Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ८
आत्मा की मुक्ति
मनोमय सत्ता और सूक्ष्म प्राण की शुद्धि आध्यात्मिक मुक्ति के लिये आधार तैयार कर देती है--स्थूल-भौतिक शुद्धि अर्थात् शरीर और स्थूल प्राण की शुद्धि का प्रश्न हम अभी एक ओर छोड़ देते हैं, यद्यपि सर्वांगीण सिद्धि के लिये वह भी आवश्यक है । शुद्धि मुक्ति की शर्त है । शुद्धिमात्र एक प्रकार की मुक्ति या छुटकारा ही है; क्योंकि इसका अर्थ है संकीर्णता, बन्धन तथा अन्धकार उत्पन्न करनेवाली अपूर्णताओं एवं गड़बड़ियों को दूर हटाना : कामना-रूपी अशुद्धि को दूर करने से सूक्ष्म प्राण मुक्त हो जाता है, अशुद्ध भावावेगों और उद्वेगजनक प्रतिक्रियाओं-रूपी अशुद्धि को दूर करने से हृदय मुक्त हो जाता है, ऐन्द्रिय मन के अज्ञानजनक सीमित विचाररूपी अशुद्धि को दूर करने से बुद्धि मुक्त हो जाती है, कोरी बौद्धिकता-रूपी अशुद्धि को दूर करने से विज्ञानमय मुक्ति प्राप्त हो जाती है । परन्तु यह सब तो करणों की मुक्ति है । आत्मा की मुक्ति का स्वरूप अधिक विशाल एवं तात्त्विक है; उसका अभिप्राय मर्त्यसीमा से बाहर निकलकर आत्मा की असीम अमरता में उन्मुक्त हो जाना है ।
कुछ-एक चिन्तन प्रणालियों के लिये मुक्ति का अर्थ है-समस्त प्रकृति का परित्याग कर देना, शुद्ध सत्ता की नीरव अवस्था, निर्वाण या लय, प्राकृत सत्ता का किसी परिभाषातीत परब्रह्म में लय, मोक्ष । परन्तु हमारा लक्ष्य लीनता एवं मग्नता का आनन्द, निष्क्रिय शान्ति की विशालता, आत्मनिर्वाण-रूपी मोक्ष या परब्रह्म में आत्म-निमज्जन नहीं है । हम मुक्ति के विचार को केवल यह अर्थ प्रदान करेंगे कि यह एक ऐसा आन्तरिक परिवर्तन है जो मुक्ति के ढंग के समस्त अनुभव में सामान्य रूप से देखने में आता है और जो सिद्धि के लिये आवश्यक तथा आध्यात्मिक मुक्ति के लिये अनिवार्य है । हमें पता चलेगा कि तब इसका अभिप्राय सदा दो चीजों से होता है; वे चीजें हैं--परित्याग और ग्रहण, इनमें से एक तो मुक्ति का निषेधात्मक पक्ष है और दूसरा भावात्मक; मुक्ति की निषेधात्मक गति का अर्थ है अपनी सत्ता की निम्न प्रकृति के प्रधान बन्धनों एवं मुख्य ग्रन्थियों से छुटकारा पाना, उसके भावात्मक पक्ष का अर्थ है उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता में उन्मुक्त या विकसित होना । परन्तु ये प्रधान ग्रन्थियां--मन, हृदय और सूक्ष्म प्राणशक्ति की करणात्मक ग्रन्थियों से भिन्न एवं अधिक गहरी ऐंठने हैं क्या ? हम देखते हैं कि गीता में हमारे लिये इनका निर्देश किया गया है और इनपर बड़े बलपूर्वक तथा निरन्तर, प्रबल शब्दों में एवं बारम्बार आग्रह किया गया है; ये चार ग्रन्थियां हैं कामना, अहंकार, द्वंद्व और प्रकृति के तीन गुण; क्योंकि गीता के विचार
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में मुक्त होने का अर्थ है निष्काम और निरहंकार होना, मन, अन्तरात्मा और आत्मा में सम तथा त्रिगुण से रहित, निस्त्रैगुण्य, होना । हम इस परिभाषा को स्वीकार कर सकते हैं; क्योंकि मुक्ति के सभी मौलिक तत्त्व इसकी विशालता में समा जाते हैं । दूसरी ओर, मुक्ति का भावात्मक अभिप्राय है अपनी आत्मा को विश्वात्मा के साथ एक करना, विश्व से परे भी भगवान् के साथ एकात्मता लाभ करना, उच्चतम दिव्य प्रकृति को धारण करना, --यूं कहें कि भगवान् के समान बनना या अपनी सत्ता के धर्म में उनके साथ साधर्म्य लाभ करना । यही मुक्ति का सम्पूर्ण और समग्र आशय है और यही आत्मा की सर्वांगपूर्ण मुक्ति है ।
