योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १६

 

 एकत्व

 

अतएव, जब साधक अपनी चेतना के केन्द्र को मन, प्राण और शरीर के साथ उसके (चेतना के) तादात्म्य से पीछे खींचकर अपनी सच्ची आत्मा को खोज लेता है, इस आत्मा की शुद्ध, शान्त एवं अक्षर ब्रह्म के साथ एकता उपलब्ध कर लेता है, अक्षर ब्रह्म में उस तत्त्व को खोज लेता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से मुक्त होकर निर्व्यक्तिक सत्ता को प्राप्त कर लेता है, तो ज्ञानमार्ग की प्रथम प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है । यही वह एकमात्र प्रक्रिया है जो ज्ञानयोग के परम्परागत लक्ष्य के लिये, लय के लिये, जागतिक सत्ता से पलायन के लिये, समस्त जगत्सत्ता के परे अवस्थित पूर्ण और अनिर्वचनीय परब्रह्म में मुक्त होने के लिये नितान्त अनिवार्य है । इस चरम मुक्ति का अभिलाषी साधक अपने मार्ग में अन्य साक्षात्कारों को भी प्राप्त कर सकता है, जगत् के प्रभु का, सब प्राणियों में अपने--आपको प्रकट करनेवाले 'पुरुष' का साक्षात्कार कर सकता है, विराट् चेतना प्राप्त कर सकता है, सब भूतों के साथ अपनी एकता का ज्ञान और अनुभव प्राप्त कर सकता है; परन्तु ये उसकी यात्रा की क्रमिक अवस्थाएं या परिस्थितियांमात्र हैं, जैसे--जैसे उसकी आत्मा अपने अवर्णनीय लक्ष्य के अधिकाधिक निकट पहुंचती है वैसे--वैसे ये साक्षात्कार इसके विकास के परिणामों के रूप में प्रकट होते हैं । इन सबको अतिक्रम कर जाना ही उसका सर्वोच्च लक्ष्य है । दूसरी ओर, जब हम मुक्ति, नीरवता और शान्ति को प्राप्त करके विराट् चेतना के द्वारा सक्रिय तथा निश्चल-नीरव ब्रह्म को पुन: उपलब्ध कर लें और दिव्य मुक्ति में सुरक्षित रूप से निवास तथा विश्राम कर सकें तो समझना चाहिये कि हम इस मार्ग की दूसरी प्रक्रिया पूरी कर चुके हैं जिसके द्वारा मुक्त आत्मा आत्मज्ञान की पूर्णता मे स्थिर रूप से प्रतिष्ठित हों जाती है ।

 

   इस प्रकार हमारी आत्मा अपनी सत्ता के सभी व्यक्त-स्तरों पर सच्चिदानन्द के एकत्व में अपने-आपको प्राप्त कर लेती है । पूर्ण ज्ञान का विशेष लक्षण यह है कि वह सब वस्तुओं को सच्चिदानन्द में एकीभूत कर देता है, क्योंकि 'सत्' केवल अपने-आपमें ही एक नहीं है, बल्कि वह सभी जगह अपनी सब स्थितियों में तथा अपने प्रत्येक रूप में भी एक है, जैसे अपने एकत्व के अधिकतम आविर्भाव में वैसे ही बहुत्व के अधिकतम प्राकटय में भी वह एक ही रहता है । परम्परागत ज्ञान जहां इस सत्य को सिद्धान्त-रूप में स्वीकार करता है वहां क्रियात्मक रूप में वह फिर भी यों तर्क करता है मानों एकत्व सब जगह एकसमान न हो या सबमें समान रूप से अनुभव न किया जा सकता हो । वह उसे अव्यक्त ब्रह्म में तो पाता है, पर

