The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१६ जनवरी, १९७१
बहुत लंबे अरसेसे मेरा एक पांव मर-सा गया था ( अब उसमें फिरसे जान आ रही है), लकवा-सा था । एक पांवमें । अतः, स्वभावतः, सब कृउछ कठिन हो गया... । लेकिन जो बात विलक्षण थीं, मैं तुम्हें तुरंत बता सकती हू : वहां (सिरके ऊपर इशारा) पर स्थित चेतना अधिकाधिक प्रबल, अधिकाधिक स्पष्ट होती गयी, वह स्थिर घी । मै काम करती रहीं । केवल भारतके लिये नहीं, जगत् के लिये सतत संबंधमें रहकर क्रियाशील रूपसे कार्य करती रही ( ''परामर्श'' मे, समझे?) ।
रूपांतरके बारेमें तो मै नहीं जानती... । मैंने ''चेतना स्थानान्तरण'' के बारेमें जो समझाया था वह विधिपूर्वक, विधिपूर्वक, लगातार, लगातार किया जा रहा है, परंतु फिर - पर दीखनेवाली क्षति - और हर हालतमें कुछ समयके लिये क्षमताओंके हासके साय । लेकिन दर्शन और श्रबणके बारेमें यह एक अजीब बात है : समय-समयपर वे स्पष्ट होते है, इतने स्पष्ट जितने हों सकते है और समय-समयपर एकदम अवगुंठित । और: उसका एक और ही बहुत, बहुत स्पष्ट स्रोत है -- प्रभावका अन्य स्रोत । मुझे लगता है कि मै ठीक-ठीक, स्पष्ट देख पाऊं इसमें कई महीने लग जायेंगे । बहरहाल, सामान्य चेतना ( सिरके ऊपर इशारा) जिसे वैश्व चेतना कह सकते है ( बहरहाल, पार्थिव चेतना), एक मिनटके लिये मी -- एक मिनट- के लिये भी नहीं हिली है । वह सारे समय बनी रही ।
जी हां, माताजी, मैंने देखा है ।
तुम इसके बारेमें क्या सोचते हों?
मेरा ख्याल है कि संभवतः अब ऐसा होगा, अब एक नयी कार्य- पद्धति आ रही है ।
यह एक नयी कार्य-पद्धति है । मजेदार है ।
क्या सत्ताओं और घटनाओंके बारेमें आपका बोध बदला है? क्या आपका देखनेका तरीका बदला है?
हां, बिलकुल -- बिलकुल । बहुत अजीब है... । इधर निचले भागमें इस सारे समयका उपयोग भौतिक सत्ताकी चेतनाको विकसित करनेमें हुआ है । और यह भौतिक सत्ता (माताजी अपने शरीरको छूती है), ऐसा लगता है कि इसे किसी और चेतनाके लिये तैयार किया गया है, क्योंकि ऐसी चीजें है... । इसकी प्रतिक्रियाएं बिलकुल भिन्न है, इसकी वृत्ति भिन्न है । मै पूर्ण उदासीनताकी अवधिमेंसे होकर निकली हू जब जगत्का मतलब कुछ न था... उसका अर्थ कुछ न था । और धीरे-धीरे मानों उसमेंसे एक नया बोध निकला । वह अभी मार्गमें ही है ।
लेकिन यह निर्दोष (!) लकवा न था । कम-से-कम तीन सप्ताहके लिये - कम-से-कम - तीन सप्ताहतक निरंतर पीड़ा, रात-दिन, चौबीसमेंसे चौबीस घंटे, बिना उतार-चढावके : ऐसा लगता था मानों मुझे चीरकर टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है... । तो किसीसे मिलने-जुलनेका सवाल ही न था । अब यह खतम हों गया है । अब पीड़ा पूरी तरह सद्य है और शरीरने थोड़ा-बहुत सामान्य काम शुरु: कर दिया है ।
लेकिन मै तुमसे कहना चाहती थी कि मेरी चेतना सारे समय तुम्हारे साथ सक्रिय रही । तुमने अनुभव किया इसे?