सूक्ष्म प्राण की कामना-रूपी अशुद्धि को दूर करने के सम्बन्ध में हम पहले भी एक प्रकरण में कह चुके हैं । स्थूल प्राण की लालसा तो इस कामना का विकासात्मक या, यूं कहें कि, क्रियात्मक आधार है । पर यह मानसिक एवं सूक्ष्म-प्राणिक प्रकृति की बात है; आध्यात्मिक निष्कामता का अर्थ तो इससे अधिक विशाल एवं मौलिक है : क्योंकि कामना की दो ग्रन्थियां हैं, एक है प्राण में विद्यमान निम्नतर ग्रन्थि जो करणों में लालसा के रूप में दृष्टिगोचर होती है; दूसरी है स्वयं अन्तरात्मा में रहनेवाली अत्यन्त सूक्ष्म ग्रन्थि जिसका प्रथम आधार या प्रतिष्ठा है बुद्धि और जो हमारे बन्धनके इस सूक्ष्म जाल का अन्तरतम मूल है । जब हम नीचे से देखते हैं तो कामना हमारे सामने प्राणशक्ति की एक ऐसी लालसा के रूप में प्रस्तुत होती है जो भावावेगों में हृदय की लालसा का सूक्ष्म रूप धारण कर लेती है और बुद्धि में उसकी सौन्दर्यात्मक, नैतिक, क्रियाशील या तर्कप्रधान शक्ति की लालसा, अभिरुचि एवं उत्तेजना का और भी सूक्ष्म रूप ग्रहण कर लेती है । यह कामना साधारण मनुष्य के लिये एक आवश्यक तत्त्व है; व्यक्ति के रूप में वह अपने समस्त कर्म को किसी प्रकार की निम्न या उच्च लालसा, अभिरुचि या आवेश की सेवा में ग्रस्त किये बिना न तो जी सकता है और न कोई कार्य ही कर सकता है । पर जब हम कामना पर ऊपर की भूमिका से दृष्टिपात करने में समर्थ हो जाते हैं तो हम देखते हैं कि करणों की इस कामना को आश्रय देनेवाली वस्तु है आत्मा की संकल्पशक्ति । एक संकल्प, तपसू या शक्ति है जिसके द्वारा गुप्त आत्मा अपने बाह्य करणों को उनकी समस्त क्रिया के लिये बाध्य करती है और उससे अपनी सत्ता का सक्रिय हर्ष, आनन्द, आहरण करती है जिसमें वे यदि चेतन रूप से भाग लेते भी हैं तो अत्यन्त अस्पष्ट एवं अपूर्ण रूप से ही लेते हैं । यह तपस् उस परात्पर आत्मा की संकल्पशक्ति है जो विश्वरूपी विराट् व्यापार को उत्पन्न करती है, उस विश्वात्मा की संकल्पशक्ति है जो इस व्यापार को धारण तथा अनुप्राणित करती है, उस स्वतन्त्र जीवात्मा की संकल्पशक्ति है जो विश्वात्मा के 'बहु' रूपों का आत्मा-रूपी केन्द्र है । यह एक ही संकल्पशक्ति है जो एक साथ इन तीनों में स्वतन्त्र रूप में विद्यमान है, व्यापक, समस्वर एवं एकीकृत है; जब हम
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आत्मा में निवास तथा कर्म करते हैं तो हमें अनुभव होता है कि यह तपस् सत्ता के आध्यात्मिक आनन्द की एक निरायास और निष्काम संकल्पशक्ति है, स्वयंस्फूर्त और आलोकित, अपने-आपको चरितार्थ और धारण करनेवाली, तृप्त और आनन्दपूर्ण संकल्पशक्ति है ।
