Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय २१
अतिमानस के क्रमिक सोपान
अन्तर्ज्ञानात्मक मन सत्य का एक ऐसा अव्यवहित रूपान्तर है जो उसे ज्योतिर्मय अतिमानसिक तत्त्व के द्वारा अर्द्ध-रूपान्तरित मानसिक परिभाषाओं के रूप में परिणत कर देता है, वह मन के ऊपर अतिचेतन आत्मा में कार्य करनेवाले किसी अनन्त आत्मज्ञान का एक परिवर्तित रूप है । जब हम उस आत्मा से सचेतन होते हैं तो हमें पता चलता है कि वह एक ऐसी महत्तर सत्ता है जो एक ही साथ हमारे ऊपर, अन्दर और चारों ओर विद्यमान है तथा हमारी वर्तमान सत्ता, हमारा मानसिक, प्राणिक और भौतिक व्यक्तित्व एवं प्रकृति जिसका एक अपूर्ण अंश या एक आंशिक एवं गौण रचना या फिर एक निम्न एवं अपर्याप्त प्रतीक है, और जैसे-जैसे अन्तर्ज्ञानात्मक मन हमारे अन्दर विकसित होता है, जैसे-जैसे हमारी सम्पूर्ण सत्ता एक अन्तर्ज्ञानात्मक तत्त्व के सांचे में अधिकाधिक ढलती जाती है, वैसे-वैसे हम अपने करणों का इस महत्तर आत्मा एवं अध्यात्म-सत्ता की प्रकृति में एक प्रकार का अर्द्ध-रूपान्तर अनुभव करते हैं । हमारे समस्त विचार, संकल्प, आवेग, भाव, यहांतक कि अन्त में हमारे अधिक बाह्य प्राणिक एवं शारीरिक सम्वेदन भी आत्मा से आनेवाले अधिकाधिक प्रत्यक्ष स्पन्दन बनते जाते हैं और उनकी प्रकृति भी अन्य प्रकार की, अधिकाधिक शुद्ध, अक्षुब्ध, शक्तिशाली एवं ज्योतिर्मय होती जाती है । यह रूपान्तर का केवल एक पहलू है : दूसरा पहलू यह है कि जो कोई भी चीज अभीतक निम्नतर सत्ता से सम्बन्ध रखती है, जो भी चीज हमें अभीतक बाहर से आती हुई लगती है या हमारे पुराने निम्नतर व्यक्तित्व की क्रिया का बचा हुआ अंश प्रतीत होती है, वह रूपान्तर का दबाव अनुभव करती है और उसकी प्रवृत्ति उत्तरोत्तर अपने-आपको नये तत्त्व और नयी प्रकृति के अनुसार संशोधित एवं रूपान्तरित करने की ओर होती है । उच्चतर सत्ता नीचे उतर आती है और एक बहुत बड़े अंश में निम्नतर सत्ता का स्थान ले लेती है, पर साथ ही निम्नतर सत्ता भी परिवर्तित होती है, वह अपने-आपको उच्चतर सत्ता की क्रिया के उपादान में रूपान्तरित करती है तथा उसके सारतत्त्व का अङ्ग बन जाती है ।
मन के ऊपर विद्यमान महत्तर आत्मा सर्वप्रथम एक उपस्थिति, ज्योति एवं शक्ति के रूप में, एक उद्गम एवं अनन्त तत्त्व में प्रतीत होती है, परन्तु उसका जितना भी अंश हम जान सकते हैं वह सब पहले-पहल सत्ता, चेतना, चित्-शक्ति और आनन्द का एक अनन्त अखण्ड स्वरूप ही होता है । शेष सब कुछ भी इसीसे आता है, पर वह हमारी मनोमय भूमिका के ऊपर, अन्तर्ज्ञानात्मक मन तथा उसके स्तर को छोड़कर, और कहीं भी विचार, संकल्प या अनुभूति का कोई निश्चित
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आकार नहीं ग्रहण करता । या फिर हम यह अनुभव करते हैं तथा नाना रूपों में हमें यह प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि एक महान् एवं अनन्त पुरुष है जो उस सत्ता एवं उपस्थिति का एक नित्यत: -जीवन्त सत्य है, एक महान् एवं अनन्त ज्ञान है जो उस ज्योति एवं चेतना की एक गर्भित शक्यता है, एक महान् एवं अनन्त संकल्प-शक्ति है जो उस चिच्छक्ति की एक गर्भित शक्यता है, एक महान् एवं अनन्त प्रेम है जो उस आनन्द की एक गर्भित शक्यता है । परन्तु ये सब शक्यताएं अपनी मूल उपस्थिति के प्रबल सत्य और प्रभाव से पृथक्, हमें किसी निश्चित रूप में वहींतक ज्ञात होती हैं जहांतक वे हमारी अन्तर्ज्ञानात्मक मनोमय सत्ता के प्रति उसके स्तरपर तथा उसकी सीमाओं के भीतर किसी अनूदित रूप में प्रकट होती हैं । तथापि जैसे-जैसे हम प्रगति करते हैं या जैसे-जैसे हम उस आत्मा या पुरुष के साथ एक अधिक ज्योतिर्मय एवं क्रियाशील एकत्व में विकसित होते हैं वैसे-वैसे ज्ञान, संकल्प और आध्यात्मिक वेदन की एक महत्तर क्रिया मन के ऊपर प्रकट होती है और अपने-आपको व्यवस्थित रूप देती प्रतीत होती है और इसे हम सच्चे अतिमानस के रूप में तथा अनन्त ज्ञान, संकल्प और आनन्द की वास्तविक एवं स्वाभाविक क्रीड़ा के रूप में पहचानते हैं । तब अन्तर्ज्ञानात्मक मन एक ऐंसी गौण एवं निम्न क्रियाशक्ति का रूप धारण कर लेता है जो इस उच्चतर शक्ति की सेवा करती है, इसके सब आलोकों और आदेशों को स्वीकार करती और प्रत्युत्तर देती है, उन्हें निम्न करणों तक पहुंचाती है, और जब वे उसतक नहीं पहुंचते या उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिति उसे अनुभूत नहीं होती, तब वह बहुधा ही इस उच्चतर शक्ति की स्थान- पूर्ति करने, इसकी क्रिया का अनुकरण करने तथा यथासम्भव सुचारु रूप से अतिमानसिक प्रकृति के कार्यों को सम्पन्न करने का यत्न करती है । वास्तव में अतिमानस की तुलना में अन्तर्ज्ञानात्मक मन का वही स्थान है जो योग की एक अधिक प्रारम्भिक अवस्था में इसकी तुलना में साधारण बुद्धि का था तथा उसके साथ इसका सम्बन्ध भी वैसा ही है जैसा पहले इसके साथ साधारण बुद्धि का था ।
हमारी सत्ता के दो स्तरों पर होनेवाली यह दुहरी क्रिया प्रारम्भ में अन्तर्ज्ञानात्मक मन को एक गौण क्रिया के रूप में सुदृढ़ बनाती है और अज्ञान के अवशेषों या आक्रमणों या प्ररोहों को अधिक पूर्ण रूप से बहिष्कृत या रूपान्तरित करने में उसे सहायता पहुंचाती है । और उत्तरोत्तर वह स्वयं अन्तर्ज्ञानात्मक मन को--उसकी ज्ञानज्योति को-- भी प्रखर करती है और अन्त में उसे स्वयं अतिमानस की प्रतिमा में रूपान्तरित कर देती है, पर आरम्भ में साधारणतया विज्ञान की एक अधिक सीमित क्रिया में ही रूपान्तरित करती है । इस क्रिया में विज्ञान उस शक्ति का रूप धारण करता है जिसे हम ज्योतिर्मय अतिमानसिक या दिव्य बुद्धि कह सकते हैं । स्वयं अतिमानस भी आरम्भ में इस दिव्य बुद्धि के रूप में ही अपनी क्रिया को व्यक्त कर सकता है और फिर, जब वह मन को अपनी प्रतिमा में रूपान्तरित कर
