The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१६ अगस्त, १९६९
क्या सब कुछ बुहार देना, सब खाली कर देना एक भूल है ?
नहीं, नहीं, नहीं ।
मैंने बहुधा अपने-आपसे पूछा है कि क्या मै अपने आगे बढ़नेके तरीकेमें भूल कर रहा हू । मेरा तरीका है सब सहज रूपसे
बुहार देना, उसे पूरी तरह खाली करके, एकदम नीरव और अचंचल रहते हुए ऊपरकी ओर अभिमुख होना ।
हां, यह सबसे अच्छा उपाय है, इससे अच्छा नहीं हो सकता ।
मैं हर क्षण यही करती रहती हू ।
और अगर यह न किया जाता!.. सभी ओरसे यूं आता है (लहरोंके; थपेड़ोंकी मुद्रा) ।
(थोडी देर बाद संसारकी स्थितिके बारेमें)
अंततः, मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि यह अस्तव्यस्तता हमें यह सिखाती है कि दिन-पर-दिन हमारा जीवन कैसा होना चाहिये, यानी, क्या हो सकता है, क्या होनेवाला है इन बातोंमें न फंसे, अपने-आपको प्रतिदिन उसीमें लगाये रहें जो हमें करना है । सभी सोच-विचार, पूर्व योजनाएं और संयोजन और इस तरहकी चीजें अव्यवस्थाके लिये बहुत अनुकूल है ।
लगभग एक-एक मिनट इस तरह जीना (ऊपरकी ओर संकेत) केवल उसी चीजकी ओर ध्यान देना जो उस क्षण की जानी है और 'सर्व-चैतन्य'- को निर्णय करने देना.. हम अधिक-से-अधिक विस्तृत दृष्टिके साथ भी चीजोंको नहीं जान सकते; हम चीजोंको बहुत ही आशिक रूपमें - बहुत ही आशिक रूपमें देख सकते है । इसलिये हमारा ध्यान इस ओर, उस ओर खिंचता है, और उनके अतिरिक्त और बहुत-सी चीजें रहती है । भयानक और हानिकर चीजोंको बहुत महत्व देकर तुम उनकी शक्ति बढ़ाते हो ।
(माताजी ध्यानमें चली जाती है)
जब इस प्रकारकी ध्यव्यवस्था और अस्तव्यस्तता के अंतर्दर्शन तुमपर टूट पड़े तो तुम्हें एक ही चीज करनी चाहिये, उस चेतनामें प्रवेश कर जाओ जहां तुम केवल एक हीं 'सत्ता', एक 'चेतना', एक 'शक्ति'को देखते हों -- केवल एक ही 'इकाई' है--और यह सब उसी 'इकाई' में हो रहा है । और हमारे सभी नगण्य अंतर्दर्शन, हमारे नगण्य शान, हमारे नगण्य मूल्यांकन ओर हमारे नगण्य... ये सब कुछ नहीं हैं, सबकी 'अधिष्ठात्री चेतना' की तुलनामें ये बहुत ही छोटे, अणुके समान है । इसलिये अगर तुम्हारे अंदर इन विभिन्न सत्ताओंके अस्तित्वके कारणका जरा भी भान है तो तुम देखोगे कि यह
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अभीप्साको संभव बनानेके लिये, अभीप्साकी सत्ताको बनाये रखनेके लिये है, आत्म-निवेदन और आत्म-दानकी गतिको, विश्वास और श्रद्धाको संभव बनानेके लिये है । यही वह कारण है जिसके लिये व्यक्तित्व बनाये गये थे; और जैसे-जैसे तुम पूरी सच्चाईके साथ, पूरी तीव्रताके साथ वह बनते हों.. बस यही वह सब है जिसकी आवश्यकता है ।
यही एक चीज है जिसकी जरूरत है, यही एकमात्र चीज है, यही एक- मात्र चीज है जो टिकती है, बाकी सब... माया-जाल, मृग-मरीचिका है ।
हर हालतमें यही एकमात्र उचित बात है : जब तुम कोई चीज करना चाहते हो, जब तुम कोई चीज नहीं कर सकते, जब तुम गति करते हो, जब शरीर गति करनेमें अशक्त हों जाता है. हर हालतमें, हर हालतमें, केवल यही -- यही केवल. 'परम चेतना'के साथ सचेतन संपर्कमें आऊं, उसके साथ एक हों जाओ और... प्रतीक्षा करो । लो बस ।
तब तुम्हें हर क्षण, यह ठीक-ठीक आदेश मिलता जाता है कि क्या करना चाहिये - करना या न करना, क्रिया करनी या पत्थरकी तरह निश्चल बन जाना । यह सब । और यह भी कि जीवित रहा जाय या नहीं । यही एकमात्र समाधान है । अधिकाधिक, अधिकाधिक, यह निश्चित है कि यही एकमात्र समाधान है । बाकी सब लड़कपन है ।
और सनी क्रिया-कलापका, सभी संभावनाओंका स्वाभाविक रीतिसे उप- योग किया जा सकता है -- इससे समस्त मनमाना व्यक्तिगत चुनाव अलग हो जाता है । बस यही बात है । यहांपर सभी संभावनाएं हैं, सब, सब, सब कुछ है । सभी प्रत्यक्ष दर्शन और समस्त ज्ञान है -- केवल व्यक्तिगत मनमानेपनको अलग कर दिया गया है । और यह व्यक्तिगत मनमानापन इतना बचकाना है, इतना बचकाना है... एक मूर्खता -- अज्ञान-भरी मूर्खता ।
और मै अनुभव करती हू, इस तरह अनुभव करती हू (माताजी हवा- को अनुभव करती है), वह उद्वेग, ओह, वातावरणमें यह भंवर!