पर ज्योंही जीवात्मा अपनी सत्ता के विराट् और परात्पर सत्य से मुंह मोड़कर अहंभाव की ओर झुकता है, इस संकल्पशक्ति को अपनी निजी वस्तु एक पृथक् व्यक्तिगत शक्ति बनाने की चेष्टा करता है, त्योंही इस संकल्पशक्ति का स्वरूप बदल जाता है : यह एक प्रयत्न, आयास एवं शक्तिमय ताप का रूप धारण कर लेती है जो अपनी कार्यसिद्धि और स्वत्वप्राप्ति के आवेशमय हर्षों से युक्त हो सकता है, पर जिसके साथ उसकी दुःखदायक प्रतिक्रियाएं और श्रमजन्य पीड़ा भी जूड़ी रहती हैं । यही आयास प्रत्येक करण में कामना इच्छा या लालसा-रूपी बौद्धिक, भाविक, क्रियाशील, सम्वेदनात्मक या प्राणिक संकल्प में परिवर्तित हो जाता है । जब करण, अपने-आपमें, कार्य आरम्भ करने के अपने प्रत्यक्ष संकल्प से एवं विशेष प्रकार की कामना से मुक्त एवं शुद्ध हो जाते हैं तब भी यह अपूर्ण संकल्पशक्ति, तपस् बनी रह सकती है, और जबतक यह आन्तरिक क्रिया के उद्गम को छुपाती है या उसके अपने विशिष्ट रूप को विकृत कर देती है तबतक अन्तरात्मा स्वतन्त्रता का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकती, अथवा यदि कर भी सकती है तो कर्ममात्र से पराड़मुख होकर ही प्राप्त कर सकती है; यहांतक कि यदि इस संकल्पशक्ति को टिके रहने दिया जाये तो यह प्राणिक या अन्य कामनाओं को फिर से भड़का देगी या, कम-से-कम सत्ता पर उनकी ऐसी छाया डालेगी जिससे उनकी याद ताजी हो जायेगी । कामना के इस आध्यात्मिक बीज या आरम्भ का भी बहिष्कार करना होगा, इसका भी त्याग और उन्मूलन करना होगा : साधक को या तो सक्रिय शान्ति एवं पूर्ण आन्तरिक नीरवता का वरण करना होगा या फिर विराट् संकल्प के साथ अर्थात् दिव्य शक्ति के तपस् के साथ एकत्व प्राप्त करके उस एकत्व में अपनी व्यक्तिगत कार्य-प्रवृत्ति, संकल्पारम्भ, को विलीन कर देना होगा । निष्क्रिय मार्ग यह है कि साधक अन्दर से निश्चल बने, प्रयत्न, इच्छा एवं आशा से या कार्य करने की समस्त प्रवृत्ति से रहित हो, निश्चेष्ट, अनीह, निरपेक्ष, निवृत्त बने; सक्रिय मार्ग यह है कि वह अपने मन में इस प्रकार निश्चल एवं निर्व्यक्तिक रहे, पर अपने शुद्ध हुए करणों के द्वारा परमोच्च संकल्पशक्ति को उसके शुद्ध आध्यात्मिक रूप में कार्य करने दे । तब, यदि अन्तरात्मा आध्यात्मीकृत मन के स्तर पर निवास करे तो वह केवल यन्त्र ही बनती है, पर स्वयं न तो कार्य का संकल्प-रूप आरम्भ करती है और न कार्य ही करती है अर्थात् निष्क्रिय और सर्वारम्भ-परित्यागी होती है । परन्तु यदि वह ऊपर उठकर विज्ञानभूमिका में पहुंच जाये तो वह यन्त्र होने के साथ-साथ दिव्य कर्म के आनन्द में तथा दिव्य आनन्द के
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परमोल्लास में भाग भी लेती है; वह अपने अन्दर प्रकृति और पुरुष को एक कर देती है ।
अहं-वृत्ति अर्थात् सत्ता की पार्थक्यजनक वृत्ति अज्ञान और बन्धन के समस्त उद्वेगकारी प्रयास का अवलम्ब है । जबतक मनुष्य अहं-बुद्धि से मुक्त नहीं होता, तबतक उसे वास्तविक मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती । अहं का स्थान बुद्धि में माना जाता है; अहंभाव विवेककारी मन और बुद्धि का अज्ञान ही है, क्योंकि ये मन और बुद्धि अशुद्ध रूप में विवेक करते हैं और मन, प्राण तथा शरीर के व्यक्तिभावापन्न रूप को भेदभावजनक सत्ता का सत्य समझते हैं और समस्त सत्ता की एकता के महत्तर एवं समन्वयकारी सत्य से विमुख हो जाते हैं । कम-से-कम, मनुष्य में जो अहंमय विचार विद्यमान है वही भेदभावप्रधान सत्ता के असत्य का मुख्य आधार है; अतएव