योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २

 

ज्ञान की भूमिका

 

सुतरां आत्मा, भगवानन परम सद्वस्तु सर्व, परात्पर, --इन सब पक्षों से युक्त 'एकं सत्' ही यौगिक ज्ञान का लक्ष्य है । साधारण पदार्थ, प्राण और जड़तत्त्व के बाह्य रूप, हमारे विचारों और कर्मों का मनोविज्ञान, दृश्यमान जगत् की शक्तियों का बोध--ये सब ज्ञान के अंग बन सकते हैं, पर केवल वहीं तक जहां तक ये एकमेव की अभिव्यक्ति के अंग हैं । इससे यह तुरन्त स्पष्ट हो जाता है कि जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिये योग पुरुषार्थ करता है वह उससे भिन्न है जो कुछ कि मनुष्य साधारणतया 'ज्ञान' शब्द से समझते हैं । क्योंकि, सामान्यतया ज्ञान से हमारा मतलब प्राण, मन और जड़तत्त्व के तथ्यों एवं उन्हें नियन्त्रित करनेवाले नियमों के बौद्धिक विवेचन से होता है । यह एक ऐसा ज्ञान है जो हमारे इन्द्रियबोध पर तथा इन्द्रियबोधों के आधार पर किये गये तर्क पर आधारित होता है और इसका अनुसरण कुछ तो निरी बौद्धिक तृप्ति के लिये किया जाता है और कुछ व्यावहारिक कुशलता तथा उस आन्तरिक क्षमता के लिये जिसे ज्ञान हमें अपने तथा दूसरों के जीवनों की व्यवस्था करने तथा प्रकृति की प्रकट या गुप्त शक्तियों को मानवीय उद्देश्यों के हित उपयोग में लाने के लिये किंवा अपने साथी मनुष्यों को सहायता या हानि पहुंचाने अथवा उनकी रक्षा एवं उन्नति करने या उन्हें सताने और नष्ट करने के लिये प्रदान करता है । निःसंदेह योग समस्त जीवन के समान ही व्यापक है और इन सब विषयों तथा पदार्थों को अपने अन्दर समाविष्ट कर सकता है । यहांतक कि एक ऐसा योग भी है जो स्व-तुष्टि के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है और साथ ही आत्म-विजय के लिये भी, दूसरों को हानि पहुंचाने के लिये भी तथा उनका उद्धार करने के लिए भी । परन्तु 'समस्त जीवन' के अन्तर्गत केवल यह जीवन ही, जैसा कि मानवजाति आज इसे बिताती है, नहीं आता; यह भी नहीं कि इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से यही आता हो । बल्कि ''समस्त जीवन'' एक उच्चतर, एवं वस्तुतः सचेतन जीवन को अपनी दृष्टि में रखता है और उसे अपना एकमात्र सच्चा उद्देश्य मानता है । हमारी अर्द्ध-चेतन मानवता ने अभीतक उस जीवन को अधिकृत नहीं किया है और वह 'स्व' को अतिक्रम करनेवाले आध्यात्मिक आरोहण के द्वारा ही उसतक पहुंच सकती है । यह महत्तर चेतना एवं उच्चतर जीवन ही योग-साधना का विशिष्ट एवं उपयुक्त लक्ष्य है ।

 

      योग शक्ति का विकास करता है, यह तब भी इसका विकास करता है जब कि हम इसे नहीं चाहते या जब हम सचेत रूप से इसे अपना लक्ष्य नहीं बनाते; और शक्ति सदा ही एक दुधारा शस्त्र होती है जो हानि पहुंचाने या विनाश करने के लिये भी काम में लाया जा सकता है और सहायता एवं रक्षा करने के लिये भी । यह भी ध्यान में रहे कि समस्त विनाश अशुभ ही नहीं होता ।

