The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१५ फरवरी, १९६९
मैं पहले ही कह चुकी हूं कि यह (अतिमानवका) वातावरण और चेतना परामर्शदाताके रूपमें बहुत सक्रिय है । यह जारी है । पिछले दिनों, एक दिन बड़े सवेरे वह... शरीर कभी, कभी इतना प्रसन्न नहीं हुआ; संपूर्ण भागवत उपस्थिति थी, अबाध स्वाधीनता थी, और एक निश्चिति जिसका कोई महत्व न था. ये कोषाणु, अन्य कोषाणु (इस ओर, उस ओर, यानी, सभी शरीरोंको दिखाते हुए) सब जगह जीवन था, सब जगह चेतना थी । ?? सद्वस्तु । यह बिना प्रयासके आयी और फिर चली गयी, क्योंकि ... मैं बहुत व्यस्त थी । और वह इच्छा करनेसे नहीं आ जाती -- जो चीज इच्छा करनेपर आ जाती है उसे ''नकल'' कहा जा सकता है उसमें रंग-रूप तो होता है, पर वास्तविक 'वस्तु' नहीं होती । 'वास्तविक परंतु' जो हमारी अभीप्सा, हमारी इच्छा, हमारे प्रयास... सें एकदम स्वतंत्र है । और यह वस्तु सर्वशक्तिमान मालूम होती हो इस अर्थमें कि तब शरीरकी कोई कठिनाई नहीं रहती । उस समय सब कुछ गायब हो जाता है । परंतु अभीप्सा, एकाग्रता, प्रयास... इससे कुछ नहीं बनता । वह दिव्य संज्ञा है, यह दिव्य संज्ञाकी प्राप्ति है । इन कुछ घंटोंमें (तीन या चार) मै पूरी तरह समझ गयी कि शरीरमें दिव्य चेतना होना किसे कहते है । और तब इस शरीर, यहां यह शरीर, वहां वह शरीर (माताजी अपने इस ओर, उस ओर, चारों ओर इशारा करती है), इससे कुछ नहीं आता-जाता वह एक शरीरसे दूसरेमें बिलकुल स्वाधीन रूपमें, निर्बाध रूपसे जाती-आती रही । वह हर शरीरकी सीमाओं और संभावनाओंको जानती थी- अद्भुत । मुझे इस तरहकी अनुभूति पहले कभी नहीं, कभी
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नहीं हुई । एकदम अद्भुत । वह चली गयी, क्योंकि मैं इतनी व्यस्त थी ... । और वह केवल इस कारण नहीं चली गयी कि वह केवल यह दिखाने आयी थी कि वह कैसी है, - यह बात नहीं है; बल्कि इसलिये कि जीवन और जीवन-व्यवस्था तुम्हें हड़प लेते हैं।
मैं जानती हू वह वहां है (पीछेकी ओर इशारा), मै जानती हू, प?' .. । मै जानती हू वह रूपांतर है । और स्पष्ट रूपमें व्यक्ति, कोई अस्पष्ट चीज नहीं, स्पष्ट रूपमें, वह अपने-आपको इस व्यक्तिमें, उस ब्यक्तिमें (इस ओर, उस ओर इशारा) 1 पूरी तरह, स्पष्ट रूपमें प्रकट कर सकता है । एक 'मुस्कान' के साथ ।
और तब स्वयं कोषाणुओंने रूपांतरित होनेके लिये अपने प्रयासके बारेमें बतलाया । ' और वहां 'स्थिर शांति' थी... कैसे समझाया जाय? शरीरने अपनी अभीप्सा और अपने-आपको तैयार करनेकी इच्छाके बारेमें कहा । शरीरने उसकी मांग नहीं की, वह होनेके लिये प्रयास किया जो उसे होना चाहिये । हमेशा इस प्रश्नके साथ ( शरीर प्रश्न नहीं करता, उसके चारों तरफका वातावरण... परिवेश जगत्, मानों जगत् प्रश्न करता है) कि वह चलता रहेगा या विलीन हों जायगा?. वह अपने-आप इस तरह है (आत्म-समर्पणकी मुद्रा, हथेलियां खुली हुई), वह कहता है. ''प्रभो, जैसी तेरी इच्छा ।'' परन्तु शरीर जानता है कि निश्चय किया (ना चुका खै, लेकिन वह शरीरको बदलनेकी बात नहीं है । वह स्वीकार करता है । वह अधीर नहीं है, वह स्वीकार करता है । वह कहता है. ''यह बिलकुल ठीक है । जैसी तेरी इच्छा ।'' लेकिन 'वह' जो जानता है और 'वह' जो उत्तर नहीं देता... ऐसी चीज है जिसे समझाया नहीं, अभिव्यक्त किया जा सकता है... वह... हां, मेरा ख्याल है कि एकमात्र शब्द जो उस संवेदन- का वर्णन कर सकता है, वह है, एक निरपेक्ष -- एक चरम । पक परम । यह वही है । संवेदन. निरपेक्षकी