इस विचार से मुक्त होना, इससे उल्टे विचार पर अर्थात् एकता के, एक ही 'पुरुष', एक ही आत्मा, एक ही प्राकृत सत्ता के विचार पर चित्त को एकाग्र करना ही प्रभावशाली उपाय है; पर अकेला अपने-आपमें यह पूर्ण रूप से सफल नहीं होता । कारण, यद्यपि अहं इस अहं-बुद्धि को अपना आधार बनाता है फिर भी अपनी विशेष प्रकार की आग्रहशीलता के लिये या अपने स्थायित्व के आवेश के लिये उसे सबसे अधिक शक्तिशाली साधन ऐन्द्रिय मन, प्राण और शरीर की सामान्य क्रिया में ही मिलता है । अपने अन्दर से अहं-बुद्धि का उन्मूलन तबतक पूर्ण रूप से सम्भव नहीं होता या पूर्णतया प्रभावशाली नहीं होता जबतक ये करण शुद्ध न हों जायें; इसका कारण यह है कि इनकी क्रिया सतत रूप से अहंकारमय एवं पार्थक्यजनक होती है और फलत: ये बुद्धि को उसी प्रकार हर ले जाते हैं जिस प्रकार, गीता में कहा गया है कि समुद्र में आन्धी नौका को उड़ा ले जाती है, बुद्धि के ज्ञान को ये निरन्तर तमसाच्छन्न करते रहते हैं या कुछ समय के लिये लुप्त ही कर देते हैं और अतएव वह ज्ञान हमें फिर से प्राप्त करना पड़ता है, इसके लिये हमें जो प्रयत्न करना होता है वह ठीक भगीरथ के पुरुषार्थ की ही याद दिलाता है । परन्तु, यदि निम्न करणों में से अहंमय कामना, इच्छा, संकल्प, अहंकारपूर्ण आवेश एवं भावावेश को तथा स्वयं बुद्धि में से भी अहंतामय विचार और अभिरुचि को दूर करके उन्हें शुद्ध कर लिया जाये तो एकत्व के आध्यात्मिक सत्य के ज्ञान को एक दृढ़ आधार प्राप्त हो सकता है । जबतक ऐसा नहीं हो जाता तबतक अहंभाव सब प्रकार के सूक्ष्म रूप ग्रहण करता रहता है और हम अपने को इससे मुक्त समझते रहते हैं जब कि वास्तव में हम इसके यन्त्रों के रूप में कार्य कर रहे होते हैं और हमें बस एक प्रकार का बौद्धिक सन्तुलन ही प्राप्त हुआ होता है जो सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति नहीं है । और फिर, अहं की सक्रिय भावना को निकाल फेंकना ही काफी नहीं है; इससे तो केवल मन की निष्क्रिय अवस्था ही प्राप्त हो सकती है, पृथक् सत्ता की एक विशेष प्रकार की निष्क्रिय एवं जड़ शान्ति राजसिक अहंभाव
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का स्थान ले सकती है, पर यह भी सच्ची मुक्ति नहीं है । अहंभावना के स्थान पर परात्पर भगवान् एवं विराट् पुरुष के साथ की एकता को स्थापित करना होगा ।
एकता को स्थापित करने की इस आवश्यकता का कारण यह है कि बुद्धि नानाविध क्रीड़ा करनेवाले अहंकार की प्रतिष्ठा या मुख्य भित्तिमात्र है; पर अपने मूल में यह अहंकार हमारी आध्यात्मिक सत्ता के एक सत्य का ह्रास या विकार है । सत्ता का वह सत्य यह है कि एक परात्पर सत् परम पुरुष या आत्मा है, जगत् का एक त्रिकालातीत आत्मा, एक सनातन सत्ता या भगवान् है, अथवा उस भागवत सत्ता के विषय में आजकल जो मानसिक धारणाएं प्रचलित हैं उनकी तुलना में हम उसे अतिभागवत (भगवान् से परे की) सत्ता भी कह सकते हैं । वह सत्ता यहां अन्तर्यामी रूप में विद्यमान है, अपनी भुजाओं में सबका आलिंगन किये हुए है, सर्व-चालक और सर्व-नियामक है, महान् विश्वात्मा है; और व्यक्ति सनातन की सत्ता की एक चेतन शक्ति है, वह उनके साथ नित्य हीं अनेकविध सम्बन्ध स्थापित कर सकता