने अंदर पहले से विद्यमान

ज्ञान की स्मृतिमात्र ५३, ५४,८०५,

८३३; समस्त, एक विशेष स्तर पर

स्मरण के रूप में ८८०अ

से योग में मतलब ८२

बौद्धिक, भगवान् का ८२-३, ८४;

बौद्धिक, योग के काम का नहीं

११७; बौद्धिक, में मनुष्य पूर्ण हो

सकता है, फिर भी... ३०४

 दार्शनिक, को ज्ञान नहीं कह सकते

३७८; मानसिक २६३,६४६,८०६,

 ८४५अ, ८५०

मोक्षदायक ११४

उच्चतर और निम्नतर विज्ञान १४३

अधूरा [अपक्य, अपूर्ण] १६१,३४४,

३८९-९०

कि सब भले के लिये किया जा रहा है

१८२

[विचार] और संकल्प मन में और

अतिमन में १८६, २९१, ४८३,

५०१,५०२, ५१०,७७३,८४७

कर्मयोगी का १९०

जो मुक्त तो कर सकता है, पर

क्रियान्वित कुछ नहीं... २६१

'सत्य ज्ञान का आरंभ तभी २९५,३१५

'इन्द्रियज्ञान और सत्यज्ञान २९५,३०३,

 ३१५

[ सत्य-चेतना ] की दृष्टि में जगत्

२९५-६

चरम, सनातन ३००

यौगिक, का लक्ष्य ३००,३०२, ३०३,

३३७

पूर्ण [ समग्र]  : ३०१, ३३५, ४२५,

३७६अ, तबतक नहीं ३६५अ, का

लक्षण ४२४, का फल एवं कार्य

४३१

 

की भूमिका ३१०

से, सामान्यत: हमारा मतलब ३०२

दो प्रकार का : प्रत्यक्ष और परोक्ष

३०६-७, निम्नतर और उच्चतर दे०

वि०४३

के बिना प्रेम [ भक्ति ]  ३११, ५५७,

५५८,५६०

और प्रेम दे० 'प्रेम'

वास्तविक, की प्राप्ति ३१७-८

की प्राप्ति एकाग्रता के द्वारा ३२०;

 -प्राप्ति की अनिवार्य शर्त ३५१ दे०

'तादात्म्य' भी

परम महत्त्वपूर्ण वस्तु ३३८

असली [ सच्चा ] ३४४, ३९०;

वास्तविक ६४६,६७६

सच्चिदानन्द का, अत्यंत व्यावहारिक एवं

उपयोगी ३८८-९१

को स्थिरतापूर्वक क्रियान्वित करने से

मुक्ति अवश्य ३४८

उच्चतम, का अधिकारी नहीं यदि कोई

एकांत और नीरवता में रहने की

शक्ति पाने में असमर्थ है ३५०

'ब्रह्म-ज्ञान ३७८

किसी व्यक्ति या समष्टि का तभी...

३७९ [ ९८ ]

व्यक्ति व पदार्थ का पाने के लिये...

४३१

मध्यवर्ती स्तरों के, का प्रयोजन ४४७

दूसरों के आंतरिक जीवन का ४४७,

४५६,९००

अन्य जीवों के मनोव्यापार का, मनोमय

पुरुष में उठकर ४७१

बुद्धि का और विज्ञान का ४८९

बाह्य, का अर्जन और उच्चतर सत्य की

प्राप्ति ५२३-४

, कर्म और प्रेम की त्रिवेणी ५५५-७

के बिना कर्म ५५६

९७९



 

कर्मों के बिना पूर्ण नहीं ५५६

वह, जिसमें पूर्णयोग को निवास करना

होगा ५६१

आनन्द में परिसमाप्त ५९८

'आत्मा और प्रकृति का ज्ञाता बनना होगा

६४६-७

के संबंध में समता की भावात्मक पद्धति

का कार्य ७३१-२

के संबंध में मन की तीन प्रतिक्रियाएं :

अज्ञान, भ्रम, सत्यज्ञान ७३१

विज्ञानमय भूमिका में ८८३

की खोज का रूप अज्ञ मन का,

आत्मविस्मृति-पूर्ण ज्ञान से युक्त मन

का और ज्ञानमय मन का ९०९-१०

अतिमानसिक दे० वि०७६

वर्तमान, भूत, भविष्य का दे० वि० ७९

(दे० वि० १०,२० भी )

ज्ञानमार्ग (ज्ञानयोग) ५, ३२, ३८,४०,

७८, १६३, १७२, २८०, ५६२,

५९६,६१६

में प्रकृति की मुक्ति २४४

का लक्ष्य २७९, २८९-९०, २९३,

३२१, ३३७, ३६५, ३६८, ४१८,

४४२, ४६७; का प्रथम लक्ष्य ३८९,

३९७; का सर्वोच्च लक्ष्य ४२४; का

प्रथम और दूसरा लक्ष्य ५१९-२०

में व्यक्ति और विश्व का त्याग २८९,

२९९,३४१

और कर्म २९०, ३५०, ३६९,४०३,

४०८,६७६

शुद्ध बुद्धि से शुद्ध आत्मा में... २९७,

३७२, ४८२

का मूल सूत्र ३२३

में शरीर और मन की पूर्णता का महत्त्व

नहीं ३५०

में पूर्ण शांति, नीरवता, शून्य ब्रह्म की

ओर ३६८-९

 

सर्वांगीण, की मांग ४०७ [३४२-३]

की तब प्रथम और दूसरी प्रक्रिया पूर्ण

४२४

की साधना ४५२-३

व्यापक, का क्षेत्र ४६७-८

की विधि ५२३

(दे० वि० १९,२४ भी)

 

 

तंत्र-मार्ग [ तांत्रिक साधना]  ४२-३, ४०४,

५४७,५८१, ६१७-८, ६१९

तप ३२३

तपस् ४४, ४५, १७६, २९२, ६३६,

 ६८६,८०७

तमस् दे० 'गुण' और वि०१५,६३

तर्कबुद्धि दे० 'बुद्धि'

तादात्म्य १०३, १३६,५२५,८५३

पर पहुंचने के साधन हैं सब ज्ञान और

अनुभव ३०८

को समझने में सहायता वर्डत्वर्थ से

३०८-९

मिथ्या, मन-प्राण-शरीर के साथ आत्मा

का ३३७-४०, इससे छुटकारे का

उपाय ३४१

पूर्णज्ञान और उपलब्धि की शर्त ५२४ दे०

'ज्ञान' भी

परम आत्मा से : निष्क्रिय, समाधिगत

और अतिमानसिक ६४६

द्वारा ज्ञान--यहां तादात्म्य का अर्थ ८५१

का अभिप्राय ९०५

(दे० 'एकत्व' भी)

तैयारी ६२४,८४८

और प्रकाशमयता की अवस्थाएं ३१०

(दे० 'पूर्णयोग' की क्रिया में तीन

अवस्थाएं भी)

त्याग १११, १२५, १८८, २१२, २४४,

२५०

९८०


 

प्राण की पुरानी प्रकृति का ७४

निम्नतर प्रकृति का ८८

उस सबका जो...८८अ, १८९,

१९३,३३१,५८२

'सर्वारम्भ परित्याग २४४,६८७

मिथ्यात्व का--अहं के, प्राण, इन्द्रियों,

 हृदय और विचार के, ताकि...

२९३-४

हीनतर व आंशिक उपलब्धि का ३३१

महत्तर के लिये लघुतर का, अनंत के

लिये सांत का ३३३

'त्यक्तेन भुञ्जीथा: ३३६ टि० ७१७

और एकाग्रता ३३७,३४१,३६६

(दे० 'आसक्ति'; वि० २३ भी)

त्रिकाल दृष्टि दे० वि० ७९

त्रिमार्ग (त्रिविध मार्ग) ३३, ३७-४०, ५६,

 ८२

(दे० वि ०४७,५५ भी)

 

 

 

दण्ड-विधान २००

दर्शन [दर्शन-शास्त्र्य[ १४१-२, १७२,

३१५, ३८८, ५२१अ, ५२४,

 ५२५अ, ५६०

दिव्य और अदिव्य ४४

दिव्य कर्म दे० 'कर्म' (मुक्त आत्मा का);

 वि० १७

दिव्य जीवन दे० 'उच्चतर जीवन'

दिव्य प्रकृति [दैवी प्रकृति] १३३-४,

२४८अ, २७८,३२९,४४३,५९४,

 ७०६,७११,७१२

में कठोरता भले, पर घृणा नहीं २२५

को धारण करने का अर्थ ५१९-२०

दुःख-कष्ट ४७,६४, १३१, १५८, १६३,

१८६, २२७, २४८, २६४, ३६८,

३९२, ४१९, ४५६, ५०२, ५७८,

६०९,७१८,७२३,७२६

 

जीवन के, का मूल {कारण} १११,

१५९, ३३८, ३५३अ

दुर्बलता ४७,६४, ७१,२३७,२४८,

का मतलब ३३४

(दे० 'अक्षमता' भी)

दुष्ट २३७

दृष्टि 

नवीन ७३,३७३

आभ्यन्तरिक ३०६-७

विराट् ४१९

अंतर्मुख ४७२,५२३

'दूरदर्शन ५३२

'दिव्य दृष्टि ६६०

आध्यामिक ८५२

अतिमानसिक ८८९-९०

चैत्य ८९७,८९८

देवता १३२, १६१, २६३,४२३, ५१२,

 ६०८

द्धंद्ध

कारण १०२, ६९४

 से मुक्ति १०२, १५५, १८६-७,

 ६९४,७०१-२

की ग्रन्थि ७०१-२

द्धैत

आत्मा और जगत् या ब्रह्म और माया

का १२१-३, ४३२अ

पुरुष और प्रकृति या साक्षी आत्मा और

कार्यवाहक प्रकृति का १२४-६,

४३२-३

ईश्वर और शक्ति का १२६-८

निर्व्यक्तिकता और व्यक्तिकता का

१२८-३१

की आवश्यकता १३०

का सम्मिलन : परिणाम १३०

द्धैतवाद और अद्धैतवाद ३८१-२


 

९८१


 

 धर्म ५७, १६२, १६५, १७२, १७३,

२०४ टि०, ४३४,५५८

का प्रयास जाति के जीवन को भगवान् की

सेवा के योग्य बनाने का १४२-३

और विज्ञान १४३

द्वैतवादी ३८१

स्थूल तथ्यों के परे जाने का एक प्रयत्न

४६५

का मुख्य कार्य ४६५-६

में पाये जानेवाले सामान्य विचार...

४६६-७

ज्ञान नहीं, श्रद्धा है ४६७

का अंतरीय पक्ष ४६७

और योग ४६७,५६२,५६५

का प्रारंभिक रूप ५६२

के स्थूल एवं आदिम तत्त्वों का औचित्य

५६८

और पूजा ५८१

(दे० वि० १०, ११,४८ भी)

धर्मान्धता [मतान्धता] ६६, १४२, १५३,

३११

धैर्य ४६,६९,२४६,२४७-९

ध्यान ११४,२९०,३२१,५८३

की प्रक्रिया ३२५-६

आकाश-ब्रह्म का ३७४अ

 

 न

 

नरक ४५९,५७३

निदिध्यासन ३०७ टि०, ५८३

निम्न प्रकृति ४४

को नवीन दृष्टि के आगे सीस नवाने को

बाधित करें ७३-४, ७५

का प्रतिरोध ७३, १३४, १६८-९

के प्रति अधीनता की दो ग्रन्थियां :

कामना और अहंकार १०४

 

उच्च प्रभावों से स्वार्थपूर्ण लाभ उठाने को

प्रेरित १६८-९

हमारी, और परम इच्छा शक्ति २२२

में भी यद्यपि भगवती शक्ति की

क्रिया... २५३

'निम्न स्व से मुक्त रहते हैं जबतक

भगवच्चिंतन में रहते हैं, पर ज्यों ही

अपनी ओर मुड़ते हैं भगवान् से दूर

जा पड़ते हैं, वह तिरोहित हो जाता है

४०१

से बांध रखनेवाली तीन गांठें ३३१; की

प्रधान चार ग्रन्थियां ६८५

(दे० 'मुक्ति' भी)

नियम [आभ्यन्तर पथ-प्रदर्शक] १३९-४१

की प्राप्ति तभी १४०, १८९,२७७-८

का जन्य भगवती शक्ति की क्रिया और

चैत्य पुरुष के प्रकाश से १४०

बुद्धि और कामना के स्थान पर १८१,

२७६अ

(दे० वि. १२ भी)

निराशा ६२

निरीक्षण दे० 'स्व-निरीक्षण'

निरीक्षण (शक्ति) ३१३, ४८९-९०,

८७१-२

निर्णय (शक्ति) ३१४,४९०,८७४

निर्वाण २८९,४४४,४४६,५१५,५१६

(दे० 'ज्ञानयोग' का लक्ष्य भी)

निर्व्यक्तिकता

मोक्षप्रद शक्ति १२९

'निर्व्यक्तिक उपस्थिति, प्रकाश, शक्ति,

आनन्द, प्रेम आदि जब साधक को

आप्लावित... १३०-१

निश्चल आत्मा [ निष्क्रिय ब्रह्म] २८९,

२९१,४१५-६

और परम तत्त्व २९२,२९५

का साक्षात्कार यथेष्ठ नहीं, सच्चिदानन्द

के परात्पर रूप का साक्षात्कार भी

९८२


 

अपेक्षित ३९७-८

को बाद में विश्व व्यापार के स्वामी के

रूप में अनुभव करना ४१६-७

(दे० 'साक्षी पुरुष'; वि० ३२ भी)

निश्चलता २५४

और कर्म ९७,२९०,३०१

शरीर की, ५३९

द्वारा शक्ति की प्राप्ति ५३९

नीरवता १२०,२५४,२९०,३७०,७२०,

९२२

की शक्ति ३१८

में आत्मा की प्राप्ति ३१८,३५८

में रहने की शक्ति ३५०

को पाना आवश्यक ३५८

में आरोहण ३६८

नूतन जगत् २०९

नूतन जन्म [नव जन्म] ७०,९२,१८५

प्राणिक, मानसिक सत्ता और संकल्प एवं

भावों का ९३

में दो अवस्थाएं : तैयारी और

प्रकाशमयता की ३१०

नैतिकता [नैतिक नियम, नैतिक मन.. .]

