योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ४

एकाग्रता

 

शुद्धता के साथ-साथ और इसे लानेवाले एक सहायक साधन के रूप में एकाग्रता का भी होना आवश्यक है । वास्तव में, शुद्धता और एकाग्रता सत्ता की एक ही अवस्था के दो पक्ष हैं, एक स्त्री-प्रकृति और दूसरा पुरुष-प्रकृति, एक निष्क्रिय और दूसरा सक्रिय; शुद्धता वह अवस्था हैं जिसमें एकाग्रता पूर्ण रूप से साधित हो जाती है और ठीक प्रकार से फलप्रद एवं सर्वसमर्थ बन जाती है; एकाग्रता के बल पर ही शुद्धता अपने कार्य करती है और उसके बिना यह शान्तिपूर्ण निश्चलता और नित्य विश्रान्ति की अवस्था की ओर ही ले जायगी । इनके विरोधी गुण भी एक-दूसरे से निकटतया सम्बद्ध हैं; क्योंकि हम देख ही चुके हैं कि अशुद्धता का अर्थ है धर्मों का संकर, सत्ता के विभिन्न भागों की शिथिल, मिश्रित और परस्पर-संश्लिष्ट क्रिया; और यह संकर इस कारण उत्पन्न होता है कि देहधारी आत्मा में सत्ता अपनी शक्तियों पर अपने ज्ञान को ठीक प्रकार से केंद्रित नहीं करती । हमारी प्रकृति का दोष यह है कि पहले तो वह वस्तुओं के स्पर्शों के प्रति, जैसे कि वे बिना किसी व्यवस्था या नियन्त्रण के, अस्त-व्यस्त रूप से मन में प्रवेश करते हैं, जड़वत् अधीन हो जाती है और फिर उनपर आकस्मिक तथा अपूर्ण रूप में अपने-आपको एकाग्र करती है, वह एकाग्रता उत्तेजित एवं अनियमित रूप में की जाती है तथा उसमें कभी एक, तो कभी दूसरे विषय पर कम या अधिक बल दे दिया जाता है, उस हद तक जहां तक कि वे विषय उच्चतर आत्मा या निर्णायक एवं विवेचक बुद्धि को नहीं, बल्कि चंचल, उछल-कूद मचानेवाले, अस्थिर, जल्दी से थक जाने एवं सहज ही विक्षिप्त हो जानेवाले निम्नतर मन को, जो हमारी उन्नति का मुख्य शत्रु है, आकर्षित कर लेते हैं । ऐसी स्थिति में शुद्धता, कार्यकारी अंगों की यथायथ क्रिया तथा सत्ता की विशद, अकलुष और प्रकाशपूर्ण व्यवस्था सम्भव नहीं; विविध क्रियाएं परिस्थिति और बाह्य प्रभावों के संयोगों के ऊपर छोड़ दी जाने पर, निश्चय ही स्व-दूसरी के साथ उलझ जायंगी तथा स्व-दूसरी को बाधा पहुंचायेगी, विचलित, पथभ्रष्ट और विकृत करेंगी । इसी प्रकार, शुद्धता के बिना यथार्थ विचार, यथार्थ संकल्प और यथार्थ वेदन में सत्ता की पूर्ण, सम एवं नमनशील एकाग्रता या आध्यात्मिक अनुभूति की सुरक्षित अवस्था प्राप्त करना सम्भव नहीं । अतएव, इन दोनों को स्व-दूसरी की विजय में सहायता पहुंचाते हुए एक साथ आगे बढ़ना होगा जब तक कि हम उस सनातन स्थिरता तक न पहुंच जायें जहां से सनातन, सर्वसमर्थ और सर्वज्ञानमयी क्रियाशीलता की कोई आंशिक प्रतिमूर्त्ति मनुष्य में उद्भूत हों सके ।

 