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लेता है, वह अवतरित होकर सामान्य बुद्धि और तर्कशक्ति का स्थान ले लेता है । इस बीच कहीं अधिक महान् प्रकार की एक उच्चतर अतिमानसिक शक्ति अपने-आपको मन के ऊपर व्यक्त करती रही है जो हमारी सत्ता में दिव्य कर्म की सर्वोच्च बागडोर अपने हाथ में लेती है । दिव्य बुद्धि का स्वरूप अधिक सीमित होता है, कारण, यद्यपि उसपर मन की मुहर नहीं होती और यद्यपि वह साक्षात् सत्य और ज्ञान की एक क्रिया होती है, तथापि वह एक प्रतिनिधिभूत शक्ति है, उसके उद्देश्यों की शृंखला चाहे अधिक ज्योतिर्मय है फिर भी वे कुछ अंश में साधारण मानवीय संकल्पशक्ति और तर्कबुद्धि के उद्देश्यों के सदृश हैं । अतः इससे और भी अधिक महान् अतिमानसिक भूमिका में पहुंचने पर ही मनुष्य में ईश्वर की प्रत्यक्ष, पूर्ण-प्रकाशित और साक्षात् क्रिया प्रकट होती है । अन्तर्ज्ञानात्मक मन, दिव्य बुद्धि और महत्तर अतिमानस में ये भेद और फिर स्वयं इन स्तरों में भी अवान्तर भेद करने आवश्यक हैं, क्योंकि अन्त में ये बड़े काम में आते हैं । आरम्भ में मन अपने से परे के स्तर से आनेवाली सभी चीजों को बिना किसी भेद के पर्याप्त आध्यात्मिक प्रकाश के रूप में ग्रहण करता है और आरम्भिक अवस्थाओं तथा प्रथम आलोकों को भी अन्तिम वस्तु के रूप में स्वीकार कर लेता है, पर पीछे उसे पता चलता है कि यहीं रुक जाना एक आंशिक उपलब्धि में विश्राम करने के समान होगा और यह भी कि साधक को उच्च और विशाल बनते जाना होगा जबतक कि, कम-से- कम, एक विशाल और उच्च दिव्य मूर्ति का ढांचा कुछ हदतक पूर्णता न प्राप्त कर ले ।
मन से परे के स्तरों के भेदों का क्या अभिप्राय है यह समझना भी बुद्धि के लिये कठिन हैं : ऐंसी मानसिक परिभाषाएं हैं ही नहीं जिनमें इन्हें प्रकट किया जा सके अथवा यदि हैं भी तो वे उपयुक्त नहीं हैं और कुछ साक्षात्कार या कुछ निकटतम अनुभवों के बाद ही इन्हें समझा जा सकता है । इस समय तो कुछ संकेतभर देना ही उपयोगी हो सकता है । और सबसे पहले चिन्तनात्मक मन से कुछ सूत्र लेना पर्याप्त होगा; क्योंकि अतिमानसिक कार्य की कुछ-एक निकटतम कुंजियां वहां ही मिल सकती हैं । अन्तर्ज्ञानात्मक मन का चिन्तन सम्पूर्णतया चार शक्तियों के द्वारा उद्भूत होता है जो सत्य का रूप गढ़ती हैं, वें शक्तियां ये हैं--सत्य के विचार का संकेत देनेवाला अन्तर्ज्ञान, विवेक करनेवाला अन्तर्ज्ञान, उसकी वाणी को तथा उसके महत्तर सार के कुछ अंश को लानेवाली अन्त: -प्रेरणा और उसके वास्तविक तत्त्व की साक्षात् मुखच्छवि तथा सम्पूर्ण देह को हमारी दृष्टि के प्रति मूर्तिमन्त करनेवाला दिव्य साक्षात्कार । ये शक्तियां सामान्य मनोमय बुद्धि की उन विशेष क्रियाओं से भिन्न हैं जो देखने में इन जैसी ही लगती हैं और जिन्हें हम अपनी आरम्भिक अनुभवहीन अवस्था में सहज ही अन्तर्ज्ञान समझने की भूल कर बैठते हैं । सकेतकारी अन्तर्ज्ञान आशु बुद्धि की बौद्धिक अन्तर्दृष्टि से अभिन्न
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नहीं है, न ही अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक और तर्कबुद्धि का द्रुत निर्णय एक ही चीज है; अन्तर्ज्ञानात्मक अनुप्रेरणा कल्पनाशील बुद्धि की अन्तःप्रेरित क्रिया से अभिन्न नहीं है और न शुद्ध-मानसिक सूक्ष्म बोध एवं अनुभव की प्रखर ज्योति तथा अन्तर्ज्ञानात्मक साक्षात्कार एक ही चीज हैं ।
शायद यह कहना ठीक होगा कि मनोमय बुद्धि की ये क्रियाएं उच्चतर गतियों या क्रियाओं के मानसिक रूप हैं, उन्हीं क्रियाओं को करने के लिये किये गये साधारण मन के प्रयत्न हैं अथवा उच्चतर प्रकृति की क्रियाओं के ऐसे उत्तम-से-उत्तम अनुकरण हैं जिन्हें बुद्धि हमारे सामने प्रस्तुत कर सकती है । सच्चे अन्तर्ज्ञान अपने ज्योतिर्मय सारतत्त्व में तथा अपनी क्रिया और ज्ञानप्रणाली में इन प्रभावशाली पर अपर्याप्त अनुकरणों से भिन्न प्रकार के होते हैं । बुद्धि की तीव्र क्रियाएं सत्य के मानसिक आकारों और प्रतिरूपों के प्रति आधारभूत मानसिक अज्ञान के जागरणों पर निर्भर करती हैं । वे आकार एवं प्रतिरूप अपने क्षेत्र में तथा अपने प्रयोजन के लिये सर्वथा सत्य हो सकते हैं, पर वे आवश्यक रूप से तथा अपने मूल स्वभाव से ही विश्वसनीय हों ऐसी बात नहीं । बुद्धि की तीव्र क्रियाएं अपने प्राकट्य के लिये मानसिक और ऐन्द्रिय बोधों के द्वारा प्राप्त संकेतों पर या अतीत मानसिक ज्ञान की सच्चित सामग्री पर निर्भर करती हैं । वे सत्य की खोज एक बाह्य वस्तु के रूप में करती हैं, जिसे प्राप्त करना, देखना तथा अर्जित पदार्थ के रूप में सज्जित करना होता है और जब वह प्राप्त हो जाता है तो वे उसके तलों, निर्देशों या पहलुओं की छानबीन करती हैं । इस छानबीन से सत्य के विषय में एक सर्वथा पूर्ण एवं पर्याप्त विचार कभी नहीं प्राप्त हो सकता । एक विशेष समय में वे कितनी ही निश्चयात्मक क्यों न प्रतीत हों, किसी भी क्षण उन्हें अतिक्रम करना और त्यागना पड़ सकता है और वे नूतन ज्ञन के साथ असंगत प्रतीत हो सकती हैं ।
