योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १७

 

पुरुष और प्रकृति

 

समग्र रूप में पूर्ण ज्ञान का फल यही है; इसका कार्य हमारी सत्ता के विभिन्न सूत्रों को एकत्र करके विराट् एकता में पिरो देना है । यदि स्वयं भगवान् की भांति हमें भी अपनी नयी दिव्यीकृत चेतना में इस जगत् को पूर्ण रूप से अधिकृत करना हो तो हमें प्रत्येक वस्तु के निरपेक्ष स्वरूप को भी जानना होगा, पहले तो अपने-आपमें उसके रूप को और फिर उसकी पूरक सभी वस्तुओं के साथ उसके एकत्व की दृष्टि से उसके रूप को जानना होगा; क्योंकि भगवान् ने इस जगत् में अपनी सत्ता की परिकल्पना इसी रूप में की है और इसी रूप में वे इसका साक्षात्कार भी करते हैं । वस्तुओं को खण्डों किंवा अपूर्ण तत्वों के रूप में देखना निम्नतर विश्लेषणात्मक ज्ञान है । निरपेक्ष ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान हैं; उन्हें सर्वत्र ही देखना तथा उपलब्ध करना होगा । प्रत्येक सांत व्यक्ति वा पदार्थ अनन्त है और उसे उसकी आभ्यन्तरिक अनन्तता तथा बाह्य सांत आकृति इन दोनों रूपों में जानना एवं अनुभव करना होगा । परन्तु जगत् को ऐसे रूप में जानने के लिये, ऐसे रूप में देखने और अनुभव करने के लिये यह बौद्धिक विचार या कल्पना करना ही काफी नहीं है कि यह ऐसा ही है; बल्कि इसके लिये आवश्यकता है एक प्रकार की दिव्य अन्तर्दृष्टि, दिव्य इन्द्रिय तथा दिव्य उन्मादना की, अपनी चेतना के विषयों के साथ अपने एकत्व के अनुभव की । इस अनुभव में परात्पर ही नहीं, बल्कि यहां का सब कुछ भी, यह सब जगत् किंवा समष्टि रूप में 'सर्व' ही नहीं, बल्कि 'सर्व' में की प्रत्येक वस्तु हमारे लिये हमारा आत्मा, ईश्वर, निरपेक्ष एवं अनन्त ब्रह्म, सच्चिदानन्द बन जाती है । भगवान् की सृष्टि में पूर्ण आनन्द का, मन, हृदय और इच्छाशक्ति के पूर्ण सन्तोष का, चेतना की पूर्ण मुक्ति का रहस्य यही है । यही परमोच्च अनुभव है जिसे प्राप्त करने के लिये कला और काव्य, आन्तरिक और बाह्य ज्ञान के समस्त नानाविध प्रयत्न तथा पदार्थों को प्राप्त करने और भोगने की समस्त कामनाएं और चेष्टाएं प्रकट या अप्रकट रूप में प्रवृत्त हों रही हैं; वस्तुओं के रूपों, गुणों और धर्मों को समझने का उन कला आदि का प्रयत्न तो एक प्रारम्भिक चेष्टामात्र है । यह चेष्टा उन्हें गभीरतम तृप्ति नहीं प्रदान कर सकती जबतक कि इन रूपों और गुणों आदि को पूर्ण और निरपेक्ष रूप में समझकर है उस अनन्त सद्वस्तु की अनुभूति नहीं प्राप्त कर लेतीं जिसके ये रूप और गुण बाह्य प्रतीक हैं । तर्कशील मन और साधारण इन्द्रियानुभव को यह सब सहज ही एक काव्यमय कल्पना या रहस्यमय भ्रममात्र प्रतीत हो सकता है; परन्तु इससे जो पूर्ण तृप्ति तथा प्रकाश की अनुभूति प्राप्त होती है तथा जो केवल इसीसे प्राप्त हो सकती है वह वस्तुत: इस बात का

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प्रमाण है कि यह एक अधिक महान् सत्य है; इसके

द्वारा हम एक उच्चतर चेतना तथा दिव्यतर बोधशक्ति से एक किरण प्राप्त करते हैं, यदि हम अपनी आभ्यन्तरिक सत्ता के रूपान्तर के लिये अनुमति भर दे दें तो निश्चय ही अन्त में उसका रूपान्तर इस उच्चतर चेतना एवं दिव्यतर बोधशक्ति में ही होगा ।

 