है, पर अपनी सनातन सत्ता के सत्स्वरूप के अन्तस्तल में उनके साथ एक भी है । यह एक ऐसा सत्य है जिसे बुद्धि समझ सकती है, एक बार शुद्ध हो जाने पर तो वह इसे प्रतिबिम्बित करके अन्य करणोंतक भी पहुंचा सकती है, इसे एक गौण एवं अमौलिक ढंग से धारण भी कर सकती है, पर इसका पूर्ण साक्षात्कार तो आत्मा की भूमिका में ही किया जा सकता है, वहां पहुंचकर ही इसे पूर्ण रूप से जीवन में उतारा जा सकता तथा प्रभावशाली बनाया जा सकता है । जब हम आत्मा में निवास करते हैं तब हम अपनी सत्ता के इस सत्य को केवल जानते ही नहीं बल्कि हम स्वयं यहीं सत्य होते हैं । तब व्यक्ति आत्मा में, आत्मा के आनन्द में, विराट् सत्ता एवं त्रिकालातीत भगवान् के साथ तथा अन्य सब भूतों के साथ अपने एकत्व का उपभोग करता है और अहं-भाव से आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने का मूल आशय यही है । किन्तु ज्योंही अन्तरात्मा मनोमय बन्धन की ओर झुकती है, त्योंही उसके अन्दर अपने पृथक् आत्मिक व्यक्तित्व की एक विशेष भावना उत्पन्न होती हैं जिसके अपने नानाविध आनन्द उसे प्राप्त होते हैं, पर वह किसी भी क्षण पूर्ण अहंबुद्धि एर्व अज्ञान में तथा एकत्व के विस्मरण की अवस्था में पतित हो सकती है । इस पृथक् व्यक्ति की भावना से मुक्त होने के लिये भगवान् के विचार और साक्षात्कार में अपने-आपको डुबा देने का यत्न किया जाता है, और आध्यात्मिक तपस्या की कुछ-एक पद्धतियों में यह यत्न समस्त व्यक्तिगत सत्ता के उच्छेद के लिये एक कठोर प्रयास का रूप ग्रहण कर लेता है, और इस प्रकार उनमें लयात्मक समाधि की अवस्था में पहुंचकर भगवान् के साथ के सभी व्यक्तिगत या विराट् सम्बन्धों का परित्याग कर दिया जाता है, कुछ अन्य पद्धतियों में इसका रूप यह हो जाता है कि व्यक्ति इस लोक में न रहकर भगवान् में तन्मय हो उन्हीमें निवास करने का यत्न करता है अथवा वह उनकी उपस्थिति में सतत
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निमग्न या एकचित्त होकर जीवन धारण करने का अभ्यास करता है, सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य मुक्ति । पूर्णयोग के लिये जो मार्ग प्रस्तुत किया जाता है वह यह है कि हम अपनी सम्पूर्ण सत्ता को ऊपर ले जाकर भगवान् को समर्पित कर दें; इसके द्वारा हम न केवल अपनी आध्यात्मिक सत्ता में उनके साथ एक हो जाते हैं अपितु हम उनमें और वे हम में निवास भी करने लगते हैं, जिससे कि हमारी सारी-की-सारी प्रकृति उनकी उपस्थिति से पूर्ण होकर दिव्य प्रकृति में रूपान्तरित हो जाती है; हम अपनी आत्मा एवं चेतना में तथा अपने प्राण एवं भौतिक तत्त्व में भगवान् के साथ एक हो जाते हैं और साथ ही इस एकता में रहते-सहते तथा चलते-फिरते हैं और इसका नानाविध आनन्द भी उठाते हैं । अहंभाव से इस प्रकार की सम्पूर्ण मुक्ति एवं दिव्य आत्मा और प्रकृति की प्राप्ति हमारी वर्तमान भूमिका में केवल सापेक्ष रूप में ही पूर्ण हो सकती है, पर जैसे-जैसे हम विज्ञान-भूमिका की ओर खुलते और उसमें आरोहण करते हैं वैसे-वैसे यह अपनी चरम पूर्णता को प्राप्त करने लगती है । यह मुक्त पूर्णता है ।
