The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१४ मार्च, १९७०
माताजीके पड़े हुए अंतिम सूत्रोंके बारेमें
'' ३८३ - हमारी असाध्य बर्बरताके कारण आधुनिक मनुष्यजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं । यदि हमें अपने- आपको चकरानेवाली आरामदेह वस्तुओं और साजो-सामानके ढेरमें ढककर रखना है तो हमें कला और उसकी प्रणालियोंको छोड़ना पड़ेगा; कारण, सरलता एवं स्वतंत्रताको छोड़नेका अर्थ है सुन्दरताको छोड़ना । हमारे पूर्वजोंका वैभव बड़ा समृद्ध और आडम्बरयुक्त भी था, किंतु कभी बोझ नहीं बना ।
३८४ - मै यूरोपीय जीवनकी बर्बर सुख-सुविधाओं तथा
बोझिल आडम्बरको सम्यताका नाम नहीं दे सकता । जो लोग अपनी आत्मामें स्वतंत्र और अपनी जीवन-व्यवस्थामें अभिजात ढंगसे लयबद्ध नहीं हैं, वे सभ्य नहीं हैं ।
३८५ - आधुनिक समयमें और यूरोपीय प्रभाव-तले कला जीवनकी एक ग्रंथि या एक अनावश्यक दासी बन गयी है, जब कि इसे होना चाहिये था मुख्य कार्यकर्ता या एक अनिवार्य व्यवस्थापक ।
जबतक मन जीवनपर इस अभिमानपूर्ण निश्चयताके साथ शासन करता रहेगा कि वह सब कुछ जानता है, तबतक भगवान्का राज्य कैसे स्थापित हो सकता है?
(१२-३-७०)
३८६ - रोग अनावश्यक रूपसे लंबा हो जाता है और प्रायः ही मृत्युका कारण बन जाता है, जब कि ऐसा होना आवश्यक नहीं है, और यह इस कारण होता है कि रोगीका मन अपने शरीरकी व्याधिको प्रश्रय देता है, और उसीपर लगा रहता है ।
पूर्णतया सत्य है यह!
३८७ -- चिकित्सा-विज्ञान मनुष्यजातिके लिये वरदानसे अधिक अभिशाप रहा है । इसने महामारियोंके वेगको नष्ट अवश्य कर दिया है, तथा एक अद्भुत प्रकारकी शल्यचिकित्साको जन्म दिया है, किंतु साथ ही इसने मनुष्यके प्राकृतिक स्वास्थ्यको दुर्बल बना दिया है तथा विभिन्न प्रकारके रोगोंकी बाढ़-सी ला दी है; इसने मन और शरीरमें भय और निर्भरताकी भावनाको बद्धमूल कर दिया है; इसने हमारे स्वास्थ्यको, प्राकृतिक स्वस्थताको आधार न मानकर धातु और वनस्पति जगत् के निस्तेज और निस्वाद प्रभावका सहारा लेना सिखाया है ।
३८८ -- चिकित्सक रोगपर किसी औषधिका निशाना लगाता है; कभी वह लग जाता है तो कभी चूक जाता है । चुकने- का कोई हिसाब नहीं रखा जाता, पर लगनेका लेखा-जोखा
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रखा जाता है, उसपर विचार किया जाता है और फिर उसे विज्ञानका सुसंगत रूप दे दिया जाता है ।
बड़ा अद्भुत है यह । अद्भुत!
३८९ - हम बर्बरतापर हंसते हैं क्योंकि वह ओझाओंमें विश्वास करती है । किंतु डाक्टरोंपर विश्वास करनेवाली सभ्य जातियां कौन-सी कम अंधविश्वासी है? प्रायः बर्बर देखता है कि जब कोई विशेष मंत्र बार-बार उच्चारा जाता है तो उस- का रोग दूर हों जाता है, वह विश्वास कर लेता है । सभ्य रोगी देखता है जब वह किसी विशेष नुस्खेकी दवाई लेता है तो वह प्रायः उस रोगसे मुक्त हो जाता है, वह विश्वास कर लेता है । इनमें भेद कहां हुआ?
इसका यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दवाईकी रोग-मुक्तिकी शक्ति रोगीके ओक्श्वाससे आती है ।
यदि मनुष्योंको भगवत्कृपामें पूर्ण विश्वास होता तो वे शायद बहुत-सी व्याधियोंसे बच जाते ।
(१३-३-७०)
(श्रीमातृवाणी, खंड १०; पृ ३३७-४०)
तुमने, अंतिम सूत्र देखे?
