The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१८ दिसंबर, १९७१
मैंने श्रीअरविंदके लिखी हुई कुछ चीज सुनी है जिसमें वे कहते है कि अतिमानसके धरतीपर अभिव्यक्त होनेके लिये भौतिक मनकों उसे ग्रहण करना और अभिव्यक्त करना होगा -- और अब केवल भौतिक मन, यानी, शरीरका मन ही मेरे अंदर बच गया है । और तब, कारण स्पष्ट हों जाता है कि इसीलिये केवल यही भाग रह गया है । वह बहुत तेजीके साथ और बड़े मजेदार तरीकेसे परिवर्तित हों रहा है । यह भौतिक मन अतिमनके प्रभावके अधीन विकसित हो रहा है । श्रीअरविंदने ठीक यही बात लिखी है कि अतिमनके स्थायी रूपमें धरतीपर प्रकट होनेके लिये यह अनिवार्य है।
तो यह भली-भांति चल रहा है... लेकिन यह सरल नहीं है (माताजी हंसती हैं) ।
जी हां, यही समस्या है जिसे मैंने अपने आगे रखा था, क्योंकि मैंने एक बात देखी है कि यह रूपांतर तबतक संभव नहीं है जबतक चेतनाकी स्थितिमें कोई आमूल परिवर्तन न हो या दृष्टिका परिवर्तन न हो... ।
हां ।
जबतक कि मनुष्य वस्तुओं और सत्ताओंको किसी और तरहसे न देखे ।
हां, हां !
लेकिन तब मै अपने-आपसे पूछता हूं कि यह कैसे संभव है?
यह इस तरह संभव है ।
लेकिन यह कोई बहुत ही मौलिक चीज होनी चाहिये ।
लेकिन, वत्स, यह मौलिक हैं । यह कल्पना मत करो कि यह... मैं
सचमुच कह सकती हूं कि मैं एक और ही व्यक्ति बन गयी हूं । केवल यह (माताजी शरीरके बाहरी रूपको छूती हैं) वही रह गया है जो पहले था... । यह किस हदतक बदल सकेगा? श्रीअरविंदने कहा है कि अगर भौतिक मन रूपांतरित हों जाय तो स्वभावत: शरीरका रूपांतर हो जायगा । देखें ।
लेकिन क्या आप मुझे इस मौलिक परिवर्तनकी चाबी या उत्तोलक दे सकती हैं?
आह! मुझे नहीं मालूम, क्योंकि मेरे लिये, हर चीज बस, मुझसे लें ली गयी है - मन पूरी तरह जा चुका है । अगर तुम बाहरी रूपमें देखो तो मै मूढ़ बन गयी थी, मै कुछ भी न जानती थी । और यह भौतिक मन थोडा-थोडा करके उत्तरोत्तर अंतःप्रकाशोंके द्वारा विकसित हुआ । अपने बारेमें मै नहीं जानती, मेरे लिये काम कर दिया गया है -- मैंने कुछ भी नहीं किया । यह बिलकुल मौलिक रूपमें कर दिया गया ।
यह किया जा सका क्योंकि मै अपने चैत्य पुरुषके बारेमें (उस चैत्यके बारेमें जिसे समस्त जीवनोंमें रूपायित किया गया है) बहुत सचेतन थी । मै बहुत सचेतन थी और वह बना रहा; यह बना रहा और उसने बिना किसी बाहरी अंतरके मुझे लोगोंके साथ व्यवहार करने दिया । यह इस चैत्य उपस्थितिके कारण हुआ । इसीलिये बाहरी तौरपर इतना कम परि- वर्तन हुआ है । इसलिये मै उतना ही कह सकती हू जितना मैं जानती हू और मै' कहती हू : चैत्य पुरुषको समस्त सत्ताके ऊपर शासन करते हुए रहना चाहिये - समस्त शारीरिक सत्ता -- और जीवनका पथ-प्रदर्शन करना चाहिये; तब मनोमय पुरुषको अपने-आपको रूपांतरित करनेका अवसर मिलेगा । मेरा अपना मन तो बस यहांसे भेज दिया गया है ।
हां तो, अब शारीरिक मनका रूपांतर अनिवार्य हों गया क्योंकि मेरे अंदर वही था, उससे अधिक कुछ नहीं, समझे?... बहुत कम लोग इस स्थितिको स्वीकार करेंगे । (हंसते हुए) मेरे लिये तो यह मेरी राय पूछे बिना ही कर दिया गया! कार्य बहुत आसान था ।
ठीक यही चीज हुई है ।
मैं कोई मूलभूत परिवर्तन चाहता हूं... ।
(माताजी हंसती हैं) क्या तुम वह स्वीकार करोगे जो मेरे साथ हुआ है, यानी, व्यक्ति अपने-आपको पूरी तरहसे जड़-मति अनुभव करे?
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मैं तैयार हूं ।
क्या वह तुम्हें निराश न कर देगा?