अहं से मुक्ति तथा कामना से मुक्ति दोनों मिलकर केन्द्रीय आध्यात्मिक मुक्ति की नींव स्थापित कर देती हैं । यह बोध, यह विचार एवं अनुभव कि मैं इस जगत् में एक पृथक् स्वयं-स्थित सत्ता रखनेवाला जीव हूं, और अपनी सत्ता की चेतना एवं शक्ति को इस अनुभव के सांचे में ढालना--यही समस्त दुःख, अज्ञान और पाप का मूल है । और इसका कारण यह है कि यह अनुभव वस्तुओं के समस्त वास्तविक सत्य को ज्ञान तथा व्यवहार में मिथ्या रूप दे देता है; यह सत्ता तथा चेतना को सीमित कर देता है और हमारी सत्ता के शक्ति-सामर्थ्य एवं आनन्द को भी सीमित कर देता है; यह सीमा फिर जीवन तथा चैतन्य की अशुद्ध प्रणाली को जन्म देती है, हमारी सत्ता और चेतना की शक्ति का प्रयोग करने की अशुद्ध प्रणाली को तथा सत्ता के आनन्द के मिथ्या, विकृत एवं विपरीत रूपों को उत्पन्न करती है । इस प्रकार सत्ता में सीमित हुई तथा अपने परिपार्श्व में दूसरों से स्वतः ही पृथक् हुई अन्तरात्मा फिर अपने परम आत्मा एवं ईश्वर के साथ तथा इस जगत् के एवं अपने चारों ओर की सब वस्तुओं के साथ अपनी एकता और समस्वरता को अनुभव नहीं करती; उल्टे वह इस विश्व के साथ अपना असामंजस्य अनुभव करती है, अन्य प्राणियों के साथ, जो वस्तुत: उसकी ही दूसरी आत्माएं हैं पर जिनके साथ वह अनात्मा के रूप में व्यवहार करती है, संघर्ष और विरोध-वैषम्य में ग्रस्त रहती है; और जबतक यह विरोध-वैषम्य एवं असामञ्जस्य बने रहते हैं तबतक वह अपने जगत् को अपने अधिकार में नहीं ला सकती तथा विराट् जीवन का आनन्द नहीं उठा सकतीं, बल्कि तबतक वह भय, व्याकुलता तथा सब प्रकार की वेदनाओं से संकुल रहती है, अपनी रक्षा और अभिवृद्धि करने तथा अपनी परिस्थितियों को अपने अधिकार में लाने के लिये कष्टप्रद संघर्ष मे उलझी रहती है, --क्योंकि अपने
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जगत् को अपने अधिकार में लाना अनन्त आत्मा का निज स्वभाव है तथा प्राणिमात्र की एक आवश्यकता एवं बलवती प्रवृत्ति है । इस श्रम और पुरुषार्थ से उसे जो नाना प्रकार का सन्तोष प्राप्त होता है वह सीमित, विकृत एवं असन्तोषप्रद ढंग का होता है : क्योंकि उसे जो एकमात्र वास्तविक सन्तोष मिलता है वह आत्म--विकास का, अपने स्वरूप की अधिकाधिक पुन: प्राप्ति का, सुसंगति और समस्वरता के किसी साक्षात्कार का तथा सफल आत्म-सर्जन एवं आत्मोपलब्धि का सन्तोष होता है, पर अहं-चेतना के आधार पर वह इन चीजों का जो थोड़ा--सा अंश प्राप्त कर सकतीं है वह सदा सीमित, असुरक्षित, अपूर्ण एवं क्षणिक ही होता है । वह अपनी सत्ता के साथ भी कलह में रत रहती है, --इसका पहला कारण तो यह है कि अपनी सत्ता के केन्द्रीय सामञ्जस्यकारी सत्य पर अधिकार न होने से वह अपनी प्रकृति के करणों को ठीक ढंग से नियन्त्रण में नहीं रख सकती, न वह उनकी प्रवृत्तियों, शक्तियों और मांगों में समस्वरता ही स्थापित कर सकतीं है; समस्वरता का रहस्य उसे ज्ञात ही नहीं है; क्योंकि उसे अपनी एकता एवं आत्म-उपलब्धि का रहस्य भी प्राप्त नहीं है; और दूसरे, अपनी उच्चतम आत्मा को उपलब्ध न किये होने से उसे उसकी प्राप्ति के लिये संघर्ष करना पड़ता है तथा जबतक वह अपनी सच्ची उच्चतम सत्ता को उपलब्ध नहीं कर लेती तबतक वह शान्ति भी नहीं प्राप्त कर सकती । इस सबका अर्थ यह है कि वह भगवान् के साथ एकीभूत नहीं है; क्योंकि