इसके विपरीत, बोधिमूलक ज्ञान (अन्तर्ज्ञान) अपने कार्यक्षेत्र या प्रयोग में कितना ही मर्यादित क्यों न हो, फिर भी अपने उस क्षेत्र के भीतर वह एक प्रत्यक्ष, स्थायी और, विशेषकर, स्वयंसत् निश्चितता के कारण असन्दिग्ध होता है । वह मन और इन्द्रिय द्वारा प्रदत्त तथ्य-सामग्री को एक आरम्भबिन्दू के रूप में या वस्तुत: एक ऐसी वस्तु के रूप में ग्रहण कर सकता है जिसके वास्तविक अर्थ को आलोकित और अनावृत करना है अथवा भूतकाल के विचार और ज्ञान की परम्परा को प्रदीप्त करके उनसे नये अर्थ और परिणाम निकाल सकता है, पर वह अपने सिवाय और किसी पर भी निर्भर नहीं करता और, पूर्वसंकेत या तथ्यसामग्री से स्वतन्त्र रहते हुए अपने ही दीप्तिक्षेत्र में से उछलकर प्रकट हो सकता है, और इस प्रकार की क्रिया उत्तरोत्तर अधिक सामान्य होती जाती है तथा ज्ञान की नयी गहराइयों और नयी श्रेणियों को प्रकट करने के लिये दूसरे प्रकार की ज्ञानक्रिया के साथ अपनेको सच्चा कर देती है । दोनों अवस्थाओं मे उसके अन्दर स्वयम्भू सत्य
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का कुछ अंश एवं उद्गम की निरपेक्षता का बोध सदा ही विद्यमान होता है जो यह सूचित करता है कि उसका उद्भव आत्मा के तादात्म्यमूलक ज्ञान से हुआ है । वह एक ऐसे ज्ञान का आविर्भाव होता है जो गुप्त रहता हुआ भी हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान होता है : वह कोई बाहर से प्राप्त ज्ञान नहीं, बल्कि एक ऐसा ज्ञान होता है जो वहां सदा ही विद्यमान तथा प्रकट हो सकने के योग्य था । वह सत्य को अन्दर से देखता है और उस अन्तर्दृष्टि के द्वारा उसके बाह्य पक्षों को आलोकित करता है और, यदि हम अपनी बोधिमय सत्ता में जाग्रत् रहें तो, जिस भी नये सत्य को अभी प्रकट होना होता है उसके साथ वह अपनेको तुरन्त समस्वर भी कर लेता है । उच्चतर एवं वास्तविक अतिमानसिक स्तरों में ये लक्षण अधिक स्पष्ट और तीव्र हो जाते हैं : सम्भव है कि अन्तर्ज्ञानात्मक मन में इनका शुद्ध और पूर्ण स्वरूप सदा पहचान में न आ सके, क्योंकि वहां इनमें मन का उपादान और उसके विजातीय तत्त्व मिश्रित हो जाते हैं, किन्तु दिव्य मनीषा और महत्तर अतिमानसिक क्रिया में ये मुक्त और निरपेक्ष रूप धारण कर लेते हैं ।
मन के स्तर पर कार्य करता हुआ संकेतकारी अन्तर्ज्ञान सत्य के प्रत्यक्ष और प्रकाशप्रद आन्तरिक विचार का संकेत दे देता है । यह विचार सत्य का वास्तविक प्रतिरूप एवं संकेत होता है, अभी यह उसका पूर्णत: उपस्थित एवं समग्र प्रत्यक्ष रूप नहीं होता, वरञच उसका स्वरूप किसी सत्य की उज्ज्वल स्मृति का-सा होता है, यह आत्मा के ज्ञान के किसी रहस्य का एक स्मरणमात्र होता है । यह एक प्रतिनिधि होता है, पर होता है जीवन्त प्रतिनिधि, न कि विचारात्मक प्रतीक, एक प्रतिबिम्ब होता है, पर ऐसा प्रतिबिम्ब जो सत्य के वास्तविक सार के किसी अंश से प्रदीप्त होता है । अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक दूसरे नम्बर की क्रिया है जो सत्य के इस विचार को अन्य विचारों के साथ इसके सम्बन्ध की दृष्टि से यथास्थान स्थापित कर देती है । और जबतक मन में हस्तक्षेप करने तथा विजातीय तत्त्वों को बढ़ाने की आदत बनी रहती है तबतक वह मानसिक दर्शन को उच्चतर दर्शन से पृथक् करने के लिये तथा निम्नतर मानसिक उपादान को, जो अपने मिश्रण से शुद्ध सत्य-तत्त्व को अस्तव्यस्त कर देता है, विवेकपूर्वक अलग करने के लिये भी कार्य करता है और अज्ञान तथा ज्ञान, अनृत एवं भ्रान्ति की .संयुक्त गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करता है । जैसे अन्तर्ज्ञान का स्वरूप स्मृति का, स्वयम्भू सत्य के ज्योतिर्मय स्मरण का होता है, वैसे ही अन्तःप्रेरणा का स्वरूप सत्य- श्रवण का होता है : वह सत्य की साक्षात्, वाणी का प्रत्यक्ष ग्रहणरूप होती है, वह सत्य को पूर्णतया मूर्त करनेवाले शब्द को तत्क्षण ही ले आती है और उसके विचार की ज्योति से अधिक कुछ को धारण किये होती है; उसकी आन्तरिक परमार्थ-सत्ता की कोई धारा एवं उसके सारतत्त्व की एक विशद उपलब्धिकारी क्रिया पकड़ में आ जाती है । सत्यदर्शन का स्वरूप प्रत्यक्ष दृष्टि का होता है, और वह वस्तु के निज स्वरूप को, जिसका कि विचार एक
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प्रतीक होता है, हमारी वर्तमान अन्तर्दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष करा देता है । वह सत्य की मूल आत्मा, देह और वास्तविक सत्ता को प्रकट कर देता है और उसे हमारी चेतना एवं अनुभूति का अंग बना देता है ।
यदि यह मान लिया जाये कि अतिमानसिक प्रकृति के विकास की वास्तविक प्रक्रिया एक नियमित क्रमपरम्परा का अनुसरण करती है तो यह देखा जा सकता है कि उस प्रक्रिया में दो निम्नतर शक्तियां पहले प्रकट होती हैं, यद्यपि वे दो उच्चतर शक्तियों की समस्त क्रिया से अनिवार्यरूपेण शून्य ही नहीं होतीं, और जैसे ही वे वृद्धिगत होकर एक सामान्य क्रिया का रूप धारण कर लेती हैं, वे एक प्रकार के निम्न बोधिमय विज्ञान (अन्तर्ज्ञान) का गठन करती हैं । दोनों शक्तियों का परस्पर-संयोग इसकी पूर्णता के लिये आवश्यक है । यदि अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक अपने ही सहारे कार्य करे तो वह एक प्रकार की आलोचक ज्योति का सृजन करता है जो बुद्धि के विचारों और बोधों पर क्रिया करती है और उनपर उनका अपना ही प्रकाश इस प्रकार फेंकती है कि मन उनकी भ्रान्ति से उनके सत्य को पृथक् कर सकता है । अन्त में वह बौद्धिक निर्णय-शक्ति के स्थान पर प्रकाशमय अन्तर्ज्ञानात्मक निर्णय-शक्ति का, एक प्रकार के आलोचक विज्ञान का सृजन करता है : पर सम्भव है कि उसमें अभिनव प्रकाशप्रद ज्ञान की कमी हो अथवा वह सत्य का केवल उतना-सा विस्तार साधित करे जितना भ्रान्ति के पृथक् करने के स्वाभाविक परिणाम के रूप में साधित होता है । दूसरी ओर, यदि संकेतकारी अन्तर्ज्ञान इस विवेक के बिना अकेले, अपने ही सहारे कार्य करे तो निःसन्देह नये सत्य और नयी ज्योतियां निरन्तर ही प्राप्त होती हैं, पर मन