जी, बीमारियों और डाक्टरोंके बारेमें...... लेकिन एक और सूत्र है जिसमें एक छोटा-सा वाक्य आता है जो मुझे अद्भुत लगता है । वे कहते हैं : ''आधुनिक मानवजातिके लिये मशीनें आवश्यक हैं -- उसकी असाध्य बर्बरताके कारण...... ''
(माताजी सिर हिलाती हैं और बहुत देरतक चुप रहती हैं) आज मुझे समाचार मिला है कि 'क' गुजर गयी । उसका एक बड़ा ऑपरेशन हुआ था, वह ठीक हो गयी, घर लौट आयी । उसने मुझे लिखा : ''मै दिन- पर-दिन अच्छी होती जा रहीं हूं.. .'' और फिर चल बसी । मुझे यह समाचार आज ही मिला है । ऐसा होता है ।
'ज' के साथ भी ऐसा ही हुआ था... । वही बात, बीमारी लौट
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आयी । इसमें ऐसी प्रतीति... यह एक प्रयास है, हां, उस चीजके विरुद्ध प्रयास है जिसे श्रीअरविद बर्बरता कहते हैं (माताजी सारे पार्थिव वातावरण- को लेनेका-सा संकेत करती हैं) । ऐसा लगता है... पता नहीं यह मानसिक रचनामेंसे बाहर निकल आनेमें अक्षमता है या इनकार । और: इस 'चेतना' की क्रिया (कैसे कहा जाय?)... यह दिखानेके लिये कि सारी मानसिक रचना किस हदतक मिथ्या है, लगभग निर्दय हों जाती है -- हर चीज, हर चीज, वे प्रतिक्रियाएं भी जो सहज प्रतीत होती हैं, ये सब अत्यंत जटिल मानसिक रचनाका परिणाम है ।
हां, वह निर्दय है ।
तुम उसमें पैदा हुए हों, अतः उसके अनुसार अनुभव करना, उसके अनु- सार प्रतिक्रिया करना, सब कुछ उसीके अनुसार व्यवस्थित करना बिलकुल स्वाभाविक लगता है । यहांतक कि तुम 'सत्य'से कतरा जाते हो ।
अपने शरीरकी व्यवस्थामें भी यही बात है ।
अतः ऐसा लगता है कि भागवत क्रिया अपने-आपको असाधारण शचितके साथ आरोपित करती है और वह निर्दय लगती है (हमें लगती है), (माताजी 'द्रव्य' पर घूंसा मारती हैं), ताकि पाठ सीखा जा सकें ।
(लंबा मौन)
मैंने उस समयकी याद की जब श्रीअरविद यहां थे.. । आंतरिक सत्ता एक ऐसी चेतनामें प्रवेश बार गयी थी जो एकदम भिन्न उच्चतर चेतनाके अनुसार अनुभव करती और देखती थी; और फिर, ठीक जब श्रीअरविद बीमार पड़े और वे सब चीजें हुई, सबसे पहले वह दुर्घटना ( उनकी जांघ टूट गयी).... तब शरीर, शरीर सारे समय कहता था ''ये स्वप्न हैं, ये स्वप्न हैं, यह हमारे लिए नहीं है; हमारे लिये शरीर ऐसा है' ' ( धरतीके नीचे दिखानेका संकेत).. वह भयंकर था!...और वह सब चला गया, वह बिलकुल चला गया । द्रुतने वर्षोंके बाद, इतने वर्षोंके प्रयासके बाद वह चला गया और स्वयं शरीर भागवत उप- स्थितिका अनुभव करता था और उसे ऐ सा लगता था कि... सबको मजबूरन बदलना पड़ेगा । और तब, कुछ दिन पहले वह रचना जो चली गयी थी ( जो समस्त मानवजातिकी पार्थिव रचना है, यानी, जिन लोगोंमें अंतर्दर्शन, बोध या उच्चतर सत्य'के लिये केवल अभीप्सा है, जब वे 'तथ्य' पर लौटकर आते है, इस भयंकर रूपसे पीडाजनक वस्तु, समस्त परि- स्थितियोंके सतत निषेध, के सामने खड़े होते है), इस शरीरकी वह रचना