भगवान् के साथ एकीभूत होने का अर्थ है अपनी आत्मा के साथ एक होना, विश्व के साथ तथा सर्वभूतों के साथ एकमय होना । यह एकता ही यथार्थ एवं दिव्य जीवन का रहस्य है । पर अहं इसे प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह अपने मूल स्वभाव से ही पृथकृता को उत्पन्न करनेवाला है और क्योंकि हमारे अपने स्वरूप की अपनी मनोवैज्ञानिक सत्ता की दृष्टि से भी वह एकता का एक मिथ्या केन्द्र है; क्योंकि वह हमारी सम्पूर्ण सत्ता के सनातन आत्मा के साथ नहीं, बल्कि एक परिवर्तनशील मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक व्यक्तित्व के साथ तादात्म्य स्थापित करके उसी तादात्म्य में हमारी सत्ता की एकता को पाने का यत्न करता है । पर केवल आध्यात्मिक सत्ता में ही हम सच्ची एकता को प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि वहां व्यक्ति विशाल होकर अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ तदाकार हो जाता है और अपने--आपको विराट् सत्ता तथा परात्पर भगवान् के साथ एक अनुभव करता है ।
मानव-आत्मा का समस्त दुःख-कष्ट जीवन-यापन की इस मिथ्या, अहंभावमय और भेदजनक प्रणाली से उत्पन्न होता है । जो आत्मा अपनी चेतना में सीमित होने के कारण अनात्मवान् है अर्थात् जिसने अपनी मुक्त स्वयंभू-सत्ता को प्राप्त नहीं किया है वह अपने ज्ञान में भी सीमित होती है; और यह सीमित ज्ञान मिथ्यात्वजनक ज्ञान का रूप ग्रहण कर लेता है । ऐसी दशा में उसे बाध्य होकर सत्य ज्ञान को पुन: प्राप्त करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, पर भेदजनक मन में
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विद्यमान अहंभाव ज्ञान के प्रदर्शनों किंवा खण्डों से ही सन्तोष मान लेता है, उन खण्डों को जोड़कर वह किसी ऐसे समुच्चयात्मक या प्रभुत्वशाली विचार का रूप दे देता है जो असत्य या अपूर्ण होता है, और इस विचारात्मक ज्ञान से उसकी आशा पूरी नहीं होती तथा एकमात्र ज्ञेय वस्तु के नूतन अनुसन्धान के लिये उसे इसका त्याग कर देना पड़ता है । वह एकमात्र वस्तु है भगवान्, परम पुरुष, परम आत्मा जिसमें विराट् और व्यक्तिगत सत्ता अन्ततोगत्वा अपनी सही आधारशिला तथा सही समस्वरताओ को पा लेती हैं । और फिर, अहं-बद्ध आत्मा अपनी शक्ति के सीमित होने के कारण अनेक दुर्बलताओं से परिपूर्ण होती है; अयथार्थ ज्ञान के साथ सत्ता का अयथार्थ संकल्प, उसकी अयथार्थ प्रवृत्तियां एवं आवेश भी जुड़े ही रहते हैं, और मानव को जो पाप का भान होता है उसका मूल इस अयथार्थता के तीव्र अनुभव में ही निहित है । अपनी प्रकृति की इस त्रुटि को वह आचार-व्यवहार के ऐसे मानदण्डों के द्वारा सुधारने का यत्न करता है जो उसे पुण्य-विषयक अहम्मय चेतना एवं पुण्यवृति की तुष्टि के द्वारा पापविषयक अहम्मय चेतना और पापवृत्ति की तुष्टियों को अर्थात् सात्त्विक अहंकार के द्वारा राजसिक अहंकार को दूर करने में सहायता पहुंचाये । परन्तु मूल पाप को दूर करना होगा, वह मूल पाप है--भागवत सत्ता एवं भागवत संकल्पशक्ति से अपनी सत्ता और संकल्पशक्ति का विच्छेद; जब वह भागवत संकल्पशक्ति ओर सत्ता के साथ एकता को पुनः प्राप्त कर लेता है, तब वह पाप और पुण्य से ऊपर उठकर अपनी