के विजातीय तत्त्व उन्हें सहज ही घेरकर अस्तव्यस्त कर देते हैं और उनकी शृंखला तथा उनका सम्बन्ध या एक-दूसरे में से उनका सुसमञ्जस विकास आच्छत्र हो जाते हैं एवं पारस्परिक हस्तक्षेप के कारण छिन्न-भिन्न भी हो जाते हैं । इस प्रकार सक्रिय बोधिमूलक अनुभव की एक सतत कार्यरत शक्ति उत्पन्न हो जाती है, पर बोधिमय विज्ञान का कोई पूर्ण एवं शृंखलाबद्ध मन अभी गठित नहीं हुआ होता । ये दोनों निम्नतर शक्तियां (अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक और संकेतकारी अन्तर्ज्ञान) मिलकर एक-दूसरे की असहाय क्रिया की त्रुटियों को पूरा कर देती हैं और अन्तर्ज्ञानात्मक अनुभव एवं विवेक से युक्त एक मन का गठन करती हैं जो स्खलनशील मनोमय बुद्धि का कार्य तथा उससे भी अधिक कुछ कर सकता है और उसे एक अधिक प्रत्यक्ष एवं अस्खलनशील विचारणा की महत्तर ज्योति, निश्चितता और शक्ति के साथ सम्पन्न कर सकता है ।
इसी प्रकार दो उच्चतर शक्तियां उच्चतर बोधिमूलक विज्ञान का निर्माण करती हैं । मन में पृथक् शक्तियों के रूप में कार्य करती हुई वे भी सहचारिणी क्रियाओं के बिना अपने-आप में पर्याप्त नहीं होतीं । निःसन्देह प्रत्यक्ष दृष्टि वस्तु के निज स्वरूप की वास्तविकता एवं विभेदक लक्षणों को हमारे सामने प्रकट कर सकती है
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और चेतन पुरुष के अनुभव में एक महान् शक्ति की कुछ वृद्धि भी कर सकती है, पर यह सम्भव है कि इस प्रत्यक्ष दृष्टि में सत्य के शब्द-शरीर का, उसे प्रकट करनेवाले विचार का तथा उसके सम्बन्धों और परिणामों की अविच्छिन्न शृंखला की प्राप्ति का अभाव हो और यह अन्तरात्मा के अन्दर ही एक प्राप्ति (निधि) के रूप में रहे तथा करणोंतक न पहुंचे एवं उनके द्वारा उपलब्ध वस्तु का रूप न ले । हो सकता है कि वहां सत्य की उपस्थिति तो हो पर उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति न हो । अन्तःप्रेरणा से हमें सत्य की वाणी प्राप्त हो सकती है तथा उसकी क्रियाशक्ति एवं गति का स्पन्दन भी, पर यह एक पूर्ण वस्तु नहीं होती और न इसका प्रभाव ही अचुक होता है जबतक कि उन सब चीजों का पूर्ण साक्षात्कार न हो जाये जिन्हें यह अपने अन्दर धारण किये रहती है तथा प्रकाशपूर्ण ढंग से संकेतित करती है और जबतक इसके सम्बन्धो में शृंखला स्थापित न हो जाये । अन्त:-प्रेरित अन्तर्ज्ञानात्मक मन विद्युत्प्रभाओं से युक्त मन है । ये विद्युत्प्रभाएं अनेक अन्धकारमय वस्तुओं को आलोकित कर देती हैं, पर इनकी ज्योति को निष्कम्प प्रभावों की एक ऐसी धारा के रूप में प्रवाहित करना तथा एक ऐसे स्थिर स्रोत का रूप देना आवश्यक है जो व्यवस्थित एवं विशद ज्ञान के लिये एक अविच्छिन्न शक्ति का काम करे । इन दो अनन्य शक्तियों-समेत अकेला उच्चतर विज्ञान एक ऐसा अध्यात्म-ज्योतिर्मय मन होगा जो अधिकतर अपने पृथक् क्षेत्र में ही निवास करेगा, वह शायद अदृश्य रूप में बाह्य जगत् पर भी अपना प्रभाव उत्पन्न करेगा, पर अपनी अधिक सामान्य क्रियाओं के साथ अधिक निकट एवं साधारण आदान-प्रदान करने के लिये उसे जिस सम्बन्ध-सूत्र की आवश्यकता है वह उसके पास नहीं होगा । यह सम्बन्ध-सूत्र निम्न-विचारणात्मक क्रिया के द्वारा स्थापित होगा । इन चारों शक्तियों की संयुक्त या फिर एकीभूत एवं एकीकृत क्रिया ही पूर्ण, सुसन्नद्ध एवं सुसज्जित बोधिमूलक विज्ञान का गठन करती है ।
चेतना का नियमित विकास, चारों शक्तियों को कुछ मात्रा में एक साथ अभिव्यक्त करता हुआ भी, पहले पर्याप्त व्यापक प्रमाण में एक संकेतदायी एवं आलोचक अन्तर्ज्ञानात्मक मन के निम्न स्तर का ही निर्माण करेगा और फिर उसके ऊपर अन्तःप्रेरित तथा प्रत्यक्षदर्शक अन्तर्ज्ञानात्मक मन का विकास करेगा । उसके बाद वह दोनों निम्नतर शक्तियों को अन्तःप्रेरणा की शक्ति की भूमिका और क्षेत्र में उठा ले जायेगा और उन सबसे ऐसी एक ही सामञ्जस्ययुक्त शक्ति के रूप में कार्य करायेगा जो एक ही साथ तीनों का संयुक्त कार्य करेगी अथवा एक उच्चतर एवं प्रखर शक्ति की भूमिका में एक ही अविभेद्य ज्योति के रूप में तीनों का एकीभूत कार्य सम्पन्न करेगी । अन्त में वह डस प्रकार की एक और क्रिया करेगा जिसके द्वारा वह इन दोनों शक्तियों को बोधिमय विज्ञान की सत्य-प्रकाशक शक्ति में उन्नीत करके उसके साथ एक कर देगा । सच पूछो तो मानव मन में विकास की स्पष्ट
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प्रक्रिया सम्भवतः सदा ही न्यूनाधिक विक्षुब्ध एवं अस्तव्यस्त रहेगी तथा उसका क्रम अनियमित हो जायेगा, उसे पुन: -पुन: पतन का शिकार होना पड़ेगा, प्रगति के पग अपूर्ण ही रहेंगे और व्यक्ति को पुन: -पुन: उन क्रियाओं की ओर लौटना होगा जो मानसिक अर्द्ध-ज्ञान की वर्तमान क्रियाओं के सतत मिश्रण एवं हस्तक्षेप तथा मानसिक अज्ञान के तत्त्व की बाधा के कारण सम्पन्न नहीं हो पायीं या अपूर्ण रूप से ही सम्पन्न हो पायी हैं । तथापि अन्त में एक ऐसा समय आ सकता है जब कि प्रक्रिया पूरी हो जायेगी जहांतक कि स्वयं मन में उसका पूरा होना सम्भव है, और एक मर्यादित अतिमानसिक ज्योति का एक ऐसा स्पष्ट रूप बनना सम्भव हो जायेगा जो इन सभी शक्तियों से गठित होगा । इनमें से सर्वोच्च शक्ति अन्य सबका नेतृत्व करेगी या उन्हें अपनी देह में आत्मसात् कर लेगी । इसी क्षण, जब कि मनोमय प्राणी में अन्तर्ज्ञानात्मक मन पूर्ण रूप से गठित हो चुकता है और अभी नानाविध मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण अधिकार स्थापित करने में न सही पर उनके ऊपर हुकूमत चलाने में पर्याप्त समर्थ हो जाता है, अगला कदम उठाना सम्भव हो जाता है अर्थात् कर्म के केन्द्र एवं स्तर को मन के ऊपर ले जाया जा सकता है और अतिमानसिक बुद्धि का प्रभुत्व स्थापित किया जा सकता है ।
