The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१३ दिसंबर, १९६९
मेरे पास श्रीअरविदके 'सूत्र' प्रायः रोज ही आते रहते है । इन्हें मै बिलकुल भूल चुकी थी... । वे बहुत मजेदार बातें हैं... । कुछसे मुझे ऐसा लगता है कि वे उस अतिमानसिक चेतनाकी एक प्रकारकी प्रति- लिपि है (हम उन्हें बौद्धिक कह सकते हैं, लेकिन वे है नहीं, यह मानस भावप्राप्त उच्चतर: मन है, यानी, वहां विचारकी पहुंच है) जिसकी अनुभूति मुझे हुई थी, जिसमें शुभ और अशुभका भेद और ऐसी सब चीजें बचकानी लगती है । श्रीअरविद 'मूत्रों'में इन बातोंको इस तरह व्यक्त करते है कि
१६८- पाप-भावनाका होना आवश्यक था ताकि मनुष्य अपनी निजी अपूर्णताओंसे उकता जाय । यह अहंकारका संशोधन करनेके लिये भगवान्का उपाय था । परंतु मनुष्यका अहंकार स्वयं अपने पापोंके प्रति तो बहुत ही धीमे रूपमें और दूसरोंके पापोंके प्रति बहुत तीव्र रूपमें जाग्रत् रहकर भगवान्के इस उपायका सामना करता है ।
बुद्धिगम्य हो जायं । केवल... जो लोग समझते है ३ अच्छी तरह नहीं समझते! क्योंकि वे पुरानी रीतिसे समझते है ।
क्या तुम्हें वे सूत्र याद हैं? एक है जहां वे कहते हैं ''अगर मै राम नहीं बन सकता तो रावण बनना चाहूंगा.. '' और वे कारण समझाते हैं । यह उसी सूत्रावलीमें है ।'
( मौन)
यहां एक व्यावहारिक समस्या है : यह तो स्पष्ट है कि हम कुछ गतियोंको दूर करना चाहेंगे क्योंकि हमें लगता है कि वें दोष- पूर्ण हैं, लेकिन हमें पता नहीं चलता कि यह करें कैसे । क्या यह ऊपरसे है? जब-जब ऐसी गति सिर उठाये उसपर प्रकाश' डाला जाय और फिर --
यह गतिके प्रकारपर निर्भर है; इसपर निर्भर है कि वह सत्ताके किस भाग मै है और किस जातिकी है ।
मुझे विश्वास है कि हर कठिनाई एक विशेष समस्या है । तुम कोई सामान्य नियम नहीं बना सकते ।
१२२१ - मनुष्य शत्रुओंकी बात करते हैं, पर कहां है वे? मै तो केवल विश्वके विशाल अखाड़ेमें किसी पक या दूसरे पथकै पहलवानोंको हीं देखता हू ।
२२२ - संत और देवदूत ही दिव्य सत्ताएं नहीं हैं; दैत्य और असुरके लिये भी प्रशंसाके शब्द कहो ।
२२३- पुराने. ग्रंथोंमें असुरोंको ज्येष्ठ देवता कहा जाता है । और वे अब भी वही है; कोई मी देवता पूरी तरहसे दिव्य नहीं होता जबतक कि उसमें एक असुर न छिपा हुआ हों ।
२२४ - यदि मैं राम नहीं हो सकता तो मै रावण होऊंगा; क्योंकि वह विष्णुका अंधकारमय पक्ष है ।
१९०
उदाहरणके लिये, उस दिन आपने कहा था कि जनम एक ''रेचन'' है...
(माताजी हंसती है)
आपको याद है : जिन लोगोंने हर चीज दबा दी है ३ देखते है कि वही चीजें बच्चोंमें प्रकट हो रही हैं ।'
हां, हां!
और आपने कहा था कि इससे पता चलता है कि क्या नहीं करना चाहिये ।
हां !