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      यह महत्तर चेतना एवं यह उच्चतर जीवन कोई ऐसा प्रबुद्ध या ज्ञानदीप्त मन नहीं है जिसे महत्तर क्रियाशील शक्ति का पोषण प्राप्त हो या जो शुद्धतर नैतिक जीवन एवं चरित्र को प्रश्रय देता हो । साधारण मानव-चेतना से इनकी उत्कृष्टता मात्रा में नहीं, बल्कि गुण-धर्म और सारतत्त्व में हैं ।  इनमें हमारी सत्ता के बाह्य ढंग या यन्त्रात्मक प्रणाली का ही नहीं, बल्कि इसके असली आधार तथा क्रियाशील तत्त्व तक का भी परिवर्तन हो जाता है । यौगिक ज्ञान मन से परे की उस गुफा चेतना में प्रविष्ट होने का यत्न करता है जो यहां केवल गुह्य रूप में ही विद्यमान है तथा सत्तामात्र के आधार में छुपी हुई है । कारण, एकमात्र वही चेतना यथार्थ ज्ञान से युक्त है और उसे प्राप्त करके ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं और जगत् का तथा उसकी वास्तविक प्रकृति एवं गुप्त शक्तियों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । यह सब जगत् जो हमारे लिये दृश्य या इन्द्रियगोचर है तथा इसके अन्दर का वह सब भी जो दृश्य नहीं है किसी ऐसी वस्तु की नाम-रूपात्मक अभिव्यक्तिमात्र है जो मन और इन्द्रियों से परे है । इन्द्रियां तथा उनके द्वारा प्रस्तुत सामग्री के आधार पर की जानेवाली बौद्धिक तर्कणा हमें जो ज्ञान प्रदान कर सकती हैं वह यथार्थ ज्ञान नहीं होता; वह तो प्रतीतियों की विद्या होती हैं । और, प्रतीतियों का भी सम्यक् ज्ञान तबतक प्राप्त नहीं हो सकता जबतक हम पहले उस सद्वस्तु को नहीं जान लेते जिसकी वे प्रतिमाएं हैं । यह सद्वस्तु ही उनकी आत्मा है और सब की आत्मा एक ही है; जब उसे अधिकृत कर लिया जाता है तब अन्य सब वस्तुओं को आज की भांति उनके प्रतीयमान रूप में ही नहीं, बल्कि सत्य रूप में जाना जा सकता है ।

 

     यह प्रत्यक्ष है कि भौतिक और इन्द्रियगोचर .पदार्थो का हम चाहे कितना ही अधिक विश्लेषण क्यों न कर लें, उसके द्वारा हम आत्म-तत्त्व का या अपने-आपका या जिसे हम ईश्वर कहते हैं उसका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते । दूरवीक्षण, अणुवीक्षण, नश्तर, शुण्डायन्त्र तथा भबका-यन्त्र भौतिक तत्त्व से परे नहीं जा सकते, यद्यपि भौतिक पदार्थ के विषय में ये अधिकाधिक सूक्ष्म सत्यों पर पहुंच सकते हैं । अतएव, यदि हम अपनेको उसीतक सीमित रखें जो कुछ कि इन्द्रियों और उनके भौतिक साधनोपकरण हमारे सामने प्रकाशित करते हैं और यदि हम किसी अन्य सद्वस्तु को या ज्ञान के किसी अन्य साधन को आरम्भ से ही अस्वीकार कर दें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये बाध्य होंगे कि ' भौतिक' के सिवाय और कुछ भी वास्तविक नहीं है और हममें या विश्व में कोई आत्मा नहीं है. अन्दर और बाहर कहीं भी कोई ईश्वर नहीं है, यहांतक कि स्वयं हम भी मस्तिष्क, स्नायुपुंज और देह के इस संघात के सिवाय और कुछ नहीं हैं । परन्तु ऐसा परिणाम निकालने के लिये हम केवल इस कारण बाध्य हुए हैं कि हमने इसे आरम्भ से ही पक्का मान लिया है और इसलिये अपनी मूल धारणा के चारों ओर चक्कर काटे बिना हम नहीं रह सकते ।