इस परिवर्तन का पहला लक्षण है सम्पूर्ण क्रिया का आमूल विपर्यय, पलटाव, अथवा हम यहांतक भी कह सकते हैं कि उसका औंधी हो जाना । इस समय हम मन में और अधिकतर भौतिक मन में निवास करते हैं, किन्तु फिर भी पशु की भांति पूरी तरह भौतिक, प्राणिक और सांवेदनिक क्रियाओं में ही ग्रस्त नहीं हैं । इसके विपरीत, हम मन की एक विशेष चोटी पर पहुंच चुके हैं जहां से हम प्राण, इन्द्रिय और शरीर के कार्य पर दृष्टिपात कर सकते हैं, उनपर उच्चतर मानसिक प्रकाश फेंक सकते हैं, विचार और निर्णय कर सकते हैं, निम्नतर प्रकृति की क्रिया को संशोधित करने के लिये अपने संकल्प का प्रयोग कर सकते हैं । दूसरी ओर, हम कम या अधिक चेतन रूप में उस चोटी से ऊपर की ओर एक ऊर्ध्वस्थित तत्त्व पर भी दृष्टि डालते हैं और उससे सीधे ही अथवा अपनी अवचेतन या अन्तःप्रच्छन्न सत्ता के द्वारा अपने चिन्तन, संकल्प तथा अन्य कार्यों की कोई गुप्त अतिचेतन प्रेरणा प्राप्त करते हैं । इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया प्रच्छन्न और अस्पष्ट होती है और कुछ-एक अत्यन्त विकसित प्रकृतियोंवाले व्यक्तियों को छोड़कर लोग साधारणतया इससे अभिज्ञ नहीं होते : पर जब हमारा आत्मज्ञान बढ्ता है तब हमें पता चलता है कि हमारे समस्त चिन्तन और संकल्प का उद्गम ऊपर ही है यद्यपि उनका गठन मन में होता है और उनकी प्रत्यक्ष क्रिया भी पहले-पहल वहीं आरम्भ होती है । स्थूल मन हमें मस्तिष्क-यन्त्र के साथ बांध देता है और शारीरिक चेतना के साथ एकाकार कर देता है, यदि हम इस मन की ग्रन्थियों को खोल दें और शुद्ध मन में विचरण कर सकें तो ऊर्ध्व स्तर के साथ आदान-प्रदान की उक्त
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प्रक्रिया हमारे अनुभव के प्रति सतत रूप से स्पष्ट हो जाती है ।
अन्तर्ज्ञानात्मक मन के विकास से यह आदान-प्रदान अवचेतन तथा प्रच्छन्न न रहकर प्रत्यक्ष हो जाता है; पर अभी हम मन में ही स्थित होते हैं और मन अभी भी ऊपर की ओर दृष्टि डालकर अतिमानसिक सन्देश प्राप्त करता है तथा उसे अन्य करणों तक पहुंचाता है । ऐसा करने में वह नीचे अपने पास आनेवाले विचार और संकल्प के लिये पहले की तरह पूर्ण रूप से अपना ही आकार नहीं बनाता, किन्तु फिर भी वह उन्हें परिवर्तित, मर्यादित और सीमित कर देता है और उनपर कुछ-कुछ अपनी पद्धति थोप देता है । वह अब भी विचार और संकल्प का ग्रहणकर्ता तथा वाहक होता है, --यद्यपि वह अब उनका निर्माता नहीं होता, हां, सूक्ष्म प्रभाव के द्वारा उनके निर्माण में भाग अवश्य लेता है, क्योंकि वह उन्हें एक मानसिक तत्त्व या एक मानसिक सन्निवेश और ढांचा एवं वातावरण प्रदान करता है या कम-से-कम उन्हें इन चीजों से घेर देता है । परन्तु जब अतिमानसिक बुद्धि विकसित होती है तो पुरुष मन की ऊंचाई से ऊपर उठ जाता है और तब वह मन, प्राण, इन्द्रिय और शरीर के सम्पूर्ण कार्य पर एक बिलकुल ही अन्य प्रकाश एवं वायुमण्डल से दृष्टिपात करता है, उसे एक सर्वथा भिन्न अन्तर्दृष्टि से देखता और जानता है और क्योंकि अब वह पहले की तरह मन में नहीं फँसा होता, अतः वह उसे मुक्त और यथार्थ ज्ञान के साथ देखता और जानता है । अभी मनुष्य पशु के स्तर के अन्दर निवर्तित होने की अवस्था से कुछ अंश में ही मुक्त हुआ है, --क्योंकि उसका मन प्राण, इन्द्रिय और शरीर से कुछ अंश में ही ऊपर उठा है और शेषांश में तो वह उनके अन्दर डूबा हुआ तथा उनके द्वारा नियन्त्रित ही है, --और वह मानसिक रूपों और सीमाओं से जस भी मुक्त नहीं है । पर अतिमानसिक शिखर पर आरूढ़ होने के बाद वह नीचे के नियन्त्रण से मुक्त हो जाता है और अपनी सम्पूर्ण प्रकृति का शासक बन जाता है, --पहले-पहल वह केवल तात्त्विक और प्रारम्भिक रूप में तथा अपनी उच्चतम चेतना में ही ऐसा बनता है, क्योंकि शेष चेतना का रूपान्तर करना अभी बाकी होता है, --परन्तु जब या जितना वह रूपान्तर सम्पन्न हो जाता है, तब और उतना वह एक मुक्त जीव तथा अपने मन, इन्द्रिय, प्राण और शरीर का स्वामी बन जाता है ।
इस परिवर्तन का दूसरा लक्षण यह है कि विचार और संकल्प का गठन अब पूर्ण रूप से अतिमानसिक स्तर पर ही हो सकता है और अतएव एक पूर्णत: ज्योतिर्मय और अमोघ संकल्प एवं ज्ञान का सूत्रपात हो जाता है । निःसन्देह प्रारम्भ में ज्योति और शक्ति पूर्ण नहीं होती क्योंकि अतिमानसिक बुद्धि अतिमानस का एक प्रारम्भिक रूप मात्र है और क्योंकि मन तथा अन्य करणों को अभी अतिमानसिक प्रकृति के सांचे में ढालकर रूपान्तरित करना होता है । यह ठीक है कि मन अब विचार और संकल्प या किसी अन्य चीज के प्रत्यक्ष उत्पादक, निर्मायक या
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निर्णायक के रूप में कार्य नहीं करता किन्तु एक वाहक प्रणालिका का कार्य वह अबतक भी करता है और अतएव उस अंश में एक ग्रहणकर्ता के रूप में और कुछ हदतक, वहन-क्रिया के समय, ऊपर से आनेवाली शक्ति और ज्योति के बाधक और परिसीमक के रूप में भी कार्य करता है । अतिमानसिक चेतना जिसमें 'पुरुष' अब स्थित रहता है तथा विचार और संकल्प करता है और मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक चेतना जिसके द्वारा उसे उसके प्रकाश और ज्ञानको क्रियान्वित करना होता है--इन दोनों चेतनाओं में विषमता होती है । वह एक आदर्श चेतना को अपने जीवन में क्रियान्वित करता है और उसीके द्वारा देखता है, किन्तु अपनी निम्नतर सत्ता में उसे अभी उसको पूर्णतया क्रियात्मक और सफल बनाना होता है । अन्यथा वह आध्यात्मिक स्तर पर तथा उससे अनायास