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अभिव्यक्ति में उतना नहीं, सव्यक्तिक की अपेक्षा निर्व्यक्तिक ब्रह्म में इसे अधिक शुद्ध रूप में पाता है, निर्गुण में इसे पूर्ण रूप में पाता है, सगुण में उतने पूर्ण रूप में नहीं, शान्त एवं निष्क्रिय ब्रह्म में तो उसे सन्तोषजनक रूप में उपस्थित पाता है, पर सक्रिय ब्रह्म में उतने सन्तोषजनक रूप में नहीं । अतएव, वह निरपेक्ष ब्रह्म के इन सब अन्य रूपों को आरोहण की क्रमशृंखला में इनके विरोधी रूपों के नीचे स्थान देता है और उन्हें अन्तिम रूप से त्याग देने के लिये ऐसा आग्रह करता है मानों यह पूर्ण साक्षात्कार के लिये अनिवार्य ही हो । पूर्ण ज्ञान ऐसा कोई भेद नहीं करता; यह एकत्व के साक्षात्कार में एक भिन्न प्रकार की निरपेक्ष 'केवल' सत्ता को प्राप्त करता है । यह अव्यक्त और व्यक्त में, निर्व्यक्तिक और सव्यक्तिक में, निर्गुण और सगुण में, विराट् नीरवता की अनन्त गहराई और विराट् कर्म की अनन्त विशालता में एक-सी एकता को देखता है । यह पुरुष और प्रकृति में, दिव्य उपस्थिति में तथा दिव्य शक्ति और ज्ञान के कार्यों में, एकमेव पुरुष की सनातन व्यक्तता में तथा अनेक पुरुषों की सतत अभिव्यक्ति में इसी निरपेक्ष एकता को देखता है । जो अपनी बहुविध एकता को अपने प्रति निरन्तर जीवन्त रखते हैं ऐसे सच्चिदानन्द की अविच्छेद्य एकता में तथा जिनमें एकता गुप्त रूप में ही सही, पर सतत जीवन्त है तथा सतत ही प्राप्त करने योग्य है, ऐसे मन, प्राण और शरीर के दृश्यमान भेदों में यह इसी एकता का साक्षात्कार करता है । इसके लिये समस्त एकता एक ही दिव्य और सनातन सत्ता का गहन, शुद्ध एवं अनन्त साक्षात्कार है और समस्त भेद उसी सत्ता का प्रचुर, समृद्ध एवं असीम साक्षात्कार ।

 

   अतएव, एकता का पूर्ण साक्षात्कार समग्र ज्ञान और पूर्णयोग का सार है । सच्चिदानन्द को अपने-आपमें तथा अपनी समस्त अभिव्यक्ति में एकरूप जानना ही ज्ञान का आधार है; एकता के इस साक्षात्कार को चेतना की स्थितिशील और क्रियाशील दोनों अवस्थाओं के लिये वास्तविक बनाना और पृथक् व्यक्तित्व की भावना को मूल सत्ता तथा सब सत्ताओं के साथ एकता की भावना में डुबाकर एकत्वमय बन जाना ही ज्ञानयोग में इस साक्षात्कार का क्रियान्वित रूप है; एकता की इस भावना में जीना, इसका चिन्तन और अनुभव करना, इसके अनुसार संकल्प और कार्य करना ही व्यक्तिगत सत्ता और व्यक्तिगत जीवन में इसकी क्रियात्मक सिद्धि है । एकता का यह साक्षात्कार तथा भिन्नता में एकता का यह अभ्यास ही योग का सर्वस्व है ।

 

   सत्ता की किसी भी स्थिति या भूमिका में क्यों न हों सच्चिदानन्द अपने-आपमें एक हैं । अतएव, इसीको हमें चेतना या शक्ति या सत्ता की किंवा ज्ञान या संकल्प या आनन्द की समस्त क्रियान्विति का आधार बनाना होगा । हम देख ही चुके हैं कि हमें उन निरपेक्ष ब्रह्म की चेतना में निवास करना होगा जो विश्वातीत हैं और साथ ही विश्व के सब सम्बन्धों में अभिव्यक्त भी हैं, निर्व्यक्तिक हैं और सब

