The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१ सितंबर, १९७१
जहांतक शरीरका सवाल है उसे सिखाया जा रहा है केवल भगवानके द्वारा जीवित रहना, भगवान्पर जीवित रहना, हर चीजके लिये -- हर चीज, हर चीज, बिना अपवादके हर एक चीज । केवल तभी जब चेतना यथासंभव अधिक-सें-अधिक दिठय चेतनाके साथ जूड़ी हो तभी अस्तित्वका भाव आता है । अब उसमें एक असाधारण तीव्रता है । जब भौतिक परिवर्तित हो जायगा तो वह एक ठोस चीज होगी । समझे? जो हिलतीडुलती नहीं, और पूर्ण है । और इतनी ठोस.. । भगवान्में होने, केवल उन्हींकी द्वारा और उन्हींमें ज़ीने और फिर (स्वमावत:, सामान्य नहीं, मानव चेतनामें जीना) -- इन दोनोंमें इतना फर्क है कि एक दूसरीके आगे मृत्यु लगती है, यहांतक कि.. कहनेका मतलब, भौतिक सिद्धि ही सचमुच ठोस सिद्धि है ।
ऊर्जाका संकेंद्रण शुरू हो गया हैं- ओह! अभीतक वह नहीं है, अभी उससे बहुत दूर है_, लेकिन. - जो होनेवाला है उसके बोधका आरंभ है । वह, हां. वह सचमुच अद्भुत है! वह शक्तिसे इतना भरा है! चेतना- मे शक्ति और वास्तविकतासे इतना भरा हुआ कि और कोई, कोई चीज इतना धारणा नहीं कर सकती -- इसके आगे प्राण, मन, सब कुछ अस्पष्ट और अनिश्चित प्रतीत होते है । वह ठोस है (माताजी अपने हाथ सख़्तीसे पकड़ती हैं) । और यह इतना मजबूत है!
अब भी समस्याएं हैं जिन्हें सुलझाना है, लेकिन शब्दों और विचारोंसे नहीं । और चीजें ठीक यही दिखानेके लिये आ रही है -- केवल व्यक्ति- गत चीजें नहीं, चारों ओरकी चीजें : लोग, परिस्थितियां और सब कुछ, शरीरको सिखानेके, सत्य चेतना प्राप्त करना सिखानेके लिये आ रहीं है । वह, वह... अद्भुत है ।
(माताजी अपने अंदर चली जाती हैं)
ऐसा मालूम होता है कि ऐसा भौतिक शरीर वनानेकी समस्या है जो उस 'शक्ति' को धारण कर सके जो अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है -- सभी साधारण शारीरिक चेतनाएं उस विशाल 'शक्ति' को धारण करनेके लिये बहुत पतली और कमजोर है जिसे अपने-आपको प्रकट करना चाहिये । इसलिये शरीर अपने-आपको प्रशिक्षित करनेकी प्रक्रियामें है । और वह... जानते हो, मानों उसने अचानक एक अद्भुत, एक अद्भुत क्षितिज देखा है, विस्मयकारी रूपसे अद्भुत; और फिर, उसे अपनी धारणाशक्तिके अनुसार आगे बढ़नेके लिये छोड़ दिया गया है । अनुकूलनकी पद्धति- की जरूरत है । संक्रमण. पूर्ण संक्रमण ।
क्या वह पर्याप्त रूपसे नमनीय होगा? पता नहीं ।
यह नमनीयताका प्रश्न है । जो 'शक्ति' अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है (ऊपरसे माताजीके द्वारा गुजरते हुए प्रवाहका संकेत), उसे बिना बाधा दिये धारण करना और संचारित करना ।
रूप-रंग केवल भावी निष्कर्ष है । अत.... रूप-रंग बदलनेके लिये आखिरी चीजें होंगी।
(माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)
यह अनिश्चित कालतक चल सकता है... । कोई चीज छुए जाने को है ऐसी प्रतीति और.. (निकल भागनेकी मुद्रा) ।
तुम्हें क्या लगा?
'ग'ने मुझे एक बार यह समझाया कि मै जब आपके पास होता हू तो क्या अनुभव करता हू... । उसने कहा : ''जब कोई आपके पास होता है तो ऐसा लगता है मानों शरीरसे प्रर्थना करवायी जा रहो है ।', जी, तो बात यही है । मुझे ऐसा लगता है कि
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कोई शक्ति शरीरके सभी भागोंको लेकर... पता नहीं, उन्हें अभीप्सासे लबालब भर देती है ।
हां, लेकिन यही तो मेरा शरीर अनुभव करता है ।
जी हां, वह शरीरसे प्रार्थना करवाती है, शरीरको एक ऐसी 'शक्ति' से भर देती है जो... पता नहीं, जो चमकते हुए सोनेके जैसी है और हर चीजको ऊपर उठा देती है ।
हां, ऐसा हर समय रहता है ।
( मौन)
मुझे लगता है... कि वह (अपने शरीरपर आड़ा-तिरछा संकेत) सारे समय इस तरह प्रवाहित होती है ।
शायद यह वह है, भौतिक द्रव्यमें भागवत प्रेम?
(माताजी खूब हंसती हैं)
यह एक साथ ऐसा चमकदार और तीव्र होता है -- चमकदार और इतना सशक्त... । वह इतना सशक्त होता है कि हम मुश्किलसे ही उसे ''प्रेम'' का नाम दे सकते हैं, क्योंकि हम प्रेम शब्दसे जो कुछ समझते हैं यह उसके साथ कहीं भी मेल नहीं खाता।
हा, मै मी नहीं!... मैं ऐसी हू (माथेकी और इशारा) : कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, खाली, खाली, खाली... । वह (ऊपरकी ओर और विस्तारमें इशारा), वह रहा... हां, यह एक सुनहरा बृहत् है ।
जी।
मुझे एक अजीब-सी प्रतीति होती है कि यह एक प्रकारके... मानो परतें या पेडोंकी छाल, कछुएके खप़डे पिघल रहे हैं और स्वयं शरीर ऐसा नहीं है (माताजी ऐसा संकेत करती हैं मानों शरीर सूर्यकी ओर उफन रहा हो) । जो चीज मनुष्यको द्रव्य मालूम होती है वह... मानों वह कोई पथरायी हुई चीज है और उसे झड़ जाना चाहिये, क्योंकि वह ग्रहण नहीं करती । और इस शरीरमें, यहां (माताजी अपने हाथकी त्वचाको छूती हैं), यह कोशिश करता है... कोशिश करता है... (फिरसे खुलनेकी मुद्रा) । ओह! यह अजीब है, यह अजीब संवेदन है ।
अगर इसे काफी समयतक बनाये रखा जा सकें जिससे चीज पिघल जाय, तो यह सच्चा आरंभ होगा ।
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