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सुतरां, यदि कोई ऐसा आत्मा किवा सद्वस्तु है जो इन्द्रियों के लिये प्रत्यक्ष नहीं है तो उसे भौतिक विज्ञान के साधनों से भिन्न किसी अन्य साधन के द्वारा ही खोजना और जानना होगा, और बुद्धि वह साधन नहीं है । निःसन्देह ऐसे अनेक अतीन्द्रिय सत्य हैं जिनपर बुद्धि अपने तरीके से पहुंच सकती है और जिन्हें यह बौद्धिक परिकल्पनाओं के रूप में देख तथा निरूपित कर सकती है । उदाहरणार्थ, स्वयं शक्ति का विचार भी जिसपर विज्ञान इतना आग्रह करता है एक ऐसी परिकल्पना एवं सत्य है जिसपर केवल बुद्धि ही अपनी ज्ञात सामग्री से परे जाकर पहुंच सकती है, क्योंकि हम इस वैश्व शक्ति को नहीं, बल्कि इसके परिणामों को ही अनुभव करते हैं, और स्वयं इस शक्ति को हम इन परिणामों के एक आवश्यक कारण के रूप में ही अनुमित करते हैं । इसी तरह, बुद्धि एक प्रकार की कठोर विश्लेषण-पद्धति का अनुसरण करके आत्मविषयक एक बौद्धिक परिकल्पना एवं बौद्धिक विश्वास पर पहुंच सकती है और यह विश्वास अन्य एवं महत्तर वस्तुओं के आरम्भ के रूप में अत्यन्त वास्तविक, अत्यन्त प्रकाशमय एवं अत्यन्त शक्तिशाली हो सकता है । तथापि बौद्धिक विश्लेषण अपने-आपमें, स्पष्ट परिकल्पनाओं की व्यवस्था और शायद यथार्थ परिकल्पनाओं की ठीक व्यवस्था की ओर ही ले जा सकता है; परन्तु यह वह ज्ञान नहीं हैं जो योग का लक्ष्य है । कारण, यह अपने- आपमें कोई फलप्रद ज्ञान नहीं है । मनुष्य इसमें पूर्ण हो सकता है और फिर भी वह ठीक वैसा ही रह सकता है जैसा वह पहले था । हां, इतनी बात अवश्य है कि इससे वह एक महत्तर बौद्धिक प्रकाश प्राप्त कर सकता है । परन्तु सम्भव है कि हमारी सत्ता के जिस परिवर्तन को योग अपना लक्ष्य बनाता है वह बिल्कुल ही सम्पन्न न हो ।

 

     यह सच है कि बौद्धिक विचार-विमर्श और यथार्थ विवेक ज्ञानयोग का महत्त्वपूर्ण अंग है; पर इनका लक्ष्य इस पथ के अन्तिम एवं निश्चयात्मक परिणाम पर पहुंचने की अपेक्षा कहीं अधिक पथ की कठिनाई को दूर करना ही है । हमारी साधारण बौद्धिक धारणाएं ज्ञान के मार्ग में बाधक हैं; क्योंकि वे इन्द्रियों की भ्रान्ति के वशीभूत हैं और इस विचार को अपना आधार बनाती हैं कि जड़तत्त्व एवं देह वास्तविक सत्ता हैं और प्राण एवं शक्ति, हृदयावेग एवं भावावेश तथा विचार एवं इन्द्रियानुभव वास्तविक सत्ताएं हैं; इन वस्तुओं के साथ हम अपने-आपको तदाकार कर लेते हैं, हम इनसे पीछे हटकर वास्तविक आत्मा तक नहीं पहुंच सकते । अतएव, ज्ञान के अन्वेषक के लिये यह आवश्यक है कि वह इस बाधा को दूर करे और अपने तथा जगत् के सम्बन्ध में यथार्थ धारणाओं को प्राप्त करे, क्योंकि ज्ञान के द्वारा वास्तविक आत्मा का अनुसरण हम भला करेंगे ही कैसे यदि हमें उसके स्वरूप की कुछ भी धारणा न हो और, इसके विपरीत, यदि हम ऐसे विचारों के बोझ से दबे हुए हों जो सत्य के सर्वथा विरोधी हैं ? अतएव, यथार्थ विचार