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व्यक्तित्वों के रूप में प्रकट भी हैं, सब गुणों से परे हैं तथा अनन्त गुणों से समृद्ध भी हैं, है एक ऐसी नीरवता हैं जिसमें से सनातन शब्द सृजन करता है, एक ऐसी दिव्य स्थिरता एवं शान्ति हैं जो असीम हर्ष और असीम क्रिया में अपने--आपको धारण किये रहती है । हमें उनकी उपलब्धि इस रूप में करनी होगी कि वे पुरुष के रूप में सबके ज्ञाता और अनुमन्ता हैं, शासक और धारक हैं, भर्त्ता और अन्तर्विधाता हैं और साथ ही प्रकृति के रूप में समस्त ज्ञान, संकल्प और रूप-रचना को कायान्वित भी करते हैं । हमें उनका साक्षात्कार इस रूप में करना होगा कि वे एकमेव सत्ता हैं, ऐसे सत् हैं जो अपनी सत्ता में समाहित हैं और साथ ही सब सत्ताओं में प्रकट भी हो रहे हैं; वे एक ऐसी एकमेव चेतना हैं जो अपनी सत्ता की एकता में एकाग्र है, विश्व-प्रकृति में फैली हुई है तथा अगणित जीवों में अनेक केन्द्रों के रूप में विद्यमान है; वे एक ऐसी एकमेव शक्ति हैं जो अपनी आत्म--समाहित चेतना की विश्रान्ति में स्थितिशील है और अपनी विस्तृत चेतना की सक्रियता में गतिशील; वे एक ऐसा एकमेव आनन्द हैं जो अपनी अलक्षण अनन्तता से आनन्दमय रूप में सचेतन है तथा समस्त लक्षणों, शक्तियों और रूपों को अपनी सत्ता जानता दुआ उनसे भी आनन्दमय रूप में सचेतन है; वे एक ही सर्जनशील ज्ञान एवं शासक संकल्प हैं जो अतिमानसिक है, तथा सब मनों, प्राणों और शरीरों को उत्पन्न एवं निर्धारित करता है; वे एक ही विराट् मन हैं जो सब मनोमय सत्ताओं को अपने अन्दर समाये है और उनकी सब मानसिक क्रियाओं का गठन करता है; है एक ही विराट् प्राण हैं जो सभी सजीव सत्ताओं में क्रियाशील है तथा उनकी प्राणिक क्रियाओं का जनक है; वे एक ही उपादान-तत्त्व हैं जो सब रूपों तथा पदार्थों को एक ऐसे प्रत्यक्ष एवं इन्द्रियगोचर सांचे के रूप में निर्मित करता है जिसमें मन और प्राण व्यक्त होते तथा कार्य करते हैं, जिस प्रकार कि एकमेव शुद्ध सत्ता वह आकाशतत्त्व है जिसमें समस्त चिन्मय-शक्ति और आनन्द एक होकर रहते हैं तथा अपने-आपको नाना रूपों में प्राप्त करते हैं । क्योंकि ये सच्चिदानन्द की व्यक्त सत्ता के सात मूलतत्त्व हैं ।

 

   सर्वांगीण ज्ञानयोग को इस अभिव्यक्ति के दोहरे स्वरूप को हृदयंगम करना होगा,--क्योंकि एक तो है सच्चिदानन्द की उच्चतर प्रकृति जिसमें वे हमें उपलब्ध होते हैं और दूसरी है मन, प्राण तथा शरीर की निम्नतर प्रकृति जिसमें वे हमसे छुपे रहते हैं,--सर्वांगीण ज्ञानयोग को इन दोनों को प्रदीप्त साक्षात्कार की एकता में समन्वित तथा एकीभूत करना होगा । हमें इनको इस प्रकार पृथक् नहीं रहने देना होगा कि हम एक तरह का दोहरा जीवन बिताते रहें जो अन्तर में या ऊर्ध्व में तो आध्यात्मिक हो तथा हमारे सक्रिय और पार्थिव अस्तित्व में मानसिक तथा भौतिक; हमें तो निम्नतर जीवन को उच्चतर सद्वस्तु की ज्योति, शक्ति और आनन्द के उस दृष्टिकोण से पुनः देखना तथा उसे उसीके अनुसार ढालना होगा । हमें अनुभव