तो अब मैं यह जानना चाहूंगा कि दमनके बिना उपचारका
१"लोगोंका एक बहुत बड़ा मांग जो बिना चाहे, बस ''यूं'' ही बालक पैदा कर लेते है, और जो शिक्षित होते हैं, यानी, जिनके दिमागोंमें कुछ विचार ठुसे गये होते हैं, यानी, अमुक दोष हैं जो नहीं होने चाहिये और अमुक गुण है जो होने चाहिये -- ये सब बातें जो उनकी सत्तामें धंसा दी गयी थीं, सभी भ्रष्ट सहजवृत्तियां ऊपर उठ आती है । मैंने अवलोकन किया, देखा और बहुत, बहुत पहले कहीं पढ़ा है (शायद वह रेनांमें था), उसने लिखा था कि हमें अच्छे और बहुत आदरणीय मांबापपर विश्वास न करना चाहिये (हंसते हुए), क्योंकि जनम एक ''रेचन'' हे! और उसने यह भी कहा था कि बुरे लोगोंके बच्चोंको सावधानीसे देखो, वे प्रायः प्रतिक्रिया होते है! और अपनी अनुभूतिके बाद, जो मैंने देखा है उसके बाद मैंने अपने-आपसे कहा. यह आदमी बिलकुल ठीक कहता था! यह लोगोंके लिये अपने-आपको रेचन देनेका एक तरीका है । वे जो चीजें नहीं चाहते उन्हें इस तरह बाहर निकाल देते है ।.. और यह बहुत मजेदार है । इसमें हमें इस बातकी चाबी मिलती है कि हमें क्या करना चाहिये । यह दिखाकर कि क्या नहीं करना चाहिये, यह बात तुम्हें इसकी चाबी देती है कि क्या करना चाहिये । ''
१९१
क्या तरीका है? क्योंकि यथार्थतः प्रकाश डाला जाता है, लेकिन इससे गलत गति नीचे चली जाती है ।
हां, यह सामान्य नियम है । इससे उलटी चीज करनी चाहिये : उसे भूमि- गत करनेकी जगह निवेदित कर देना चाहिये । उस चीजको, उस गति- को प्रकाशके सामने प्रक्षिप्त करना चाहिये.. । साधारणत: वह छटपटाती और इनकार करती है । लेकिन (हंसते हुए) यही एकमात्र उपाय है । इसीलिये यह चेतना इतनी मूल्य वान् है.. । हां, जो चीज दमनको लाती है वह है भले-बुरेकी धारणा, जो बुरा समझा जाता है उसके लिये उस तरहका तिरस्कार या लज्जा, और तब तुम करते हो (पीछे हटनेकी मुद्रा), तुम उसे देखना नहीं चाहते, तुम वहां रहना नहीं चाहते । होना यह चाहिये... पहली चीज - सबसे पहली चीज जो हमें जाननी चाहिये वह है चेतनाकी दुर्बलता जो विभाजन करती है । एक और 'चेतना' है, ( अब मुझे इसका विश्वास है) एक ऐसी चेतना है जिसमें यह भेद नहीं है, जिसमें, जिसे हम 'अशुभ' कहते हैं, वह भी उतना हीं जरूरी है जितना वह जिसे हम 'शुभ' कहते है । अगर हम अपने संवेदनको प्रक्षिप्त कर सकें -- अपनी क्रियाको या अपने बोधकों - उस प्रकाशमें प्रक्षिप्त कर सकें तो उससे उपचार मिल जायगा ।' उसे नष्ट करने लायक चीज समझकर उसका दमन करने या त्याग करनेकी जगह (उसे नष्ट नहीं किया जा सकता!), उसे प्रकाशमें प्रक्षिप्त करना चाहिये । इसके कारण मुझे कई दिनोंतक एक बड़ी मजेदार अनुभूति होती रही : अमुक चीजोंको (जिन्हें तुम स्वीकार नहीं करते और जो सत्तामें असंतुलन पैदा करती हैं), उन्हें अपनेसे दूर फेंकनेकी कोशिश