    बाह्यस्पर्श ।

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     परन्तु भारतवर्ष में ज्ञानमार्ग का जिस रूप में अनुसरण किया जाता है उसमें एकाग्रता का प्रयोग एक विशेष और संकीर्णतर अर्थ में ही किया जाता है । इसका अभिप्राय होता है विचार को मन की सभी विक्षेपकारी क्रियाओं से हटाना तथा एकमेव की परिकल्पना पर एकाग्र करना जिसके द्वारा जीव दृश्यप्रपंच से बाहर निकलकर एकमेव सद्वस्तु की ओर उठता है । विचार के द्वारा ही हम अपने-आपको दृश्य-प्रपंच में विकीर्ण करते हैं; विचार को पुन: उसके अन्दर समेट करके ही हमें वास्तविक सत्ता में वापस लौटना होगा । एकाग्रता में तीन ऐसी शक्तियां हैं जिनके द्वारा यह लक्ष्य सिद्ध किया जा सकता है । किसी भी वस्तु पर अपने-आपको एकाग्र करके हम उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उसे अपने गुप्त रहस्यों का उद्घाटन करने के लिये विवश कर सकते हैं; इस शक्ति का प्रयोग हमें वस्तुओं को नहीं, बल्कि एकमात्र निरपेक्ष सद्वस्तु को जानने के लिये करना होगा । और फिर, एकाग्रता के द्वारा सम्पूर्ण संकल्पशक्ति को उस वस्तु की प्राप्ति के लिये एकत्र जुटाया जा सकता है जो अभी तक हमारे अधिकार में नहीं आयी है, अभी तक हमारी पहुंच से परे है; यदि यह शक्ति पर्याप्त सधी हुई हो, पर्याप्त एकनिष्ठ एवं पर्याप्त सत्यतापूर्ण हो, अपने बारे में निश्चयवान् केवल अपने ही प्रति दृढ़निष्ठ तथा पूर्ण श्रद्धामय हो तो इसे हम चाहे किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयोग में ला सकते हैं; परन्तु इसका प्रयोग हमें उन अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिये नहीं करना चाहिये जिन्हें संसार हमारे सामने प्रस्तुत करता है, बल्कि आध्यात्मिक रूप में उस एक वस्तु को अधिकृत करने के लिये करना चाहिये जो खोजने योग्य है और साथ ही जो एकमात्र जानने योग्य विषय है । अपनी सम्पूर्ण सत्ता को उसकी किसी एक ही अवस्था पर एकाग्र करके हम जो कुछ बनना चाहें बन सकते हैं; उदाहरणार्थ, भले हम पहले दुर्बलताओं और भयों का पुंज रहे हों, पर अब हम उसके स्थान पर बल और साहस का पुंज बन सकते हैं, अथवा हम पूर्ण रूप से एक महान् शुद्धता, पवित्रता एवं शान्ति की मूर्ति या फिर एक ही विराट् प्रेममय आत्मा बन सकते हैं; परन्तु यह कहा जाता है कि इस शक्ति का प्रयोग हमें ये चीजें बनने के लिये भी नहीं करना चाहिये, भले ये, जो कुछ हम आज हैं उसकी तुलना में ऊंची ही क्यों न हों, बल्कि हमें इसका प्रयोग वह सत्ता, शुद्ध और निरपेक्ष सत्ता, बनने के लिये करना चाहिये जो सब वस्तुओं से ऊपर है तथा समस्त कार्य-व्यापार और गुणों से मुक्त है । अन्य सब कुछ, अन्य सब प्रकार की एकाग्रता उच्छृंखल एवं विक्षेपशील विचार, संकल्प और सत्ता को उनके महान् और अनन्य लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त तैयार करने के लिये, उनके प्रारम्भिक पगों एवं क्रमिक शिक्षण के लिये ही मूल्यवान् हो सकती है ।

 

     एकाग्रता के अन्य प्रत्येक प्रयोग की भांति इस प्रयोग का भी अर्थ है पहले सत्ता को शुद्ध करना; इसका अर्थ अन्त में त्याग, निवृत्ति और अन्ततः समाधि की

