The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१ जुलाई, १९७०
मुझे एक अनुभूति हुई जो मेरे लिये मजेदार थी, क्योंकि वह पहली बार थी । कल या परसोंकी बात है, मुझे याद नहीं, 'क' ठीक मेरे सामने थीं । मैंने उसके चैत्य पुरुषको देखा, वह उसपर छाया हुआ था (लगभग २० सेटीमीटरका संकेत), इतना ऊंचा । यह पहली बार था । उसका भौतिक शरीर छोटा था और चैत्य पुरुष इतना अधिक बड़ा । वह एक अलैगिक सत्ता न स्त्री, न पुरुष । तब मैंने अपने-आपसे कहा (संभवत: हमेशा ऐसा ही होता है, पता नहीं, लेकिन यहां मैंने स्पष्ट देखा), मैंने अपने-आपसे कहा. यह है चैत्य पुरुष । यही अपने-आपको मूर्त रूप देकर अतिमानव सत्ता बन जायगा!
मैंने उसे देखा, वह ऐसा था । उसमें विशेषताएं थीं लेकिन बहुत ज्यादा उभरी हुई नहीं । स्पष्टतः, वह एक ऐसी सत्ता थी जो न स्त्री थी, न पुरुष, उसमें दोनोंकी सम्मिलित विशेषताएं थी । वह व्यक्तिसे बड़ा था और हूर तरहसे उससे इतना बढ़-चढ़कर था (शरीरसे लगभग २० सेंटीमीटर अधिक होनेका संकेत) । वह वहां थी और यह इस तरह था
(संकेत) और उसका रंग ऐसा था.... यह रंग... जो अगर पूरी तरह भौतिक रूप ले लें तो ओरोवीलका रंग बन जायगा ।' वह जरा हल्का था मानों परदेके पीछे हो, वह बिलकुल ठीक-ठीक न था, पर था वैसा ही रंग । सिरपर बाल थे पर... कृउछ भिन्न । शायद मैं अगली बार ज्यादा अच्छी तरह देखुगी । लेकिन उसमें मुझे बहुत मजा आया क्योंकि वह ऐसा था मानों वह सत्ता मुझसे कह रही हों. ''आप यह देखनेमें लगी हैं कि अतिमानव सत्ता कैसी होगी - यह रही! यह रहीं वह ।'' और वह मौजूद थी । वह उस व्यक्तिका चैत्य पुरुष था ।
तो, हम समझना शुरू करते हैं । हम समझते है : चैत्य पुरुष अपने- आपको भौतिक रूप देता है.. और यह क्रम-विकासको सातत्य प्रदान करता है । यह सृष्टि ऐसी प्रतीति देती है कि कुछ भी मनमाना नहीं है । इसके पीछे एक भागवत तर्क है । वह हमारे मानव तर्कके जैसा नहीं है । वह हमारे तर्कसे बहुत ज्यादा श्रेष्ठ है -- लेकिन और भी तर्क है -- और वह, उसे पूरा संतोष हो गया जब मैंने यह देखा ।
यह वास्तवमें मजेदार है । मुझे बहुत मजा आया । वह मौजूद था शांत, स्थिर और उसने मुझसे कहा : ''आप देखना चाहती थी? यह रहा, यह वही है! ''
और तब मैं समझी कि मन और प्राणकों शरीरके बाहर क्यों भेज दिया गया था, केवल चैत्य पुरुष बचा था शरीरमें - स्वभावतः, वही सारे समय, सभी गतिविधियोंपर शासन कर रहा था, इसलिये कोई नयी बात न थी, लेकिन अब कोई कठिनाइयां नहीं बची : सभी उलझनें मन और प्राणसे आती थीं, वे अपनी राय और प्रवृत्ति लादती थीं । अब वह सब चला गया । और मैं समझ गयी : ओहो! यह है! चैत्य पुरुषको ही अति- मानसिक सत्ता बनना है ।
लेकिन मैंने कमी यह जाननेकी कोशिश नहीं की कि वह देखनेमें कैसा होगा । ' और जब मैंने 'क' को देखा तो मै समझ गयी । मै उसे देखती हू, अब भी देख रही हू । मैंने वह स्मृति बनाये' रखी है । ऐसा था मानों सिरके बाल लाल हों (लेकिन वह ऐसा था नहीं) । और उसके चेहरेका भाव! इतना सुन्दर, इतना मधुर व्यंग्यात्मक... आह! असा- धारण असाधारण ।
और समझते हो, मेरी आंखें खुली हुई थीं । यह लगभग भौतिक, द्रव्यत्मक अंतर्दर्शन था ।
'नारंगी ।
तो समझमें आता है । अचानक, एक साथ सभी प्रश्न गायब हो गये । यह बहुत स्पष्ट हो गया है, बहुत सरल ।
( मौन)
और बस, केवल चैत्य पुरुष ही बचा रहता है । तो अगर वह अपने-अपिको भौतिक स्व दे लें, तो इसका अर्थ होगा मृत्युका विलोपन : जो चीज 'सत्य' के अनुकूल नहीं होती उसके सिवा किसीका 'विलोपन' नहीं होता.. और वह चल बसती है... जो कुछ अपने-आपको चैत्यके अनुरूप रूपांतरित करने और उसका अभिन्न भाग बननेके योग्य न हों, वह गायब हों जाता है । यह सचमुच मजेदार है ।
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