   हम देख ही चुके हैं कि यह बात भागवत सत्ता के उच्चतम तत्त्वों पर लागू होती है । साधारणतया, विवेचनाशील मन हमें बताता है कि जो कुछ अभिव्यक्तिमात्र से परे है वही निरपेक्ष है, केवल निराकार आत्मा ही अनन्त सत्ता है, केवल देशकालातीत, अक्षर, अचल आत्मा ही, अपनी निष्क्रिय अवस्था में पूर्ण रूप से वास्तविक है; और यदि हम अपने प्रयास में इस विचार का अनुसरण करें तथा इसीके द्वारा नियत्रित हों तो हम इस आभ्यन्तरिक अनुभव पर ही पहुंचेंगे तथा शेष सब कुछ हमें मिथ्या या केवल सापेक्ष सत्य प्रतीत होगा । परन्तु यदि हम इससे अधिक विशाल विचार को लेकर चलें तो एक अधिक पूर्ण सत्य एवं अधिक व्यापक अनुभव हमारे सामने खुल जायेंगे । हम देखेंगे कि कालातीत और देशातीत सत्ता की अक्षर स्थिति में एक निरपेक्ष एवं अनन्त सत्ता ही विद्यमान है, पर साथ ही अपनी शक्तियों, गुणों और आत्म-रचनाओं के प्रवाह को आनन्दपूर्वक धारण करनेवाली भागवत सत्ता की चिन्मय शक्ति एवं उसके सक्रिय आनन्द में भी एक निरपेक्ष एवं अनन्त सत्ता ही विलसित हों रही है, --और निःसन्देह अपने इस रूप में भी यह वही निरपेक्ष एवं अनन्त सत्ता हैं, इतनी अधिक वही है कि हम दिव्य कालातीत स्थिरता और शान्ति का रसास्वादन करने के साथ-साथ कर्म के दिव्य, काल-सम्राट् आनन्द का भी समान रूप से, स्वतनत्र्य तथा अनन्त भाव में बिना किसी बन्धन के या अशान्ति और कष्ट-क्लेश में पतित हुए बिना उपभोग कर सकते हैं । इसी प्रकार हम इस कर्म के सभी मूल तत्त्वों के सम्बन्ध में भी यही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं, वे मूलतत्त्व अक्षर सत्ता में तो उसके अपने ही अन्दर स्थित हैं और एक अर्थ में बीजवत् अन्तर्निहित तथा गुप्त हैं, विराट् सत्ता में वे है व्यक्त रूप में विद्यमान हैं तथा अपने अनन्त गुणों और क्षमताओं को चरितार्थ करते हैं ।

 

   इन तत्त्वों में सबसे महत्त्वपूर्ण है पुरुष और प्रकृति का द्वैत जो अन्त में अपने-आपको अद्वैत में परिणत कर देता है । इसके विषय में हम कर्मयोग के प्रसंग में उल्लेख कर चुके हैं, पर यह ज्ञानयोग के लिये भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है । प्राचीन भारतीय दर्शनों ने यह भेद अत्यन्त स्पष्ट रूप में किया था; परन्तु यह अद्वैत में प्रकट होनेवाले व्यावहारिक द्वैत के सनातन तथ्य पर आधारित है; यह द्वैत ही जगत् की अभिव्यक्ति का आधार है । जगत् के विषय में हमारा जो दृष्टिकोण होता है उसके अनुसार हम इसे भिन्न-भिन्न नाम देते हैं । वेदान्तियों ने इसे ब्रह्म और माया का नाम दिया, अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार ब्रह्म से उन्हें अभिप्रेत थी अक्षर

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सत्ता और माया से ब्रह्म की वह शक्ति जिसके द्वारा वह अपने ऊपर विश्वरूपी भ्रम का अध्यारोप करता है, अथवा ब्रह्म से उन्हें अभिप्रेत थी भागवत सत्ता और माया से चिन्मय पुरुष की वह प्रकृति एवं चिच्छक्ति जिसके द्वारा भगवान् अपने-आपको आत्मिक रूपों तथा पदार्थों के रूपों में प्रकट करते हैं । कुछ अन्य दार्शनिकों ने इस द्वैत को ईश्वर और उसकी शक्ति-विश्वशक्ति-के नाम से अभिहित किया । सांख्य मतवालों के विश्लेषणात्मक दर्शन ने पुरुष और प्रकृति के ऐसे नित्य द्वैत की स्थापना की जिसमें एकत्व स्थापित होने की कोई भी सम्भावना नहीं, उसने तो इनके एकत्व और पृथक्त्व के सम्बन्धों को ही स्वीकार किया जिनके द्वारा 'पुरुष' के लिये प्रकृति का विराट् व्यापार आरम्भ होता है, चलता रहता या बन्द हो जाता है, क्योंकि पुरुष निष्क्रिय चेतन सत्ता है,--यह आत्मा है जो अपने-आपमें एकरस तथा सदा ही निर्विकार रहता है, --प्रकृति विश्व-शक्ति का क्रियाशील रूप है जो अपनी गति से विश्व-प्रपंच का सृजन और धारण करता है और विश्रान्ति में लीन होने पर इस प्रपंच का लय कर देता है । इन दार्शनिक भेदों को एक ओर रखकर, हम उस मूल मनोवैज्ञानिक अनुभव पर जा पहुंचते हैं जिसे आधार बनाकर ही वास्तव में सभी दर्शन अग्रसर होते हैं; वह अनुभव यह है कि सजीव प्राणियों की, यदि समस्त विश्व की ही नहीं तो कम-से-कम मानव-प्राणियों की, सत्ता में दो तत्त्व विद्यमान हैं--प्रकृति और पुरुष, सत्ता के दो रूप ।