मैंने 'शक्ति'का बहुत जोरसे अनुभव किया ।
हां, ठीक यही है ।
जी, बिलकुल तत्काल, बिलकुल तुरंत ।
तो यह ठीक है ।
मैंने विशेष रूपसे ख्याल किया कि अगर वह टांगमें उतर आयी
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है तो इसका मतलब है कि वह अब पूरी तरह भौतिक द्रव्यमें है ।
हां, हां, मैंने भी इसी अर्थमें लिया है । केवल टांग ही नहीं, पैरके एक- दम निचले हिस्सेमें (माताजी अपने पांवको छूती है)... लेकिन मैंने देखा कि किस तरह विमीषिकाएं, मुसीबतें, दुर्भाग्य या कठिनाइयां, यह सब तुम्हारी सहायता करनेके लिये ठीक समयपर आती हैं - ठीक जब तुम्हें सहायताकी जरूरत होती है... । वास्तवमें, भौतिक प्रकृतिमें जो कुछ अभीतक पुराने जगत्का, उसकी आदतका और होने तथा उसके काम करनेके तरीकेका था, वह सब जिसे ''संभाला'' न जा सकता था उसे बीमारीके सिवा किसी और तरीकेसे न निपटाया जा सकता था ।
मैं नहीं कह सकती कि यह मजेदार न था ।
लेकिन अपनी ओरसे मैंने भौतिक रूपमें भी हर एकके साथ संपर्क रखा -- मुझे पता नहीं वे सचेतन रहे या नहीं, परंतु मैंने हर एकके साथ संपर्क रखा । यह लोगोंकी ग्रहणशीलतापर निर्भर है । मुझे नहीं लगता कि किसी प्रकारकी कोई दरार या ऐसी कोई और चीज थी -- बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं । उस समय भी, जब मै बाह्य रूपसे इस तरह कष्ट भोग रही थी और लोग समझते थे कि मैं अपनी पीडामें पूरी तरह तल्लीन होऊंगी, उस समय भी मै उसीमें लगी हुई न थी । मुझे नहीं माऋण कैसे समझाऊं... । मैं भली-भांति देखती थी कि बेचारे शरीरकी हालत अच्छी नहीं है, लेकिन मैं उसमें तल्लीन न थी, सारे समय उस... सत्य- का संवेदन था जिसे समझना और अभियुक्त करना है ।
और यह नोट (कैसे कहा जाय?), यह किसी चीजका परिणाम था और बड़े यथार्थ रूपमें किसी चीजका आरंभ भी । पता नहीं यह समझमें आने लायक है या नहीं
यह अच्छी तरह समझमें आता है ।
तुम्हें यह बोधगम्य लगता है?
जी, आपने कहा है कि संभवत: दर्शन और श्रवणकी क्रियाओंको दबा दिया गया था, ताकि आप इंद्रियोंके माध्यमके बिना ही वस्तुओंके बारेमें प्रत्यक्ष रूपसे सचेतन हो सकें ।
हां, लेकिन यह नोट, अब भूतकालकी चीज बन चुका है, क्योंकि मैंने फिर-
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सें देखना शुरू कर दिया है, लेकिन एक और तरहसे । मैंने फिरसे देखना और सुनना शुरू कर दिया है ।
यहां, आखिर आप आवश्यकताके अनुसार देखती और सुनती है ।
हां, हां, ओह! यह बहुत स्पष्ट है । बहुत स्पष्ट है । मुझे जो सुननेकी जरूरत है वह सुनती हू, चाहे वह कितनी भी धीमी आवाज क्यों न हो, लेकिन बातचीतकी सभी आवाजें, ये सब चीजें जो इतना शोर मचाती हैं, मै उन्हें बिलकुल नहीं सुनती!... कुछ बदल गया है । लेकिन वह पुराना -- पुराना है, यानी, पुरानी आदतें बनी हैं । लेकिन सौभाग्यवश, मैं आदतोंवाली नहीं थी... । हां, (हंसते हुए) कह सकते हैं : कोई बहुत वही चीज परिवर्तनके मार्गपर है! इसलिये वह नमनीय नहीं है, यह आसान काम न होगा । लेकिन परिवर्तन है, परिवर्तन स्पष्ट है । मैं बहुत अधिक बदल गयी हू, जहां स्वभावका संबंध है, जहां समझका संबंध है, जहां देखनेकी क्षमताका संबंध है -- बहुत, बहुत अधिक... पूरी तरहसे नया समूहीकरण हुआ है ।
मेरी समझमें नहीं आ रहा था कि इस नोटका बोधगम्य रूपमें कैसे उपयोग करूं ।
लेकिन, माताजी, यह पूरी तरह बोधगम्य है ।
ठीक है । यह सिर्फ इसलिये है कि लोगोंको यूं ही अचानक निराश जाय । बादमें वे इतनी दूर पंडू जाते है कि कुछ भी नहीं
( मौन)
निश्चय ही नयी चेतनाका सिद्धांत यह है कि चीजें ठीक उस समय की जाती हैं जब उनकी जरूरत हो, और बस ।
हां, हां !