१३८, १३९, १४८, १९६, ५२४,

 ५२५ ५७४-५, ६५३-४ ६७टअ

'मानवीय बंधनों को तोड़ना २५२

नैतिक भावना [ Conscience ] १५७

न्याय २०२, ५६४

 

 

परम इच्छाशक्ति [ दिव्य इच्छा-शक्ति]

 निगूढ़, और अहं की स्वतंत्र इच्छा

९९-१००

(दे० वि० १३ भी)

पराप्रकृति दे० उद्धरण-सूची

परात्पर ३१अ, ११२,११९,१८४,२६२,

३६५,३८३

का भी अस्तित्व है २५६-७

व्यक्तित्व के मूल में एक दिव्य रहस्य

 

२६१

(दे० 'सच्चिदानन्द'; वि. १६,३०,३४

भी)

परार्थ [परोपकार] २४, १५४, १६४,

१६६,१७७,१८७,३३३,३६१

परा विद्या और अपरा विद्या १४१

परिग्रह ७१६अ

परिवर्तन

दो आभ्यन्तर, अत्यधिक सहायक १३५

ऊर्ध्वमुख, का प्रभावशाली चिह्न ६२४अ

(दे० 'रूपांतर' भी)

परिस्थिति ७१

के प्रति मनुष्य की साधारण वृत्ति १९१

कार्य की, और कर्मयोगी २१३-४,

२७०-१

का सूक्ष्म प्रभाव ३३३-४

पशु

-ओं में सहज प्रेरणा और मनुष्य का

मानसिक अंतर्ज्ञान ४८६-७, ८१२

(दे० 'मनुष्य' भी)

पाप ५०२, ६९२

-पुण्य १८६, २०९, २१४, २४८,

३३५,५६४,५७३

पाश्चात्य मन [यूरोपीय मन]  १३

और बौद्धिक निष्क्रियता ३१८

और हिन्दू धर्म ३८५अ

पिशाचवत् ५०७,५११

पुकार ७०,८३,१८१,६००

पुण्य ५९,१९४

(दे० 'पाप' भी)

पुनर्जन्म दे० 'जन्म'

पुरुष

तलीय अहं नहीं है २१७ दे० 'आत्मा' भी

 तीन -क्षर, अक्षर, परात्पर ३८३

ने जड़ जगत् की कठिन अवस्थाओं को

स्वेच्छया स्वीकार किस लिये किया

४६३ दे० 'अंतःस्थ आत्मा' के भी

९८३


 

की स्थिति-उसकी चेतना, दृष्टि,

शक्ति-निम्न गोलार्द्ध में ४७२

की उच्चतर भूमिकाओं का विवरण हमें

अपने सामने अवश्य... ४८१

जब ज्ञान के पक्ष की ओर या अज्ञान के

पक्ष की ओर मुड़ता है ६३७अ

ये तीन (मनोमय, प्राणमय, अन्नमय)

परम आत्मा के आंतरात्मिक रूप हैं

६४३

(दे० वि० ५७ भी)

पुरुष और प्रकृति ३५६

की स्थिति तंत्र में और वेदांत में ४३-४

'पुरुष प्रकृति के अधीन निम्न स्तरों पर

९७,४३४-५, ४५२,४५७,४७१,

५०९, ५१८, ६३६, ६७५ ७६९;

 'पुरुष प्रकृति के अधीन नहीं रहता

आत्मा में उठकर ९७, ४३५-६

'प्रकृति के प्रति हमारी अधीनता की

दो ग्रन्थियां १०४

का विवेचन, सांख्यकृत १००-१,

४०८अ, ४३३, ४३५ ५०९,

७६८अ का द्वैत १२४-६ के संबंध

२१७-८, २३८, ३७०, ६४७-८,

६९४

'पुरुष प्रकृति के कार्यों को अनुमति देता

है १००, २१७; 'पुरुष की स्वीकृति

या अस्वीकृति की शक्ति १२४अ,

२१९अ, २३८, २४१अ, ३४८-९,

६४४-५

'पुरुष की प्रकृति के साथ तदाकारता

१०१-२, ६४०, ७६९; 'प्रकृति में

अपने-आपको झोंक देता है साधारण

मनुष्य ४१२

'आत्मा के प्रकृति में लीन होने का चिह्न

१०२

और ईश्वर-शक्ति एक ही नहीं २१८ टि०

का अनुभव कर्मयोगी के लिये अत्यंत

 

उपयोगी २१८ टि०

' पुरुष का प्रकृति से पार्थक्य २३२,

३४६,७७३

के संबंधों की सुस्थिर भूमिका से ही स्तरों

का निर्माण ४५४

' आत्मा या पुरुष किसे कहते हैं ४५४अ

विज्ञान में ५०३, ५०१, ५१८

सच्चिदानन्द के : जड़ साक्षात्कार में

५०६अ, प्राणिक साक्षात्कार में ५०७,

आनन्दमय भूमिका में ५१८

एक-दूसरे पर निर्भर ६४५

' पुरुष की आत्मशक्ति ही हमारी प्रकृति

के विशिष्ट रूप का निर्धारण करती

है --सा धारण पुरुषों में और

विभूतिमत् पुरुषों में ७५४--५

' पुरुष अनन्तगुण है, प्रकृति सत्त्व, रज,

तम तीन गुणोंवाली है ७५६

मन के स्तर पर ७७३

(दें ० वि०३५, ३६, ५७, ७० भी)

पूजा ११४, २२३, ५५८-९,, ५६४, ५६७

देवता, प्रतिमा व व्यक्ति की १६१

-कर्म में तीन अवयव १६५

-पद्धति १६५- ६

प्रेम में विकसित ५५९, ५६२

' बाह्य पूजा ५८१

पूर्णता १८, ४८-9, ५४, ७९, २२६,

३६२, ३६७, ४५५, ६००, ६०३,

 ६५४, ६५६, ७७०

अहं की निजी तृप्ति के लिये नहीं ८६,

२७८

की ओर सहज प्रवृत्ति समष्टि तथा व्यष्टि

में ११२

काल में विकासशील है १९३

की शर्त : स्वतंत्र विकास ११७

संकुचित, नहीं २४८

लक्ष्य, मुक्ति ही नहीं २५३

की खोज क्यों २७८-९, ५१८ अ

९८४


 

भावात्मक, हृदय की ३५७

मनोमय पुरुष की, महत्तर संभावनाओं से

बहुत नीचे की ४७९

सर्वांगीण, तभी... ५०६

के दो पथ : निम्न प्रकृति पर प्रभुत्व और

उसका उन्नयन ५०६अ

'दिव्य आत्म-पूर्णता का अर्थ ६३०

प्राप्त करने की शर्त ६७७

नैतिक मन, सौंदर्यग्राही मन, ज्ञानात्मक

मन और संकल्प-शक्ति की ६७८-९

-प्राप्ति की क्रिया का अर्थ ६७९

उच्चतम, सर्वांगीण ७१५

जिसे बुद्धि की भाषा में वर्णित नहीं किया

जा सकता ७४२

-प्राप्ति के हमारे प्रयत्न का लक्ष्य ८२२

(दे० 'अपूर्णता' तथा वि० ५६,५८,६८

भी)

पूर्णयोग

में शरीर की उपेक्षा नहीं १०

में स्नायविक शक्तियों का नाश नहीं

१०-१

में जगत्-जीवन का स्वीकार १८, ५६,

७५,७८,९१, १२१, १३८, १५३,

१७२, १८३, १८८, ३०२, ३२२,

४४१, ४५३; में समस्त जीवन का

समावेश ३०२ 'समस्त जीवन' में

उच्चतर जीवन भी ३०२

की कुंजी : वैदांतिक सूत्र २६

का लक्ष्य ३७, ४५, ६३, ७३, ९१,

 ९२, १३१, १७२, १८९, २३१,

२९३, २९४, ३२२, ३६५, ५९५,

 ६२४,६५०,७८८, ७८९; का सुदूर

परम लक्ष्य १५१, २८०-१; का

लक्ष्य पंगु उपलब्धि नहीं ३२६; और

लक्ष्यसंबंधी अन्य दार्शनिक विचार

३६४-६

में अपेक्षित आवश्यक गुण : श्रद्धा,

 

साहस... ४६,६४

की क्रिया में तीन अवस्थाएं ४६,

५८-६१, ८७-९

'समन्वयात्मक योग की प्रणाली ४७-५०

और मनुष्य-जाति ४९

की स्थिति वन में मार्गान्वेषक की-सी

५७

की पूर्णता तब... ५७

ऐसी क्रांति के लिये प्रयास करता है

जिससे बढ़कर कोई... ७३-४

में सार्वभौम शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष

७७, ७८-९, १३५

व्यष्टिगत संग्राम नहीं, समष्टिगत युद्ध भी

७८-१

की विशाल क्रिया ८०

की पहली आधारभूत सिद्धि ८७

की निर्णायक गति ९१; का निर्णायक

क्षण १५३

की परिणति १३३

और : जीवन के कर्म १३७-४१, ज्ञान

के कर्म १४३, प्रेम के कर्म १५३,

१५५अ, प्राण के कर्म १७२, १७५,

 १७६अ, १८७-८

और व्यावहारिक अपूर्णता २५४

में साक्षी की निश्चलता एक सोपान मात्र

२५४

में व्यष्टि, विश्वात्मा, परात्पर किसी की

उपेक्षा नहीं २६२

और वैयक्तिक मोक्ष २७४ दे० 'मुक्ति'

वैयक्तिक भी

में ज्ञान, भक्ति, कर्म तीनों का मिलन

२७९,५५५

का अनुसरण अतिमानस की प्राप्ति के

लिये नहीं २८१

की सबसे सीधी और शक्तिशाली

साधना ३२६-७

में क्योंकि आधार की समग्र पूर्णता

 ९८५


 

अपेक्षित अतः.. ३६७अ

का सार ४२५

और प्रेम-मार्ग ५६१

और भक्ति-मार्ग ६००

का मूल सूत्र : समर्पण ६१९,६९०

की समस्या : निष्क्रिय शांति ही नहीं

अपेक्षित, कर्म भी करना है ६५२

में हम जो सिद्धि प्राप्त करना चाहते

हैं... ७७६

(दे० 'जगत्'; वि ०५५ भी)

पूर्वबोध ९१४

प्रकाश

बुद्धि, जीवन-शक्ति और भौतिक

आवश्यकता के १४०

कर्म का निर्धारक, २२३

समस्त, आत्मा का प्रकाश ही नहीं होता

२८४

प्रज्ञा ८,५११,८०२

प्रज्ञान २५७,८८४

प्रतिभा १२

प्रतिमा (मूर्ति) १६२, १६५,२६३,५८३,

१०१

-पूजा १६१

-भंग १६१

प्रतीक १६५-६, १६८,५१५

प्रकृति

की क्रिया दोहरी ४४

का अधिष्ठाता कौन ? २१७

का नियन्तृत्व ही सब कुछ नहीं है २३८,

६४४

किसे कहते हैं ४४३,४५५

अपने बाह्य रूप में और आभ्यन्तरिक

रूप में ६३४-५

मनोमय पुरुष के लिये एक व्यापार-मात्र,

साथ ही... ६४१-२

(दे० 'प्रकृति' (मानव), 'प्रकृति'

(वैश्व), 'उच्चतर प्रकृति', 'दिव्य

 

प्रकृति', 'निम्न प्रकृति'; वि ०७० भी)

 प्रकृति (मानव, हमारी, अपनी)