 

   यह द्वैत स्वयं-सिद्ध है । किसी भी दर्शनशास्त्र के बिना, केवल अनुभव के बल पर हम सभी जो कुछ देख सकते हैं वह यहीं है, भले हम इसकी परिभाषा करने का कष्ट न भी उठायें । यद्यपि अत्यन्त ऐकान्तिक जड़वाद आत्मा से इंकार करता है अथवा अपने जिस भौतिक मस्तिष्क को हम चेतना या मन कहते हैं, पर वास्तव में जो ज्ञानतन्तुओं तथा नाड़ियों में होनेवाले आघात-प्रतिघातों की एक प्रकार की जटिल क्रिया से अधिक कुछ नहीं है, उसके किसी अच्छी तरह समझ में न आये हुए दृग्विषय पर कार्य करनेवाली प्राकृतिक क्रियाओं के न्यूनाधिक मिथ्या परिणाम को ही वह आत्मा का स्वरूप मानता है, परन्तु वह भी इस द्वैत के क्रियात्मक तथ्य से छुटकारा नहीं पा सकता । इस बात का कुछ महत्त्व नहीं कि यह द्वैत कैसे उत्पन्न दुआ; पर इस द्वैत का केवल अस्तित्व ही नहीं है, बल्कि यह हमारे समुर्ण जीवन का निर्धारण भी करता है, हम मानव-प्राणियों में संकल्पशक्ति और बुद्धि होने के साथ-साथ समस्त सुख-दुःख की कारणभूत एक अन्तःसत्ता भी विद्यमान है । ऐसे प्राणियों के रूप में हमारे लिये एकमात्र यह द्वैत का तथ्य ही वास्तविक महत्त्व रखता है । जीवन की सम्पूर्ण समस्या इस एक प्रश्र का रूप ले लेती है, -- ''ये जो पुरुष और प्रकृति यहां एक-दूसरे के आमने-सामने उपस्थित हैं इनका हमें क्या करना होगा, एक ओर तो है यह प्रकृति, यह व्यक्तिगत और विराट् क्रिया, जो पुरुष (आत्मा) पर अपनी छाप लगाने, इसे अपने अधिकार तथा नियन्त्रण में लाने

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और इसका रूप निर्धारण करने का यत्न करती है, और दूसरी ओर है यह पुरुष जो अनुभव करता है कि किसी रहस्यमय रूप में वह स्वतन्त्र है, अपना नियंता है, अपने स्वरूप और कर्म के लिये उत्तरदायी है और अतएव जो अपनी तथा विश्व की प्रकृति का सामना करने तथा उसपर अपना नियन्त्रण एवं अधिकार स्थापित करने एवं उसका उपभोग करने का यत्न करता है, अथवा जो उसका त्याग करने एवं उससे दूर भागने का यत्न भी कर सकता है ?'' इस प्रश्र का उत्तर देने के लिये हमें ज्ञान प्राप्त करना होगा, --यह ज्ञान प्राप्त करना होगा कि पुरुष (आत्मा) क्या कर सकता है, वह अपने साथ क्या कर सकता है और साथ ही यह भी कि वह प्रकृति और जगत् के साथ क्या कर सकता है । मानव का सम्पूर्ण दर्शन, धर्म और विज्ञान वास्तव में उस यथार्थ तथ्य-सामग्री को प्राप्त करने के यत्न के सिवा और कुछ नहीं जिसके आधार पर इस प्रश्र का उत्तर देना तथा अपने जीवन की समस्या को अपने ज्ञान के अनुसार यथासम्भव सन्तोषजनक रूप में हल करना सम्भव होगा ।

 