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Image1.gifनिरपेक्ष और परात्पर अवस्था में आरोहण भी है । समाधि की यह अवस्था यदि अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाय, स्थायी हो जाय तो इससे शायद हजारों आत्माओं में से एकाध को छोड़कर और कोई नहीं वापिस आती । क्योंकि इससे हम ''सनातन की उस सर्वोच्च अवस्था में'' पहुंच जाते हैं ''जहां से आत्माएं'' प्रकृति के कर्मचक्र में ''नहीं लौटती" ; और जिस योगी का लक्ष्य इस संसार से छुटकारा पाना होता है वह अपना शरीर छोड़ने के समय इसी समाधि में चले जाना चाहता है । राजयोग की साधना में हम यही क्रम देखते हैं । क्योंकि, सर्वप्रथम राजयोगी के लिये एक प्रकार की नैतिक एवं आध्यात्मिक पवित्रता प्राप्त करना आवश्यक है; उसे अपने मन की निम्नतर या अधोमुखी क्रियाओं सै छुटकारा पाना होगा, पर बाद में उसे इसकी समस्त क्रियाओं को बन्द कर अपने-आपको उस एक ही विचार पर एकाग्र करना होगा जो क्रिया से स्थिति की निश्चलता की ओर ले जाता है । राजयोग में एकाग्रता की कई अवस्थाएं होती हैं, एक वह जिसमें विषय को अधिकृत किया जाता है (ध्यान), दूसरी वह जिसमें उसे धारण किया जाता है (धारणा), तीसरी वह जिसमें मन उस अवस्था में लीन हो जाता है जिसे वह विषय सूचित करता है या जिसकी ओर एकाग्रता ले जाती है (समाधि) । इनमें से अन्तिम अवस्था को ही राजयोग में समाधि कहा जाता द्वाहै यद्यपि 'समाधि' शब्द इससे अत्यधिक व्यापक अर्थ का वाचक हो सकता है जैसा कि गीता में देखने में आता है । परन्तु राजयोग की समाधि में भिन्न-भिन्न भूमिकाएं हैं, एक वह जिसमें मन बाह्य विषयों से बेसुध होकर भी विचार के जगत् में सोचता- विचारता और अनुभव करता है, दूसरी वह जिसमें मन अभी विचार की प्रारम्भिक रचनाएं करने में समर्थ होता है और अन्तिम वह जिसमें मन की अपने अन्दर भी सब प्रकार की उछल-कूद बन्द हो जाती है और अतएव अन्तरात्मा विचार के परे अकथ्य और अनिर्वचनीय ब्रह्म की नीरवता में उठ जाती है । निःसन्देह, समस्त योगमार्गों में विचार को एकाग्र करने से बहुतसे ऐसे विषय होते हैं जो एकाग्रता की तैयारी में सहायता पहुंचाते हैं, जैसे, (ध्येय वस्तु के) रूप-स्वरूप, चिन्तन-मनन के शाब्दिक सूत्र, (जपने योग्य) अर्थपूर्ण नाम । ये सब इस एकाग्रता की क्रिया में मन के अवलंबन होते हैं, इन सब का प्रयोग करना होता है और फिर इनके परे चले जाना होता है; उपनिषदों के अनुसार सर्वोच्च अवलंबन है गुह्य पद 'ओहैम्', जिसके तीन अक्षर (अ, उ, म्) ब्रह्म या परम आत्मा की तीन क्रमावस्थाओं, जागरित आत्मा, स्वाप्न आत्मा और सुषुप्तिगत आत्मा को सूचित करते हैं । इन अक्षरों का सम्पूर्ण शक्तिशाली नाद उस सत्ता की ओर उठ जाता है जो क्रिया की भांति स्थिति से भी परे है । क्योंकि, सभी ज्ञानयोगों का अन्तिम लक्ष्य परात्पर ब्रह्म ही है ।

 

  यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । -गीता

 २

माफक्य उपनिषद् ।

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     परन्तु हम ने पूर्णयोग के लक्ष्य की एक ऐसी वस्तु के रूप में परिकल्पना की है जो अधिक जटिल तथा कम एकांगी है—आत्मा की सर्वोच्च अवस्था के विषय में वह कम एकांगी रूप से भावात्मक है, उसके दिव्य आविर्भावों के विषय में वह कम एकांगी रूप से अभावात्मक है । निश्चय ही हमें अपना लक्ष्य परमोच्च ब्रह्म, सबके आदिमूल एवं परात्पर को बनाना होगा, पर परात्पर जिसे अतिक्रम कर जाता है उसे भी त्यागना नहीं होगा, बल्कि उस परात्पर को यह मानते हुए लक्ष्य बनाना होगा कि वह आत्मा की उस सुस्थिर अनुभूति एवं परमोच्च अवस्था का मूल है जो अन्य सब अवस्थाओं को रूपान्तरित कर देगी तथा हमारी जगत्-विषयक चेतना को फिर से अपने गुप्त सत्य के रूप में ढाल देगी । हम जगत्-विषयक समस्त चेतना को अपनी सत्ता से बाहर नहीं निकाल देना चाहते, बल्कि विश्व में तथा इसके परे परमेश्वर, सत्य और आत्मा को प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव, हम केवल अनिर्वचनीय ब्रह्म की ही नहीं, बल्कि उसके अनन्त सत्-चित्-आनन्दरूपी व्यक्त स्वरूप की भी खोज करेंगें जो विश्व को अपने अन्दर समाविष्ट किये हुए इसमें अपनी लीला कर रहा है । क्योंकि, यह त्रिविध अनन्तता उसका सर्वोच्च व्यक्त रूप है और इसे जानने, इसमें भाग लेने तथा यही बन जाने की हम अभीप्सा करेंगे, और क्योंकि हम इस त्रैत को केवल इसके स्वरूप में ही नहीं, बल्कि इसकी वैश्व लीला में भी अनुभव करना चाहते हैं, हम उन विश्वव्यापी दिव्य सत्य, ज्ञान, संकल्प और प्रेम को भी जानने तथा उनमें भाग लेने की अभीप्सा करेंगे जो उसकी गौण अभिव्यक्ति एवं दिव्य सम्भूति हैं । इस अभिव्यक्ति के साथ भी हम एकाकार होने की अभीप्सा करेंगे, इसकी ओर भी हम उठने का यत्न करेंगे और जब प्रयत्न का काल गुजर जायगा तो, अपने समस्त अहंभाव के त्याग के द्वारा हम इसे अनुमति देंगे कि यह हमारी सत्ता को अपने अन्दर उठा ले जाय तथा हमारे समस्त व्यक्त रूप में हमारे अन्दर अवतरित हो और हमारा आलिंगन करे । यह सब यत्न हम केवल इसलिये नहीं करेंगे कि यह उसकी सर्वोच्च परात्परता के निकट पहुंचने तथा इसे प्राप्त करने का एक साधन है, वरन् इसलिये भी कि, जब हम परात्पर को प्राप्त कर लें तथा वह हमें अधिकृत कर ले तब भी, जगत् की अभिव्यक्ति में दिव्य जीवन को चरितार्थ करने के लिये यह एक अनिवार्य शर्त है ।

 

     इसलिये कि हम इस कार्य को सम्पन्न कर सकें, 'एकाग्रता' और 'समाधि' शब्द हमारे लिये अधिक समृद्ध एवं गभीर अर्थ से पूर्ण होने चाहियें । हमारी समस्त एकाग्रता उस दिव्य 'तप' की प्रतिमामात्र है जिसके द्वारा आत्मा अपने-आपमें ही एकाग्र रहता है, अपने अन्दर अपने-आपको प्रकट करता है और अपनी अभिव्यक्ति को धारण करता तथा अपने अधिकार में रखता है, साथ ही जिसके द्वारा वह समस्त अभिव्यक्ति से पीछे हटकर अपने परम एकत्व में लौट जाता है । सत् जब आनन्द-प्राप्ति के लिये अपनी चेतना में अपने-आपको अपने ऊपर एकाग्र

 