को आत्म-निवेदन के लिये तैयार करना

७२-४

का प्रतिरोध ७३, १३४

में प्रत्येक अंग का अपना व्यक्तित्व

७६-७

का रूपांतर दे० 'रूपांतर '

-यां, कोई भी दो, एक समान विकास से

आगे नहीं बढ़ती १४८

कुत्ते की दुम के समान १७४

तब पूर्ण सत्य में कार्य करने लगती है

 २११

के पुराने अभ्यास २४१

अपूर्ण, में पूर्णता की सामग्री २४७

अपूर्ण, दुर्बल किंतु भगवती शक्ति

विद्यमान है २४७-९

अपूर्ण, तो भगवान् का कर्म भी अपूर्ण

२५३-४

का दोष ३१९

पर प्रभुत्व और उसका उन्नयन, पूर्णता के

दो पथ ५०९

के बारे में पश्चिम विचार और भारतीय

५७४

पर प्रभुत्व दे० ' प्रभुत्व '

(दे० ' भागवत प्रेम ' भी)

प्रकृति (वैश्व) [विश्व-प्रकृति] ३०, ३१,

८०, १६१, ११८, २५८, ३७०

के दो प्रयोजन रूपों के विकास में ३

का योग ४, २१, ३१, ४७अ, ६२३

के तीन पग दे० वि०२

की गति नियमित रूप से आगे नहीं

बढ़ती ९

में विकास १७, २०

का उद्देश्य १९, ३१, ११५,३४९

का काम वैयक्तिक और सामूहिक दोनों

रूपों में २१

९८६


में विकास और योग २९

उसी के लिये हमसे समस्त प्रयत्न और

अभीप्सा करवाती हैं ११३

यांत्रिक इसी अंश में कि. १२५,

 १२७, ७६९

का सचेतन मार्ग-निर्देश १२७-८

ही कर्मकर्त्री है २१७ दे० 'कर्म' भी

के दो रूप २१७

के तीन गुण दे० वि०१५

के भीतर विश्वात्मा की उपस्थिति का

अनुभव २५४-५

पर प्रभुत्व ३४९

वर्तमान, की जटिल ग्रन्थि का रूढ़

नियम, और उसका उद्देश्य ६४७

की मिश्रित एवं अव्यवस्थित क्रिया में

संशोधन करना होगा ६४८

आत्मा की ही अभिव्यक्ति है, शैतान का

फंदा नहीं ६७७

का नियम हम जिसे कहते हैं उसे

अतिमानसिक शक्ति निर्धारित करती

है ८१०

(दे० वि०२ भी)

प्रभुत्व [स्वामित्व]

अपनी प्रकृति एवं सत्ता पर ११, ६३,

१०२, १७७, १८५, १९१, २३४,

३६८, ४३६, ४४१, ४५६, ४५८,

४७१,५०७,५१०,६४०, ६४४-६,

 ६६७,७६८,७७०

हमारा अपनी सत्ता पर कितना-सा ७६८

(दे० 'आत्म-प्रभुत्व' भी))

प्रयत्न (वैयक्तिक) ५८-६१, ६९, ७१,

१८६, ४८१, ५७७, ६३९, ७६६,

७८३,८०७

स्वयं, ही सर्जनकारी है २५

पर निर्भर, दीर्घकालतक, अनुभव का

विकास ५८

की तीव्रता के नाप ५८

  और उच्चतर शक्ति ५८-९, ६१, ८८,

और उच्चतर शक्ति ५८-९, ६१, ८८,

 ८९

का भ्रम ५९-६०

की भी अपनी आवश्यकता और

उपयोगिता ६०

के काल में करणीय बातें ६०-१,

८८-९, दे० 'संकल्प' भी

हमारे, का परिणाम नहीं, यह विकास

६३

ऊर्ध्वमुख, व्यर्थ नहीं जाता ७२

के स्थान पर सहज-स्वाभाविक विकास

८९

पूर्णता-प्राप्ति का, सफल तभी जब परम

इच्छा-शक्ति इसे हाथ में ले लेती है 

२२२

और समर्पण ६०४,६२४-५

के बल की सीमा ६२५, ७७४, दे०

 'अहं' भी

और भागवत कृपा ६२८

(दे० 'पूर्णयोग' की क्रिया में, 'भागवत

शक्ति' भी)

प्रलोभन २७२

पहला, दूसरा, अंत का ५१६ दे०

'विजय' पहली भी

प्राण (प्राण-शक्ति] १९,७४,९३,१२८,

१२९, १५७, ४२७, ४५६, ५२०,

 ६२३,६५५,६५६

और अध्यात्म में कुसंबंध १३९,१७५

के बिना ज्ञान और प्रेम... १७४

अपरिहार्य माध्यम १७५; समस्त कार्य के

लिये आवश्यक ७४६; वैदिक रूपक

में अश्व या वाहन ७४८

और मन १७९,२९७,७३५,७७२

सच्ची १८०

का धर्म : उपभोग २१२, ३१५,७१६,

प्राप्ति और भोग ६५५,६६५, ७५०;

का प्रयोजन है रस-ग्रहण को भोग

९८७


का रूप देना ६६६,७३१

की शुद्धि ३१५

नहीं हूं मैं ३४१,३५३

हमारे अंदर सर्वत्र ओतप्रोत ३५३,३५५

में विश्वात्म-भाव ३७६

का रूपांतर ४२७, ४२८; को यदि

रूपांतरित... ६६९

प्राणलोक में ४५८

शरीर के अधीन जड़तत्त्व में ४७३

आस्था का एक करण ६३३

और मन के अपने विशिष्ट स्तर भी हैं

६३३

को कुचल डालना ६६९, ७५०;

-आवेग का उच्छेद नहीं ७१६; यदि

पंगु ७४८

मुक्त, का अभिप्राय ७१६

से शक्ति आहरण ७४६-९, ७७१,

८९४

पर निर्भरता जब जस भी अनुभूत नहीं

होती ७४८-९

हममें अवश्य होनी चाहिये, पर होनी

चाहिये निर्मल, प्रसन्न ७४९

का नियमन मानसिक शक्ति के द्वारा

७७२-३

'प्राणिक अनुभवों की भूमिका ८९२-५

(दे० वि. ११,३७,७८ भी)

प्राण (चैत्य) [सूक्ष्म प्राण] ३५७

और स्थूल ३५१

के तीन धर्म ३५४

कामनामय मन के रूप में अनुभूत ३५३

का [कामनामय मन का] हस्तक्षेप

इन्द्रियाश्रित मन, भावमय मन और

चिंतनात्मक मन में ३५३-५, ६६६-७

ही [कामनामय मन ही] अहं की

आग्रहपूर्ण ग्रन्थि ३५५

की शुद्धि ६६५-७०

के विकृतिकारक दोष का कारण

 

६६७-८

का प्रभाव, स्थूल मन की क्रियाओं पर

६६७-८

तब मन का उपयुक्त साधन बन जाता है

६६८

की मुक्ति ६८५

प्राण (देहबद्ध) ३५४

के लक्षण ३५१

के विश्व प्राण से पृथक् होने का परिणाम

४५६,६६७

प्राणमय पुरुष १७७,१७८,१८१,६३७,

६४२-३

सच्चे, का बाहर आना १८०

बन सकते हैं हम अन्नमय पुरुष से ऊपर

उठकर ४६९-७०

की चेतना के प्राप्ति के चिह्न ४७०

बन जाता है आत्मा प्राणतत्त्व में स्थित

होकर ४७५-७

का आध्यात्मिक विकास ४७६-७

प्राणलोक ४५८-९

में भौतिक तत्त्व और मानसिक तत्त्व

४७५

'प्राणमय भूमिका पूरी की पूरी हमारे

अंदर छिपी हुई है ४७५अ

'प्राणिक अनुभवों की भूमिका ८९२-५

प्राणात्मवाद २९६अ

प्राणायाम ३४, ३६,५४६,५४७,५४८,

५४९,७४६,७४८,७७१

प्राणिक मन ८६९

मनुष्य में अपने अंतर्ज्ञानात्मक स्वरूप को

खो चुका है ८६९

प्राणिक शरीर ४७५,८९४

प्राणेन्द्रिय के दृग्विषय ८९२-५

प्रार्थना ५६४,५७६-७

प्रेम १३१, १७४, २०२, ३०८, ५१७,

६०१

अहंमूलक १०९, १५६, १५८, १६०

९८८


३५७, ७१८

मानवीय ११०, ३११, ३७०, ५६१

सार्वभौम ११४, १६२-३, ३३२, ४२१,

५१७

सार्वभौम भागवत, १५४अ, १५९

और ज्ञान १५१, ३११, ५६०-१ दे०

'ज्ञान' भी

अतिमानसिक, और निष्क्रिय शांति १७०

हृदय का शोधक, पर...  ३११

भी ज्ञान के बिना ३११, ५५७, ५५८,

५६०

करने की इच्छा हृदय का स्वभाव, पर

चुनाव... ३१५

सामान्य, के स्थान पर सर्वालंगी प्रेम

३५७

और आनन्द, सक्रिय ३५७ दे० 'आनन्द'

भी

ही उच्चतर नियम हैं, अपनी स्वतंत्र

चरितार्थता नहीं ४४९

ज्ञान का मुकुट है ५५६

और कर्म ५५७

द्वित्व का बोधक ५५९

कर्मों का मुकुट और ज्ञान का प्रस्फुटन है

५६१

अहैतुक, सच्ची भक्ति की कसौटी ५६३

ही ऐसा भाव है जो सर्वथा निःस्वार्थ,

अहैतुक, स्वयंसत् हो सकता है ५६९

की तृप्ति दो प्रकार की ५७०

को दो चीजों की चाह : नित्यता और

तीव्रता की ५७९

और प्रेम-संबंध : विवरण ५७९

हमारे अंदर अनेक प्रकार से उदित होता

है ६११ अ

दिव्य, का वर्णन असंभव ६१२

हृदय का एक आवेग ६५९

वासनामय और शुद्ध ६५९

का उच्छेद नहीं ७१७--८

 

(दे० 'भागवत प्रेम'; वि०४७ भी)

प्रेयसू और श्रेयसू ६७१

 

फ-ब

 

फल-कामना दे० कामना

फलित ज्योतिष ९१५

बर्बर जाति १३

बलि आंतरिक रिपुओं की १११

बालवत् ५०६,५१०

बाह्यशून्यवाद [Idealism] २९७

बुद्धि (तर्क बुद्धि) ४६,७९,१४०,२२१,

२३८,२४४,४२७,६५६,७२५

का मध्यवर्ती एवं अंतिम महत्त्व ८१

और हृदय १५१-२, २९१, २९२,

५५८,५५९,६७०

और इन्द्रिय मानस २९५ ३११,

३१५-६, ६७३-५

और सत्य चेतना २९५

और आत्मज्ञान ३०४ दे० 'ज्ञान' बौद्धिक

भी

की शुद्धि ३०५, ४८७अ, ७५२

की शुद्धि अन्य करणों की शुद्धि पर

निर्भर ३११, ३१५,६६४

जड़ स्तर और आध्यात्मिक स्तर के बीच

स्थित ४५२

की मुक्ति ४७९,६८५

और अंतर्ज्ञानात्मक बुद्धि ४८४-५,

४८७,८१४

प्रधान तत्त्व मनुष्य में ४९५-६, ६७२,

८१३, ८२३अ

का स्वभाव ५८७-८

आत्मा का एक करण : विवरण ६६१-२

की क्रिया तीन भूमिकाकाओं में विभक्त :

बोधात्मक समझ, मध्यवर्ती बुद्धि,

विवेक बुद्धि ६६१-२

की शक्तियां अतिमानस भूमिका में नष्ट

नहीं... ६६२अ

 ९८९


 

 

में सूक्ष्म प्राण का हस्तक्षेप दे० 'प्राण'

चैत्य

सर्वोच्च तत्त्व नहीं ८१३

द्वारा मनुष्य अपने-आपको सीमित कर

ले तो... ८१३

का विकास और उसका रूपांतर

८२३-४

का समस्त कार्य-व्यापार अतिमानस से

ही उद्धृत ८२४

की व्यवस्था ८४७

की अति का परिणाम ८७१

का आकलन भूत और भविष्य का ९१३

अतिमानसिक दे० वि० ७७

(दे० 'मन', 'अतिमानसिक बुद्धि',

 'उच्चतर बुद्धि'; वि० २१,४०, ६१,

७७ भी)

खुद्धिभेद २१४

वृहत् ४९३ टिच०, ९०३

बौद्धमत (बौद्धमतवादी) ३६०, ३८०,

४०४, ४२२, ४३५, ५६६, ५८८,

७०४

बौद्धिक ज्ञान ७०,३१७ दे० 'ज्ञान' भी

बौद्धिक धारणाएं ३०४

बौद्धिक प्रज्ञा ३१२,३१३

बौद्धिक संन्यासी २४

ब्राह्मण ७५७-८

ब्राह्मी चेतना ३६८

के आधार पर जीवन को अपनाने की

आवश्यकता ३०१

 