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करना होगा कि जड़तत्त्व आत्मा का इन्द्रिय-रचित सांचा है, अर्थात् पार्थिव सत्ता और क्रिया की उच्चतम अवस्थाओं में सच्चिदानन्द की ज्योति, शक्ति और आनन्द की किसी प्रकार की भी अभिव्यक्ति करने के लिये एक साधन है । हमें यह देखना होगा कि प्राण अनन्त दिव्य शक्ति के प्रवाह के लिये एक प्रणालिका है, और हमारे प्राण तथा दिव्य शक्ति के बीच हमारी इन्द्रियों और मन ने दूरी और भेद की जो दीवार खड़ी कर रखी है उसे तोड़ गिराना होगा, ताकि वह दिव्य शक्ति हमारी सभी प्राणिक क्रियाओं को अपने अधिकार में लाकर उन्हें संचालित तथा परिवर्तित कर सके जिससे कि अन्त में हमारा प्राण रूपान्तरित होकर आज की तरह मन और शरीर को धारण करनेवाली सीमित प्राण-शक्ति रहना छोड़ दे और सच्चिदानन्द की आनन्दपूर्ण चिच्छक्ति की प्रतिमा बन जाय । इसी प्रकार हमें अपने सम्वेदनात्मक और भावप्रधान मन को दिव्य प्रेम और विराट् आनन्द की लीला का रूप दे देना होगा; और हमें अपने अन्दर ज्ञान की प्राप्ति तथा संकल्प के प्रयोग के लिये प्रयत्न करनेवाली बुद्धि को दिव्य

ज्ञान-संकल्प की ज्योति से परिपूरित करना होगा जिससे कि अन्त में वह इस उच्चतर और महान् क्रिया की प्रतिमूर्ति में रूपान्तरित हो जाय ।

 

   यह रूपान्तर तबतक पूर्ण या वस्तुत: साधित नहीं हो सकता जबतक हमारे अन्दर सत्य-चेतन मन जागरित नहीं हो जाता, क्योंकि मनोमय प्राणी में यह सत्य-चेतन मन ही अतिमानस से सम्पर्क रखता है तथा इसकी ज्ञानरश्मियों को मानसिक रूप में ग्रहण कर सकता है । जबतक आत्मा और मन को जोड़नेवाली यह मध्यवर्ती शक्ति मुक्त रूप से नहीं खुल जाती तबतक इनके परस्पर-विरोध के कारण उच्चतर और निम्नतर ये दोनों प्रकृतियां स्व-दूसरी से पृथक् रहती हैं, और यद्यपि उच्चतर भूमिका से निम्नतर को सन्देश प्राप्त हो सकता है तथा इसपर उसका प्रभाव भी पड़ सकता है अथवा एक प्रकार की ज्योतिर्मय या आनन्दमग्न समाधि में निम्नतर प्रकृति ऊपर उठकर उच्चतर के अधिकार में आ सकती है तथापि इससे निम्नतर प्रकृति का पूर्ण और सर्वांगीण रूपान्तर नहीं हो सकता । जड़तत्त्व और इसके समस्त रूपों में विद्यमान आत्मा को, समस्त भावावेग और सम्वेदन में निहित दिव्य आनन्द को, समस्त प्राणिक क्रियाओं के पीछे विद्यमान दिव्य शक्ति को हम भावप्रधान मन के द्वारा अपूर्ण रूप में अनुभव कर सकते हैं, इन्द्रियाश्रित मन के द्वारा इसका बोध प्राप्त कर सकते हैं अथवा बुद्धिप्रधान मन के द्वारा इनकी परिकल्पना एवं प्रत्यक्ष अवधारणा कर सकते हैं; परन्तु निम्नतर सत्ता अपनी प्रकृति को फिर भी बनाये रखेगी तथा ऊपर से आनेवाले प्रभाव की क्रिया को सीमित तथा विभाजित और उसके स्वरूप को परिवर्तित कर देगी । जब यह प्रभाव उच्चतम, विस्तृततम तथा तीव्रतम रूप में शक्तिशाली हों जायेगा तब भी सक्रिय अवस्था में यह अनियमित एवं अव्यवस्थित ही रहेगा और इसका पूर्ण अनुभव तो केवल स्थिरता और शान्ति की अवस्था में ही होगा; जब यह हमसे दूर