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करता है तो उसीको दिव्य 'तप' कहते हैं; और ज्ञानयुक्त संकल्प जब अपनी चेतना की शक्ति में अपने-आपको अपने ऊपर तथा अपनी अभिव्यक्तियों के ऊपर एकाग्र करता है तो उसीका नाम है दिव्य एकाग्रता का सार, योगेश्वर का योग । भगवान् के जिस रूप में हम निवास करते हैं उसकी प्रभेदात्मकता (अनेकात्मकता) स्वयंसिद्ध ही है, तब एकाग्रता ही वह साधन है, जिसके द्वारा व्यक्ति की अन्तरात्मा परमात्मा के किसी रूप के साथ, उसकी किसी अवस्था या आध्यात्मिक अभिव्यक्ति (भाव) के साथ अपनेको एकाकार करती है तथा उसमें प्रविष्ट होती है । इस साधन को भगवान् के साथ ऐक्य-लाभ के लिये प्रयुक्त करना ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति की शर्त है और यहीं सभी ज्ञानयोगों का मूलसूत्र है ।

 

      यह एकाग्रता 'विचार' (Idea) के द्वारा अग्रसर होती है, किसी विशेष विचार, रूप और नाम को ऐसी चाबियों के रूप में प्रयुक्त करती है जो समस्त विचार, रूप और नाम के पीछे छुपे हुए सत्य को एकाग्रता करनेवाले मन के सम्मुख प्रकट कर देती है; क्योंकि विचार के द्वारा ही मनोमय प्राणी, मानव, समस्त अभिव्यक्ति से परे उस तत्त्व की ओर उठता है जो यहां अभिव्यक्त होता है और स्वयं विचार भी जिसका एक यन्तमात्र है । विचार पर एकाग्रता के द्वारा ही मनोमय सत्ता, जो हमारा वर्तमान स्वरूप है, हमारे मन के घेरे को तोड़ डालती है और चेतना तथा सत्ता की उस अवस्था पर, चिन्मय शक्ति और आनन्दमय चेतना की उस अवस्था पर जा पहुंचती है जो उस विचार के अनुरूप होती है और वह विचार जिसका एक प्रतीक, क्रिया-व्यापार एवं लयताल होता है । इस प्रकार, विचार के द्वारा मन को एकाग्र करना हमारे लिये हमारी सत्ता के अतिचेतन स्तरों को खोलने का एक साधन एवं कुंजीमात्र है; आत्म-सचेतन एवं आनन्दमय सत्ता के इस अतिचेतन सत्य, उसकी एकता तथा अनन्तता में उठी हुई हमारी समुर्ण सत्ता की एक विशेष प्रकार की आत्म-समाहित अवस्था ही एकाग्रता का लक्ष्य और परिणति है; और 'समाधि' शब्द को हम जो अर्थ देंगे वह यही है । समाधि का अर्थ केवल वह अवस्था नहीं जो बाह्य जगत् की समस्त चेतना से यहांतक कि अन्तर्जगत् की समस्त चेतना से भी पीछे हटकर उस तत्त्व में लीन हो जो इन दोनों से परे इनके बीज के रूप में या इनकी बीजावस्था से भी अतीत रूप में विद्यमान है; बल्कि समाधि का मतलब है एकमेव एवं अनन्त के साथ संयुक्त एवं एकीभूत होकर उसमें सुस्थिर रूप से प्रतिष्ठित होना, और यह अवस्था नित्य-निरन्तर स्थिर रहनी चाहिये चाहे हम जाग्रत् अवस्था में स्थित हों जिसमें हम पदार्थों के रूपों से अभिज्ञ होते हैं या हम पीछे हटकर उस आन्तरिक क्रिया में चले जायं जो वस्तुओं के मूलतत्त्वों की, उनके नामों और प्रतिरूपात्मक आकारों की लीला में मग्न रहती है, अथवा हम ऊंची उड़ान भरकर उस स्थितिशील आन्तर चैतन्य की अवस्था में पहुंच जायें जहां हम साक्षात् मूलतत्त्वों पर एवं सभी तत्त्वों के तत्त्व पर, नाम और रूप के बीज पर पहुंच जाते

 

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Image1.gifहैं । क्योंकि जो आत्मा वास्तविक समाधि में पहुंच गयी है और इस शब्द के गीतोक्त अर्थ के अनुसार उसमें प्रतिष्ठित (समाधिस्थ) हो चुकी है, उसे वह अवस्था प्राप्त हो गयी है जो अनुभवमात्र का आधार है और वह किसी भी अनुभव के कारण जो अभीतक शिखर पर न पहुंचे हुए व्यक्ति के लिये कितना ही विक्षेपकारी क्यों न हो उस अवस्था से पतित नहीं हो सकती । वह किसी भी अनुभव से आबद्ध अथवा विमूढ़ या मयादित हुए बिना सभी अनुभवों को अपनी सत्ता के क्षेत्र में समाविष्ट कर सकती है ।