 

भक्त ३२, ७७-८, १५३, १६४, ५६०,

५७१,५८२, ७०४

चार प्रकार के ५७८ टि०

भक्ति ११०, ११४, २९०, ३०७, ५५७,

५६०,६२८,७११

तीन प्रकार की ५६०

 

 भक्तिमार्ग (भक्तियोग, प्रेम-मार्ग) ३२,

 ३८-९, ४०, ७७-८, १७२, २४४, 

२७९, २८०, ३६५, ३८२, ४३०, 

५६२,५६७,५७१,५९६,६१६

(दे० वि०४७, ४८,४९,५०,५४) 

भगवान्

 व्यष्टि और समष्टि के द्विविध रूप में

अपने-आपको प्रकट करते हैं २१,

१९५

[आत्मा] में सब, सबमें भगवान्

 [आत्मा] और भगवान् ही सब कुछ

हैं २६, १०३, ११४, ३७३,७२८,

८४१

को भी भक्त की खोज ३२, ५६७

के साथ संबंध ३२-३, ४८, २०६,

४१७-८

'शिल्पी ४७

को जो चुनता है वह.. ५३

के साथ वैयक्तिक संबंध ६३, १३१,

१३२, १७०, २५९-६०, २६४ दे०

वि० ४८,४९,५०,५१,५४ भी

सर्व है... ६५

को नहीं जानते, तो उनपर एकाग्रता कैसे

करें ? ८२

विषयक विचार या भाव ८३-५; विवरण

११२, ११७, १२१-२, १२६,२९२

वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक भी ८४,

 ८५, १२६, १२८, १३३, ३८५-७,

३९४; निर्व्यक्तिक, तो बन सकते हैं

हम, पर सव्यक्तिक ईश्वर नहीं : अर्थ

३८४; सगुण और निर्गुण १२६,

३८३-५, ३८६, ३९४; एक और बहु

३७९-८२, ३९४; व्यक्तित्व-

निर्व्यक्तित्व, एकत्व-बहुत्व, सगुण-

निर्गुण के भेद से परे है २९९,३८४,

 ५५९-६०

के दर्शन सर्वत्र ८७, १६१-२, ४१७,

९९०


 

 

४३१-२ दे० वि० २८,३३, ५०

सबमें सम हैं ९७, १८, २२५,७०५,

 ७११-२, ७१३

सब चीजों के हृदेश में ९९,८२१

में निवास करना अहं में नहीं १०३

की प्राप्ति के गीतोक्त तीन साधन १०७

को जो पूर्ण रूप से अपने-आपको देता

है, ईश्वर भी उसे... ११२

के पास जिस रूप में, जिस भावना के

साथ.. .११२, ५६८

का अधिकाधिक अनुभव ११४, १४८

दे० 'अनुभव' भी

की अनन्तता ११७

के साथ मिलन : १३१, तीन प्रकार का

१३३

मानव-शरीर में १३२ [६६]

का आत्म-प्राकट्य १३२, १८१-२,

२४४, २४५-६, २६३-४, ५९६,

८४२-३

के शरीर का आकर्षण १६२

की ओर हमें खोलनेवाली चीजें १८१

में डुबकी २१०,२८०

ही तब हमारे स्वधर्म के अनुसार हमारे

विकास को गढ़ता है २११,२१५

अहंकारी का २५१

धर्मसंस्थापकों का २५१

आप जैसे प्रेरित करते हैं वैसे ही करता

हूं २५४,५०४

गोचर देवताओं एवं प्रतिमाओं में...

२६३

का पूर्ण क्रियाशील प्राकट्य मन में नहीं

२६३

जगत् में उपस्थित हैं, स्थितिशील रूप में

ही नहीं, गतिशील रूप में भी २७१,

२९८

व्यक्ति और विश्व के साथ संबंध की

दृष्टि से और परात्पर रूप में

 

२९६-३०० दे० वि ०१६ भी

की खोज, भगवान् के लिये ही २७२,

 ५९७-८

के साथ एकत्व प्रधान प्रेरक भाव योग

के अनुसरण में २८२

मन द्वारा ज्ञेय नहीं पर आत्मा द्वारा

उपलभ्य २९९

की प्रकृति ३२९ दे० 'दिव्य प्रकृति' भी

'नर-नारायण ३३१,३७०

'निरपेक्ष सत्, जगत् विश्वात्मा और एकं

सत् के बारे में ज्ञानयोग और पूर्णयोग

की दृष्टि ३४१-४

में निवास सब समयों, सभी अवस्थाओं

और परिस्थितियों में ३६७-८

के साक्षात्कार के तीन रूप : सब पदार्थों

को अपने अंदर धारण करता है, सब

में अंतर्व्याप्त है, सब कुछ है

३७४-६ दे० वि० ५३ भी

और जीव ३८०,३८५

की प्राप्ति व्यष्टि आत्मा के द्वारा ३८१

'भेदाभेद संबंध ३८२

का नानाविध नामों से वर्णन ३९९-४००

निरपेक्ष, की चेतना ४२५-६

की आत्म-सचेतनता और हमारा

आत्मानुभव ४४२

जिन प्रलोभनों से आत्माओं को अपनी

ओर आकृष्ट करते हैं ५१६,५६२

की प्राप्ति निःसंबंध स्वरूप में और

समस्त संबंधों में ५१९

में नित्य निवास की नींव है : ज्ञान ५५५

में निवास करने का मतलब ५६०अ

से यदि हमारी अपूर्ण शरणागति को उत्तर

न मिलता... ५६८

की परिकल्पना धर्मों में ५७२

विषयक परिकल्पना हमारी ५९१-२

का जो भी रूप हम देखते हैं, वही हम

बन सकते हैं ५९५

 ९९१


 


 

पहले-पहल हमसे जिस रूप में मिलता

है ६०७-८

'प्रियतम की मूर्ति को अंतर्नयन के लिये

गोचर बनाना होगा ६०८अ

के साथ एकीभूत होने का अर्थ ६९१

का कोप या अनुग्रह ७१२

सब अवस्थाओं के बीच हमारा हाथ

पकड़े  रखते हैं ७९१

की प्रज्ञा उतावली नहीं मचाती ७९२अ

जब हमारे कार्य को अपने हाथमें ले लेते

हैं तब सभी कुछ संभव हो जाता है

 ७९८

का इन्द्रियानुभव-इन्द्रिय-ज्ञान ८८६

(दे० 'निश्चल आत्मा', 'परात्पर',

'विश्वात्मा', 'सच्चिदानन्द', 'साक्षी

पुरुष', 'अंतस्थ भगवान्', 'अनुभव',

 'उपस्थिति', 'कर्म', 'यंत्र'; वि० ७,

१६,२८,३०,३२, ३३,३४,४८,

५०,५१,५३,५४ भी)

भय ३२०,३५२,५१६

'ईश्वर-भय ५६३, ५७१-३, ५७४-५

भविष्यवाणी ३१४ टि० ९१३अ

भागवत प्रेम १५८,२१४

और सृष्टि १६६

और मानव प्रकृति १६९

पर यदि एकाग्रता ३२५

(दे० 'प्रेम' भी)

भागवत व्यक्तित्व [दिव्य व्यक्तित्व]

 ३८६,६०५

(दे० वि०४८, ५१,५४, भी)

भागवत शक्ति [उच्चतर शक्ति, दिव्य

शक्ति, परम शक्ति[ १४०,१२६-८

की क्रिया ४६, ६४, १२७-८, १४१,

१८२-६, १८८-९, ७७६-७ दे० वि०

१३,४१,७०,७१ भी

अकेली ही सर्वसमर्थ है १८९; पर

विश्वास रखें तो... २४८, २४९; के

 

लिये कुछ भी असंभव नहीं ७८९,

 ७९६-७

और आचार के मानदण्ड २०७ दे० वि०

१३ भी

ही एकमात्र कर्त्री है २१८,२२५

और वैश्व-शक्ति [निम्न प्रकृति] २५३

उतर कर यदि संपूर्ण क्रिया को हाथ में

ले लें... ६२५

ही हमारे कर्म का निर्धारण करती है

७७०

अंत में हमारे समस्त प्रायास को अपने

हाथ में ले लेती है ७९२

महेश्वरी, महाकाली, महालक्ष्मी,

 महासरस्वती हैं ७९७-८

मनुष्य में किस माध्यम के द्वारा कार्य

करेगी ? ८००-१

की क्रिया अंतर्ज्ञानात्मक विकास के लिये

८२४-५

(दे० वि० १३,७०,७१ भी)

भारत ४५३

में आध्यात्मिक और भौतिक जीवन ६,

२७-८

भावमय मन [हृदय] ३१,४६,८२,८४,

८७, १२९, १६३, १६५ २९१,

२९३, २९४, ३०८, ३११, ३३५,

३७६,६६४,६६६,६८५

और सच्ची आत्मा १५२-३, ३५४ यह

प्रकट तभी... ६५९

की शुद्धि १६७,३१५,३५६,६७०-१

की तरंगें शोक, क्रोध, घृणा आदि

अभ्यास मात्र हैं ६५८ इनके दास हम

तभीतक... ६५८

की शुद्धि कहीं भावना प्रधान सत्ता की

मृत्यु तो न होगी ? ६७०-१

का उच्छेद नहीं ७१७-८, ७५१

शुद्ध, मुक्त ६७१,७१७

की चतुर्विध पूर्णता ७५०-२

 ९९२


 

का मुख्य कार्य ३ : प्रेम ७५२

और अंतर्ज्ञानात्मक मन ८२१          

साधारण मनुष्य में सबसे प्रबल केन्द्र

८२१

(दे० 'प्रेम', 'बुद्धि'; वि० २६ भी)

भूल १५६,२४८,७९३, ८७६अ

भोग [उपभोग] १७७, ३५६, ४३९,

४५८, ४५९, ६५५, ६७६, ६९३,

७०८-९, ७३१

 की इच्छा प्राण का धर्म, पर चुनाव...

२१२, ३१५ दे० 'प्राण', 'प्राण'

(चैत्य) भी

भी, मुक्ति ही नहीं ६१८

जगत् का पूर्ण, तभी ६६५

सर्वथा वैध ६६६

की शुद्धता में बाधा : कामना ६६६

वास्तविक ७१६

'भोग-सामर्थ्य ७५०

भोजन ११३, ३४७

भौतिक चेतना

का अतिमानसिक रूपांतर ८९१

का ज्ञान-क्षेत्र ९००

भौतिक जीवन दे० 'शारीरिक जीवन'; वि०

२,३

भौतिक मन (स्थूल मन) २२, २३,

४५६,४६२, ६६७-८, ८३६

और जीवनेच्छा १७३

की क्रिया में सूक्ष्म प्राण का हस्तक्षेप

६६७

की सीमाओं से मुक्ति का चिह्न

८२२

हमें मस्तिष्क यंत्र के साथ बांध देता है

 ८३६

का प्रभुत्व जबतक तबतक चैत्य दृग्विषय

कम वास्तिविक, चैत्य चेतना में प्रवेश

के बाद भौतिक सत्ता अवास्त-

विक... ९०३-४

 

भौतिक मनुष्य २१-३, १९५,५४६

(दे० 'अन्नमय पुरुष')

भ्रांती ६४,७२०, ७३१,८२६अ

भ्रातृभाव १६८

 

 

 

मंत्र

मध्यवर्ती सत्य ४४७

मन १४,१५,२९,७४,८२,८७,१३९

 १७५, १७९, १८९, १९२, २४३,

 २४४, २८६, ३०८, ३३५ ३७६,

 ४३६, ४५६,४८४, ५०८, ५६९,

६२३,६५५,६६०

त्रिविध ११

प्रथमत: शारीरिक जीवन [जड़तत्त्व] में

आवृत ११,४४७,४९५

विकास की अंतिम अवस्था नहीं १५

का भी उपयोग है १७-८

की विशेष शक्ति : परिवर्तन, पूर्णता,

 प्रगति १९,२०,२३

और भौतिक जीवन २३-४

की आत्मा, स्वप्नद्रष्टा २३,२५

जीवन को अपनाकर ही अपनी पूर्ण

शक्ति प्राप्त करता है २४

की शुद्धि ३५-६ शुद्ध, का मतलब

३७३

के बहिर्मुख झुकाव के स्थान पर भगवान्

की खोज ६३

हमारा, ग्रहण-संवर्धन-परिवर्तन की

मशीन ७७; वास्तविक, हमारे अंदर

का वैश्व मन ही है, व्यक्तिगत मन तो

उसका उपरितल पर प्रक्षेप मात्र है

९१०

प्राकृतिक शक्तियों के भंवर पर सवार

होता है... ९८-९

का रूपांतर १४९-५०, २४२, ४२८; के

संपूर्ण रूपातर की आवश्यकता ८४९

९९३


 