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एक आवश्यक पूर्वसाधन है और एक बार जब यथार्थ विचार का अभ्यास स्थिर रूप से डाल लिया जाता है, ऐसे विचार का जो इन्द्रिय-भ्रम, कामना, पूर्व-संस्कार और बौद्धिक पूर्व-निर्णय से मुक्त हो, तो बुद्धि शुद्ध हो जाती है और ज्ञान की अगली क्रिया में कोई गम्मीर बाधा नहीं उपस्थित करती । तथापि यथार्थ विचार तभी कार्यकर होता है जब शुद्ध बुद्धि में इसके अनंतर अन्य क्रियाएं अर्थात् अन्तर्दृष्टि, अनुभूति तथा उपलब्धि भी सक्रिय हो उठती हैं ।

 

     ये क्रियाएं क्या हैं ? ये निरा मनोवैज्ञानिक स्व-विश्लेषण और स्व-निरीक्षण नहीं हैं । ऐसा विश्लेषण और ऐसा निरीक्षण भी यथार्थ विचार की प्रक्रिया की भांति अत्यन्त उपयोगी हैं और क्रियात्मक दृष्टि से अनिवार्य भी हैं । यहांतक कि यदि इनका ठीक प्रकार से अनुसरण किया जाये तो ये एक ऐसे यथार्थ विचार की ओर ले जा सकते हैं जो पर्याप्त शक्ति और प्रभाव से युक्त हो । ध्यानात्मक चिन्तन की प्रक्रिया के द्वारा किये जानेवाले बौद्धिक विवेक की भांति ये शुद्धि-रूपी परिणाम भी उत्पन्न करेंगे । ये एक प्रकार के आत्मज्ञान की ओर ले जायेंगे तथा हृदय और अन्तरात्मा की अव्यवस्थाओं, यहांतक कि बुद्धि की अव्यवस्थाओं को भी ठीक कर देंगे । सभी प्रकार का स्व-ज्ञान वास्तविक आत्मा के ज्ञान की ओर ले जाने के लिये एक सीधा मार्ग होता है । उपनिषद् हमें बताती है कि स्वयंभू ने अन्तरात्मा के द्वार इस प्रकार बनाये हैं कि वे बाहर की ओर खुलते हैं और अधिकतर लोग बाहर की ओर, पदार्थों के बाह्य रूपों पर ही दृष्टि डालते हैं; कोई विरली ही आत्मा जो शान्त विचार एवं धीर-स्थिर ज्ञान के लिये परिपक्व होती है, अपनी दृष्टि अन्दर की ओर फेरती है, परम आत्मा के दर्शन करती और अमृत-पद लाभ करती है । दृष्टि को इस प्रकार अन्तर की ओर फेरने के लिये मनोवैज्ञानिक स्व-निरीक्षण एवं विश्लेषण महान् और कार्यकारी उपक्रम हैं । अपने भीतर हम उसकी अपेक्षा अधिक सुगमता से दृष्टि डाल सकते हैं जितनी सुगमता से कि अपनेसे बाहर स्थित वस्तुओं के भीतर डाल सकते हैं, क्योंकि वहां, अपनेसे बाहर की वस्तुओं में हम प्रथम तो बाह्य रूप से संमूढ़ हुए रहते हैं और दूसरे, उनके अन्दर की उस वस्तु का, जो उनके भौतिक उपादान से भिन्न है, हमें कोई स्वाभाविक पूर्व-अनुभव नहीं होता । इसके भी पूर्व कि ईश्वर या आत्मा हमें अपने अन्दर अनुभूत हो, शुद्ध या शान्त मन विश्वगत ईश्वर या प्रकृतिगत आत्मा को प्रतिभासित कर सकता है अथवा शक्तिशाली एकाग्रता से युक्त मन उसे जगत् एवं प्रकृति में उपलब्ध भी कर सकता है, पर ऐसा होना दुर्लभ और कठिन है । परन्तु केवल अपने अन्दर ही हम आत्मा की स्व-अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को देख और जान सकते हैं और साथ

 

         १ किन्तु एक अंश में यह अधिक सुगम भी है, क्योंकि बाह्य वस्तुओं में हम सीमित अहं की भावना से उतने अधिक प्रतिबद्ध नहीं होते जितने कि अपने-आपमें होते हैं, इसलिये ईश्वरानुभूति की एक बाधा दूर हो जाती है ।