१इस वार्ताके प्रकाशित होनेके समय माताजीने यह टिप्पणी जोड़ दी ''इस 'चेतना' मै जहां दो विपरीत चीजें, दो विरोधी बातें एक साथ जोड़ दी जाती हैं, दोनोंकी प्रकृति बदल जाती है । वे वही नहीं बनी रहती जो वे थीं । वे केवल जोड़ी नहीं जाती कि जैसी-की-तैसी बनी रहे : उनकी प्रकृति बदल जाती है । और यह बहुत महत्त्वपूर्ण है । उनकी प्रकृति, उनकी क्रिया, उनके स्पंदन जुड़नेके साथ ही एकदम बदल जाते है । विभेद उन्हें वह बनाता है जो वे हैं । विभेदको अलग कर दो और उन- की प्रकृति बदल जायगी । तब 'शुभ' और 'अशुभ' नहीं बना रहता, कुछ ओर ही होता है, कोई चीज पूर्ण और समग्र ।''
१९२
करनेकी जगह, उन्हें स्वीकार कर लो, अपने अंशके रूपमें स्वीकार कर लो... (माताजी अपने हाथ फैलाती है) और उन्हें निवेदित कर दो । वे निवेदित होना नहीं चाहती, लेकिन उन्हें बाधित करनेका एक तरीका है । उन्हें बाधित करनेका एक तरीका है : हम जिस अनुपातमें अपने अंदरसे अस्वीकृतिकी भावनाको कम कर सकेंगे उसी अनुपातमें उनका प्रतिरोध घटता जायगा । अगर हम इस अस्वीकृतिके मावकि जगह उच्च- नर: समझको ला सकें तो सफलता मिलती है । यह बहुत ज्यादा आसान है ।
मेरा ख्याल है कि यही है । वे सब गतियां, सभी, जो तुम्हें नीचेकी ओर घसीटती है उन सबका उच्चतर समझके साथ संपर्क करवाना चाहिये । स्पष्ट है कि यह मनके परे है । जैसा मैंने अभी कहा श्रीअरविंदके मूत्र बुद्धिगम्य अभिव्यंजना है, फिर भी वे कम तो कर ही देते हैं; वे कम कर देते हैं । उनमें शब्द-रहित प्रज्ञाकी चकाचौंध नहो है -- वहीं, केवल वही चीजें व्यवस्थित की जा सकतीं है ।
स्वयं अपने-आपको समझनेसे भी चीज घट जाती हैं । कुछ न कहना चाहिये । (हंसते हुए) यह ऐसा है जैसे रंगकी एक ऐसी परत लगाना जो विकृत कर दें ।
(माताजी अचानक पाससे एक कापी उठाती है और जो पत्र उन्होने बातके आरंभमें पढ़ा था उसका उत्तर लिखती है ।)
यह इस तरह आया । यह इसी तरह होता है : एकदम अचानक! और तब वह ठहरा रहता है, जबतक मैं लिखन लू तबतक जाना नहीं चाहता । यह बहुत मनोरंजक है ।
यह मनोरंजक है क्योंकि यह मेल नहीं खाता ।.. (मैं अब यह मी नहीं कह सकती कि मै जो सोच रही हू उसके साथ मेल नहीं खाता, क्यों- कि अब मैं सोचती ही नहीं) मेरी अनुभूतिके साथ मेल नहीं खाता, दूसरेको जिस चीजकी जरूरत है उसके साथ मेल खाता है । दूसरेके लिये उत्तर लिखवा दिया जाता है । शब्द, मुहावरे, वाक्य-रचना, प्रतिपादन उस व्यक्तिके साथ बदल जाते बेर. जिसे लिखा जा रहा हो । और (माताजीकी) जो चेतना वहां है (उमरकी ओर संकेत), इसके साथ कोई संबंध नहीं रखती । वह प्राप्त करती है और फिर यह चीज नीचे आती है और इस तरह करती जाती है (हथौड़ी चलानेका संकेत), जबतक मैं लिख न लू! जबतक लिख न लिया जाय तबतक यह वापिस नहीं जाना चाहती । यह बहुत मनोरंजक
१९३
है... । इस भांति वह अपने-आपको थकाये बिना कठिन परिश्रम कर सकतीं है । (माताजी हंसती है)
मै बहुत चाहूंगा कि मुझे एक बीज मिल जाय ।
यह लो (माताजी हंसते हुए अपने हाथ देती है) ।
क्योंकि मानसिक नीरवतामें भी -- मुझे हमेशा मानसिक नीरवतामें लिखनेकी आदत ' -- लेकिन चीजके बावजूद इस नीरवतामें भी मै सावधान प्रतिक्रिये आकर अपने-आपको न कर दें ।
हां, हां ।
मुझे इसका भय है ।
हां, पुरानी चीजें उठ आती हैं ।
लेकिन क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि वे उत्पर्ता आती है ?
मुझे लगता है कि 'शक्ति' वहां हैं और बह नीचे उतरती है ?
हां, तो फिर?