  धर्म और दर्शन इस सत्य की स्थापना करते हैं कि हमारी आत्मिक सत्ता की दो भूमिकाएं हैं, एक तो निम्न, विक्षुब्ध और अधीनस्थ और दूसरी उच्च, महान् अक्षुब्ध और प्रभुत्वपूर्ण, एक तो मन में स्पन्दन करनेवाली और दूसरी आत्मा में, प्रशान्त । जब हम इस सत्य का, -आधुनिक विचार ने तो इसका प्रतिवाद करने की चेष्टा की है--साक्षात् अनुभव करते हैं तो अपनी निम्न एवं क्षुब्ध प्रकृति और सत्ता के साथ अपने वर्तमान संघर्ष से तथा इनकी दासता से पूर्णत: मुक्त होने की आशा हमारे अन्दर उत्पन्न हो जाती है । परन्तु केवल मुक्ति की ही नहीं, बल्कि एक पूर्णत: सन्तोषजनक तथा सफलतापूर्ण समाधान की भी आशा तब उत्पन्न होती है जब हमें उस सत्य का अनुभव होता है जिसे कुछ धर्म और दर्शन दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हैं, पर कुछ अन्य अस्वीकार करते प्रतीत होते हैं कि पुरुष और प्रकृति के द्वैतात्मक अद्वैत में भी एक तो निम्नतर एवं साधारण मानवीय भूमिका है और दूसरी उच्चतर एवं दिव्य जिसमें द्वैत की अवस्थाएं पलट जाती हैं और पुरुष जो कुछ बनने के लिये आज केवल संघर्ष तथा अभीप्सा कर रहा है वही बन जाता है, अर्थात् वह अपनी प्रकृति का स्वामी तथा स्वराट् हो जाता है और भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके विश्व-प्रकृति का भी स्वामी बन जाता है । इन सम्भावनाओं के सम्बन्ध में हमारा जैसा विचार होगा उसके अनुसार ही हम इनमें से किसी समाधान को अपने लिये निश्चित करके कार्य-रूप में परिणत करने का यत्न करेंगे ।

 

  मन के बन्धन में ग्रस्त होने के कारण, मानसिक विचार, सम्वेदन, भावावेश, जगत् के प्राणिक और भौतिक सम्पर्को को ग्रहण करना तथा इनके प्रति यान्त्रिक प्रतिक्रिया करना--इन सब साधारण दृग्विषयों से अभिभूत होने के कारण पुरुष (आत्मा) प्रकृति के वश में है । इसकी संकल्पशक्ति और बुद्धि भी इसकी

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मानसिक प्रकृति से निर्धारित होती हैं, यहांतक कि अधिक बड़े अंश में तो ये इसके चारों ओर की मानसिक प्रकृति से निधर्ग़रत होती हैं जो व्यक्तिगत मन पर सूक्ष्म तथा प्रकट रूप में क्रिया करती है और उसे अपने वश में कर लेती है; इस प्रकार अपने अनुभव तथा कर्म को नियमित, संयमित तथा निर्धारित करने के इसके प्रयत्न में भ्रम का अंश सदा ही रहता है, क्योंकि जब यह सोचता है कि मैं काम कर रहा हूं तब वास्तव में प्रकृति ही कार्य कर रहीं होती है तथा इसके समस्त विचार, संकल्प और कर्म का निर्धारण कर रही होती है । 'मैं हूं मैं स्वयं सत् हूं, मैं शरीर या प्राण नहीं, बल्कि कोई और सत्ता हूं जो विराट् पुरुष के अनुभव को यदि निर्धारित नहीं करती तो कम-से-कम ग्रहण और स्वीकार अवश्य करती है' इस प्रकार का सतत ज्ञान यदि इसे न होता तो अन्त में यह ऐसी कल्पना करने को बाध्य होता कि प्रकृति ही सब कुछ है और आत्मा निरा भ्रम । आधुनिक जड़वाद इसी सिद्धान्त की स्थापना करता है तथा शून्यवादी बौद्धमत भी इसीपर पहुंचा था; सांख्यों ने इस जटिल समस्या को अनुभव करके इसका हल यह कहकर किया कि पुरुष असल में प्रकृति के निर्धारणों को अपने अन्दर प्रतिबिम्बित भर करता है और वह स्वयं किसी भी चीज का निर्धारण नहीं करता, वह ईश नहीं है, पर इन निर्धारणों को प्रतिबिम्बित करने से इंकार करके शाश्वत अचलता और शान्ति में पुनः लय प्राप्त कर सकता है । कुछ अन्य समाधान भी हैं जो इसी व्यावहारिक सिद्धान्त पर पहुंचते हैं, पर पहुंचते हैं दूसरे अर्थात् आध्यात्मिक छोर से, वे प्रकृति को माया के रूप में प्रस्थापित करते हैं अथवा पुरुष और प्रकृति दोनों को अनित्य मानते हैं और इनसे परे की उस भूमिका की ओर हमें अंगुलि-निर्देश करते हैं जिसमें इनके द्वैत का अस्तित्व ही नहीं है; इस भूमिका की प्राप्ति के लिये वे हमें या तो किसी नित्य एवं अनिर्वचनीय वस्तु में इन दोनों का लय करने को कहते हैं या कम-से- कम क्रियाशील तत्त्व का पूर्णतया वर्जन करने को । यद्यपि ये समाधान मानवजाति की बृहत्तर आशा तथा बद्धमूल प्रेरणा एवं अभीप्सा को तृप्त नहीं करते, तथापि जहांतक इनकी गति है वहांतक ये सही हैं, क्योंकि ये स्वयं निरपेक्ष सत्ता पर या आत्मा के पृथक् निरपेक्ष स्वरूप पर पहुंचते हैं, यद्यपि ये निरपेक्ष सत्ता की उन अनेक आनन्दपूर्ण अनन्तताओं को त्याग देते हैं जो मनुष्यस्थित सनातन जिज्ञासु के सामने तब खुलती हैं जब पुरुष अपने दिव्य जीवन में प्रकृति का सच्चा स्वामी बन जाता है ।