ही प्रभावित होनेवाले उच्चतर मनोमय स्तर पर दूसरों के साथ आभ्यन्तर आदान-प्रदान के द्वारा ही कम या अधिक आध्यात्मिक प्रभाव के साथ उनपर कार्य कर सकता है, परन्तु वह प्रभाव क्षीण या मन्द पड़ जाता है, कारण, या तो हमारी सत्ता में निम्न प्रकार की क्रिया होती रहती है या फिर सभी करण समग्ररूप से अभिव्यक्ति में भाग नहीं लेते । इसका उपाय तभी हो सकता है यदि अतिमानस मानसिक, प्राणिक और भौतिक चेतना को अपने अधिकार में लाकर अतिमानसिक बना दे, -- अर्थात् उन्हें अतिमानसिक प्रकृति के सांचों में ढालकर रूपान्तरित कर दे । यदि निम्नतर प्रकृति के करणों की वह यौगिक तैयारी पूरी हो चुकी हो जिसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूं तो यह रूपान्तर कहीं अधिक आसानी से सम्पन्न हो सकता है; नहीं तो आदर्श अतिमानसिक अवस्था और उसका वहन करनेवाले मनोमय करण अर्थात् मनोमय प्रणालिका, हृदय, इन्द्रिय, प्राण एवं शरीर--इनके बीच के विसम्वाद और असामञ्जस्य से मुक्त होने में बड़ी कठिनाई होती है । अतिमानसिक बुद्धि इस रूपान्तर का सम्पूर्ण तो नहीं पर प्रारम्भिक और बहुत सारा कार्य पूरा कर सकती है ।
अतिमानसिक बुद्धि का स्वरूप है--आध्यात्मिक, प्रत्यक्ष, स्वतःप्रकाशमान और स्वयं-सक्रिय संकल्प और बुद्धि, मानस-बुद्धि नहीं, विज्ञान-बुद्धि । वह उन्हीं चार शक्तियों से कार्य करती है जिनसे कि अन्तर्ज्ञानात्मक मन, पर यहां ये शक्तियां अपने स्वरूप की आदिम पूर्णता के साथ क्रिया में रत रहती हैं, बुद्धि के मनोमय तत्त्व के द्वारा विकृत नहीं होतीं, इनका कार्य मुख्यत: मन को प्रकाश देना नहीं होता, बल्कि ये अपनी विशेष पद्धति के साथ तथा अपने सहजात उद्देश्य के लिये कार्य करती हैं । यहां इन चारों में से अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक शायद कभी भी एक पृथक् शक्ति के रूप में पहचान में नहीं आता, पर वह अन्य तीनों में निरन्तर ही अन्तर्निहित रहता है और उनके ज्ञान के क्षेत्र और सम्बन्धों का इस प्रकार निर्धारण करता है मानों वह स्वयं उनका ही किया हुआ निर्धारण हो । इस बुद्धि में तीन स्तर हैं, एक वह जिसमें अन्तर्ज्ञान की, यूं कहें कि अतिमानसिक अन्तर्ज्ञान की, क्रिया
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सत्य-संकल्प और सत्य-ज्ञान का रूप और प्रमुख धर्म निश्चित करती है, दूसरा वह जिसमें एक द्रुत अतिमानसिक अन्तःप्रेरणा उनका परिचालन करती है तथा उन्हें सामान्य गुण-धर्म प्रदान करती है, और तीसरा वह जिसमें यह सब कार्य एक विशाल अतिमानसिक प्रत्यक्ष दृष्टि करती है । और इनमें से प्रत्येक स्तर हमें सत्य-संकल्प तथा सत्य-ज्ञान के एक अधिक घनीभूत तत्त्व, उच्चतर प्रकाश, स्वतः-पर्याप्त शक्ति-सामर्थ्य तथा उच्चतर क्षेत्रतक उठा ले जाता है ।
अतिमानसिक बुद्धि का कार्य मानसिक बुद्धि के द्वारा किये जानेवाले समस्त कार्य को अपने क्षेत्र में समा लेता है तथा उसके भी परे जाता है, पर यह बुद्धि अपना कार्य दूसरे छोर से आरम्भ करती है और इसकी क्रिया भी उसके अनुरूप ही होती है । इस आध्यात्मिक बुद्धि के लिये आत्मा के सारभूत सत्य और वस्तुओं का मूलभाव और अन्तिम तत्त्व कोई ऐसे अमूर्त विचार या सूक्ष्म अपार्थिव अनुभव नहीं होते जिन पर यह सीमाओं का एक प्रकार का अतिक्रमण करके पहुंचती हो, बल्कि वे एक नित्य सद्वस्तु होते हैं तथा इसकी समस्त विचारणा और अनुभूति के लिये स्वाभाविक पृष्ठभूमि का काम करते हैं । यह सत्ता और चेतना के, आध्यात्मिक तथा अन्य प्रकार के सम्वेदन एवं आनन्द के और शक्ति तथा कर्म के सामान्य एवं समग्र तथा विशेष--दोनों प्रकार के सत्यों पर सद्वस्तु और दृग्विषय और प्रतीक, यथार्थ सत्ता, सम्भावित सत्ता और अन्तिम सत्ता, निर्धार्य और निर्धारक पर, मन की भांति नहीं पहुंचती बल्कि उन्हें सीधे ही प्रकाशित कर देती है, --और उन सबको प्रकाशित भी करती है स्वयं-प्रकाश प्रमाण के साथ । यह विचार के साथ विचार के, शक्ति के साथ शक्ति के तथा कर्म के साथ कर्म के सम्बन्धों को और इन सबके पारस्परिक सम्बन्धों को भी गठित और व्यवस्थित करती है और इनमें एक विश्वासोत्पादक एवं प्रकाशपूर्ण सामञ्जस्य स्थापित कर देती है । यह इन्द्रियलब्ध तथ्यों को अपने में समाविष्ट करती है, पर उन्हें, उनके पीछे अवस्थित वस्तु के प्रकाश में, एक और ही अर्थ दे देती है और उनके साथ अत्यन्त बाह्य संकेतों के रूप में ही व्यवहार करती है : आन्तरिक सत्य उस महत्तर इन्द्रिय के द्वारा ज्ञात होता है जो इसके पास पहले से ही है । यह उनके अपने विषयों के क्षेत्र में भी केवल उनपर ही निर्भर नहीं करती न उनके कार्यक्षेत्र के द्वारा सीमित ही होती है । इसके एक अपनी ही आध्यात्मिक इन्द्रिय एवं इन्द्रियानुभूति होती है और छठी इन्द्रिय अर्थात् अन्तःकरण के द्वारा लब्ध तथ्य-सामग्री को भी यह ग्रहण करती है तथा आध्यात्मिक इन्द्रियानुभव के साथ सुसम्बद्ध करती है । और यह चैत्य अनुभव के परिचित आलोकों, जीवन्त प्रतीकों तथा प्रतिमाओं को भी स्वीकार करती है और इन्हें भी 'पुरुष' एवं आत्मा के सत्यों के साथ सुसम्बद्ध करती है ।
आध्यात्मिक बुद्धि भावावेगों और चैत्य संवेदनों को भी ग्रहण करती है, उन्हें उनके आध्यात्मिक प्रतिरूपों के साथ सुसम्बद्ध करती है, वह उन्हें उस उच्चतर