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हट जायगा तब हम प्रतिक्रियाओं और तमोग्रस्त अवस्थाओं के वश में हो जायेंगे; साधारण जीवन तथा उसके बाह्य स्पर्शों का दबाव पढ़ने पर एवं इसके द्वंद्वों से आक्रान्त होने पर हम स्वभावत: ही इसे भूल जायेंगे और केवल एकान्त में आत्मा एवं परमात्मा के सान्निध्य में, या फिर अत्युच्च ऊर्ध्वगमन एवं हर्षोंल्लास के क्षणों या समयों में ही हम इसे पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकेंगे । कारण, हमारा मन जो एक परिसीमित क्षेत्र में क्रिया करनेवाला तथा अंशों एवं खण्डों के द्वारा वस्तुओं को जाननेवाला सीमित यन्त्र है, स्वाभाविक रूप से अस्थिर, चंचल और विकारी है; अपने कार्यक्षेत्र को सीमित करके ही यह स्थिरता लाभ कर सकता है और निवृत्ति तथा विश्रान्ति के द्वारा ही निश्चलता प्राप्त कर सकता है ।

 

   दूसरी ओर हमें सत्य के जो प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं वे अतिमानस से ही प्राप्त होते हैं । अतिमानस का अर्थ हैं शानपूर्ण संकल्प एवं फलोत्पादक ज्ञान । यह अनन्तता में से वैश्व व्यवस्था का सृजन करता है । वेद में कहा गया है कि जब यह जागरित होकर सक्रिय हो उठता है तो द्युलोक की अबाध धारा को, ज्योति, शक्ति और आनन्द के ऊर्ध्ववर्ती सागर से सात सरिताओं के परिपूर्ण प्रवाह को, उतार लाता है । यह हमें सच्चिदानन्द का साक्षात्कार करा देता है । यह हमारे मन के विकीर्ण तथा असम्बद्ध सुझावों के पीछे विद्यमान सत्य को प्रकाशित कर देता है और उनमें से प्रत्येक को इस सत्य की एकता में अपने-अपने स्थान पर विन्यस्त कर देता हैं; इस प्रकार यह हमारे मनों की अपूर्ण ज्योति को एक प्रकार की पूर्ण ज्योति में रूपान्तरित कर सकता है । यह हमारे मानसिक संकल्प, आवेशपूर्ण इच्छाओं और प्राणिक प्रयत्नों के समस्त भ्रान्त एवं अपूर्णत: व्यवस्थित संघर्ष के पीछे विद्यमान संकल्प-शक्ति को प्रकाशित कर देता है और उनमें से प्रत्येक को इस ज्योतिर्मय संकल्प-शक्ति की एकता में अपने-अपने स्थान पर विन्यस्त कर देता है; इस प्रकार यह हमारे प्राण और मन के अर्द्ध-अन्धकारमय संघर्ष को व्यवस्थित शक्ति की एक प्रकार की समग्रता में रूपान्तरित कर सकता है । यह उस आनन्द को हमारे सम्मुख प्रकाशित कर देता है जिसे हमारा प्रत्येक सम्वेदन एवं भावावेग अन्धवत् खोज रहा है और जिसे पाने की चेष्टा करते हुए हमारे सभी संवेदन एवं भावावेग अंशत: गृहीत सन्तोष की या फिर असन्तोष, दुःख, वेदना या उदासीनता की गतियों का अनुभव करके उससे पीछे आ पड़ते हैं, और यह उनमें से प्रत्येक को पीछे अवस्थित विराट् आनन्द की एकता में उसका अपना स्थान प्राप्त करा देता है; इस प्रकार यह हमारे द्वंद्वपूर्ण आवेशों और संवेदनों के विरोध को शान्त, पर गहन और शक्तिशाली प्रेम और आनन्द की एक प्रकार की समग्रता में रूपान्तरित कर सकता है । और, फिर, विराट्कर्म का साक्षात्कार कराकर यह हमें सत्ता का वह सत्य दिखा देता है जिसमें से इसकी प्रत्येक क्रिया उत्पन्न होती है और जिसे लक्ष्य करके प्रत्येक क्रिया प्रगति करती है, यह उस कार्य-साधक शक्ति को हमारे