उपस्थितिमें सत्ता । चरम. चरम शान, चरम संकल्प और चरम शवित । हा, तो कोई चीज इसका प्रतिरोध नहीं कर सकती । और फिर, यह एक ऐसा चरम है जो (तुम्हें इस तरहका संवेदन होता है, ठोस), जो करुणासे भरपूर है! लेकिन उसके सामने जिसे हम दया या करुणा मानते है, वह पू... ह! कुछ भी नहीं है । यह निरपेक्ष शक्तिके साथ 'करुणा' है.. । और यह 'प्रज्ञा' नहीं है, यह 'जानना' नहीं है, यह... इसका हमारी पद्धतिसे कोई संबंध नहीं है और फिर, 'वह' हर जगह है, हर जगह है 'वह' । और यह शरीरकी अनुभूति है । शरीर अपने- आपको 'उसे' पूरी तरह निवेदित कर देता है, पूरी तरह निवेदित करता है । वह कुछ नहीं मांगता -- बिलकुल कुछ नहीं । केवल एक अभीप्सा
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(खुली हुई हथेलियां ऊपरकी ओर, वही पहलेकी मुद्रा) । मैं 'वही' हो जाऊं जो 'वह' चाहे -- 'उसकी' की सेवा करूं, इतना ही नहीं, वही हो जाऊं ।
मगर यह अवस्था, जो कई घंटे रही, ऐसी सुखमय थी जिसका मैंने अपने १२ वर्षके पार्थिव जीवनमें कभी अनुभव न किया था : स्वतंत्रता, निरपेक्ष शक्ति, कोई सीमा नहीं (यहां, वहां सब जगह इशारा), कोई सीमा नहीं, कुछ भी असंभव नहीं, कुछ भी नहीं । वह... अन्य सब शरीर, यही स्वयं था । कोई भेद न था । वह केवल चेतनाका खेल था जो चलता जा रहा था (विशाल 'लय' का संकेत) ।
और बन ।
(लंबा मौन)
इसके अलावा, काम बहुत ज्यादा ''श्रमसाध्य'' होता जा रहा है । लेकिन मै अनुभव करती हू (यानी, शरीर भली-भांति अनुभव करता है) कि यह प्रशिक्षणका भाग है ।
ऐसा ही लगता है : शरीरको डटे रहना चाहिये अन्यथा, दुर्भाग्यवश, यह किसी और समयके लिये रहेगा ।
सभी मानवीय बहाने बचकाने लगते है ।
यह बड़ी अजीब बात है । मनुष्यके सभी गुण और सभी त्रुटियां बचकानी - मुर्खता -भरी लगती है । यह अजीब बात है । यह कोई विचार नहीं हैं । यह ठोस संवेदन है । यह निर्जीव द्रव्यकी तरह है । सभी सामान्य वस्तुएं जीवनहीन द्रव्य हैं, सच्चे जीवनसे वंचित । कृत्रिम और मिथ्या । यह अजीब है ।
यह इतना अधिक औरोंमें नहीं है, यह बात नहीं है : यह एक आंतरिक प्रशिक्षण है । और यह सत्य 'चेतना', यह सत्य 'वृत्ति' एक ऐसी चीज है जो अ... त्यं... त बलवान है, इतनी मुस्कराती हुई शांतिमें शक्तिशाली है! इतनी मुस्कराती हुई कि व्यक्ति गुस्सा नहीं कर सकता, यह एकदम असंभव है... इतनी मुस्कराती हुई, इतनी मुस्कराती हुई... और देखती हुई ।
(मौन)
इस नयी चेतनाकी खास विशिष्टता है : कोई अधकचरा काम नहीं, कोई ''लगभग'' नहीं । यह उसकी विशेषता है । यह विचार : ''हां, हम इसे करेंगे और थोडा-थोडा करके हम.. .'' - नहीं, नहीं, ऐसा
नहीं : या तो ''हां'' या ''नहीं'' । या तो तुम कर सकते हो या नहीं ।
( मौन)
सचमुच यह मानों भागवत कृपा है. समय न खोना... समय न खोना । या तो उसे किया जाय या..
लेकिन यह दुर्जेय 'शक्ति', सबसे बढ़कर यही है : और वह करुणासे भरी है! भद्रतासे भरी है!.. नहीं, कोई शब्द नहीं है, हमारे पास ऐसे शब्द नहीं हैं जो उसका वर्णन कर सकें । कुछ... और कुछ नहीं, नहीं, सिर्फ एकाग्र रहना और... वह आनन्दपूर्ण है । कुछ नहीं, केवल अपने ध्यानको उस दिशामें मोड़ना, तुरन्त, वही आनन्द है । और मै समझती हू (इसने मुझे अमुक चीजें समझा दी है), पैसे लोगोंके बारेमें कहा ६ जाता था जो अत्यधिक उत्पीड़नके बीच आनन्दका अनुभव करते थे -- यह वैसा है, एक आनन्द ।
यह लो, यही है (माताजी 'भागवत कृपा' नामक फूल देती है) ।
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