 

   परम आत्मा में उठकर पुरुष प्रकृति के अधीन नहीं रहता; वह इस मानसिक क्रिया-प्रवृत्ति से ऊपर उठ जाता है । वह अनासक्ति तथा पृथक्ता के भाव में इससे ऊपर हो सकता है, उदासीन अर्थात् ऊपर अवस्थित एवं तटस्थ हो सकता है, या फिर अपनी सत्ता के प्रभेदरहित, घनीभूत आध्यात्मिक अनुभव की तन्मयताजनक शान्ति या आनन्द के द्वारा आकृष्ट एवं उसमें लीन हो सकता है; तब हमें दिव्य

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और सर्वोच्च प्रभुत्व के द्वारा विजय नहीं प्राप्त करनी होती, बल्कि प्रकृति और जगज्जीवन को पूर्ण रूप से त्यागकर परे चले जाना होता है । परन्तु परमात्मा किंवा भगवान् प्रकृति से ऊपर ही नहीं हैं; वे प्रकृति और जगत् के स्वामी भी हैं; अपनी आध्यात्मिक स्थिति में उठती हुई आत्मा को, भगवान् के साथ एकत्व के द्वारा कम-से-कम ऐसे ही स्वामित्व के योग्य बनना होगा । उसे अपनी प्रकृति को नियन्त्रित करने में समर्थ बनना होगा पर केवल शान्ति की अवस्था में नहीं अथवा इसे निष्क्रिय होने के लिये बाध्य करके ही नहीं, बल्कि इसकी लीला और क्रिया पर प्रभुत्वपूर्ण नियन्त्रण रखते हुए ऐसा बनना होगा । निम्न भूमिका में ऐसा करना सम्भव नहीं, क्योंकि हमारी आत्मा मन के द्वारा कार्य करती है और मन विश्व-प्रकृति का सन्तोषपूर्वक अनुसरण करते हुए या इसके अधीन रहकर संघर्ष करते हुए व्यक्तिगत और आंशिक रूप में ही कार्य कर सकता है । इस विश्व-प्रकृति के द्वारा ही भागवत ज्ञान और संकल्प जगत् में चरितार्थ होते हैं । परन्तु परम आत्मा ज्ञान और संकल्प का उद्गम एवं कारण होने से इनपर प्रभुत्व रखता है, वह इनके वश में नहीं है; अतएव, जितना-जितना हमारी आत्मा अपनी दिव्य या आध्यात्मिक सत्ता को प्राप्त करती जाती है, उतना-उतना यह अपनी प्रकृति की क्रियाओं के ऊपर नियन्त्रण भी प्राप्त करती जाती है । प्राचीन भाषा में कहें तो यह स्वराट् अर्थात् स्वतन्त्र तथा अपने जीवन और अस्तित्व के साम्राज्य की शासिका बन जाती है, पर साथ ही अपने परिपार्श्व तथा अपने जगत् पर भी इसका नियंत्रण बढ़ता जाता है । ऐसा नियंत्रण यह अपने-आपको विराट् बनाकर ही प्राप्त कर सकती है; क्योंकि जगत् पर अपनी क्रिया में इसे दिव्य एवं विराट् संकल्प को ही प्रकट करना होगा । पहले इसे अपनी चेतना को विस्तृत करना होगा तथा मन की भांति क्षुद्र विभक्त व्यक्तित्व के भौतिक, प्राणिक, सम्वेदनमूलक, भाविक, बौद्धिक दृष्टिकोण से सीमित होने के स्थान पर सारे विश्व को अपने अन्दर देखना होगा; इसे अपने बौद्धिक विचारों, कामनाओं तथा प्रयासों, अभिरुचियों, लक्ष्यों, संकल्पों और आवेगों से चिपटे रहने के स्थान पर विश्व-सत्यों, विश्व-शक्तियों, विश्व-प्रवृत्तियों तथा विश्व-प्रयोजनों को अपना मानना होगा; जहांतक ये विचार, कामनाएं तथा प्रयास आदि बने रहें वहां तक इन्हें विराट् विचारों आदि के साथ समस्वर करना होगा । तब इसे अपने ज्ञान और संकल्प को इनके ठेठ उद्गम में ही दिव्य ज्ञान और दिव्य संकल्प के प्रति अर्पण कर देना होगा और इस प्रकार अर्पण के द्वारा लय को प्राप्त करना होगा, अर्थात् अपनी व्यक्तिगत ज्योति को दिव्य ज्योति में तथा अपनी व्यक्तिगत प्रेरणा को दिव्य प्रेरणा में लीन कर देना होगा । पहले तो अनन्त के साथ एकराग एवं भगवान् के साथ समस्वर होना और उसके बाद अनन्त के साथ युक्त होना एवं भगवान् में उपनीत हों जाना ही इसके लिये पूर्ण सामर्थ्य और प्रभुत्व प्राप्त करने की शर्त्त है, और ठीक यही आध्यात्मिक जीवन एवं आध्यात्मिक अस्तित्व का वास्तविक स्वरूप है ।