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सामने प्रकट कर देता है जिसे प्रत्येक क्रिया अपने संग वहन करती है, साथ ही यह सत्ता के उस आनन्द के भी दर्शन करा देता है जिसके लिये तथा जिससे प्रत्येक क्रिया उत्पन्न होती है, यह सबका सम्बन्ध सच्चिदानन्द की विराट् सत्ता, चेतना, शक्ति और आनन्द के साथ जोड़ देता है । इस प्रकार यह हमारे लिये सत्ता के सभी विरोधों, द्वैतभावों और विपर्ययों को सुसंगत करके उनके अन्दर हमें एकमेव तथा अनन्त के दर्शन करा देता है । इस अतिमानसिक ज्योति में उन्नीत होकर सुख, दुःख और उदासीनता--ये सभी एक ही स्वयम्भू आनन्द के उल्लास में परिवर्तित होने लगते हैं, क्षमता और दुर्बलता तथा सफलता और विफलता एक ही स्वयं-समर्थ शक्ति और संकल्प के रूपों में, सत्य और अनृत तथा ज्ञान और अज्ञान एक ही अनन्त आत्म-संवित् तथा विश्व-ज्ञान की ज्योति में, सत्ता का विकास और ह्रास, बन्धन और उससे मुक्ति--ये सब अपने-आपको चरितार्थ करनेवाली एक ही चिन्मय सत्ता की तरंगों के रूप में परिवर्तित होने लगते हैं । हमारा समस्त जीवन तथा हमारी समस्त मूत्र सत्ता सच्चिदानन्द की प्राप्ति-रूप हो जाती है ।

 

   इस सर्वांगीण ज्ञान की पद्धति से हम ज्ञान, कर्म और भक्ति के तीन मार्गों के अपने नियत लक्ष्यों की एकता पर पहुंच जाते हैं । ज्ञान का लक्ष्य है वास्तविक स्वयम्भू सत्ता का साक्षात्कार, कर्मों का लक्ष्य है उस दिव्य चित्तपस् का साक्षात्कार जो सब कर्मों पर गुप्त रूप से शासन करता है, भक्ति का लक्ष्य है उस आनन्द का साक्षात्कार जो प्रेमी के रूप में सब प्राणियों, और सर्वभूतों की सत्ता का रसास्वादन करता है,--इन लक्ष्यों को हम सद चित्तपस् और आनन्द का नाम दे सकते हैं । अतएव, त्रिमार्ग में से प्रत्येक का लक्ष्य सच्चिदानन्द को उसकी त्रिविध दिव्य प्रकृति के किसी एक या दूसरे पक्ष के द्वारा प्राप्त करना है । ज्ञान के द्वारा हम सदा ही अपनी सच्ची, सनातन, अक्षर सत्ता को प्राप्त करते हैं, उस स्वयम्भु सत् को प्राप्त करते हैं जिसे विश्व का प्रत्येक 'अहम्' अस्पष्ट रूप से प्रकट करता है, और तब हम 'सोऽहम्' अर्थात् 'मैं वह हूं' के महत् साक्षात्कार में द्वैतभाव का उच्छेद कर देते हैं जब कि हम अन्य सब भूतों के साथ अपना एकत्व भी प्राप्त कर लेते हैं ।

 

   पर इसके साथ ही पूर्ण ज्ञान हमें यह चेतना प्रदान करता है कि यह अनन्त सत्ता एक चिन्मय शक्ति है जो लोकों का सृजन तथा परिचालन करती है तथा इनके कार्यों में अपने-आपको व्यक्त करती है; यह अपनी विराट् चिच्छक्ति से युक्त स्वयम्भु ब्रह्म को हमारे सम्मुख प्रभु किंवा ईश्वर के रूप में प्रकाशित करता है । यह हमें अपने संकल्प को उनके संकल्प के साथ एक करने, सब भूतों की शक्तियों में कार्य करते हुए उनके संकल्प का साक्षात्कार करने तथा दूसरों की इन शक्तियों की चरितार्थता को अपनी विराट् आत्म-चरितार्थता का अंग अनुभव करने की सामर्थ्य प्रदान करता है । इस प्रकार इससे कलह, द्वैतभाव और विरोध की