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ही वहीं हम उस प्रक्रिया का अनुसरण भी कर सकते हैं जिसके द्वारा यह अपनी आत्म-सत्ता में वापिस लौटती है । अतएव, 'अपने-आपको जानो (आत्मानं विद्धि) ' का प्राचीन उपदेश सदा ही एक ऐसा आदि मन्त्र रहेगा जो हमें 'उस' ज्ञान की और प्रेरित करता है । फिर भी, मनोवैज्ञानिक स्व-ज्ञान केवल आत्मा की अवस्थाओं का अनुभव होता है, वह शुद्ध सत्स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता ।

 

     सुतरां, ज्ञान की जिस भूमिका पर योग ने अपनी दृष्टि जमायी है वह सत्य की केवल बौद्धिक परिकल्पना या विशद विवेचना ही नहीं है, न वह हमारी सत्ता की अवस्थाओं का आलोकित मनोवैज्ञानिक अनुभव ही है । वह एक 'उपलब्धि' है, इस शब्द के पूरे अर्थ में; वह आत्मा किंवा परात्पर एवं विश्वगत भगवान् का अपने लिये और अपने अन्दर साक्षात्कार कर लेना है, और तदनन्तर यह असम्भव हो जाता है कि हम सत्ता की अवस्थाओं को उस आत्मा के प्रकाश में न देखकर किसी अन्य प्रकाश में देखें तथा उन्हें इस यथार्थ रूप में न देखकर कि वे हमारी जागतिक सत्ता की मानसिक और भौतिक अवस्थाओं के बीच आत्मा की सम्भूति का प्रवाह हैं, किसी अन्य रूप में देखें । इस उपलब्धि में तीन क्रमिक क्रियाएं निहित हैं, आभ्यन्तरिक दृष्टि, पूर्ण आभ्यन्तरिक अनुभव और तादात्म्य ।

 

     यह आभ्यन्तरिक दृष्टि, अर्थात्, वह शक्ति जिसे प्राचीन ऋषि इतना अधिक मूल्यवान् मानते थे और जिसके कारण मनुष्य पहले की तरह निरा विचारक न रहकर ऋषि या कवि बन जाता था, अन्तरात्मा के अन्दर एक एसा प्रकाश है जिसके द्वारा अदृष्ट वस्तुएं इसके लिये--केवल बुद्धि के लिये ही नहीं, बल्कि आत्मा के लिये भी--ऐसी प्रत्यक्ष और वास्तविक हो जाती हैं जाना कि दृष्ट वस्तुएं स्थूल आंख के लिये होती हैं । भौतिक जगत् में ज्ञान सदा ही दो प्रकार का होता है, प्रत्यक्ष और परोक्ष, प्रत्यक्ष ज्ञान का मतलब है उस वस्तु का ज्ञान जो आंखों के सामने हो और परोक्ष ज्ञान का अभिप्राय है उस वस्तु का ज्ञान जो हमारी द्रष्टि से दूर और परे हो । जब पदार्थ हमारी दृष्टि से परे होता है तो हम आवश्यक्; रूप से उसके विषय में अनुमान, कल्पना एवं उपमान के द्वारा अथवा दूसरे लोगों के जो उसे देख चुके हैं, वर्णन सुनकर किंवा उसके चित्रात्मक या अन्यविध निरूपणों का, यदि ये लभ्य हों, अनुशीलन करके ही किसी धारणा पर पहुंचने के लिये बाध्य होते हैं । निःसन्देह इन सब साधनों का एक साथ उपयोग करके हम उस वस्तु के विषय में एक न्यूनाधिक उपयुक्त धारणा पर या उसकी किसी सांकेतिक प्रतिमा पर पहुंच सकते हैं, परन्तु स्वयं उस वस्तु का हमें अनुभव नहीं होता; वह अभीतक हमारे लिये एक गृहीत सद्वस्तु नहीं होती, बल्कि एक सद्वस्तुसम्बन्धी हमारा प्रत्ययात्मक निरूपणमात्र होती है । परन्तु एक बार जब हम उसे अपनी आंखों से देख लते हैं--क्योंकि और कोई भी इन्द्रिय सक्षम नहीं है, --तो हम उसे अधिकृत ओर उपलब्ध कर लेते हैं; वह वहां हमारी तृप्त सत्ता में सुरक्षित होती है, हमारा ज्ञानगत