 

     जब हम यह अवस्था प्राप्त कर लेते हैं तब, हमारी सम्पूर्ण सत्ता और चेतना के एकाग्र हो जानें के कारण, 'विचार' पर एकाग्रता करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वहां उस अतिमानसिक अवस्था में सारी वस्तुस्थिति छी पलट जाती है । मन एक ऐसा तत्त्व है जो विकीर्ण अवस्था और काल-क्रम में निवास करता है; यह एक समय में एक ही वस्तु पर एकाग्र हों सकता है और जब एकाग्र नहीं हुआ होता तो एक चीज से दूसरी चीज पर बहुत कुछ अनियमित ढंग से ही दौड़ता रहता है । अतएव, इसे एक ही विचार पर, ध्यान, चिन्तन किंवा संकल्प के किसी एक ही विषय पर एकाग्रता करनी होती है, ताकि यह उसे प्राप्त या अधिकृत कर सके, और यह इसे कम-से-कम कुछ समय के लिये अन्य सब विचारों एवं विषयों को बाहर निकालकर ही करना पड़ता है । परन्तु जो तत्त्व मन से परे है और जिसमें हम आरोहण करना चाहते हैं वह विचार की अति चंचल क्रिया से तथा भावों के भेद- विभेद से उच्चतर है । भगवान् अपने ही अन्दर केंद्रित रहते हैं और जब वे विचारों और क्रिया-प्रवृत्तियों को अपनेमें से प्रकट करते हैं तो वे उनमें अपने-आपको विभक्त नहीं करते, न बन्दी ही बना डालते हैं, बल्कि उन्हें तथा उनकी गतिविधि को अपनी अनन्तता में धारण किये रहते हैं; उनकी सम्पूर्ण सत्ता अविभक्त रहती हुई प्रत्येक विचार और प्रत्येक क्रिया के पीछे विद्यमान है और साथ ही वह उन सबकी समष्टि के पीछे भी विद्यमान है । उनमें से प्रत्येक उसके द्वारा धारण किया हुआ है तथा सहज रूप से, किसी पृथक् संकल्प-क्रिया के द्वारा नहीं, बल्कि अपने पीछे विद्यमान सर्व-सामान्य चेतना-शक्ति के द्वारा अपने-आपको व्यक्त करता है; यदि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक में ही भगवान् अपने संकल्प और ज्ञान को एकाग्न कर रहे हैं तो उनकी वह एकाग्रता अनेकविध और एकसमान होती है, एकांगी नहीं, और आत्म-समाहित एकता एवं अनन्तता में स्वतन्त्र और सहज- स्वाभाविक रूप से क्रिया करना ही इस विषय का वास्तविक सत्य है । जो आत्मा दिव्य-समाधि की अवस्था में पहुंच गयी है वह अपनी उपलब्धि के अनुपात में इस उल्टी हुई वस्तुस्थिति में, — इस सच्ची वस्तुस्थिति में, — भाग लेती है, क्योंकि जो स्थिति हमारी मानसिकता से उल्टी है वही सत्य है । इसी कारण, जैसा कि प्राचीन

 

  

आत्मा की जागरित, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं ।

 

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ग्रंथों में कहा गया है, जिस मनुष्य को आत्मा की उपलब्धि हो गयी है वह विचार एवं प्रयत्न की एकाग्रता करने की आवश्यकता के बिना, सहज रूप से ही उस ज्ञान या परिणाम को उपलब्ध कर लेता है जिसे सर्वात्मना ग्रहण करने के लिये उसका अन्तःस्थ विचार या संकल्प प्रयत्न करता है ।

 