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पूरी तरह मुक्त हो गयी है और वापिस आ गयी है । वह वापिस आ गयी है, परंतु... जब वह आयी, जब उसने देखा तो उसने ऐसे देखा जैसे कोई 'मिथ्यात्व' को देखता है । और मैं समझ गयी कि वह कितना बदल गया था क्योंकि जब उसने वह देखा तो उसे लगा... उसने उसे एक स्मितके साथ देखा और उसका संस्कार, आह! वह एक पुरानी रचना थी जिसमें अब कोई सत्य न था । और यह एक असाधारण अनुभूति थी : कि उसका समय खतम हों चुका है -- उसका समय खतम हों चुका है । और मै जानती हू कि 'चेतना' का यह 'दबाव' एक ऐसा दबाव है ताकि चीजें जैसी कि वे थीं--इतनी दीनहीन, इतनी छोटी, ऐसी धुंधली और... साथ ही बाहरी रूससे ऐसी अनिवार्य--यह सब पीछे चला गया रेख ( माताजी कंधे- के ऊपरसे इशारा करती है), यह एक भूतकालकी तरह है जो गुजर चुका । तो मैंने वास्तवमें देखा -- मैंने देखा, मैं समझ गयी -- कि 'चेतना' का काम ( जो दयाहीन होता है, वह इस बातकी परवाह नहीं करता कि वह कठिन है या नहीं, संभवत. वह बाहरी तौरपर दीखनेवाले विध्वंसकी मी परवाह नहीं करता), वह चाहता है कि सामान्य अवस्था इतनी भारी, इतनी धुंधली, इतनी भद्दी -- और इतनी निम्न कोटिकी -- चीज न होनी चाहिये, कि ऊषा आनी चाहिये... कुछ ऐसी चीज जो क्षितिजपर फूट पड़ी हों एक नयी चेतना -- एक सत्यतर, अधिक प्रकाशमान वस्तु ।
यहां श्रीअरविद बीमारीके बारेमें जो कहते है, ' यह ठीक वही बात है और उसकी सभी रचनाएं और अम्यासकी शक्ति, वह सब कुछ जो रोगमें ''अनिवार्य'', ''अपरिवर्तनीय'' प्रतीत होता है, वह सब, यह ऐसा है मानों यह दिखानेके लिये अनुभूतियोंको कई गुना कर दिया जाता है कि... ताकि मनुष्य यह सीख सके कि यह बस वृत्तिका प्रश्न है, हां - वृत्तिका -- परे जानेका, उस मानसिक काराके परे जानेका जिसमें मानवताने अपने-आपको बंद कर लिया है और... वहां ऊपर श्वास लेनेका प्रश्न है ।
और यह शरीरकी अनुभूति है । पहले, जिन्हें आंतरिक अनुभूति होती थी वे कहा करते थे ''हां, वहां, ऊपर ऐसा है, लेकिन यहां.. ।'' अब ''लेकिन यहां'' शीघ्र ही ऐसा न रहेगा । यह विजय प्राप्त की जा रही है, यह महान् परिवर्तन है. भौतिक जीवनके ऊपर मानसिक जगत्का नहीं, उच्चतर चेतनाका शासन होना चाहिये । यह अधिकारका हस्तांतरण है... । यह मुश्किल है, यह कठिन है । यह कष्टदायक है । स्वभावत: इसमें टूट-फूट होती है, लेकिन.. हम सचमुच देख सकते हैं -- हम इसे देख सकते है । और वह वास्तविक परिवर्तन है । यही नयी 'चेतना'को
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अपने-आपको प्रकट करने योग्य बनायेगा । शरीर सीख रहा है, अपना पाठ सीख रहा है - सभी शरीर, सभी शरीर ।
( मौन)
यह मनद्वारा किया गया पुराना विभाजन है : वहां, ऊपर वह बिलकुल ठीक है, तुम सब तरहकी अनुभूतियां पा सकते हो और वहां हर चीज प्रकाशमय और अद्भुत है, यहां कुछ भी नहीं करना । और यह भावना कि जब व्यक्ति पैदा होता है तो उस जगत् में पैदा होता है जहां कुछ नहीं करना है । और फिर, इससे यह स्पष्ट हों जाता है कि जिन लोगोंने पूर्व दृष्टिसे यह संभावना नहीं देखी कि चीजें और तरहसे भी हो सकतीं हैं वे यह कहते हैं : ''ज्यादा अच्छा है बाहर निकल आना और... ।', यह सब इतना स्पष्ट हो गया है । लेकिन यह परिवर्तन, यह तथ्य कि अब यह अनिवार्य नहीं है, यही महान् 'विजय' है : अब यह अनिवार्य नहीं है । ऐसा लगता है - ऐसा लगता है, यह दिखायी देता है - और स्वयं शरीरने इसका अनुभव किया है कि शीघ्र ही यहां भी सत्यतर हो सकता है ।