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अंग होती है । चैत्य वस्तुओं तथा आत्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही नियम लागू होता है । दार्शनिकों या गुरुओं से अथवा प्राचीन ग्रन्थों से हम आत्मा के विषय में स्पष्ट और प्रकाशपूर्ण उपदेश भले ही श्रवण कर लें, विचार, अनुमान, कल्पना, उपमान या अन्य किसी प्राप्य साधन से हम इसकी मानसिक आकृति बनाने या मानसिक परिकल्पना करने का यत्न भी कर लें, उस परिकल्पना को हम अपने मन में भले ही दृढ़तापूर्वक जमा लें और एक पूर्ण एवं ऐकान्तिक एकाग्रता के द्वारा अपने अन्दर स्थिर भी कर लें, किन्तु हम ने अभी आत्मा को उपलब्ध नहीं किया है, ईश्वर के दर्शन नहीं किये हैं । जब सुदीर्घ और सुस्थिर एकाग्रता के बाद या किसी अन्य साधन के द्वारा मन का आवरण विदीर्ण या दूर हो जाता है, जब जागरित मन के ऊपर ज्योति का प्रवाह, ज्योतिर्मय ब्रह्म, फूट पड़ता है और परिकल्पना एक ऐसी ज्ञान-दृष्टि को स्थान दे देती है जिसमें आत्मा वैसा ही प्रत्यक्ष, वास्तव और मूर्त होता है जैसी कि स्थूल वस्तु नेत्र के लिये होती है, केवल तभी हम ज्ञान में उसे उपलब्ध करते हैं; क्योंकि तब हमने दर्शन कर लिये हैं । उस दिव्य दर्शन के अनन्तर प्रकाश के चाहे कितने ही तिरोभाव एवं अन्धकार के चाहे कितने ही अन्तराय आत्मा को पीड़ित क्यों न करें, यह जिस वस्तु को एक बार अधिकृत कर चुकी है उसे इस प्रकार से कभी नहीं खो सकती कि पुनः प्राप्त ही न कर सके । अनुभव अनिवार्य रूप से पुन: -पुनः नवीन होता रहता है और निश्चय ही और भी अधिक बार प्राप्त होने लगता है जबतक कि वह स्थायी ही नहीं हो जाता । ऐसा कब और कितनी शीघ्रता से होता है यह उस भक्ति एवं निष्ठा पर निर्भर करता है जिसके साथ हम मार्ग पर डटे रहते हैं और गुप्त भगवान् को अपने संकल्प या प्रेम के द्वारा परिवेष्टित कर लेते हैं ।

 

     यह अन्तर्दृष्टि एक प्रकार का आन्तरिक अनुभव है; किन्तु आन्तरिक अनुभव इस दृष्टि तक ही सीमित नहीं है; दृष्टि हमें आत्मा की ओर खोल देती है, उसका आलिंगन नहीं करती । जिस प्रकार आंख को, यद्यपि अकेली वही उपलब्धि का प्रथम आभास देने में सक्षम है, सर्वग्राही ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व त्वचा तथा अन्य ज्ञानेंद्रियों के अनुभव की सहायता का आह्वान करना पड़ता है, इसी प्रकार आत्मा के अन्तर्दर्शन को भी हमें अपने सभी अंगों में इसके अनुभव के द्वारा पूर्ण बनाना चाहिये । हमारी सम्पूर्ण सत्ता को भगवान् की कामना करनी चाहिये न कि केवल हमारी आलोकित ज्ञान-दृष्टि को ही ऐसा करना चाहिये । कारण हममें प्रत्येक तत्त्व आत्मा की अभिव्यक्तिमात्र है और इसीलिये प्रत्येक पुन: अपनी वास्तविक सत्तातक पहुंच सकता तथा उसका अनुभव कर सकता है । हम आत्मा का मानसिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं और उन सब आपातत: अमूर्त वस्तुओं को--चेतना, शक्ति,  