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चेतना एवं आनन्द के मूल्य प्रदान करती है जिससे वे उद्भूत होते हैं तथा जिसे वे निम्न प्रकृति के अन्दर विकृत रूपों में प्रकट करते हैं और वह उनकी विकृतियों को सुधारती भी है । इसी प्रकार वह प्राणमय सत्ता और चेतना की गतियों को भी स्वीकार करती है और उन्हें आत्मा के आध्यात्मिक जीवन और उसकी तपःशक्ति की गतियों के साथ सुसम्बद्ध करती है तथा उन्हें आध्यात्मिक जीवन और तप:- शक्ति के गूढ़ार्थ प्रदान करती है । वह भौतिक चेतना को स्वीकार करती है, उसे उसके अन्धकार तथा जड़तारूप तमs से मुक्त करती है और उसे अतिमानसिक ज्योति, शक्ति और आनन्द को ग्रहण करने तथा प्रत्युत्तर देनेवाली एवं उसका अत्यन्त संवेदनशील यन्त्र बना देती है । वह जीवन, कर्म और ज्ञान के साथ मानसिक संकल्पशक्ति और बुद्धि की भांति व्यवहार करती है, पर इस कार्य का आरम्भ वह जड़त्त्व, प्राण और इन्द्रियगण से तथा उनके द्वारा उपलब्ध तथ्यों से नहीं करती और न विचार के माध्यम से उनके साथ उच्चतर वस्तुओं के सत्य का सम्बन्ध जोड़ती एवं सामञ्जस्य बिठाती है, बल्कि इसके विरीत वह अपना कार्य 'पुरुष' और आत्मा के सत्य से आरम्भ करती है और एक ऐसे अपरोक्ष आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा, जो अन्य समस्त अनुभवों को अपने आकारों और यन्त्रों के रूप में ग्रहण करता है, मन, अन्तरात्मा, प्राण, इन्द्रिय और जड़त्व के तथ्यों को आत्मा के सत्य के साथ सुसम्बद्ध करती है । उसका क्षेत्र स्थूल इन्द्रियों के कारागार में बन्द साधारण देहबद्ध मन की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल है, और शुद्ध मन जब अपने क्षेत्रों मे स्वतन्त्र होता है तथा चैत्य मन और आन्तरिक इन्द्रियों की सहायता से कार्य करता है तब भी उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक बुद्धि का क्षेत्र अतीव विशाल होता है । साथ ही उसके अन्दर एक ऐसी शक्ति भी है जो मानसिक संकल्पशक्ति और बुद्धि में नहीं है, क्योंकि वे सच्चे रूप में आत्म-निर्धारित नहीं हैं और न वस्तुओं के मूल निर्धारक ही हैं, वह शक्ति यह है कि वह सम्पूर्ण सत्ता को उसके सभी अङों समेत आत्मा के सामञ्जस्यपूर्ण यन्त्र एवं अभिव्यक्ति में रूपान्तरित कर सकती है ।
साथ ही, आध्यात्मिक बुद्धि मुख्यतया आत्मा के अन्दर विद्यमान, सत्य के प्रतिनिधिरूप विचार और संकल्प के द्वारा कार्य करती है, यद्यपि एक अधिक महान् और तात्त्विक सत्य उसके उद्गम, पोषक और प्रामाणिक स्रोत के रूप में सतत विद्यमान रहता है । अतः वह ईश्वर की एक ज्योतिर्मय शक्ति है, पर सत्ता में विद्यमान उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति की साक्षात् आत्म-शक्ति नहीं है; उसकी सम्पूर्ण आत्म-शक्ति या 'परा स्वा प्रकृति:' नहीं, बल्कि उसकी सूर्य-शक्ति ही आध्यात्मिक बुद्धि में कार्य करती है । साक्षात् आत्म-शक्ति अपनी प्रत्यक्ष क्रिया महत्तर अतिमानस में ही आरम्भ करती है, और वह शरीर, प्राण, मन और अन्तर्ज्ञानमय सत्ता में तथा आध्यात्मिक बुद्धि द्वारा अबतक जो कुछ भी उपलब्ध किया जा चुका
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है उस सबको अपने हाथ में लेती है और हमारा मनोमय पुरुष जो कुछ भी उत्पन्न तथा एकत्र कर चुका है एवं जिसे वह अनुभव की सामग्री का रूप देकर चेतना, व्यक्तित्व और प्रकृति का अङ्ग बना चुका है, उस सबका यह आत्म-शक्ति परम आत्मा की ऊर्ध्वस्थ अनन्त सत्ता के साथ तथा उसके विराट् जीवन के साथ सर्वोच्च सामञ्जस्य स्थापित करती है और इस प्रकार उसे एक नया ही रूप दे देती है । मन अनन्त और विराट् सत्ता का संस्पर्श प्राप्त कर सकता है, उन्हें प्रतिबिम्बित कर सकता है, यहांतक कि उनमें अपनेको खो भी सकता है, पर व्यक्ति को वैश्व तथा परात्पर आत्मा के साथ कर्म में पूर्ण एकता प्राप्त करने की शक्ति केवल अतिमानस ही प्रदान कर सकता है ।
यहां एक चीज है जो सदैव और निरन्तर उपस्थित रहती है, जिसकी और साधक विकसित हो चुका है और जिसमें वह सदा निवास करता है, वह है एकमात्र अनन्त सत्ता । यहां जो कुछ भी है वह सब साधक को केवल एकमेव सत्ता के एक तत्त्व के रूप में ही दृष्टिगत, अनुभूत और ज्ञात होता है तथा वह इसी रूप में उस सबमें निवास भी करता है । यह सत्ता अनन्त चैतन्यस्वरूप है और यहां जो कुछ भी चेतन, क्रियाशील और गतिशील है वह सब उसे एकमेव चेतना की आत्मानुभूति एवं शक्ति के रूप में दृष्टिगत, अनुभूत, गृहीत और ज्ञात होता है तथा इसी रूप में वह उस सबमें निवास भी करता है । यह अनन्त आनन्द-स्वरूप है और यहां अनुभव करनेवाला तथा अनुभव में आनेवाला जो कुछ भी है वह सब उसे एकमेव आनन्द के आकारों के रूप में दृष्टिगत, अनुभूत, ज्ञात और गृहीत होता है और इसी रूप में वह उस सबमें निवास भी करता है । अन्य सभी वस्तुएं उसके लिये हमारी सत्ता के इस एकमात्र सत्य की एक अभिव्यक्ति एवं परिस्थितिमात्र होती हैं । एकमेव सत्ता का यह ज्ञान अब पहले की तरह निरा ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष या मानस ज्ञान नहीं होता, बल्कि साक्षात्कार की उस वास्तविक अवस्था के रूप में प्रकट होता है जिसमें साधक को सब में आत्मा के और आत्मा में सबके, सबमें ईश्वर के और ईश्वर में सबके दर्शन होते हैं और सब ईश्वर-स्वरूप ही दिखायी देते हैं, और यह अवस्था अब कोई ऐसी स्थिति नहीं होती जो सत्य को प्रतिबिम्बित करनेवाले आध्यात्मीकृत मन के समक्ष प्रस्तुत की जाती है, बल्कि यह अतिमानसिक प्रकृति में होनेवाले एक सर्वांगीण, नित्य-विद्यमान, सदा-सक्रिय साक्षात्कार के द्वारा धारण की जाती है और जीवन में उतारी जाती है । इसमें विचार, संकल्प और सम्वेदन भी होते हैं और हमारी प्रकृति से सम्बन्ध रखनेवाली अन्य प्रत्येक वस्तु भी होती है, पर वह रूपान्तरित हो जाती तथा उच्चतर चेतना में उन्नीत कर दी जाती है । इसमें समस्त विचार सत्ता के सारतत्त्व की ज्योतिर्मय देह, उसकी शक्ति की आलोकित गति तथा उसके आनन्द की प्रकाशपूर्ण तंरग के रूप में दिखायी देता तथा अनुभूत होता है; वह मन के शून्य वायुमण्डल में उठनेवाला कोई विचार नहीं होता, बल्कि