 का स्वरूप स्व स्वभाव १५०, १५५,

२४६, २६२-३, ३२४,६३२,६३३,

६८२, ८२८; का विभाजक स्वभाव

४०४, ४७९, ५५९; अज्ञान का

करण है ८०७-८, ८२८, ८४७,

९०९; (प्रकाश और ज्ञान का करण

३४०); आत्म-विरोध से पूर्ण है

८०८, ८४७; से मतलब : अज्ञान का

आधार ८२६

जब निश्चल हो जाता है १५७, २११,

३१८,३४१,८२०,८९७

को पूर्णरूपेण शांत करने की विधियां

३२६, ७७४र सक्रिय और निष्क्रिय,

को शांत करना ६४४अ;

 की अभावात्मक निश्चलता नहीं,

भावात्मक रूपांतर ४०३-४; की

निश्चलता उच्चतर रूपायण का प्रथम

सोपान ७७४; की शांति बढ़ने के

साथ-साथ उपस्थिति का अनुभव

७७५

और प्राण १७९, २९७,७३५,७७२;

को प्राणिक सामर्थ्य से पूर्ण होना

चाहिये ७४९

नहीं हूं मैं ३४१,३५८

भगवान् को [उसके तरीकों को] समझ

नहीं सकता २४७अ, २४८अ, २५६;

परात्पर को निषेध प्रणाली द्वारा ही

परिकल्पित कर सकता है २९९,

३०० दे० 'ज्ञान' बौद्धिक भी

को भी पार करना होगा २६२-३

आत्मा का पूर्ण यंत्र कदापि नहीं बन

सकता २६३,४७९,८००-१

भी 'तत्' नहीं है २९७

प्राण, शरीर के संबंध जड्तत्त्व में

 ३३९,४७३,६५५,६५६

और शरीर के संबंध ३४६-५०,

 ५४५-७

 

की शक्ति, शरीर पर ३४६-५०, ६६८,

७४७; की शक्ति में श्रद्धा, और

शरीर में विरोधी विश्वास ७४७-८

में अनासक्ति की शक्ति ३४६

की पवित्रता और भोजन ३४७

जबतक शोक, भय, क्रोध आदि के

अधीन है तो शरीर-त्याग के समय

योग-समाधि में एकाग्रता भर से

मुक्ति... ४०२-३

की प्रतिबिंबित करने की शक्ति ४०३

का जगत् को नाम-रूपात्मक रूप में

देखने का अभ्यास ४४७,६०८

की स्थिति मनोमय लोक में ४६१,

४७७,४७८

से उच्चतर भूमिकाएं ४७८ टि०

उच्चतर भूमिकाओं का जो वर्णन...

४८१

को चेतना व प्रकृति के रूपांतर एवं

आत्म-अतिक्रमण का विवरण अपने

सामने अवश्य.. ४८१

दिव्य प्रकाशयुक्त और विज्ञान ४८२-३

अनन्त की स्वतंत्रता में प्रवेश करने

पर... ५०९,८६४,९०७-८

के आरोहण एवं बल की सीमा ६२५,

६३२,६३३,६८२-३

में अहं-स्वतंत्रता का विचार कब ६३७

'मानसिक क्रिया का शरीर पर प्रभाव

६५९

की प्रत्यक्ष बोध की शक्ति ६६०-१,

 ६७४

छठी इन्द्रिय ६७४, ८८५; ही एकमात्र

इन्द्रिय ८८५; भी शुद्ध इन्द्रिय का

एक करण मात्र ८८५

रूढ़ चितनात्मक, व्यवहारलक्षी और

ज्ञानात्मक ६८०-२ ८६१-३;

 अज्ञानमय, आत्मविस्मृतिपूर्ण ज्ञान से

युक्त और ज्ञानमय दे० वि०७१

९९४


 

 

बाह्य, की सामर्थ्य ७२२अ

की जीवन के आघातों के प्रति तीन

प्रकार की प्रतिक्रिया :सुख, दुःख,

उदासीनता की ७२३-४

जीवन के सुखों और दुःखों से

स्वेच्छापूर्वक बंधा हुआ है ७२६

की प्रतिक्रियाएं दिव्य मूल्यों का हीन रूप

७२८

'मानसिक शक्ति द्वारा प्राण-शक्ति का

नियमन ७७२

'मानसिक स्तर पर पुरुष और प्रकृति

७७३

मन की प्रत्येक वस्तु अतिमानस से

निकली है ७७४, ८०५

और अतिमानस दे० वि०७३, ७६

और अंतर्ज्ञानात्मक मन ८३६ दे० वि०

७४ भी

की निम्न क्रिया का कारण ८४६अ

की विचार क्रिया के तीन स्तर ८६१-२

स्थूल इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त

करता है ८९२

का दूसरे मन के साथ सीधा संबंध ८९६

(दे० 'अंतर्ज्ञानात्मक मन', 'इन्द्रियाश्रित

मन', 'उच्चतर मन', 'चितनात्मक

मन', 'भावमय मन', 'भौतिक मन',

'संवेदनात्मक मन', 'स्नायविक मन',

 'बुद्धि', 'अहं'; वि० ७३, ७४, ७६

भी)

 मनन ३०७ टि०, ५८३

-चिंतन अनवरत, ब्रह्म का ६०२, ६०४,

६०८

मनीषी ८१४

मनुष्य

की संभावनाएं ६, १९-२०, ४६६,

६२२, ७४८, ७७३-४ दे० वि० ५७

भी की सामर्थ्य ६३१, ६३५-६,

६३८; को जो बनना है ६४०; एक

 

 ऐसे विकास का यंत्र है जो...

 ७१४; में आत्म-विकास के लिये

आत्मा का दबाव ८४८

का शरीर देवताओं को स्वीकार ९

मानसिक प्राणी है ११, ८०, २९१,

६४३; का विशेष लक्षण ८०-१,

१०१; का वास्तविक धर्म ८१२अ

और पशु ११, ८१, ३१२, ६३१,

६७३, ६७४-५, ७९९,८१७,८३६

में त्रिविध जीवन १९-२०

की साधारण सत्ता [जीवन] ३५,७३,

७६,९१,४१२, ५२३, ७३६; की

सम्मुख सत्ता और उसके पीछे, नीचे,

ऊपर के स्तर १८३-४

में अनेक व्यक्तित्व ७७, १८४ दे०

'व्यक्तित्व' भी

अंदर से भी अकेला नहीं ७७

के भीतर पुरुष के दो केन्द्र ८१-२, ६०३

के अस्तित्व [जन्म] का हेतु [अर्थ]

 ९१,२५७,३३०,५९६

ने जब पशु की प्राणिक क्रियाओं को

बुद्धि के संचार से रूपातरित...

१३७

एक सामाजिक प्राणी है १९६

की पूर्णता की शर्त १९७,४५५

का अपने विषय में विचार २१६,४७४

की सत्ता का सत्य दे० 'सत्य' हमारी सत्ता

का

जो यंत्रभाव के अहंकार से पूर्ण हैं

२५०-२

भौतिक तथा अवप्राणिक चेतना से लेकर

मानसिक चेतनातक के संपूर्ण विकास

को अपने अंदर धारण किये हुए है

३९२-३

की चेतना वैयक्तिक ही नहीं, अहंमयी

भी है ४१५

का उच्चतम लक्ष्य, और उसके शरीर,

९९५


 

 प्राण, मन, चेतना, जीवन और

आनन्द की सीमाएं ४५५-७ दे०

' लक्ष्य' भी

जगज्जीवन के प्रति भौतिक दृष्टिकोण से

देरतक संतुष्ट नहीं रह सकता ४६५

अपने गोलार्द्ध को अतिक्रम कर फिर

नहीं लौटता ४८०

का अंतर्ज्ञान और पशु की सहज प्रेरणा

४८६-७, ८१२, ८६९

स्वयं, कुछ एक गुण नहीं, एक व्यक्ति है

 ५९४

को इन्द्रियाश्रित मन व बुद्धि से बाहर पैर

रखने में संकट... ८१७

यदि तर्क-बुद्धि से ऊपर उठ जाये तो

इतने से ही वह मानवता को पार...

८७०

(दे ० 'पुरुष', 'व्यक्ति', ' भौतिक मनुष्य',

'राजसिक मनुष्य', 'योगी' भी)

मनोबल ४७१

मनोमयकोष दे० 'सूक्ष्म शरीर'

मनोमय पुरुष २८५,६३७, ६७८

के अनुभव का लक्षण : तीन प्रकार के

अंतर्ज्ञान ६४१

की दृष्टि में प्रकृति का कार्य-व्यापार

६४१- २

पीछे हटने की क्रिया को एक बार संपन्न

कर लेने पर फिर से बाह्य कार्य में

 ग्रस्त होने पर भी अपने निकट वह

बिलकुल वही कभी नहीं हो सकता

जो कुछ कि वह पहले था ६४२

(दे० वि०३८, ३१ भी)

मस्तिष्क ४९८

माता (भगवती) [जगन्माता] १५९, २२०

चाहती है कि सभी कामनाओं और कष्टों

में मानव आत्मा उस के पास जाये

ताकि... ५७८

मानदण्ड [नियम] आचार के १५४, ३३६

 

सभी छोड़ मेरी शरण ले २१०, २७८,

 ७१९

में आरोहणकारी तीन क्रम २१०-५

और आभ्यन्तर पथ-प्रदर्शक नियम

२७६अ दे० 'नियम' भी

और विज्ञानमय पुरुष ५११

और महत्तर पूर्णता का अभिलाषी साधक

७१८-९

(दे० वि० १२, १३ भी)

मानवजाति [जाति, मनुष्यजाति] २३

का उत्थान १४,२१, २४-५, २७

की सेवा ३६१-२

की सहायता ४५०,६२०,६५१

मानसिक जीवन २१०अ

हाल में ही प्रकट नहीं दुआ १३

की पूर्णता का आधार ६६७

(दे० वि० २, ३ भी)

मानव रूप ईश्वरवाद १३१

माया ३८,२७०

के द्वारा यंत्रारूढ़ की भांति ९७, ९९,

२५५,८२१

सनातन पुरुष की चिच्छक्ति १२३,

४३९,६३४-५

(दे० 'द्वैत' भी)

मिथ्यात्व

का त्याग २९३-४

पर आधारित हमारा वर्तमान जीवन

३३७-८

मुक्त आत्मा १३७, १३८,४३९

के संगी-साथी २७४

का वास्तविक जीवन भीतर २७५

जीवन को अपनाये तभी... ३०१

और दूसरों के कष्ट ४२३

ऐसा यंत्र बन जाता है... ६२०

का कर्म, जीवन... ६५३-४

विकास को द्रुतवेग प्रदान... ७१४

(दे० 'योगी'; वि० १७,३६ भी

९९६


 

 

भुक्ति [मोक्ष] १८,६०,१५१,१८५,

 २८५, ३००, ३२९, ३४८, ३५७,

 ४१८, ४२४, ४४५ ४५२, ५००,

 ७०४

सायुज्य [सान्निध्य] ४८, १३३, १३६,

२७९,५५७,६१२, ६९०

सामीप्य [सालोक्य] ४८, १३३,५३६,

६१२,६९०

साधर्म्य [सादृश्य] ४८, १३३, १३६,

२७९, ३८४ टि०, ५८२, ६०३,

६१२, ६३०,६८६,६९०

पूर्ण और अंतिम ४८; पूर्ण ४२०, ७०२;

पूर्ण, का रहस्य ४३१; सर्वांगीण

६९५,७०३

निम्न प्रकृति से २४०, ४३४, ५७५,

 ५८२

ही नहीं, परिपूर्णता लक्ष्य २५३; ही नहीं,

मुक्ति भी ६१८; ही नहीं, प्रभुत्व भी

६४४

सच्चा २६८,२७३

का प्रयोजन पुनर्जन्म से छुरूकारा...

२७१-४

स्वर्ग से अधिक आकर्षक २७२

से बड़ा एक और आकर्षण २७३

की कामना २७३, ४०२अ, ५१५-६,

७०२

और पूर्णता की खोज क्यों २७८-९;

 तथा पूर्णता हमारी, का अर्थ ४४१

निश्चल आत्मा में, का अनुभव २९४-५,

इस अनुभव में से जो नहीं

गुजरा... २९५

के निषेधात्मक अनुभव के परे भावात्मक

उपस्थिति २९५

और शुद्धि दे० 'शुद्धि'

मानव जन्म से, शरीर के त्याग भर से !