 

        यह ज्ञानयोग की त्रिविध क्रिया अर्थात् श्रवण, मनन और निदिध्यासन का विचार है जिनका मतलब है सुनना, विचारना या मनन करना और एकाग्रता के द्वारा स्थिर कर लेना ।

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आनन्द और इनके नानाविध रूपों एवं व्यापारों को-जो मन के लिये सत्ता का स्वरूप हैं, मूर्त सद्वस्तुओं के रूप में हृदयंगम कर सकते हैं; इस प्रकार मन ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाता है । 'प्रेम' और हृद्गत आनन्द के द्वारा, ---अपनी अन्तःस्थित आत्मा एवं विश्वगत आत्मा के, और जिनके भी साथ हमारे सम्बन्ध हैं उन सबके आत्मा के प्रेम एवं आनन्द के द्वारा--हम आत्मा की भागवत अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं; इस प्रकार हृदय ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाता है । सौन्दर्य में हम आत्मा की रसात्मक अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं तथा उस निरपेक्ष सद्वस्तु की, जो हमारे किंवा प्रकृति के द्वारा सृष्ट प्रत्येक वस्तु के भीतर रसग्राही मन तथा इन्द्रियों के प्रति अपने आकर्षण में सर्व-सुन्दर है, आनन्दानुभूति एवं रसास्वादन प्राप्त कर सकते हैं; इस प्रकार इन्द्रिय ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाती है । यहांतक कि समस्त जीवन एवं रचना में तथा उन शक्तियों, बलों एवं सामर्थ्यों के, जो हमारे या दूसरों के द्वारा या जगत् में क्रिया करते हैं, सकल व्यापारों में भी हम आत्मा का प्राणिक एवं स्नायविक अनुभव और कार्यत: भौतिक सम्वेदन भी प्राप्त कर सकते हैं : इस प्रकार प्राण और शरीर भी ईश्वर के विषय में तृप्त हो जाते हैं ।

 

     यह सब ज्ञान और अनुभव तादात्म्य पर पहुंचने तथा उसे अधिकृत करने के प्रधान साधन हैं । वह हमारी अपनी ही आत्मा है जिसका हम साक्षात्कार और अनुभव करते हैं और इसलिये वह साक्षात्कार और अनुभव तबतक अपूर्ण ही रहते हैं जबतक कि वे तादात्म्य में परिसमाप्त नहीं हो जाते और जबतक हम अपनी समस्त सत्ता में परम वैदान्तिक ज्ञान 'वही मैं हूं (सोऽमस्मि)' को चरितार्थ करने में समर्थ नहीं हो जाते । हमें ईश्वर का केवल साक्षात्कार और आलिंगन ही नहीं करना होगा, बल्कि वही सद्वस्तु बन जाना होगा । अहं और उसकी सभी वस्तुओं को 'उस'में, जिससे ये सब निःसृत हुए हैं, परिणत, उदात्तीकृत तथा स्व-निर्मुक्त करके हमें आत्मा के साथ उसकी रूपातीत और अभिव्यक्ति-अतीत अवस्था में एक होना होगा; इसके साथ ही उसकी समस्त व्यक्त सत्ताओं और सम्भूतियों में भी हमें वहीं आत्मा बनना होगा; उन अनन्त सत्ता, चेतना, शान्ति एवं आनन्द में जिनके द्वारा वह अपने-आपको हममें प्रकाशित करता है, तथा उस कर्म एवं रचना में और आत्म-परिकल्पना की उस लीला में जिनके द्वारा वह इस जगत् में अपने-आपको आच्छादित करता है, उसके साथ एक होना होगा ।

 

     आधुनिक मन के लिये यह समझना कठिन है कि कैसे हम आत्मा या ईश्वर पर बौद्धिक रूप से विचार करने से अधिक भी कुछ कर सकते हैं; परन्तु वह इस दृष्टि, अनुभूति और सम्भूति की कुछ झलक प्रकृति के प्रति उस आन्तरिक जागरण से ले सकता है जिस एक महान् अंग्रेज कवि ने यूरोपीय कल्पना के प्रति वास्तविक सत्य बना दिया है । यदि हम उन कविताओं का, जिनमें वर्ड् स्वर्थ ने अपनी प्रकृति-विषयक अनुभूति को व्यक्त किया है, अध्ययन करें तो अनुभूति क्या वस्तु