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वास्तविकता दूर हो जाती है और केवल इनकी प्रतीतिभर शेष रह जाती है । अतएव, इस ज्ञान से हम दिव्य कर्म करने में समर्थ बन जाते हैं, एक ऐसा कर्म जो हमारी प्रकृति के लिये वैयक्तिक होता है, पर हमारी सत्ता के लिये निर्व्यक्तिक, क्योंकि यह उस तत् से उद्भूत होता है जो हमारे अहं से परे है और उसकी वैश्व अनुभूति के द्वारा ही क्रिया करता है । हम अपने कर्मों में समता के साथ प्रवृत्त होते हैं, अर्थात् कर्मों और उनके परिणामों से बद्ध हुए बिना, परात्पर और विराट् प्रभु के साथ एकस्वर होकर, अपने कर्मों के पृथक् दायित्व से मुक्त होकर और अतएव उनकी प्रतिक्रियाओं से प्रभावित हुए बिना उनमें अग्रसर होते हैं । हम देख ही आये हैं कि यह कर्ममार्ग की परिपूर्णता है, यही उक्त प्रकार से ज्ञानमार्ग का आनुषंगिक फल एवं परिणाम बन जाती है । और फिर, पूर्ण ज्ञान स्वयम्भु ब्रह्म को हमारे सामने आनन्दस्वरूप ईश्वर के रूप में प्रकाशित करता है । जिस प्रकार वह आनन्दस्वरूप ईश्वर सच्चिदानन्द के रूप में जगत् को तथा सब प्राणियों को व्यक्त करता हुआ उनके अभीप्सात्मक कार्यों और उनकी ज्ञान की खोजों को स्वीकार करता है उसी प्रकार वह उनकी भक्ति को भी स्वीकार करता है, उनकी ओर करुणापूर्वक झुकता है और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करके सबको अपनी दिव्य सत्ता के आनन्द के भीतर खींच ले जाता है । उसे अपना दिव्य आत्मा जानकर हम आलिंगन के दिव्यानन्द में उसके साथ एक हो जाते हैं जिस प्रकार प्रेमी और प्रियतम आलिंगन के आनन्द में उसके  के साथ एक हो जाते हैं जिसे प्रकार प्रमी और प्रियतम आलिंगन के आनन्द में एक-दुसरे के साथ एक हो जाते हैं । साथ ही उसे सर्वभूतों में जानकर, सर्वत्र प्रियतम की महिमा को, उसके सौन्दर्य और आनन्द को निहारकर हम अपनी आत्माओं को विराट् आनन्द के आवेश तथा विराट् प्रेम के विशाल भाव और हर्ष में रूपान्तरित कर देते हैं । जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, यह सब भक्तिमार्ग की पराकाष्ठा है, ज्ञानमार्ग में भी यह एक आनुषंगिक फल एवं परिणाम के रूप में स्वयमेव प्राप्त हो जाता है ।

 

   इस प्रकार पूर्ण ज्ञान के द्वारा हम सभी वस्तुओं को एकमेव ब्रह्म में एकीभूत कर देते हैं । हम विश्व-संगीत के सभी स्वरों को स्वीकार करते हैं, चाहे वे सुरीले हों या बेसुरे, अपनी अर्थ-ध्वनि में स्पष्ट हों या अस्पष्ट, तीव्र हों या मन्द, श्रुत हों या अश्रुत; स्वीकार करते ही हम उन सबको सच्चिदानन्द की अखण्ड समस्वरता में रूपान्तरित और सुसमन्वित पाते हैं । यह ज्ञानशक्ति और आनन्द को भी प्राप्त कराता है । ''जो सब जगह एकत्व ही देखता है उसे भला मोह क्योंकर होगा, शोक कहां से होगा?''

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