बेचारी मानवजाति ।
(लंबा मौन)
यह सब संसारको अपनी चेतनामें प्रभुकी ओर लौटना सिखानेके लिये हैं... क्यों? इसी हेतुसे सृष्टि बनी थी?...
( मौन)
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लेकिन मेरे सामने एक व्यवहारिक समस्या है : मै' जय कभी ऊपरसे अपने-आपको जोड़नेके लिये यह रिक्तता तैयार करता हू... तो मुझे लगता है कि मुझे कभी ठीक उत्तर नहीं मिला; वहां ऐसी महाकाय शक्ति है, इतनी ठोस और फिर...
और तुम्हें कभी उत्तर नहीं मिला?
हमेशा वही होता है, यह 'शक्ति' जो यहां है, जो अविचलित...
अच्छा !
उदाहरणके लिये, कल ध्यानके समय वही चीज थी -- हमेशा वही चीज होती है -- यह विशालकाय शक्तिशाली 'चीज' जो वहां है लेकिन वह ''कुछ नहीं कहना चाहती'' ।
क्या' तुम्हें का अनुभव नहीं होता... पता नहीं कैसे समझाया जाय, क्योंकि वह म नह ह, न... पता नह कद कहा जाय; कुछ ऐसी चीज है जो... उसे कहनेके लिये शब्द नहीं है, पर वह तुम्हें पूरी तरह संतुष्ट कर देती है ।
आरामका अनुभव होता है ।
आह !
जी हां, आरामका अनुभव तो होता है, यह निश्चित है ।
अहा! तब तो ठीक है, यह वही है, बाकी सब, बाकी सब कुछ व्यथा है ।
जी, लेकिन सच्चा, ठीक आवेग कैसे पाया जाय?
बह उस स्थितिके नीचे होता है ।
उसके नीचे ?
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वह नीचे होता है ।
वह स्थिति... मैं अनुभवसे जानती हू कि यह वह स्थिति है जिसमें आदमी दुनियाको बदल सकता है । आदमी एक प्रकारका यंत्र बन जाता है - ऐसा यंत्र जो यह नहीं जानता कि वह यंत्र है -- लेकिन जो काम करता है (यंत्रमेंसे शक्तियोंके प्रवाहकी मुद्रा), शक्तियोंको प्रक्षिप्त करनेका काम करता है (यंत्रको केंद्र बनाकर सभी दिशाओंके विकीरित होनेकी मुद्रा) । मस्तिष्क बहुत अधिक, बहुत अधिक छोटा है, है न, -- जब वह बहुत बड़ा हो, तब मी वह समझनेमें समर्थ होनेके लिये बहुत छोटा है । इसीलिये मस्तिष्कमें रिक्त स्थान होते हैं, और यह चीज होती है ।
और तब तुम देखते हो कि तुम जिस छोटेसे जीवनके प्रतिनिधि हो उसकी आवश्यकताओंके बारेमें यह यंत्रवत् होता जाता है, तुम हर क्षण बिना... बिना हिसाब किये, बिना सोचे-समझे, बिना निश्चय किये, इस सबके बिना, न जाने कैसे, अपने-आप जो करना चाहिये वही करते जाते हों । यह ऐसा है (वही यंत्रमेंसे प्रकट होनेका संकेत) ।
मुझे इसका निजी अनुभव मिला था कि अगर शरीरमें कोई गड़बड़ है (कोई दर्द, कोई तकलीफ या कोई ऐसी चीज जो ठीक तरह काम नहीं कर रही), तो इस स्थितिमेंसे गुजरनेके बाद वह तुम्हें छोड़ जाती है -- वह चली जाती है, गायब हो जाती है । बहुत तीव्र पीड़ाएं थीं, न जाने कैसे, पूरी तरह गायब हो गयीं । कैसे! हां, इस तरह चली गयीं ।
और फिर लोगोंके साथ और जीवनकी वस्तुओंके साथ संपर्कमें बच्चे जैसी सरलता । कहनेका मतलब... तुम विशेष रूपसे... सोचे-समझे बिना चीजें किये जाते हों ।
हां, तो बात ऐसी हैं । मैं हमेशा उस स्थितिमें रहनेकी कोशिश करती हू जिसका तुम वर्णन कर रहे हो, इस तरह, जो कुछ होता है, और हमेशा - हमेशा, बिना अपवादके - अगर कुछ करना है, तो उसे इस तरह करवाया जाता है ।
मैं और कुछ नहीं कह सकती । चीज ऐसी है ।
मैंने देखा है कि अलग-अलग समय और अलग-अलग लोगोंके साथ मुझसे अलग-अलग तरहसे काम करवाया जाता है, और अनुभूति भी बहुत अलग होती है - वह सब एक ही चीज है, एक ही तरीका है (बिना किसी गतिके ऊपरकी ओर संकेत) ।
केवल तुम्हें उस स्थितिमें जा पहुंचना चाहिये जहां स्वभावत: कोई पसन्द नहीं है, कोई कामना नहीं है, कोई विकर्षण और आकर्षण नहीं है, कुछ भी नहीं - वह सब स्वाभाविक रूपसे जा चुका है ।
और सबसे बढ़कर, विशेष रूपसे सर्वोपरि है कि कोई भय न हों । सब बातोंमें यह सबसे ज्यादा जरूरी है ।
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