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है इसकी एक दूरवर्ती कल्पना हम उससे ग्रहण कर सकते हैं । कारण, सर्वप्रथम, हम देखते हैं कि उसे जगत् में किसी ऐसी वस्तु का अन्तर्दर्शन हुआ था जो इसमें समाविष्ट सभी वस्तुओं का वास्तविक आत्मा है और साथ ही एक ऐसी चिन्मय शक्ति एवं उपस्थिति है जो इसके रूपों से भिन्न है और फिर भी इसके रूपों का मूल कारण है तथा उनमें प्रकटीभूत है । हम देखते हैं कि उसे इस आत्मा का केवल अन्तर्दर्शन तथा वह शान्ति और आनन्द ही प्राप्त नहीं हुए थे जिन्हें इसकी उपस्थिति लाती है, अपितु इसका मानसिक, सौन्दर्यात्मक, प्राणिक और शारीरिक सम्वेदन तक हुआ था; इसका यह सम्वेदन एवं अन्तर्दर्शन उसे केवल इसकी अपनी सत्ता में ही नहीं, बल्कि अत्यन्त निकटस्थ पुरुष, सरलतम मनुष्य तथा जड़ चट्टान में भी हुआ था; और, अन्त में, वह कभी-कभी ऐसी एकात्मता प्राप्त भी कर लेता था, जो उसके समर्पण का विषय बन जाती थी । अपने इस समर्पण की एक अवस्था का वर्णन उसने 'एक निद्रा ने मेरी आत्मा को मुहरबन्द कर दिया है' अपनी इस कविता में गम्भीर और ओजस्वी शब्दों में किया है । उसमें वह कहता है कि मैं अपनी सत्ता में पृथ्वी के साथ एक हो गया हूं ''इसके दैनिक परिभ्रमण में मै तनों, पेड़-पौधों और पत्थरों के साथ चक्कर काट रहा हूं ।''  इस अनुभूति को भौतिक प्रकृति से अधिक गभीर आत्मातक ऊंचा उठा ले जाओ तो तुम यौगिक ज्ञान के मूल तत्त्वों पर जा पहुंचोगे । परन्तु यह सब अनुभव परात्पर की, जो अपने सब रूपों से परे हैं, अतीन्द्रिय एवं अतिमानसिक उपलब्धि का बहिर्द्वारमात्र है, और ज्ञान के अन्तिम शिखर पर तो हम तभी आरूढ़ हो सकते हैं यदि हम अतिचेतन में प्रविष्ट होकर वहां अनिर्वचनीय के साथ स्वर्गीय एकत्व में अन्य समस्त अनुभव को निमज्जित कर दें । यह समस्त दिव्य ज्ञान-प्राप्ति की पराकाष्ठा है; यहीं समस्त दिव्य आनन्द और दिव्य जीवन का उद्गम है ।

 

     इस प्रकार ज्ञान की यह भूमिका इस पथ और वस्तुत: सभी पथों का लक्ष्य होती है जब कि अन्त तक उनका अनुसरण किया जाता है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बौद्धिक विवेचना एवं विभावना, समस्त एकाग्रता एवं मनोवैज्ञानिक स्व-ज्ञान, प्रेम द्वारा हृदय की समस्त गवेषणा, सौन्दर्य द्वारा इन्द्रियों का, शक्ति एवं कर्मकलाप द्वारा संकल्प का तथा शान्ति एवं हर्ष द्वारा अन्तरात्मा का समस्त अन्वेषण हमारे आरोहण की कुंजियामात्र हैं, उसके राजपथ, प्राथमिक मार्ग एवं आरम्भमात्र हैं जिनका हमें उपयोग और अनुसरण करना होगा, जबतक कि हम विस्तीर्ण एवं अनन्त स्तर उपलब्ध न कर लें और दैवी द्वार अनन्त ज्योति की ओर उद्घाटित न हो जायें ।

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