दिव्य प्रकृति की असीम स्वयं-स्थित पवित्रता एवं सुरक्षा की अवस्था में पहुंच जाता है । वह अपने अपूर्ण ज्ञान को व्यवस्थित करके तथा अपने अर्द्ध-आलोकित संकल्प एवं सामर्थ्य को नियन्त्रित करके और उन्हें बुद्धि के किसी क्रमबद्ध प्रयत्न के द्वारा संचालित करके अपनी दुर्बलताओं को सुधारने का यत्न करता है; पर इसका परिणाम सदा यह होता है कि उसकी कर्म-शक्ति का मार्ग एवं मानदण्ड सीमित, अनिश्चित, परिवर्ती और स्खलनशील ही रहता है । जब वह मुक्त आत्मा की विशाल एकता, भूमा को पुन: प्राप्त कर लेता है तभी उसकी प्रकृति के करण पूर्णरूपेण अनन्त आत्मा के यन्त्र की भांति गति कर सकते हैं और उस शुभ, सत्य तथा शक्ति के पगों का अनुसरण कर सकते हैं जो अपनी सत्ता के सर्वोच्च केन्द्र से कार्य करनेवाली मुक्त आत्मा की निज सम्पदा हैं । और फिर, क्योंकि उसकी सत्ता का आनन्द सीमित है, वह आत्मा के सुरक्षित, स्वयंस्थित और पूर्ण आनन्द को आयत्त नहीं कर सकता, न वह विराट् विश्व के उस आनन्द को ही अधिगत कर सकता है जो जगत् को निरन्तर गतिमान् रखता है, वह तो केवल सुखों और दुःखों एवं हर्षो और शोकों की मिश्रित एवं परिवर्तनशील शृंखखला में हों विचरण कर सकता है, या फिर उसे किसी चेतन (जान-बूझकर धारण की हुई) निश्चेतना या जड़ उदासीनता की ही शरण लेनी पड़ती है । अहं-प्रधान मन इससे भिन्न कुछ कर भी नहीं सकता, और जिस आत्मा
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ने अपने को अहं के रूप में बहिर्मुख कर दिया है वह जीवन के इस असन्तोषजनक, गौण, अपूर्ण, प्रायः ही विकृत, विक्षुब्ध या सारशून्य उपभोगों में ग्रस्त रहती है; तथापि आध्यात्मिक एवं विराट् आनन्द मानव के भीतर उसकी अन्तरात्मा एवं आत्मा में तथा भगवान् और जगत् के साथ उसकी गुप्त एकता में सदा-सर्वदा विद्यमान है । अहं की बेड़ी को तोड़कर उसके पीछे स्थित मुक्त आत्मा एवं अमर आध्यात्मिक सत्ता में प्रवेश करना--इसीको अन्तरात्मा का अपनी सनातन दिव्यता को पुन: प्राप्त करना कहते हैं ।
अपूर्ण, भेदजनक अस्तित्व को धारण करने की इच्छा एक अयथार्थ तपस् (संकल्प) है जो प्रक्रति में रहनेवाली आत्मा को इस प्रकार का यत्न करने के लिये प्रेरित करता है कि वह अपने-आपको, अपनी सत्ता और चेतना को तथा अपनी सत्ता के सामर्थ्य एवं आनन्द को भेदप्रधान अर्थ में व्यक्तिगत रूप प्रदान करे, इन वस्तुओं को अपनी निजी समझते हुए अर्थात् इनपर भगवान् का तथा एकमेव विश्वात्मा का नहीं वरन् अपना निज का अधिकार मानते हुए इन्हें धारण करे । यह अयथार्थ संकल्प ही उसे इस गलत दिशा की ओर मोड़ देता है तथा अहं को उत्पन्न करता है । अतएव इस मूल कामना से मुंह मोड़ना तथा इसके पीछे रहनेवाली उस कामनारहित संकल्प-शक्ति को प्राप्त करना अत्यावश्यक है जिसका सत्ता-सम्बन्धी सम्पूर्ण उपभोग एवं जीवन-धारण-सम्बन्धी समस्त संकल्प मुक्त, विराट् और एकीकारक आनन्द का उपभोग है एवं इसी आनन्द को प्राप्त करने का संकल्प है । कामना-स्वरूप संकल्प से मुक्ति तथा अहंभाव से मुक्ति--ये दोनों चीजें एक ही हैं, और कामनात्मक संकल्प तथा अहंभाव के सुखद विलोप से जो एकत्व साधित होता है वही मुक्ति का सार है ।
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