जी नहीं, नहीं-- बिलकुल नहीं ।
हां, तो यह एक ऐसी चीज है जो अपने-आपको स्थायी रूपसे प्रतिष्ठित कर लेती है : वह है व्यक्तिकी शून्यता -- उसकी पूरी-पूरी शून्यता, अक्षमता । तब तुम... आरामसे रहते हो, तुम बिलकुल स्वाभाविक रूपसे बच्चे जैसे हो जाते हो; तुम भगवान्से कहते हों : ''मेरे लिये सब कुछ कर दो'' ( मुझे और कुछ नहीं करना, मैं और कुछ नहीं कर सकता!)? तब सब कुछ तुरंत ठीक हो जाता है -- तुरंत ।
हां, शरीरने अपने-आपको पूरी तरह दे दिया है, उसने भगवान्से यहां- तक कहा. ''मैं आपसे प्रार्थना करता हू कि यदि मुझे मरना हों तो मै विघटनके लिये संकल्प करूं,'' ताकि यदि शरीरका मरना जरूरी हो तो वहांपर भी मैं प्रतिरोध न करूं -- बल्कि विघटनके लिये संकल्प करूं । उसकी यही वृत्ति है, यह इसी तरह था ( खुले हाथोंकी मुद्रा) । और उसकी जगह एक प्रकारका... (मैं उसे शब्दोमें अनूदित कर सकती हूं, पर वे शब्द न थे) : ''अगर तुम रोग और पीड़ा स्वीकार करो तो रूपांतर विघटनसे अधिक अच्छा है । '' इसलिये जब रोग आता है तो वह स्वीकार कर लेता है ।
यह वह नहीं है, मैं जो कहती हूं... । यह सचमुच वह नहीं है, लेकिन इसे समझाना कठिन है । वास्तवमें, यह एक नयी वृत्ति और नया संवेदन है । मैं कह नहीं पाती ।
और स्पष्टत: यह हर एकके लिये अलग होगा... । मेरे लिये बहुत ही उग्र था - मेरे लिये कोई चुनाव न था, समझे : यह ऐसा ही था, ऐसा ही था यह । लो, बस ।
लेकिन वास्तवमें यह जरूरी है... जिस चीजने इसे सरल बना दिया वह यह है कि चैत्य चेतना पूरी तरह आगे थी और वही जीवनपर शासन करती थीं । इसलिये वह बिना अस्तव्यस्त हुए चुपचाप चलता रहा ।
देखने और सुननेके बारेमें मुझे पता लगा कि यह भौतिक हास न था, वह केवल इतना था : अगर लोग बोलते समय स्पष्टताके साथ सोच रहे हों तो मै उनकी बात समझ लेती हूं । मैं केवल वही देखती हूं जो... आंतरिक जीवनको अभिव्यक्त करे, अन्यथा... वह धुंधला-सा या परदेके
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पीछे-सा दिखता है, और यह बात नहीं है कि आंखें नहीं देखती, यह ''कुछ और चीज'' है, यह कोई और ही चीज है - सब कुछ नया है ।
(मौन)
यह सच है कि शरीरमें बहुत सद्भावना होनी चाहिये - मेरे शरीरमें सद्भावना है । और यह मानसिक सद्भावना नहीं है, यह सचमुच शारीरिक सद्भावना है । वह स्वीकार कर लेता है, वह सब प्रकारकी असुविधाएं स्वीकार कर लेता है... । लेकिन महत्त्वपूर्ण चीज है वृत्ति, परिणाम नहीं (मुझे विश्वास है कि ये असुविधाएं अनिवार्य नहीं हैं), महत्व है वृत्तिका । हां, वह ऐसी होनी चाहिये (खुले हाथोंकी मुद्रा) । वास्तवमें मैंने देखा है कि अधिकतर उदाहरणोंमें भगवानके प्रति समर्पणमें भगवानके प्रति विश्वास जरूरी तौरपर नहीं आता - तुम भगवानके प्रति समर्पण करते हों, तुम कहते हो : ''तुम भले मुझे कष्ट दो, मैं अपने-आप- को समर्पित करता हू । '' लेकिन यह विश्वासका एकदम अभाव है! हां, वास्तवमें यह बड़ी मजेदार बात है, समर्पणमें ही विश्वास नहीं आ जाता; विश्वास कुछ और हीं चीज है । वह एक प्रकारका... ज्ञान है -- एक ''अटल'' ज्ञान जिसे कोई चीज नहीं हिला सकती -- कि जो चीज... भागवत चेतनामें पूर्ण 'शांति' है उसे स्वयं हम कठिनाई, पीड़ा और दैन्यमें बदल देते हैं । हम यह छोटा-सा रूपांतर ले आते है ।
और असाधारण उदाहरण आये है... । उन्हें समझानेके लिये घंटों लग जायंगे ।
वास्तवमें, चेतनाका परिवर्तन होना चाहिये - यहांतक कि कोषाणुओं- की चेतना भी, समझे?... यह है आमूल परिवर्तन ।
उसे अभिव्यक्त करनेके लिये हमारे पास शब्द नहीं हैं क्योंकि धरतीपर उसका अस्तित्व नहीं है । वह छिपा हुआ तो है, पर प्रकट नहीं । सभी शब्द... दूर रह जाते हैं, वह बिलकुल वही नहीं है ।
तुम चाहो तो कह सकते हों कि हर मिनट ऐसा लगता है कि हम जी मी सकते हैं और मर मी सकते है (जरा इधर-उधर झुकनेका संकेत), या फिर अमर जीवन हों सकता है । हर क्षण ऐसा ही होता है और (दोनों तरफोंमें) इतना कम फर्क है कि उसे देख पाना मुश्किल है । यह
नहीं कहा जा सकता : यह करो तो इस तरफ हो जाओगे या वह करो तो उस तरफ हों जाओगे -- यह संभव नहीं है । होनेका यह कुछ ऐसा तरीका है जो लगभग वर्णनातीत है ।१
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