कोई योजना नहीं, कोई पूर्वदृष्टि नहीं ।
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हां, हां, ठीक ऐसा हीं ।
(मौन)
संसार भयंकर स्थितिमें है ।
लेकिन मैंने पहले कभी ऐसा अनुभव नहीं किया कि चीज होने- होनेको है ।
हां, हां, ठीक ऐसा ही । हां ।
मुझे ऐसा लगता है कि अब वह बिलकुल नजदीक है ।
हां, हां, बिलकुल नजदीक ।
एक पूरी अवधि ऐसी थी कि मुझसे मिलना असंभव था, क्योंकि मै लगातार कष्ट सह रही थी, ऐसी अवस्थामें आदमी बेकार होता है -- वह कष्ट लगातार था, लगातार । कहा जा सकता है कि बहू सारे समय चीख थी । उसमें बहुत समय लगा, उसमें कई सप्ताह लगे । मैंने हिसाब नहीं लगाया । तब धीरे-धीरे वह ऐसी शांतिके साहा बारी-बारी- सें आने लगा जब टांगको कुछ न लगता था । अभी पिछले दो-तीन दिन- सें ही ऐसा लगता है कि वह ठीक तरह व्यवस्थित हों गयी है -. । हां, यह ऐसा... यह सारे जगत् की सारी समस्या थी -- एक ऐसे जगत् को जो एक पीड़ा, दुःखके सिवाय कुछ नहीं है और एक बड़ा-सा प्रश्न चिह: क्यों?
जितने शामकोंका उपयोग किया जाता है, मैंने उन सबका प्र-योग किया पीड़ाको आनंदमें बदला, अनुभव करनेकी क्षमताको हटाया, अपने-आपको किसी और चीजमें व्यस्त रखा.. । मैंने सब प्रकारकी ''तरकीबें'' कर लीं -- लेकिन [!क भी सफल न हुई! भौतिक जगत्में, जैसा कि वह खै, कोई ऐसी चीज है जो.. (कैसे कहा जाय ?) अभीतक भागवत 'स्पंदनों'- के प्रति खुली नहीं है । और यही वह कुछ चीज है जो सभी, सभी, सनी अशुभ चीजें करती है. । भागवत चेतनाको अनुभव नहीं होता । और
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तब, अनगिनत काल्पनिक चीजें मौजूद रहती है ( लेकिन संवेदनके लिये बहुत वास्तविक), और उस चीज, एकमात्र सच्ची चीजका अनुभव नहीं किया जा सकता... । लेकिन अब ज्यादा अच्छा है । ज्यादा अच्छा है ।
यह सचमुच मजेदार है । मुझे लगता है कि व्यापक रूपमें कुछ किया गया होगा -- यह केवल एक शरीर या एक व्यक्तिकी तकलीफ नहीं थी : मुझे लगता है कि जिस रूपमें ग्रहण करना चाहिये उस रूपमें ग्रहण करनेके न्द्रिये, उचित ढंगसे 'द्रव्य' को तैयार करनेके लिये कुछ किया गया है -- मानों वह अभीतक गलत तरीकेसे ग्रहण कर रहा था और अब ठीक तरह- से ग्रहण करना सीख गया है ।
वह चीज आयेगी । शायद, मुझे पता नहीं उसके स्पष्ट होनेमें कितने मन या वर्ष लगेंगे ।
(चलते समय, शिष्य माताजीका लिखा हुआ एक पुरजा पढ़ता है)
मुझे अब याद नहीं यह क्या है ।
यह एक संदेश है जो आपने 'आकाशवाणी' को दिया था ।
''हम 'प्रकाश' और 'सत्य'के
संदेशवाहक होना चाहते हैं ।
सामंजस्यका भविष्य अपने-आपको प्रस्तुत कर रहा है
ताकि संसारके सामने उसकी घोषणा की जाय ।',
हां, यह ठीक है, यह लोगोंको साहस देता है ।
जी हां, माताजी । जहांतक मेरा सवाल है, पता नहीं, मुझे बहुत जोरसे लग रहा है कि वह बहुत नजदीक है ।
हां
मुझे यही लगता है ।
हां । तुम्हारी बात ठीक है । तुम ठीक कहते हों । रहीं बात मेरी, इसे न देख सकनेके लिये बिलकुल अंधा होना चाहिये । चीज इस स्थितितक आ चुकी ह ।
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