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   गीता में पुरुष और प्रकृति के बीच जो भेद किया गया है वह हमें पुरुष की प्रकृति के प्रति अनेकविध सम्भवनीय वृत्तियों का सूत्र पकड़ा  देता है । जब पुरुष पूर्ण स्वातन्त्र्य और प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये यत्न करता है तो वह प्रकृति के प्रति इन वृत्तियों को अपना सकता है । गीता में कहा गया है कि पुरुष साक्षी, भर्त्ता, अनुमन्ता, ज्ञाता, ईश्वर और भोक्ता है; प्रकृति (पुरुष के आदेश को) कार्यान्वित करती है, यह क्रियाशील तत्त्व है और पुरुष की वृत्ति के अनुरूप ही इसकी क्रिया होती है । पुरुष चाहे तो शुद्ध साक्षी की स्थिति धारण कर सकता है; यह प्रकृति के कार्य को एक ऐसी वस्तु के रूप में देख सकता है जिससे यह जुदा होकर स्थित है; यह उसके कार्य का अवलोकन करता है, पर उसमें स्वयं भाग नहीं लेता । सब प्रवृत्तियों को शान्त करने की इस क्षमता का महत्त्व हम देख ही चुके हैं; यह पीछे हटने की उस क्रिया का आधार है जिसके द्वारा हम प्रत्येक वस्तु के, --शरीर, प्राण, मानसिक क्रिया, विचार, संवेदन, भावावेश के, --सम्बन्ध में यह कह सकते हैं कि ''यह प्रकृति है जो प्राण, मन और शरीर में कार्य कर रहीं है, यह स्वयं मैं नहीं हूं न ही यह मेरी चीज है,'' और इस प्रकार हम इन चीजों से अपनी आत्मा को अलग करके इनकी स्तब्धता प्राप्त कर सकते हैं । अतएव, यह त्याग या कम-से-कम अ-योगदान की वृत्ति हो सकती है जो तामसिक, राजसिक या सात्त्विक रूप धारण कर सकती है, अर्थात, इसमें या तो यह भाव पैदा हो सकता है कि प्रकृति का कार्य जबतक चलता रहे तबतक इसके अधीन रहकर निष्क्रिय रूप में इसे सहा जाय अथवा इसमें उसके कार्य से विरक्ति, घृणा या पराङ्मुखता का भाव उत्पन्न हो सकता है या फिर, पुरुष की पृथक्ता का प्रकाशपूर्ण बोध और एकाकीपन तथा विश्राम की शान्ति एवं आनन्द उद्भूत हो सकता है । पर साथ ही यह वृत्ति नाटक के प्रेक्षक के-से सम और निर्व्यक्तिक आनन्द से युक्त भी हो सकतीं है, प्रेक्षक की भांति पुरुष नाटक देखने में आनन्द का उपभोग करते हुए भी अनासक्त रहता है और किसी भी क्षण अपने ही आनन्द के साथ वहां से उठकर चल देने को तैयार रहता है । साक्षी की वृत्ति अपने उच्चतम रूप में अनासक्ति का तथा जगज्जीवन की घटनाओं के प्रभाव से मुक्ति का चरम रूप होती है ।

 

