The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१३ मार्च, १९६८
१९५३ की एक पुरानी वार्ताके बारेमें जिसमें
माताजीसे किसी शिष्यने पूछा था कि ''क्या
भगवान् अपने-आपको हमसे अलग खींच सकते
हैं'', माताजीने उत्तर दिया था.
''यह असंभव है, क्योंकि अगर भगवान् अपने-आपको किसी चीजसे अलग कर लें तो वह तुरंत समाप्त हो जायेगी, क्योंकि उसका अस्तित्व ही न रहेगा । ज्यादा स्पष्ट कहे तो : भगवान् ही एकमात्र सत्ता हैं ।''
(मई २७, १ ९९५३)
अब में' यह जवाब देती : यह तो ऐसा है जैसे तुम मुझसे पूछो कि क्या भगवान् अपने-आपको अपनेसे खींच सकते है! (माताजी हंसती है) मुश्किल तो यही है जब हम ''भगवान्''की बात करते है तो लोग ''देव'' समझ लेते है... । केवल 'वही' है : केवल 'उसी' का अस्तित्व है । वह क्या है? बस, 'उसी 'का अस्तित्व है!
( मौन)
आज सवेरे ही की बात है, मै' अवलोकन कर रही थी, मै देख रही थी और मानों भगवान्से कह रहीं थी : ''तुम अपना ही निषेध करनेमें क्यों मजा लेते हो? '' है न, तर्कसंगत तृप्तिके लिये हम कहते है : वह सब जो अंधकारमय है, वह सब जो कुरूप है, वह सब जो जीवित नहीं है, वह सब जो सामंजस्यपूर्ण नहीं है, वह भगवान् नहीं है -- लेकिन यह संभव ही कैसे है?.. यह केवल क्रियाके लिये एक मनोवृत्ति है । तब अपने-आपको क्रियाकी वृत्तिमें रखकर मैंने पूछा : ''तो इस तरहका होनेमें ही क्यों मजा लेते हो? '' (माताजी हंसती है) ।
यह कोषाणुओंका बहुत ठोस अनुभव था और इस भावनाके साथ (भावना नहीं, भावना या संवेदन नहीं), एक प्रकारका प्रत्यक्ष दर्शन था कि तुम ठीक, उस महान् रहस्यकी ठीक सीमापर हो.. और अचानक कोषाणुओंके एक समूह-विशेषने या शारीरिक क्रिया-विशेषसे संवद्ध कोष
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णुओंने अपने-आपको आडे डालनेकी ठानी । क्यों? इसका क्या अर्थ है? और उत्तर था... यह ऐसा था मानों वह सब सीमा तोड़नेमें सहायता दे रहा था ।
लेकिन क्यों? कैसे?...
तुम मनसे हर चीजकी व्याख्या कर सकते हों, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं होता : शरीरके लिये, द्रव्यात्मक चेतनाके लिये वह एक अमूर्त चीज होती है । जब द्रव्यात्मक चेतना किसी चीजको पकडू लेती है तो वह चीजको मनसे जाननेकी अपेक्षा सैकड़ों गुना ज्यादा अच्छी तरह जानती है । और जब वह जानती है तो उसमें शक्ति होती है : जाननेसे शक्ति आती है । और वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अपना विस्तार करती है । और अज्ञानमय चेतनाके लिये : धीरे-धीरे, कष्टके साथ । लेकिन सत्य चेतनाके लिये बात ऐसी नहीं होती; पीड़ा और हर्ष., यह सब, चीजोंको देखने... चीजोंको देखने, उन्हें अनुभव करने. का एक बड़ा बेतुका तरीका है ।
एक अधिकाधिक मूर्त्त प्रत्यक्ष दर्शन है कि ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें सत्ताका आनन्द न हो क्योंकि यही सत्ताका तरीका है : सत्ताके आनन्दके बिना सत्ता नहीं होती । लेकिन मनुष्य मानसिक रूपसे जिसे सत्ताका आनन्द समझते है यह वह नहीं है । यह ऐसी चीज है... जिसे कहना कठिन है । और पीड़ा और हर्षका यह अनुभव, प्रायः शुभ और अशुभका अनुभव, यह सब, कार्यकी आवश्यकताएं है जिनसे निश्चेतना- की समष्टिमें काम हों सके । क्योंकि सत्य चेतना एक बिलकुल ही भिन्न, एकदम भिन्न वस्तु है । इन कोषाणुओंकी चेतना अब ठोस अनुभवके द्वारा यही सीख रही है और ये सब मूल्यांकन कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, कष्ट क्या है और आनन्द क्या, ये सब हुए जैसे मालूम होते हैं । लेकिन अभीतक 'वस्तु' -- 'सत्य', 'मूर्त ठोस वस्तु' पकडूमें नहीं आयी । वह रास्तेमें है, ऐसा लगता है कि वह रास्तेमें है लेकिन अभीतक आयी नहीं । अगर वह होती तो... व्यक्ति सर्वशक्तिमान प्रभु बन जाता । और यह संभव है कि वह तमी प्राप्त हों सकती है जब समस्त संसार या उसका काफी वहां भाग रूपांतरके लिये तैयार हों ।
यह एक अनुमान है, तुम इसे आंतरिक प्रेरणा कह सकते हो, लेकिन यह अभीतक उच्चतर क्षेत्रकी चीज है ।
समय-समयपर मानों सर्वशक्तिमत्ताका ठीक स्पर्श-सा होता हैं : व्यक्ति ठीक बिन्दुपर होता है, आह! (माताजी वस्तुको पकड़नेकी मुद्रा करती है)... लेकिन वह निकल जाती है ।
व्यक्तिको यह प्राप्त हो जानेपर संसार बदलने योग्य हों जायगा ।
जब मैं व्यक्ति कहती हू तो मेरा मतलब किसी व्यक्ति विशेषसे नहीं होता... यह शायद 'पुरुष' का पर्याय हैं, लेकिन... उसके बारेमें भी मुझे विश्वास नहीं है कि यह हमसे परेकी किसी चीजपर हमारी चेतनाका कोई प्रक्षेपण तो नहीं है ।
श्रीअरविद हमेशा कहा करते थे कि अगर हम काफी दूर निकल जायं निर्गुणके परे, अगर हम और भी आगे जायं तो कोई ऐसी चीज जायंगे जिसे हम 'पुरुष' कह सकते है, परन्तु वह उस पुरुषके साथ जरा मी मेल नहीं खाती जिसकी हम कल्पना कर सकते है ।
तो फिर केवल एक ही तत् है, और उस तत् में हीं शक्ति है, लेकिन जब हम कहते है. ''केवल तत् है,'' (हंसते हुए) तो हम उसे किसी और चीजमें बीठा देते है...! शब्द, भाषाएं किसी ऐसी चीजको व्यक्त करनेमें असमर्थ है जो चेतनाके परे है । जैसे ही तुम सूत्र बनाते हों वह नीचे उतर आती है ।
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