संसारमें सचमुच कुछ परिवर्तन हुआ है ।
स्वभावत: इसे वास्तविक रूपमें स्थापित होनेमें कुछ समय लगेगा । अभी युद्ध है । सब ओरसे, सभी स्तरोंपर चीजोंका आक्रमण हो रहा है जो बाहरसे आकर कहती है : कुछ भी नहीं बदला गया है -- लेकिन यह सत्य नहीं है, यह सत्य नहीं है, शरीर जानता है कि यह सत्य नहीं है । और अब वह जानता है, वह जानता है कि किस दिशामें ।
और श्रीअरविंदने इन सूत्रोंमें जो लिखा है, जिसे मैं अभी देख रहीं हू, वह इतना भविष्यसूचक है! वह 'सत्य' वस्तुका अंतर्दर्शन था, इतना भविष्यसूचक ।
अब मैं देखती हू कि उनके प्रयाण और उनके कार्य... सूक्ष्म-भौतिकमे इतने विस्तृत ओर इतने सतत कार्यमें उनके प्रयाणने कितनी सहायता की
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है! उसने वस्तुओंको तैयार करनेमें (माताजी द्रव्यको गूधनेकी मुद्रा करती हैं) कितनी सहायता की है, भौतिक संरचनाको बदलनेमें कितनी सहायता की है ।
औरोंको जितनी भी अनुभूतियां हुई, जिनका उद्देश्य था उच्चतर लोकोंके साथ संपर्क स्थापित करना, वे सब यहां नीचे, इस भौतिकको जैसा-का- तैसा छोड़ गये ।... कैसे कहा जाय? मेरे जीवनके आरंभसे श्रीअरविदके प्रयाणतक, मै इस चेतनामें थी कि व्यक्ति ऊपर जा सकता है, व्यक्ति जान सकता है, व्यक्ति सब प्रकारकी अनुभूतियां पा सकता है (और वास्तवमें हुई भी), लेकिन जब वह इस शरीरमें लौटता है... तो पुराने, वि-क-ट मानसिक विधान ही चीजोंपर शासन करते है । तब ये सारे वर्ष तैयारीके वर्ष थे -- तैयारी -- तैयारी और मुक्ति और इन दिनों वह... आह! शरीर द्वारा भौतिक मान्यता कि वह बदल गया है ।
जैसे कहा जाता है, अभी उसे परखना है, उसे पूरे व्योरेमें उपलब्ध करना है, लेकिन परिवर्तन हो गया है - परिवर्तन हो गया है ।
मतलब यह कि मनद्वारा प्रतिपादित और उसके द्वारा निश्चित स्थूल अवस्थाएं (माताजी दोनों मुट्ठियां बांध लेती हैं) इतनी अनिवार्य प्रतीत होती थीं कि जिन्हें उच्चतर लोगोंका जीवित अनुभव था उन्होंने समझा कि अगर कोई सत्यमें निवास करना चाहता है तो उसे जगत् से भागना होगा, इस स्थूल जगत् को छोडे देना होगा । (इतने सारे मत-मतातरों और धर्मोंका यही कारण है) लेकिन अब बात ऐसी नहीं है । भौतिक उच्चतर 'प्रकाश', दिव्य सत्य, सत्य 'चेतना' को ग्रहण करने और अभिव्यक्त करनेके योग्य है ।
यह आसान नहीं है, इसमें सहन-शक्ति और संकल्पकी जरूरत है, लेकिन एक दिन आयेगा जब यह बिलकुल स्वाभाविक हो जायगा । अभी-अभी दरवाजा खुला है -- बस, इतना ही, अब चलते चलना है ।
स्वभावत: जो प्रतिष्ठित है वह चिपका रहता है और भयंकर संघर्ष करता है । समस्त कठिनाईका यही कारण है (पार्थिव वातावरणकी ओर इशारा) - वह बाजी हार चुका है । वह बाजी हार चुका है ।
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इस 'चेतना' को विजय पानेमें... साल-भरसे कुछ आर लगा ।' और फिर भी, स्वभावत:, यह उन लोगोंके सिवाय, जिनमें आंतरिक दृष्टि है, किसीको नहीं दिखायी देती... ।
लेकिन, लेकिन जीत हो चुकी है ।