   शुद्ध साक्षी के रूप में पुरुष प्रकृति के भर्त्ता या धारक का कार्य करने से इन्कार कर देता है । भर्त्ता कोई और ही है, ईश्वर या शक्ति या माया, पर पुरुष नहीं । पुरुष तो अपनी साक्षि-चेतना पर प्रकृति के कार्य का प्रतिबिम्ब भर पड़ने देता है, पर उसे धारण करने या जारी रखने की किसी प्रकार की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करता । वह यह नहीं कहता, ''यह सब मेरे अन्दर हो रहा है और मैं ही इसे धारण कर रहा हूं यह मेरी सत्ता का कार्य है,'' वरन् अधिक-से-अधिक यही कहता है कि ''यह मेरे ऊपर आरोपित किया गया है, पर असल में मुझसे बाहर की चीज है ।'' जबतक सत्ता में एक स्पष्ट एवं वास्तविक द्वैत न हो, यह इस विषय का

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समुर्ण सत्य नहीं हो सकता; पुरुष भर्त्ता भी है, वह अपनी सत्ता में उस शक्ति को धारण करता है जो विश्वरूपी दृश्य को प्रदर्शित करती है और जो इसकी शक्तियों का संचालन करती है । जब पुरुष भर्त्ता के इस कार्य को स्वीकार करता है, तब भी वह इसे निष्क्रिय रूप में तथा आसक्ति के बिना कर सकता है, यह अनुभव करते हुए कि वह शक्ति प्रदान करता है, पर इसका नियंत्रण एवं निर्धारण नहीं करता । नियंत्रण करनेवाला कोई और ही है, ईश्वर या शक्ति या माया का निज स्वरूप; पुरुष उदासीन भाव में केवल भरण करता है और यह कार्य वह तबतक करता है जबतक कि उसे करना पड़ता है, शायद तबतक जबतक उसकी अतीत अनुमति का बल और शक्ति के कार्य में उसकी रुचि बनी रहती है किंवा समाप्त नहीं हो जाती । परन्तु यदि पुरुष भर्त्ता की वृत्ति को पूर्णरूपेण स्वीकार कर ले तो समझना चाहिये कि सक्रिय ब्रह्म के साथ तथा उसकी विराट् सत्ता के आनन्द के साथ तादात्म्य की ओर उसने एक महत्त्वपूर्ण पग आगे बढ़ा लिया है, क्योंकि वह सक्रिय अनुमन्ता बन गया है ।

 

   साक्षी की वृत्ति में भी एक प्रकार की अनुमति होती है, पर वह निष्क्रिय तथा जड़ होती है और उसमें किसी प्रकार की निरपेक्षता नहीं होती । परन्तु यदि वह भरण करने के लिये पूर्ण रूप से सहमत हो जाय तो समझो कि अनुमति ने सक्रिय रूप धारण कर लिया है, चाहे पुरुष प्रकृति की सब शक्तियों को प्रतिबिम्बित तथा धारण करने के लिये और इस प्रकार उनकी क्रिया को बनाये रखने के लिये सहमत होने से अधिक कुछ भी न करे, अर्थात् शक्तियों के कार्य का निर्धारण और चुनाव न करे एवं यह माने कि स्वयं ईश्वर या शक्ति या कोई ज्ञानमय संकल्पशक्ति ही चुनाव और निर्धारण करती है, और पुरुष तो केवल साक्षी, भर्त्ता तथा इस प्रकार अनुमति का दाता, अनुमन्ता है न कि ज्ञान और संकल्प का धारण तथा नियमन करनेवाला, ज्ञाता, ईश्वर । परन्तु इसके सामने जो कार्य प्रस्तुत किये जायें उनमें से यदि यह सामान्यत: ही कुछ को पसंद करे तथा दूसरों का त्याग करे तो समझो कि यह उनका निर्धारण करने लगा है; जो आपेक्षिक दृष्टि से एक निष्क्रिय अनुमन्ता था वह अब पूर्ण रूप से सक्रिय अनुमन्ता बन गया है और एक सक्रिय अनुमन्ता बनने की राह पर है ।

 

   पुरुष नियन्ता तब बनता है जब वह प्रकृति के ज्ञाता, ईश्वर और भोक्ता के रूप में अपना पूरा कार्य करना स्वीकार कर लेता है । ज्ञाता के रूप में पुरुष कर्म और उसका निर्धारण करनेवाली शक्ति को जानता है, यह सत्ता के उन मूल्यों को देखता है जो विश्व में अपने-आपको चरितार्थ कर रहे हैं, यह नियति के रहस्य में प्रवेश पा लेता है । परन्तु स्वयं शक्ति ज्ञान के द्वारा निर्धारित होती है जो उसका उद्गम है तथा उसके मूल्यों का और उनकी क्रियान्वितियों का मूलस्रोत तथा निर्धारक है । अतएव, जैसे-जैसे पुरुष फिर से ज्ञाता बनता जाता है, वैसे-वैसे वह कर्म का