४०२

दिव्य विश्राम की ४२०

 

सांख्यों की ६४३

, प्रभुता, पूर्णता प्राप्त करने के लिये

... ७७०

(दे० 'अहं', 'अहंबुद्धि', 'आत्मा',

'कामना', 'द्वंद्व', 'प्राण', 'प्राण'

(चैत्य), 'बुद्धि', 'भौतिक मन',

 'विज्ञान', 'शरीर' भी)

मुक्ति [मोक्ष] वैयक्तिक ७७, २६१,

३२८,३३०, ३३१,४४९

एक प्रलोभन २७२, ५१६

का समर्थन किस कारण २७२

प्रथम लक्ष्य ६१९अ

मृत्यु ६८,२६४,३९९,४४५, 'शरीर-त्याग

४०२

का भय ३५२

के बाद ४६८अ

'इच्छा-मृत्यु ५२९

 

यंत्र ६०, २२०, २३३,२४४,२६४,६०४,

६१०, ६४६,७१३

निर्दोष ८६

शुद्ध और पूर्ण, बनने के सोपान

२४९-५३

-भाव का अभ्यास २५०

-भाव का अहंकार २५०-३

भगवान् के नहीं, वृत्रों के २५२

-भाव में सच्ची विशाल दृष्टि २५२

भगवान् का, बनने की आड़ में भगवान्

को अपना यंत्र बनाना २५३,७८३

ही नहीं, उसके अंग २५५

यथार्थ विचार ३०४,३०५

यथार्थ विवेक की सहायता ३०४

यज्ञ

स्वीकार्य, ६०, ८३,११२

के प्रतीक का गुह्य तात्पर्य १३६,४२३

का एकमात्र सच्चा, स्पृहणीय फल २४९

९९७


 

द्वारा पुत्र का जन्म ६०५

(दे० वि० ९,१०, ११ भी)

युग

वर्तमान ३, १४,७९१

संदेहवाद के, के बाद गुह्य विद्या और

धर्म का युग ४६५

यूरोपीय मन दे० 'पाश्चात्य मन'

योग १६, ५७, ९५,४६९, ५३६, ६२८,

 ६३१,६३८,६४०

प्रकृति का विकास और, ४-५ २९,

३१, ४७अ, ६२३

की संपूर्ण विधि मनोवैज्ञानिक है ५,४४,

 ५२५

का अर्थ [अभिप्राय] ४,५८०,६३०,

७४४; की भावना : अपवाद रूप

चेतना को सामान्य चेतना बनाया जाये

६०२

द्रुत विकास का साधन ४, २९, ९२,

२८३, फिर भी वह क्रमिक

अवस्थाओं को लील नहीं.. २८३

दे० 'रूपांतर' एक भी

का लक्ष्य [उद्देश्य] ३१, ४४अ, १३६,

१६६, १७८, १८८, २४५, २८१,

३०२,३९१,५८१, ६१९अ, ७९९;

का लक्ष्य वैयक्तिक महानता पाना

नहीं २८२ दे० 'पूर्णयोग' भी

का सार ३२,७२, ५९५; का मूत्र सूत्र

५७१

का आधार ४४

की मौलिक प्रक्रिया ५८; की क्रिया का

क्रम ८९; की प्रक्रिया का स्वरूप,

प्रयुक्त करण के अनुसार ६१६अ

एक नूतन जन्म ३७० दे० 'नूतन जन्म'

भी

अपूर्ण, भी निष्फल नहीं ७२

में सफलता ७२

की विघ्न-बाधाओ का मूल ७३

 

से हमारी सत्ता की जटिलता और

बहुविधता सामने... ७६

का श्रीगणेश [आरंभ] ८२, ८६, ५८१,

 ६२४

विचार का सत्य नहीं... ११७

का आरंभबिंदु ज्ञान, भक्ति व कर्ममार्ग

में २८०

से शक्ति का विकास ३०२ टि० दे०

' योगशक्ति ' भी

की विद्द्या और योग की कला ३७८

और सांख्य ३८८,

का सर्वस्व ४२५

और धर्म दे० ' धर्म'

और सायंस ४6

का प्रवेश : जीवन में ५२२, धर्म में

५६९

का अभ्यास जब बिना तैयारी के...

७४५

की प्रगति का अर्थ ७९३

के अनिवार्य साधन ८४८

का त्रिविध मार्ग दे० त्रिमार्ग

(दे० कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग,

 'पूर्णयोग', राजयोग, हठयोग; वि०१,

३, ४ भी)

योगशक्ति

के स्पर्श से मानसिक सर्जन की नयी

क्षमताओं...१४८-९

योगी ६, १७४, ४१८

और सामान्य मनुष्य ४५, १४५

और कर्म ३५०, ४११

की सार्वभौमता ४१३अ, ४२१

और निम्नतर ज्ञान ५२६ दे० वि० १०

[ज्ञानन के कर्म] भी

(दे० ' मुक्त आत्मा' भी)

यौगिक निष्क्रियता ५३९

रजस दे० ' गुण'; वि ०१५, ६३

 ९९८


 

राग-द्धेष २२५,६७०,६७१

राजयोग ५,३३,५६

की प्रणाली ३५-७, ३२१

का मूल सिद्धांत ६१५-६

(दे०वि०४६ भी)

राजसिक मनुष्य और असुर ४७६

रास-लीला ५११

रिपु आंतरिक १११

रुद्रशक्ति ७१८,७४२,७५१

रूपांतर [परिवर्तन] ५९, ६२-३, ९१,

९६, ११६, २८०, २८२, ४२३,

 ४३२, ६२४

अपने बल पर संभव नहीं ८८, ६२५,

 ७७४

के लिये प्रकृति की परिपक्वता का चिह्न

८९अ

प्रकृति का ९२-३, १३३-५, २४३-४;

 निम्न प्रकृति का पूर्ण, और

अतिमानस ४२७-९ सर्वांगीण ६२८

पंगु ९४

जो संपन्न करना हैं १३३अ

सुमहान् १८२-६

की कठिनाइयों और अग्नि परीक्षाओं में

सहारा देनेवाली चीजें १८२, १८९,

२२२

जिन चीजों पर निर्भर १८६,२०६

जैसे पशु से मनुष्य में, वैसे ही मनुष्य से

अतिमानसिक जीवन में १८८,७९९

विज्ञानमय ४९३अ, ७०७-८

आंतरिक चेतना का ६०४

'पूर्ण उद्धार तो तभी होता है जब...

६०५

की प्रारंभिक शक्ति ६२४अ

एक प्रक्रिया द्वारा, मनमौजी जादू द्वारा

नहीं ६३६ दे० 'योग' द्रुत भी

के द्वारा ही पूर्णता ६४८

के दो पहलू ८२९

 

पूर्ण, कब ९०३

(दे० 'चेतना', 'प्राण', 'बुद्धि', 'भौतिक

चेतना', 'मन', 'शरीर'; वि०७०, ७१

भी)

रोग ३४७,३४९,७४७,७७१,८९४

 

 

लक्ष्य [उद्देश्य] ९२

हमारा १९,३७,४५,६३,८२, १३८,

१७९, २२४, २५४, ३३१, ३६०,

३६२, ४०९,४४१, ४४९अ, ६२२,

६४४,६८५ दे० 'जीवन', 'पूर्णयोग',

 'योग', वि०५५,५६ भी

अभिव्यक्ति का २७८,४५५

जहांतक सभी एकमत हैं ३६४

मानव प्राणी का ३८८-९, ४५५,६४९,

दे० 'मनुष्य' भी

 

लय

 

वास्तविक ५१५

एक प्रलोभन ५१६

(दे० 'ज्ञानमार्ग' का लक्ष्य भी)

लोक दे० 'स्तर'

लोकमत

'बाह्य मानव की दृष्टि का महत्त्व नहीं,

अंदर की आंख ही सब कुछ है

३३३-४

लोक संग्रह १४५,२०८,२७५,५५७

 

 

वर्चु [virtue] २१४

वर्ण-व्यवस्था ७५६-७

वर्तमान ८५७,८६५

(दे० 'युग'; वि०७९ भी)

विकास १७, १९, २०, ११६, १७७,

१९२, ३९३,७१२, ७१३

अपने, को समाज की खातिर रोकना

नहीं, बल्कि... २१

 ९९९


 

सामान्य मनुष्य का ९१

को निर्व्यक्तिक अनुमति, और उसे वेग 

प्रदान करना ७१४

सर्वांगीण, आवश्यक ८४९

(दे० 'योग' हुत वि०२ भी)

विचार ७४, ९३, २४३, २५५, २६८,

२९४, ३४१, ३५७,४०८, ४१०,

६५९

हमारे, हमारे निजी नहीं ७७, २१६,

४६०

भगवान् विषयक दे० 'भगवान्'

साक्षी आत्मा के निकटतम २९१

अज्ञान को आलोकित करने का साधन

२९१

-विमर्श की सहायता ३०४

साधन विकीर्णता का, विचार ही साधन

वापस लौटने का ३२०

पर एकाग्रता अतिचेतन स्तरों को खोलने

की कुंजी ३२३

को शांत करने की विधि ३२६ दे०

 'मन' भी

और संकल्प दे० 'ज्ञान'

स्वतः प्रकाशमान, का स्तर ३९४

को जानना [विचार-संक्रमण] ५३२,

८७८

का आत्म-निवेदन भक्तियोग में ५८३

 'दूर-विचार-प्राप्ति ६६१

के विषय में संदेह की उपयोगिता

७८८

अतिमानस में ८४१अ

में संघर्ष, मन में ८४७

की जरूरत नहीं उच्चतम स्तरों में ८५१

(दे० 'अतिमानसिक विचार', 'आसक्ति',

 'एकाग्रता'; वि० १९,२२ भी)

विजय

अपूर्ण ३२९

पहली, दूसरी और अंतिम ४५०

 

विज्ञान १४३, १४४,२९५,३१५,४३४,

 ५२४

विज्ञान (भौतिक, जड़वादी) ५अ, १४,

४६५,५२१

और आत्मज्ञान ३०३

की धारणा शरीर, मन आदि के संबंध में

 ३४९,६३०अ, ७६७

विज्ञान (भावी) ४६०

विज्ञान प्रज्ञान, संज्ञान ८८४-५

विज्ञान (अतिमानसिक) २५७

जिस वस्तु को स्पर्श करता है वह

रूपांतरित होकर... १५१

में आरोहण मानव की नियति और

उसका अवतरण पार्थिव विकास में

 अवश्यंभावी २५७

का अर्थ ४२० टि०

सत्ता मात्र में गुप्त रूप से अवस्थित

४८१

की उपस्थिति एक आश्वासन ४८१

का प्रधान तत्त्व : ज्ञान ४९५,४९६

से तबतक हम कोसों दूर ४९९

-मय अस्तित्व का अभिप्राय ६२१

में एकदम ही आरोहण कर जाना संभव

नहीं ६८३-४ ऐसा करने का अर्थ

होगा : वहां से लौटने की कोई

संभावना न होना ६८३अ

-मय मुक्ति ६८५

में मुक्ति की पूर्णता ७०२-३

मय सत्ता का विकास ७०७

-मय सिद्धि इस देह में ७०७-८

की क्रिया के परिणाम : वह सारी सत्ता

को अपने हाथ में लेकर... ७०७

के आधार पर पूर्ण कर्म और उपभोग

७०८-९

-मय विकास और आनंद तत्त्व ७०९

(दे० 'अतिमानस'; वि० ४०, ४१, ४२

भी)

१०००


 

-

विज्ञान-केन्द्र ४९८,५१०

में स्थित होने का पारिणाम ४९८

विज्ञानमय कोष दे० 'कारण शरीर'

विज्ञानमय पुरुष ४८०

का स्वभाव व प्रकृति ४९२

की चेतना ४९६-७

(दे० वि० ४२ भी)

विनाश २२५,३०२ टि०, ७१८

विभूति १३२,७५५

विशिष्टाद्धवैतवाद ३६४,३८०

विश्व

और व्यक्ति का तीव्र भेद दे० 'अहं' का

पृथक्-अस्तित्व

का सत्यज्ञान २९५,३०३

और व्यक्ति दे० 'व्यक्ति'

(दे० 'जगत्', 'द्वैत' भी)

विश्वात्मा [विराट् पुरुष] ३६१, ३९५

 ६३८

के दो पार्श्व २५८

(दे० वि० २८ भी)

विश्वमयता [विश्वात्मभाव] ८७, १७९,

१८५, २०७, २६०, २६१, २८३,

३६७, ३६८, ४३६, ४९७,

 ६४८-५०, ७७८, ९०२ (दे० वि०

२८,३३ भी)

विश्व-संगीत

के सभी स्वरों का स्वीकार ४३०

वैदान्तिक सूत्र २६,३७३

वैश्व ७५९-६१

वैश्व प्रकृति दे० 'प्रकृति' (वैश्व)

वैश्व प्राण-शक्ति १८५, ७४६-८,

७७०-२, ८९४

वैश्वशक्ति ३६,२५३,२५८,३०४,७७८

-यों का प्रत्यक्ष अनुभव १८४, १८५

ही कर्मकर्त्री है २१६-७

विवरण २५५-६

ही सब कुछ है कार्य की शक्ति, विचार

 

की शक्ति, ज्ञान की शक्ति, प्रेम की

शक्ति... २५६

और विश्वात्मा २५८,४१५

की ओर अपने को खोलना ७७०

का साक्षात्कार ७८१

दे० 'भागवत शक्ति'; वि० ७० भी)