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अनन्त सत्ता के सत्स्वरूप के अन्दर तथा उसके किसी वास्तविक सत्य की ज्योति के रूप में अनुभूत होता है । इसी प्रकार हमारी संकल्पशक्ति और हमारे मनोवेग ईश्वर के सत् चित् आनन्द की एक वास्तविक शक्ति एवं सारवस्तु के रूप में अनुभूत होते हैं । समस्त अध्यात्मभावित सम्वेदन एवं भावावेग चेतना और आनन्द के शुद्ध सांचों के रूप में अनुभूत होते हैं । स्वयं हमारी दैहिक सत्ता भी परम आत्मा के जीवन की शक्ति और सम्पदा के एक सचेतन स्थूल आकार के रूप में तथा हमारी प्राणिक सत्ता उसके एक सतत प्रवाह के रूप में अनुभूत होती हैं ।
विकास में अतिमानस का कार्य इस उच्चतम चेतना को व्यक्त और संघटित करना है जिससे कि वह पहले की तरह केवल ऊर्ध्वस्थ अनन्त में ही निवास और कार्य न करती रहे तथा व्यक्ति की सत्ता और प्रकृति में कुछ एक सीमित या आवृत या निम्न एवं विकृत अभिव्यक्तियों के रूप में ही न प्रकट होती रहे, बल्कि व्यक्ति को एक सचेतन एवं आत्मवित् अध्यात्म-सत्ता के रूप में तथा अनन्त एवं विराट् आत्मा की एक सजीव और सक्रिय शक्ति के रूप में यन्त्र बनाकर उसके अन्दर व्यापक और समग्र रूप से कार्य करे । इस कार्य का स्वरूप जहांतक शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है वहांतक इसकी चर्चा आगे चलकर उस स्थल पर करना अधिक उपयुक्त होगा जहां ब्राह्मी चेतना एवं अन्तर्दृष्टि के वर्णन का प्रसंग आयेगा । अगले अध्यायों में हम इसके केवल उतने ही अंश का विवेचन करेंगे जितना व्यक्ति की प्रकृति के अन्दर उद्भूत होनेवाले विचार, संकल्प और चैत्य तथा अन्य प्रकार के अनुभव से सम्बन्ध रखता है । इस समय इतना ही ध्यान में रखना आवश्यक है कि यहां भी विचार और संकल्प के क्षेत्र में त्रिविध क्रिया देखने में आती है । आध्यात्मिक बुद्धि सत्य की प्रतिनिधिभूत एक महत्तर क्रिया के स्तर में उन्नीत होकर विशाल बन जाती है । यह क्रिया मुख्यतया हमारे अन्दर और चारों ओर विद्यमान आत्मा की सत्ता के वास्तविक रूपों को हमारे समक्ष सुनिश्चित आकार में प्रकट करती है । उसके बाद अतिमानसिक ज्ञान की एक उच्चतर सत्यद्योतक क्रिया प्रकट होती है किंवा एक ऐसा महत्तर स्तर प्रकट होता है जो वास्तविक रूपों पर कम आग्रह करता है । वह देश-काल में तथा इनसे परे भी और अधिक महान् सम्भाव्य शक्तियों के द्वार खोल देता है । अन्त में आता हैं तादात्म्य द्वारा प्राप्त होनेवाला उच्चतम ज्ञान । वह ईश्वर की मूल आत्मसंवित् तथा सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता के स्तर में पहुंचने के लिये प्रवेशद्वार है ।
तथापि ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि एक-दूसरे के ऊपर अवस्थित ये स्तर हमारे अनुभव में एक-दूसरे के प्रति बन्द हैं । मैंने इन्हें, आरोहणोन्मुख विकास का जो नियमित क्रम हो सकता है उस क्रम में, प्रस्तुत कर दिया है ताकि एक बौद्धिक स्थापना के रूप में इन्हें समझना अधिक सुगम हो सके । परन्तु अनन्त भगवान् हमारे सामान्य मन में ही अपने आवरणों को भेदकर तथा अपनी ही अवरोहण और
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आरोहण की विभाजक रेखाओं को पार कर प्रकट हो उठते हैं और प्रायः ही किसी-न-किसी ढंग से अपने स्वरूप की ओर इंगित करते हैं । जब हम अभी अन्तर्ज्ञानात्मक मन की भूमिका में होते हैं, तो उससे ऊपर की भूमिकाएं भी खुलती जाती हैं और उनकी वस्तुएं अनियमित रूप से हमारे पास आती हैं; फिर जैसे-जैसे हम विकसित होते हैं, वे अन्तर्ज्ञानात्मक स्तर के ऊपर पुन: -पुन: और नियमित रूप से अपना कार्य करने लगती हैं । ज्यों ही हम अतिमानसिक स्तर में प्रवेश करते हैं त्यों ही ऊर्ध्व स्तरों के ये पूर्व-संकेत और भी अधिक व्यापक रूप से तथा पुन: - पुनः प्राप्त होने लगते हैं । विराट् एवं अनन्त चेतना सदा ही मन को अधिकृत एवं चारों ओर से आच्छादित कर सकती हैं और जब वह एक विशेष सीमातक सतत रूप से, बारम्बार या दृढ़तापूर्वक ऐसा करती है तभी मन अपने-आपको अत्यन्त सुगमता से अन्तर्ज्ञानमय मन में रूपान्तरित कर सकता है और यह अन्तर्ज्ञानमय मन भी अपने-आपको अतिमानसिक क्रिया में रूपान्तरित कर सकता है । भेद इतना ही है कि जैसे-जैसे हम ऊपर उठते हैं, हम अधिकाधिक घनिष्ठ एवं सर्वागीण रूप से अनन्त चेतना में विकसित होते जाते हैं और वह अधिकाधिक पूर्ण रूप से हमारी अपनी आत्मा और प्रकृति बनती जाती ३ । अपिच, दूसरी ओर, ऐसा लग सकता ३ कि सत्ता का निम्न स्तर तब हमारी प्राप्त भूमिका से नीचे का ही नहीं वरन् सर्वथा विजातीय होगा, पर असल मे जब हम अतिमानसिक भूमिका मे निवास करने लगते हैं और जब हमारी समुर्ण प्रकृति उसके सांचे मे ढल चुकती ३ तब भी उससे हम साधारण प्रकृति मे रहनेवाले अन्य लोगों के शान एवं अनुभूति से विच्छिन्न हों जाते हों ऐंसी बात नहीं । निम्नतर या सीमिततर प्रकृति को उच्चतर प्रकृति के समझने और अनुभव करने मे कठिनाई हो सकती ३, पर उच्चतर एवं विशालतर प्रकृति, यदि वह चाहे तो, निम्न प्रकृति को सदा ही समझ सकती है तथा उसके साथ तादाक्य भी स्थापित कर सकती है । परमेश्वर भीं हमसे पृथक् नहीं हैं; वें सबको जानते हैं, सबमें निवास करते तथा उनके साथ अपने-आपको एक कर देते हैं, तथापि विश्व मे विद्यमान मन, प्राण और शरीर की प्रतिक्रियाओं के अधीन नहीं होते और न उनकी सीमाओं के कारण अपने ज्ञान, शक्ति और आनन्द मे सीमित हीं होते हैं ।
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