     अतएव, इस सुस्थिर दिव्य अवस्था को प्राप्त करना ही हमारी एकाग्रता का लक्ष्य होना चाहिये । एकाग्रता का पहला कदम सदा यह होना चाहिये कि चंचल मन में यह अभ्यास डाला जाय कि वह एक ही विषय पर, सम्बद्ध विचार की एक ही शृंखला का स्थिरतापूर्वक, अडोल भाव से अनुसरण करे और यह उसे उसके ध्यान से विचलित करनेवाले सभी प्रलोभनों एवं प्रतिकूल पुकारों से विक्षिप्त हुए बिना करना होगा । ऐसी एकाग्रता हमारे साधारण जीवन में काफी सामान्य रूप से देखने में आती है; परन्तु जब यह हमें मन को लगाये रखनेवाले किसी बाह्य विषय या कार्य के बिना, अपने ही अन्दर करनी होती है तब यह अधिक कठिन हो जाती है; तथापि ज्ञान के अन्वेषक को जो एकाग्रता साधित करनी होगी वह ऐसी आन्तरिक एकाग्रता ही है । यह एक बौद्धिक विचारक की जिसका एकमात्र उद्देश्य विचार करना तथा अपने विचारों को बौद्धिक रूप में सुसम्बद्ध करना होता है, क्रमबद्ध चिन्तन-क्रिया ही नहीं होनी चाहिये । शायद आरम्भिक अवस्थाओं को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में तर्क-वितर्क की प्रक्रिया की उतनी जरूरत नहीं है जितनी विचार के फरचपूर्ण सारतत्त्व पर अपने-आपको यथासम्भव एकाग्र करने की है । ऐसा करने सें वह विचार अन्तरात्मा के संकल्प की आग्रहपूर्ण मांग के कारण अपने सत्य के सभी पार्श्वों को प्रकाशित कर देगा । इस प्रकार यदि भागवत प्रेम हमारी एकाग्रता का विषय हो तो मन को प्रेमस्वरूप ईश्वर के विचार के सारतत्त्व पर इस प्रकार एकाग्रता करनी चाहिये कि भागवत प्रेम की नानाविध अभिव्यक्ति साधक के मन के सम्मुख ही नहीं, बल्कि उसके हृदय, उसकी सत्ता और अन्तर्दृष्टि में भी ज्योतिर्मय रूप में प्रकाशित हो उठे । यह हो सकता है कि पहले विचार उत्पन्न हो और अनुभव बाद में हो, पर ठीक इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि पहले अनुभव हो और ज्ञान पीछे उस अनुभव में सै उदित हो । बाद में उस उपलब्ध अनुभव में मन को तल्लीन करना तथा उसे अधिकाधिक अपने अन्दर धारण करना होता है जिससे वह स्थायी बनकर अन्त में हमारी सत्ता का धर्म या विधान बन जाय ।

     यह एकाग्रतायुका ध्यान की प्रक्रिया है; परन्तु इससे अधिक आयासपूर्ण विधि हैसम्पूर्ण मन को केवल विचार के सारतत्त्व पर ही एकाग्रतापूर्वक स्थिर करना जिससे हम विषय के विचारमय ज्ञान या मनोवैज्ञानिक अनुभव पर नहीं, बल्कि

     १

आन्तरिक वाद-विवाद और निर्णय, अर्थात् 'वितर्क' और 'विचार' की आरम्भिक अवस्थाओं में मिथ्या विचारों को ठीक करने और बौद्धिक सत्य पर पहुंचने के लिये ।

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Image1.gifविचार के पीछे विद्यमान वस्तु के सत्य स्वरूप पर पहुंच जायें । इस प्रक्रिया में विचार बन्द होकर अपने विषय के तन्मय या आनन्दपूर्ण ध्यान में परिणत हो जाता है या फिर, उस विषय में डूबकर आन्तर समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है । यदि इस प्रक्रिया का अनुसरण किया जाये तो इसके फल-स्वरूप हम जिस अवस्था में आरोहण करेंगे उसे फिर नीचे पुकार लाना होगा, ताकि वह निम्नतर सत्ता पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर ले तथा हमारी साधारण चेतना को अपने प्रकाश, शक्ति और आनन्द से परिप्लुत कर दे । क्योंकि, अन्यथा अनेक साधकों की भांति हम इसे एक उच्च भूमिका या आन्तरिक समाधि में तो प्राप्त कर सकते हैं, पर जब हम जागरित अवस्था में पहुंचेंगे या नीचे उतरकर जगत् के सम्पर्कों मे आयेंगे तो हम उस भूमिका पर अपना अधिकार खो बैठेंगे; और यह पंगु उपलब्धि पूर्णयोग का लक्ष्य नहीं है ।