व्यक्ति

और समूह २१, २८, १९५-९, ३५९,

३६१

और प्रकृति का योग ३१

, ईश्वर और प्रकृति ३१, ७०९

भी भगवान् के लिये आवश्यक ३२ दे०

'भगवान्' को भी भक्त... भी

-पूजा १६१

रूपी कर्मी की स्थिति अखण्ड विश्व-कर्म

में १९२

ही होता है विचारक, और नैतिक प्रयासी

भी २००; व्यक्ति ही अमरत्व व

आत्मज्ञान प्राप्त करता है ४४३

की प्रकृति और धर्मशाश्त्त्र २०६

अपनी प्रकृति में वैश्व पुरुष की

अभिव्यक्ति, अपनी आत्मा में परात्पर

की अंशविभूति है २५६,२९८

और विश्व (विराट्) २७८अ, ३४५,

३९१,६४८-५०

प्रत्येक, भगवान् ही है ३७९

का सत्य दे० 'सत्य' हमारी

असाधारण ७५५

(दे० 'पुरुष', 'मनुष्य' भी)

व्यक्तिवाद की आवश्यकता १९८

व्यक्तित्व ४९८,

और निर्वैयक्तिकता १२८-३१ दे०

'भगवान्' भी

उपरितलीय २१९

हमारा, सदा एक-सा नहीं रहता ३८२अ

सच्चे, को पाने का अर्थ ४४४

के विषय में हमारा विचार ५९१,५९२

१००१


 

(देव 'भागवत व्यक्तित्व', 'अहं' भी

 

 

शक्ति २२९,२६४,४५६

का प्रवाह १३०अ

की निंदा एक भूल १७६

सब, अपन मूल में आध्यात्मिक और

दिव्य हैं १७६

महत्तर, से परिचालित होने का बोध

२५१

अतिमानसिक रूपांतर के द्वारा

अनिवार्यत: प्राप्त होती है २८२

की लालसा से अतिमानस की खोज

संकटपूर्ण २८२

का विकास योग से ३०२टि०

दुधारा शस्त्र ३०२टि०

नीरवता की ३१८

अनंत, स्वयंपूर्ण ४१६

का मतलब ४५५

निश्चलता की ५३९

का अपव्यय ५३९

समस्त-भौतिक, प्राणिक, मानसिक-

अंत में आत्मशक्ति ही है ६१७

-यों की एकता समन्वय की संभावना का

संकेत ६१७

प्रत्येक, पराकाष्ठा को पहुंचकर अनंततक

पहुंचने का मार्ग ६२१

को धारण करने की अक्षमता ७५१

जो करणों की पूर्णता के बाद उनमें

प्रवाहित की जाती है वह कौन-सी है

और उनका प्रवर्तक कौन है ७५४

हमारी निजी ७७० दे० 'साधक' की

सामर्थ्य भी

(दे० 'प्राण' भी)

शक्तियां

, सत्ताएं जीव प्राण लोक के ४६०

(दे० 'सिद्धियां' भी)

शब्द ५४,७२०

शब्दब्रह्म [Logos] ८०२

 शरीर [देह] १९,२९,७४,१५७,२९३,

३०८, ४२१, ४५६,४९८, ५३७,

६२३अ, ६९६

अन्नकोष और प्राणकोष से निर्मित ९,

१५,३३,३५१,४६१,५३८,६५६

को एक बाधा समझना १०,७८,७४४

एक यंत्र, आधार १०, ३३, ७०८,

 ७४३,७४४

और जीवनेच्छा १७२अ

की सीमाओं से मुक्ति १८५,८९२

का रूपांतर २४२; में विज्ञानमय सिद्धि

७०७-८ दे० वि० ६८ भी

हमारी आत्मा नहीं, यह तो... २९६,

३४६; नहीं हूं मैं ३४१

का त्याग समाधि अवस्था में ३२१,

४०२, ५२९

के साथ मन के व्यावहारिक संबंधों को

ठीक करना पहला कदम ३४६

पर पूर्ण विजय स्थूल प्राण-शक्ति पर

विजय से ही ३५२

में वैश्वभाव ३७६

एक वस्त्र या यंत्र ३४७अ, ३७६,४७०

की भी अपनी एक चेतना है ३९३

से छूटने का अर्थ मर्त्य मन से छुटकारा

नहीं ४०२

का आधिपत्य ४६८

के दास हैं हम ५३८

की निश्चलता ५३९

की चंचलता का अर्थ ५३९-४०

में थकान ३४९,५४१,५४२

भी रग-रग में सोम-सुरा से परिपूर्ण...

६१२

आत्मा का बाह्य करण ६५६ दे०

'जड़तत्त्व' भी

(दे० 'कारण शरीर', 'सूक्ष्म शरीर',

 

 

१००२


 

'शारीरिक जीवन', 'मन'  वि० २५

 भी)

शांति ७८, ७९, १०२, १०६, १२०,

१२४, १२९, १७०, २३०, २६९,

३९०, ३९८,४२०, ५१६, ५२४,

५९७, ६०४, , ६५२, ६७९, ६९१

७३६,७५०,७७४

सर्वाधार १७९

रिक्त, नहीं २४८

अभिभूतकारी ३६८

पूर्ण, की आवश्यकता ३६८

आंतरात्मिक, का बलिदान ४१२

अजेय ७२६

 (दे० 'नीरवता', 'कर्म'; वि० ६७ भी)

शारीरिक जीवन १९९,२१०

नहीं, चेतना निर्धारक तत्त्व ४०२

(दे० वि०२, ३ भी)

शारीरिक बल-सामर्थ्य ७७०

शारीरिक व्यायाम ७४६

शास्त्र (धर्म शास्त्र]

सनातन वेद ५३-४, ६१

के या गुरु के शब्द ५४-५

प्राचीन, के अनुसार साधना और पूर्णयोग

५५-७

और विविधता एवं विकास के लिये

स्वतंत्रता ५६-७

और दिव्य नियम २०५-६

और व्यक्ति की प्रकृति २०६

शिक्षा ५३अ, ६७

शुद्धि [पवित्रता] ३७,२४८,३१०,३२०,

३४७,३७३,५२५,५३८, ८४८ ,

आनन्द और पूर्णता भी, स्वतंत्रता ही

नहीं ४८अ

हृदय की दे० 'भावमय मन'

बुद्धि की ३०५, ४८७अ, ७५२ दे०वि०

२१भी शूली १५९

२१ भी

 

 प्राण की ३१५

और एकाग्रता ३१९,३२०, ३२८

और मुक्ति ३५६,३५८,३६७,६४८,

६८५,७०४

का उद्देश्य ५२३

आत्म-निवेदन का एक तत्त्व ५८१अ

'आत्म-शुद्धि का मतलब ५८२;

साधारणतः जिसे कहा जाता है ६५२;

का अर्थ ६८५

मानसिक मिश्रण से, अनुभव की ६०२

और सिद्धि ६४८,७०४,८४४

के बाद रूपांतर का काम शेष ६४८

करणों की आवश्यक ६५२-६

की आत्मा को आवश्यकता नहीं ६५२

निष्क्रिय नहीं, सक्रिय ६५३

जिसकी सर्वांगीण सिद्धि मांग करती है

 ६५३-४

नैतिक ६५३

के विषय में हमारा कर्तव्य ६५४अ

का उपाय ७८३

के साथ-साथ प्रकृति को ऊपर उठाने का

संकल्प भी ७८३अ

(दे० 'प्राण', 'मन' वि० ६०, ६१ भी)

शुभ ५०२, ५१७,५२२

और अशुभ नैतिक १५५

'शिव और अशिव १८६

और अशुभ के द्वंद्व से मुक्ति १९३-४

का भी त्याग ३३६

-कार्य का आवेश ३५६

और अशुभ से परे' का अर्थ ६५३

 ७६१-३

की स्थिति प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में और

आधुनिक विवेचन में ७६१-२

शून्य ४०७,५९३

शून्य ब्रह्म ३६९

 श्रद्धा [विश्वास] ४४,४६,६०,६४,७३,

१००३


 

८३, १८२, २२२, ५७६, ५७७,

६३१,७०६

'यो यच्छद्ध: स स्व स: ४४, ६३६,

 ७४८,७८७

जो पूर्णयोग में अपेक्षित ८५

अगोचर को प्राप्त करने के अपने

पुरुषार्थ में ८५

तब ज्ञान में परिणत ८५

दिव्य कर्मी की ११४

पहली आवश्यकता २४६-७

ऊपर से मिलनेवाला अवलंब २४७

यदि दिव्य प्रज्ञा और शक्ति में हो

तो... २४८-९

आंतरात्मिक [संकल्प, तपसू] २९२

की शक्ति ६३५अ

शरीर पर प्रभाव डाल सकने की मन की

शक्ति में ७४७, और शरीर में

विरोधी विश्वास ७४७-८

'कल्याण-श्रद्धा ७५१-२

(दे० 'अंध-विश्वास', 'भागवत शक्ति';

वि० ७२ भी)

श्रवण

, मनन, निदिध्यासन ३०७ टि०, ५८३

'दूर श्रवण ५३२

'दिव्य श्रवण शक्ति ६६०

'श्रवणेन्द्रिय का अतिमानसीकरण ८९१

 

 

 

संकल्प [संकल्प-शक्ति] ४४,९३,१२९,

१५७, १७६, ४१०, ४२८, ५२५,

५७६,५७७,६३५,७४६,७४९

 वैयक्तिक, द्वारा साधना में करणीय बातें

६०-१, ८२, ८४, २२३, २३२,

३२० दे० 'प्रयत्न' भी

की भगवान् पर एकाग्रता दे० 'एकाग्रता'

हमारे, का नूतन जन्म ९३

और ज्ञान दे० 'ज्ञान'

 

'सर्वारम्भ परित्याग २४४,६८७

यज्ञ का पुरोहित, तपस् शक्ति, श्रद्धा है

 २९१-२

भागवत और वैयक्तिक २९२

'इच्छा-शक्ति और कामना दे० 'कामना'

की पूर्णता ६७९

कामना से रंगी ६७९

आत्मा की ६८६-७

का स्वरूप अहं में ६८७

में समता की भावात्मक पद्धति का कार्य

७३२-३

के अनेक रूप और बाह्य स्पर्शों के उत्तर

में उसकी नानाविध प्रतिक्रियाएं

७३२-३

अतिमन में और मन में ८०७-८

(दे० 'इच्छा-शक्ति' भी)

संत १५३,१६४, १७४,८४९

संदेह २४७,४६५,७९१

की उपयोगिता ५६५,७८८,७९५

संन्यास २७३

संन्यासी २२,२५, २७

संबंध

आत्मा का अपनी रची हुई सत्ताओं के

साथ ११७,४४२

मानवीय १३२

अन्यों के साथ ३९९,४२०, ५०७अ

(दे० 'भगवान्' भी)

संयम २२०,५०१ टि०,  ८७८

संवेदन (ऐन्द्रिय) ५०१,५०२,७३०

भगवान् का ८८६

का विज्ञानमय रूपांतर ८९१-२

जो आज बेसुरा, कर्कश... ८९२

संवेदनात्मक मन ४२७,६६६

की चीजें हैं भय, क्रोध ६५९

का अपना विशेष धर्म ६५९अ

ग्रहणशील, की शुद्धि ६७१-२

सच्चिदानन्द १६ टि० ४१३,४१६,४१८,

१००४


 

४४३, ६३१अ

का साक्षात्कार दे० वि० ३०

के त्रैत की अभीप्सा ३२२

'एकता और निर्व्यक्तिकता से युक्त तथा

गुणों की क्रीड़ा से मुक्त एक सत्ता यहां

अवश्य ही विद्यमान है ३८८-९

के साक्षात्कार में मन की कठिनाई दे०

वि० ३१

की स्थितिशील एकता भी सुदीर्घ कठिन

प्रयास से साधित ४७३

में निवास ८४१

(दे० वि ०३०,३१,३२, ३३,३४)

सत् ४३,३८६,३९२,४०४

सत्ता ३९९,४००

हमारि, में संघर्ष का कारण ३९३

और अभिव्यक्ति का द्वैत ४४२

निम्न त्रिविध, की धारण-शक्ति की

सीमा ४८०

के दो ध्रुव : ब्रह्म और शक्ति, आत्मा

और प्रकृति ६१७

सत्य १५६, १५८, १५९, १८०, २०१,

३२८, ४८३, ४८९, ५०१, ७२०,

७९२

को जीवन में उतारना ७०,३८८

सर्वसमन्वयात्मक ११७

हमारी सत्ता का २४५, २७८, २९८,

३३७, ३४०, ३८०, ३८८, ३९२,

 ४१४, ४१६, ४४२, ४४९, ६१९,

 ६३१,६८९,७६९

नित्य सनातन २६१अ

वास्तविक, में जीवनयापन तबतक नहीं

३७९

अपनी सत्ता का, न पा सकने का कारण

३९५

जिससे अन्य सब सत्य उद्धृत होते हैं

४४१

मध्यवर्ती ४४७

 

सत्ता के बाह्य, के परे भी कुछ सत्य

विद्यमान हैं ४६५

उच्च गोलार्द्ध के, हमारे अंदर मोटे

आवरणों से छनते हुए आते हैं

४८०अ

'सत्यम् ४९३ टि०

एकता एवं अद्वैत का ४१६

शिव, सुन्दर ५१८

उच्चतर, का ग्रहण तभी ५२४

के पहलू अनंत हैं ६८२

वस्तुओं का, उनकी गहराइयों में...