लेकिन फिर, जब मै लिखता तो अपने-आपसे कहना हू... ।
ओह! यह प्रायः होता है ।
मैं अपने-आपसे कहता हूं : शायद मुझे यह न कहना चाहिये था ।
लेकिन यह तो मनका दखल देना हुआ ।
१९४
पता नहीं ।
यह मेरे साथ भी होता है । कभी. कभी, मैं लिखकर भेज देती हू और बादमें मुझे याद आता है कि मैंने क्या लिखा था और मै अपने-आपसे कहती हू : घत्! मुझे यह न कहना चाहिये था!... और मै पता लगा लेती हू' कि वह ठीक था -- मेरी प्रतिक्रिया मानसिक थी ।
मेरे साथ यह बहुत बार हुआ है । उदाहरणके लिये, उस दिन मुझे 'ज' को लिखना था । बह बहुत बार अवांछनीय बातें लिखता है, लेकिन मै कुछ नहीं कहता; लेकिन उस दिन मैंने उसे एक कहा पत्र लिखा और उससे पूछा कि इस सबका मतलब क्या है? बादमें मैंने अपने-आपसे कहा : नहीं, मुझे टस-से-मस न होना चाहिये, और मैंने पत्र नहीं भेजा... । क्या करना चाहिये, मुझे पता नहीं ।
यह, वत्स... (मौन)
यह कठिन है ।
हां... लेकिन जब तुम ऊपरकी ओर मुड़ते हों या जब तुम अभीप्सा करते हो या जब तुम परम चेतनाकी ओर इस तरह खुलते हों, तो वह मूर्त्त मे जाती है ।
जी हां, वह ठोस होती है ।
वह मूर्त्त होती है? व्यक्तिको... समझे, एक ही रास्ता है, अहंको जाना चाहिये । वस, यही है । यही है । केवल जब ''मैं'' के स्थानपर कुछ भी न रहे : वह इस तरह बिलकुल चपटा हो जाय (किसी बहुत बड़ी, बराबर, बिना शिकनकी चीजका संकेत), जिसमें एक प्रकारका... यह शब्दोंके द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, एक बहुत ही स्थायी संवेदनके माय : ''जैसी तेरी इच्छा, जैसी तेरी इच्छा । '' (शब्द बहुत तुच्छ बन जाते हैं) वास्तवमें यह ठोस संवेदन होना कि इस (शरीर) का अस्तित्व ही नहीं है, इसका केवल उपयोग किया जा रहा है -- केवल 'वह' है । 'वही' यह करता है (दबावका संकेत) । उसका यह संवेदन यह सचेतन 'विस्तार'
१९५
(माताजी बाहें फैलाती हैं).. अंतमें तुम निश्चय ही उसे देखते हों (''देखते हों'', यह प्रतीकोंवाला अंतर्दर्शन नहीं है, यह एक दृष्टि है... । पता नहीं किस तरहकी! परंतु वह बहुत ठोस है, बिम्बोंवाले अंतर्दर्शनसे कहीं अधिक ठोस है), इस बृहत् 'शक्ति' का अंतर्दर्शन, यह बृहत् 'स्पंदन' जो दबाव डालता है, दबाव डालता है, दबाव डालता है, दबाव डालता है .. और यह जगत् जो उसके नीचे कुलमुलाता है (!) और चीज खुल जाती है और जब वह खुल जाती है तो वह प्रवेश करता और फैलता है । यह सचमुच मजेदार है ।
यही एकमात्र समाधान है । काई और नहीं । बाकी सब... अभीप्सा, कल्पनाएं, प्रत्याशाए... । यह अभीतक अति-मानव है, अतिमानस नहीं । यह एक उच्चतर मानव जाति है जो सारी मानवताको ऊपर खींचनेकी कोशिश करती है, लेकिन वह... इसका कोई फायदा नहीं, इसका कोई फायदा नहीं !
चित्र बहुत स्पष्ट है । यह समस्त मानवजाति ऊपर चढ़नेकी लिये चिपटी रहती है, जो इस तरह पकड़े रहनेकी कोशिश करती है, पर वह अपने- आपको देना नहीं चाहती --- वह लेना चाहती है! इससे काम न चलेगा । उसे अपने-आपसे हाथ धोने होंगे । तभी वह वस्तु आकर अपना स्थान लें सकेगी ।
सारा रहस्य इसीमें है ।
उदाहरणके लिये, मानवजातिका यह सारा पक्ष जो चीजोंको जोरसे हथियाना चाहता है और उन्हें ऊपरसे खींचता है (माथेतककी ऊंचाईका संकेत)... यह मजेदार है; यह नहीं कहा जा सकता कि यह मजेदार है, परंतु यह वह नहीं है! वह नहीं है, यह कहनेकी जरूरत नहीं कि मानवताके अंदर कोई चीज समझ सके उससे पहले ये सब संभावनाएं समाप्त करनी होगी.. केवल वही है (माताजी आत्म-विलोपनकी मुद्रामें हाथ फैलाती है), अपने-आपको दंडवत लिटाकर, जबतक कि स्वयं वह गायब न हों जाय ।
वास्तवमें, यह -- गायब होना सीखना - सबसे कठिन चीज है ।
अच्छा ठीक है, वत्स (हंसते हुए), हम जा पहुंचेंगे ।
१९६
Home
The Mother
Books
CWM
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.