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नियन्ता भी बनता जाता है । पर वह सक्रिय भोक्ता (उपभोग करनेवाला) बने बिना नियन्ता भी नहीं बन सकता । निम्नतर सत्ता में उपभोग दो प्रकार का होता है, धनात्मक और ऋणात्मक, जो ज्ञानतन्तुओं में बहनेवाली प्राणरूपी विद्युत् के प्रवाह में हर्ष और शोक का रूप धारण कर लेता है; परन्तु उच्चतर सत्ता में यह आत्म-अभिव्यक्ति के दिव्य आनन्द का सक्रिय रूप से समान उपभोग होता है । इसमें मुक्तावस्था का लोप नहीं होता, न अज्ञानपूर्ण आसक्ति में पतन ही होता है । आत्मा में मुक्त हुए मनुष्य को यह ज्ञान होता है कि भगवान् प्रकृति के कर्म के प्रभु हैं, माया उनकी ज्ञानमय संकल्पशक्ति है जो सब चीजों को निर्धारित तथा साधित करती है, शक्ति इस दोहरी दिव्य माया का संकल्पात्मक रूप है, इस दिव्य माया-शक्ति में ज्ञान सदा उपस्थित रहता है तथा अमोघ होता है; मुक्त पुरुष यह भी जानता है कि वह, व्यक्तिगत रूप में भी, दिव्य सत्ता का एक केन्द्र है, --गीता के शब्दों में, ईश्वर का अंश है, --उतने अंश में वह प्रकृति के उस कर्म को नियंत्रित करता है जिसका वह अवलोकन तथा भरण करता है, अनुमोदन एवं उपभोग करता है, तथा जिसे वह जानता है एवं ज्ञान की निर्धारक शक्ति के द्वारा नियंत्रित करता है; और जब वह अपने-आपको विश्वमय बना लेता है, तो उसका ज्ञान केवल दिव्य ज्ञान को प्रतिबिम्बित करता है, उसका संकल्प केवल दिव्य संकल्प को कार्यान्वित करता है, वह अज्ञानपूर्ण व्यक्तिगत सुख का नहीं, बल्कि केवल दिव्य आनन्द का उपभोग करता है । इस प्रकार पुरुष अपनी मुक्तावस्था को अपने अधिकार में सुरक्षित रखता है, विराट् पुरुष के एक प्रतिनिधि के रूप में विराट् अस्तित्व का उपभोग एवं आनन्द प्राप्त करता हुआ भी सीमित व्यक्तित्व के त्याग की अवस्था को सुरक्षित रखता है । इस उच्चतर भूमिका में वह पुरुष और प्रकृति के सच्चे सम्बन्धों को पूर्ण रूप से प्राप्त किये होता है ।

 

   पुरुष और प्रकृति अपने अद्वैतात्मक और द्वैतात्मक स्वरूप में सच्चिदानन्द की सत्ता से ही उद्भूत होते हैं । आत्म-सचेतन सत्ता सत् का मूल स्वरूप है, वह सत् या पुरुष है : आत्म-सचेतन सत्ता की शक्ति ही प्रकृति है, भले वह अपने अन्दर एकाग्र हो या अपनी चेतना और बल के, अपने ज्ञान और संकल्प, चित् और तपस् चित् और उसकी शक्ति के कार्यों में क्रिया कर रही हो । सत्ता का आनन्द इस चिन्मय सत्ता और इसकी चिन्मय शक्ति के एकत्व का सनातन सत्य है, भले वह चिन्मय शक्ति अपने ही अन्दर लीन हो या फिर अपने दो रूपों के अविच्छेद्य द्वैत में प्रकटीभूत हो; वे दो रूप हैं--लोकों को प्रकट करना और उनका अवलोकन करना, उनके अन्दर कार्य करना तथा उस कार्य को धारण करना, कार्यों को सम्पन्न करना और उनके लिये अनुमति देना जिसके बिना प्रकृति की शक्ति कार्य कर ही नहीं सकती, ज्ञान और संकल्प को क्रियान्वित तथा नियन्त्रित करना और ज्ञान-शक्ति तथा संकल्प-शक्ति के निर्धारण को जानना तथा नियन्त्रित करना,

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उपभोग की सामग्री जुटाना और उपभोग करना, --पुरुष प्रकृति का धर्ता, द्रष्टा, ज्ञाता और ईश्वर है और प्रकृति सत्ता को प्रकट करती है, संकल्प को क्रियान्वित करती, आत्म-ज्ञान को तृप्त करती और पुरुष को सत्ता का आनन्द प्राप्त करने में सहायता देती है । यहां हम पुरुष और प्रकृति का सर्वोच्च और विराट् सम्बन्ध देखते हैं जो सत्ता के वास्तविक स्वरूप पर आधारित है । पुरुष का अपनी सत्ता में निरपेक्ष आनन्द लेना और इस आनन्द के आधार पर उसका प्रकृति में आनन्द लेना--यही उक्त सम्बन्ध की दिव्य परिपूर्णता है ।

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