 ७१२

का कुछ अंश हमारे सभी विचारों,

 संकल्पों, भावों, ऐन्द्रिय बोधों में...

८४५

मानसिक ८४६

को विज्ञानमय जीव उसके ठीक क्रम में

 देखता है ८५८

सत्य-चेतन मन ४२७

सत्य युग [स्वर्ण युग] २९अ, २०८

का चिह्न २०८अ

(देo 'स्वर्ग-राज्य' भी)

सत्त्व दे० 'गुण'; वि० १५,६३

सदहृदयता की आवश्यकता २३१

सभ्यता का वास्तविक मूल १९६

समता १०२, १०७, १२९, १६३, १८१,

१८२,२३२,३१६

और एकता का मिलन गीता के कर्मयोग

की प्रणाली ९७-८

और दूसरों का ज्ञान १८

सभी वस्तुओं एवं घटनाओं के प्रति

१०३, १०५, १७९,२२६,२२७

पूर्ण, निष्काम कर्म की कसौटी १०५

न होना इस बात का प्रमाण [चिह्न]

कि... १०५,२२६

'सम आत्मभाव  से मिलती-जुलती

अस्थाएं १०५

 १००५


 

का अभ्यास १०६

प्राण-प्रकृति के परिवर्तन की एक शर्त

१७९-८०

कामना के नाश का चिह्न १७९

आदि मंत्र ज्ञानमार्ग में भी ३१५

आधार, न कि उदासीनता ३५७; 'सम

हृदय, न कि निष्क्रिय समता ७५१

अभावात्मक और भावात्मक ३५७

सिद्धि का प्रथम आवश्यक तत्त्व ७०५,

७११

चैत्य प्राण की पूर्णता की तीसरी शर्त

७४९-५०

(दे० वि० १४,६५,६६,६७ भी)

समन्वय (योग प्रणालियों का) ६१७

का आधार ४अ, ३१

संतोषप्रद तभी ६-७

पाने के लिये हमें... ८

(दे० वि ०८ भी)

समर्पण [आत्म-समर्पण] २०७, ७८३,

८२३

संपन्न तभी.. ६०, १६७

कठिन क्यों ६४

सारी प्रकृति को करना होगा ७३

पूर्ण, सरल नहीं ७३

को पूर्ण बनाने के लिये ८६अ;  सिद्ध

करने के सोपान २२३

साधन, रूपांतर का ९१,९६

अपनी सचेतन इच्छा के, से सच्चा

स्वातंत्र्य ९९अ

रहस्य, कामना रहित कर्मों का १०६

पूर्णरूप से स्वीकार्य यज्ञ में जैसा,

अपेक्षित ११२

अनिवार्य क्यों १३५

पूर्ण होने का चिह्न १३५

तबतक साधित नहीं... १४०

और नियंत्रण से पथ-प्रदर्शन की प्राप्ति

१४०

 

कर्मों का, प्रेममय १६७

अपेक्षित गुणों [शर्तो] में सेंएक १८६,

१९४,२२२,२४४,२४५

कर्मयोग का साधन तथा साध्य २१५,

 २८०

कर्मों के फल की समस्त कामना का

२२३-४

दिव्य संकल्प के प्रति ही नहीं, दिव्य प्रज्ञा

 के प्रति भी २३०

सक्रिय आत्मदान के साथ कर्मों का,

२३३

मन और हृदय का भाव है २४९

भक्त का ५८२

पूर्णयोग का मूल सूत्र ६१९,६९०

का आशय ७८२

और आध्यात्मिक मांग ७८२

(दे० 'अहं', 'कर्म', 'प्रयत्न'; वि० ८,

१३ भी)

समस्वरता

अवचेतन जीवन की, आत्मा की और

मानव की ८४७-८

समाज [समष्टि, समूह]

और आध्यात्मिकता २३, २७-८

प्रत्येक, भगवान् ही है ३७९

और व्यक्ति दे० 'व्यक्ति'

की प्रवृत्ति २००, इस पर विचारक की

विजय वर्तमान में २००, भविष्य में

 २०१

समाजवाद का खतरा १९८

समाधि ३२६,३४१,३६८,४६२,५४७,

५४९,५८३

और राजयोग ३६-७, ३२१,४०१-२

की वह अवस्था जहां से सबके लिये

वापस आना संभव नहीं ४०१

का मतलब ३२३-४, ४४४

और जागरित अवस्था के क्षण ४०२-३

'जाग्रत् समाधि ४०३

 १००६


 

(दे० 'शरीर'; वि ०४४ भी)

सम्मोहन-वशीकरण ६६१,६६८

सहस्रदल कमल [ऊर्ध्व कमल] ५४६,

 ८२२

जब खुलता है ६०३-४

सांख्य ३८०,४०८,६४३,६९५

और योग ३८८

और वेदांत ४०९

(दे० 'पुरुष और प्रकृति' भी)

सांत १२२

और अनंत ४९१,४९९

साक्षी आत्मा [पुरुष] १७९अ, २५७,

२९१,२९४,६४१,६४३

और कार्य वाहिका प्रकृति १२४-५,

२६१,६४४

की स्थिति सोपान मात्र २५४

साक्षीभाव [द्रष्टाभाव] २३२, ३४८,

३५०,८७२

में प्रकृति से ऊर्ध्व में आसीन रहती है

आत्मा १०२, २१७,२४१,४३७

में, गुणों की क्रिया से पीछे हटकर, स्थित

होना होगा २१९, २३२, २४०,

३५५,३५८,७२५

साधक ४५ टि०

आदर्श ५८

क्रमश: ही आगे ले जाया जाता है ७१

से जिस चीज की मांग की जाती है

 ११३, २१८-९, ७१३-४ दे०

 'प्रयत्न', 'संकल्प' भी

का जैसे ही गुह्य नेत्र खुलता है...

१२९अ

पूर्णयोग के, के लिये कोई भी एक

अनुभव या पथ ऐकान्तिक सत्य नहीं

१३१

का जीवनेच्छा की शक्तियों के साथ

संधर्ष तथा युद्ध १७३-४

के लिये एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु ३३३

 

के लिये सर्वाधिक अनिवार्य चीज

३४४-५

पूर्णयोग के, के लिये मन-प्राण-शरीर से

अलग होने तथा एक सत् ही सब

जगह ओतप्रोत है -दोनों क्रियाओं

का एक साथ अभ्यास... ३७४

पूर्णयोग के, की कठिनाई अधिक-तीव्रत:

 व्यक्तिप्रधान योग से अधिक बड़ी

७२९

तब स्वयं विचार, संकल्प, कर्म, वेदन

नहीं करता, बल्कि ये उसके आधार

में घटित होते हैं ७८५

का पहला कर्तव्य समता की क्रिया में दे०

वि० ६७

की सामर्थ्य ७९६ दे० 'शक्ति' हमारी भी

साधन चार दे० वि० ६

साधना [योग साधना]  ४५ टि०

में बदल-बदल कर आनेवाली अवस्थाएं

३६७, ७८०

के तीन मूल तत्त्व : शुद्धि, एकाग्रता,

मुक्तता ५३८

-काल के दिन और रात ६०४; के

अंधकारमय काल ७९१

की कठिनाई को कम... दे० 'रूपांतर'

और उन्नति--बुद्धि, संकल्प आदि की

हितकर है, पर यह एक चक्कर में

 घूमते रहना है ६२४

साधु २३७

सामाजिक कर्तव्य २१२ अ

सामाजिक जीवन दे० वि० ३

सामाजिक नियम दे० वि० १२, १३

साम्राज्य ३७, ६३, १७८

सायंस और योग ५,४६७

सार्वभौम हितकामना १५४

साहस

अपेक्षित गुण ४६, ६४, २४१, ३२१,

१००७


 

सिद्धि दे० 'आध्यात्मिक सिद्धि'; वि० ५८,

 ६४,६५

सिद्धियां ५०३,५५०

शारीरिक ७०८,७४६

सुख (सुख-संतोष) १०४, १७०,४१९,

 ६५२,७२३,७२६

जिसे जीवात्मा खोज रही है ६३

प्राणिक १५८,२२४

एकमात्र सच्चा ६००

-दुःख अविच्छेद्य हों, ऐसा नहीं है ६५३

'सुखम् ७३६

-भोग का वर्जन ३३५,३३६

(दे० 'आनन्द' भी)

सूक्ष्म शरीर [मनोमय कोष] १५,४६१,

 ४७५ ४७७अ, ७०८,८२२

सूर्य ४८०,४८८,४९२, ६०४,६८३

सृष्टि ८६५

यज्ञ और, १०८

-रचना भ्रम नहीं १३०

का गुप्त तात्पर्य १३२

भागवत प्रेम का कार्य १६६

की रचना, उसका धारण-पोषण और

संहार भगवान्... ७१३

की व्यवस्था [विधान]  ८०२

(दे० 'जगत्', 'भागवत प्रेम' भी)

सौंदर्य १५८, १७०, ३०८, ५२१, ५२४,

५९९,६००,६०१

सौंदर्यग्राही मन ६७८,६७९

स्टोइक २४

स्तर [भूमिका, लोक] २५७

आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक, पर

ब्रह्म-माया का द्वैत १२३,१२५

महत्तर, का प्रभाव यहां १८४,८९९

'सत्य-भूमिका ३९४

अन्य भी हैं ४६६,८९९

-परंपरा और मनुष्य की सामान्य सत्ता

४७२

 

 विज्ञानमय ४९१-२, ४९९, ५०३ दे०

 'अतिमानसिक लोक' भी

'आनन्द भूमिका-ब्रह्म लोक, वैकुण्ठ,

गोलोक नाम से वर्णित ५१४

(दे० 'प्राण', 'प्राण लोक', 'मन' वि०

३७ भी)

स्नायविक मन (सत्ता) ६५१

का नियम : कर्म एवं उपभोग, किंतु

चुनाव... २१२

स्मरण

अखष्ठ ११३

अपने सच्चे स्वरूप का ३४६

स्मृति [स्मरण-शक्ति] ३१४,४९०

भविष्य की ३१४,५३२, ८८१,९२०

सूक्ष्म आकाश में विद्यमान प्रतिमाओं की

५३२

चित्त की ६५७

प्राणिक एवं शारीरिक ६५७

भावमय मन की ६५८

तर्कबुद्धि का एक साधन ८७४

प्रसुप्त ८७४

स्व-ज्ञान

और आत्मा का शान ३०५,३०६

'आत्मानं विद्धि ३०६

स्वतंत्रता [स्वातंध्य] ४८अ, ९९अ, १०२,

२०४,४४६,४७१

साधन, स्वामित्व पाने के लिये ११,६४,

६४०

योगाभ्यास में ५५-७

गीता निर्दिष्ट १०५

शर्त, पूर्णता की १९७

शर्त, विकास की २०६

अपनी सत्ता और कर्मों में, पानी हों

तो... २३४

दिव्य कर्म की, और निष्क्रिय साक्षी की

४२०-१

पुरुष की और स्वतंत्र अस्तित्व का

१००८


 

अह्म्यय सिद्धांत ४४९-५०

अपनी सापेक्ष, का उपयोग ७७३-४

(दे० 'मुक्ति', आत्मा', 'आध्यात्मिक

स्वातंत्र्य' भी )

स्वभाव ८७९

द्धारा निर्धारित कर्म २७७

स्वराज्य ३७

स्वराट् ४३४,४३६,४५७,६४६

और सम्राट् ६५०,७१४-५

स्वर्ग २७२,४५९, ४८०,५१६,५७३,

५९७

चैत्य या मानसिक ४७१

स्वर्ग राज्य ५०,६२३

(दे० 'सत्य-युग' भी)

स्वार्थ [स्वार्थपरता ] ३२९,५६३

-त्याग ३३६

 

स्व-निरीक्षण ३०५

 

 

हठयोग ६१६

का आधार ५

और प्राण व शरीर का संतुलन ३३-४,

५३९-४०

की मुख्य क्रियाएं : आसन और

प्राणायाम ३४,३६

की दुर्बलता ३४-५

और राजयोग ३६,३७

का मूल सिद्धांत ६१५

(दे० वि०४५)

हवि दे० 'अर्ध्य'

हृदय दे० 'भावमय मन'

हृदय कमल

जब खुलता है ६०३

१००९










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