 

     तीसरी प्रक्रिया यह है कि आरम्भ में न तो किसी एक ही आन्तरिक विषय पर एकाग्रतापूर्वक आयासपूर्ण ध्यान किया जाये और न विचारमय अन्तर्दृष्टि के किसी एक ही विषय का आयासपूर्ण चिन्तन किया जाये, बल्कि सर्वप्रथम मन को पूर्णरूपेण शान्त किया जाये । यह कई विधियों से किया जा सकता है; एक विधि हैमानसिक क्रिया से बिल्कुल अलग हटकर उसके पीछे की ओर स्थित हो जाना, उसमें भाग न लेते हुए केवल उसका निरीक्षण करते रहना जबतक कि वह अपनी उछल-कूद और भाग-दौड को स्वीकृति न मिलने के कारण थककर उत्तरोत्तर अचंचल होती हुई अन्त में पूर्ण रूप से शान्त नही हो जाती । दूसरो विधि हैविचाररूपी सुझावों का परित्याग करना, जब कभी वे मन में आयें उन्हैं वहां से दूर निकाल फेंकना और अपनी सत्ता की शान्ति में जो मन के विक्षोभ और उपद्रव के पीछे सचमुच ही सदा विद्यमान रहती है, दृढ़तापूर्वक स्थिर रहना । जब यह गुप्त शान्ति प्रकट होती है तब एक महत् स्थिरता हमारी सत्ता में प्रतिष्ठित हो जाती है और प्रायः ही इसके साध सर्वव्यापी शान्त ब्रह्म का बोध एवं अनुभव भी प्राप्त होता है और उस समय अन्य प्रत्येक वस्तु शुरू-शुरू में एक बाह्य रूप एवं प्रतिच्छायामात्र प्रतीत होती है । इस स्थिरता के आधार पर वस्तुओं के बाह्य प्रपंच के नहीं, बल्कि भागवत अभिव्यक्ति के गभीरतर सत्य के ज्ञान एवं अनुभव में अन्य प्रत्येक वस्तु का निर्माण किया जा सकता है ।

 

     साधारणत:, जब एक बार यह अवस्था प्राप्त हो जायेगी तो फिर आयासपूर्ण एकाग्रता की आवश्यकता अनुभव नहीं होगी । इसका स्थान संकल्प की एक उन्मुक्त एकाग्रता ले लेगी जो विचार का प्रयोग निम्नतर अंगों को सुझाव देने तथा आलोक प्रदान करने के लिये ही करेगी । यह संकल्प तब भौतिक एवं प्राणिक सत्ता तथा हृदय और मन पर दबाव डालेगा कि वे अपने- आपको फिर से भगवान् के

      इस विषय पर हम आत्म-सिद्धि-योग के प्रकरण में अधिक विस्तार के साथ विचार करेगे ।

 

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Image1.gifउन रूपों में ढाल लें जो शान्त ब्रह्म में से स्वतः ही प्रकट होते हैं । अपनी पूर्व तैयारी और विशुद्धि के अनुसार अपेक्षाकृत झ या मन्द वेग से वे अंग न्यूनाधिक संघर्ष के बाद संकल्प और उसके सुझाव के नियम का पालन करने को बाध्य होंगे । फलस्वरूप, अन्त में भगवान् का ज्ञान हमारी चेतना के सभी स्तरों को अपने अधिकार में कर लेगा और हमारी मानवीय सत्ता में भगवान् की प्रतिमूर्त्ति निर्मित हो जायेगी जैसे कि प्राचीन वैदिक साधकों ने अपनी सत्ता में निर्मित की थी । पूर्णयोग के लिये यह सबसे सीधी और शक्तिशाली साधना है ।

 

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