यही काम है जो श्रीअरविंदने मुझे सौंपा था । अब मै समझती हू । लेकिन ऐसा लगा कि सनी ओरसे -- सभी ओरसे -- ये शक्तियां, मन- की ये शक्तियां विरोधमें उठ खड़ी हुई -- तीव्र विरोधमें । वे अपने पुराने विधान आरोपित करना चाहती थी ''लेकिन हमेशा ऐसा ही रहा है! ''... लेकिन वह समाप्त हो गया । अब हमेशा ऐसा ही नहीं रहेगा ।
.पिछले कुछ दिनोमें इस शरीरमें यही युद्ध चल रहा था... । सचमुच वह बहुत मजेदार था. । बाहरसे, बाहरसे कुछ ऐसा प्रयास हो रहा था कि शरीरको ऐसी ठानुभूतियोंके अधीन किया जाय कि वह स्वीकार करने के लिये बाधित हों जाय : ' 'जो हमेंशासे है वह हीं हमेशा रहेगा; तुम कोशिश कर लो, लेकिन यह है एक भ्रांति । '' इसलिये कुछ हुआ, शरीर- मे कुछ अव्यवस्था हुई, शरीरने अपनी वृत्तिद्वारा उत्तर दिया : हस प्रकार- की शांति ( निश्चलताकी मुद्रा) और उसकी वृत्ति ( हाथ खुले हुए). ' 'जैसा तू चाहे, प्रभु, जैसा तू चाहे' '.. सब कुछ- एक कौधकी तरह गायब हो जाता है । और यह बहुत बार हुआ, दिनमें कम-से-कम बारह बार । तब -- तब शरीर अनुभव करने लगता है : वह रहा!. उसे आनंद, एक अद्भुत वस्तुमें रहनेका आनंद प्राप्त हुआ.. । अब और वैसा नहीं है जैसा था, अब और वैसा नहीं रहा जैसा था -- अब और उस तरहका नहीं रहा जैसा था ।
अभी लड़ते जाना है । तुम्हारे अंदर धीरज, साहस, संकल्प, विश्वास होने चाहिये -- अब ' 'उस तरह' ' का नहीं है, पुरानी चीज डटी रहना चाहती है - वीभत्स! वीभत्स । लेकिन.. अब ऐसा नहीं है, ऐसा बिलकुल नहीं है ।
१अतिमानवकी चेतना १ जनवरी, १९६९
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तो, लो ।
(मौन)
और यह भी : कहांतक, शरीर कहांतक, कितनी दूरतक जा सकेगा? वहां भी वह... पूरी तरह शांत और प्रसन्न है : जैसा तू चाहता है वैसा खै।
वाकी सब पुराना लगता है, इतना पुराना मानों... मृत भूतकालकी कोई चीज हो -- जो फिरसे जिंदा होना चाहती है, पर हो नहीं पाती ।
और सब, सब, सभी परिस्थितियां यथासंभव अनर्थकारी हों सकती है -- चिंताएं, जटिलताएं और कठिनाइयां, सब, सब जंगली जानवरोंकी तरह हिंस्र रूपमें उठ खड़ी होती हैं, लेकिन... यह समाप्त । शरीर जानता है कि यह समाप्त हो गया है । शायद इसमें शताब्दिया लग जायं, पर यह समाप्त हों गया है । इनके सुत होनेमें शायद शताब्दिया लग जायं-, पर अब यह समाप्त हो गया है ।
सिद्धि जो बिलकुल ठोस और निरपेक्ष है जिसे पहले जड-द्रव्य'में बाहर निकलकर ही प्राप्त किया जा सकता था (माताजी एक उंगली नीची करती हैं) : यह निश्चित रूपसे, निश्चय ही, यहां भी प्राप्त की जा सकेगी ।
'चेतना' को आये चौदहबां महीना है -- चौदह, यानी, दो बार सात ।
ओर आज चौदहवीं तारीख है?
जी, चौदहवीं ।
यह मजेदार है ।
जबसे उन्होंने शरीर छोड़ा है तबसे कितना काम किया है...! ओह!... सारे समय, सारे समय ।
ऐसा लगता है... यह शरीरके अंदर एक चमत्कार लगता है । इस रचनाका विलोप सचमुच चमत्कार है ।
और हर चीज साफ होती जा रही है ।
देखेंगे ।
यह अपेक्षया तेज था ।
इसका मतलब यह हुआ कि अब हर मानव चेतनाके लिये, जिसमें जरा-सा विश्वास है, मनके इस सम्मोहनमेंसे निकल आना संभव है ।
हां, हां, ठीक ऐसा ही, ठीक ऐसा ही, ठीक ऐसा ही ।
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