The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
प्रासंगिक (१८ जनवरी, १९६९)
अतिमानव चेतनाके अवतरणके बारेमें ।
उस दिन जब 'क' आया.. जैसे ही उसने प्रवेश किया ( वहां खड़ा था वह), तो यह वातावरण यहीसे वहांतक ( माताजी अपने सामने एक चक्र-सा बनाती है) आया और मुझे एक दीवारकी तरह घेर लिया । वह मोटा था, प्रकाशपूर्ण था और फिर शक्तिशाली था! मुझे वह दिखायी दे रहा था, वह बहुत अधिक द्रव्यात्मक था मानों इतनी मोटी ( लगभग चालीस सेण्टीमीटरका संकेत) किलेकी दीवार हों । जबतक वह यहां रहा तबतक यह बनी रहीं ।
और वह बहुत सचेतन रूपमें क्रियाशील थीं ।
वह मानों शक्तिका प्रक्षेपण था । अब वह सामान्य वस्तु बन गयी है ।
उसके अंदर एक चेतना है -- एक बहुत ही मूल्यवान वस्तु -- जो शरीरको पाठ बढ़ाती है, उसे 'सिखाती है कि उसे क्या करना चाहिये, यानी, उसे कैसी वृत्ति अपनानी चाहिये, उसमें कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिये.. । मै तुमसे बहुत बार कह चुकी हू कि जब कोई निर्देश देनेवाला न हो तो रूपांतरकी प्रक्रियाका पता लगाना बहुत कठिन है; तो यह मानों उसका उत्तर था वह शरीरसे यह कहने आया. ' 'यह वृत्ति अपनाओ, यह करो, वह इस तरह करो,'' और अब शरीर संतुष्ट है, वह पूगई तरह आश्वस्त है । अब वह कोई भूल नहीं कर सकता ।
यह बहुत मजेदार है ।
वह ' 'पथ प्रदर्शक' 'की तरह आया -- वह व्यावहारिक था, बिलकुल व्यावहारिक : ' 'वह चीज, उसे त्यागना चाहिये; उसे स्वीकार चाहिये; उसको व्यापक बना दो; वह... '' सभी आंतरिक गतियां । और यह भी बहुत द्रव्यात्मक बन जाता है, इस अर्थमें कि वह कुछ स्पन्दनोंके बारेमें कहता है ' 'तुम्हें इसे प्रोत्साहन देना चाहिये,' ' कुछ औरोंके लिये. ''इसे सारणीबद्ध करना चाहिये,'' और फिर कुछके लिये : ' 'उसे निकाल बाहर करना चाहिये... '' इस तरहके छोटे-छोटे निर्देश ।
( मौन)
किसी पुराने प्रश्नोत्तर में (जब मैं क्रीडांगणमें बोला करती थी), मैंने
कहा था. ''निश्चय ही अतिमानव पहले शक्तिकी सत्ता होगा ताकि वह अपनी रक्षा कर सकें ।''' हां, वही बात है । वही अनुभूति है यह : यह अनुभूति बनकर वापिस आयी है और चिक यह अनुभूति बनकर लौट है इसलिये मुझे याद हो आयी कि मैंने ऐसा कहा था ।
जी हां, आपने कहा था कि पहले ''शक्ति' आएगी ।
हां, पहले 'शक्ति' ।
क्योंकि उन सत्ताओंकी रक्षा करनी होगी ।
हां, ठीक यही । हां, पहले मुझे इस शरीरके लिये ही अनुभव हुआ: वह किलेकी दीवारके' रूपमें आया । वह चीज जबरदस्त थी! वह जबरदस्त शक्ति थी! दखिनेवाले कार्यकी तुलनामें अनुपातसे बाहर ।
और फिर इसीलिये, अब जब मै इस अनुभूतिको देखती हू तो परिणाम अधिक यथार्थ और ठोस दिखायी देता है, क्योंकि मन और प्राण नहीं हैं,
१''इन तर्कोसे ऐसा प्रतीत होता है कि (अतिमानसिक अभिव्यक्तिका) सबसे सुनिश्चित और स्पष्ट पहलू और वह एक जो - संभवत: -- सबसे पहले प्रकाशमें आयगा, वह 'आनन्द' और 'सत्य' की अपेक्षा 'शक्ति 'का पहलू अधिक होगा । क्योंकि नापी जातिके पृथ्वीपर स्थापित हो सखने और जीवित रह सकनेके लिये यह जरूरी होगा कि पृथ्वीके अन्य तत्त्वोंसे उसकी रक्षा की जाय; और शक्ति ही सुरक्षा है (कृत्रिम, बाह्य. और झूठी शक्ति नहीं, बल्कि सच्चा बल, जयशाली 'संकल्प') । तो यह मानना असंभव नहीं है कि अतिमानसिक क्रिया सामंजस्य, ज्योति, आनन्द और सौंदर्यकी क्रिया होनेसे भी पहले शक्तिकी क्रिया होनी चाहिये ताकि वह सुरक्षा कर सके, स्वभावत: एक क्रियाको सचमुच प्रभावकारी हो सकनेके किए 'ज्ञान', 'सत्य', 'प्रेम' और 'सामंजस्य' पर आधारित होना चाहिये; परंतु ये चीजें भी तमी अभिव्यक्त हों सकेंगी -- प्रत्यक्ष रूपमें, थोड़ीथोड़ी करके अभिव्यक्त होगी -- जब, यूं कहा जा सकता है कि आधार सर्व- समर्थ 'संकल्प' एवं 'शक्ति' की क्रियाद्वारा तैयार हों चुकेगा ।''
(श्रीमातृवाणी, खण्ड १; प्रश्न और उत्तर १९५७-५८; १८ दिसंबर; पृ. २२८)
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क्योंकि उसका स्थान 'तत्' ले लेता ह । और जाननेके इस सारे शांत आश्वासनके बाद, जो साथ-ही-साथ आता है, बात मजेदार हों जाती है ।
तुम्हें कुछ कहना है?
मै अपने-आपसे पूछ रहा था कि यह चेतना व्यक्तिगत रूपमें कैसे काम करेगी? उदाहरणके लिये, आपके सिवाय किसीमें ।
उसी तरह । केवल वे लोग जो अपने-आपको वस्तुनिष्ठ रूपमें देखनेके अभ्यस्त नहीं हैं वे कम देखते है, बस । वहां मानों वह रूईमेंसे गुज़रती है, वह हमेशा ऐसा करती है, अन्यथा तरीका वही है ।
मेरा मतलब यह है : यह ठीक मनपर उतनी क्रिया नहीं करेगी जितनी शरीरपर?
मैं आशा करती हू कि वह ठीक तरहसे विचार करवायेगी ।
वास्तवमें यह पथ-प्रदर्शक है ।
हां, यह पथ-प्रदर्शक है ।
तो, यह चेतना है ।
मेरे लिए भागवत चेतना अपने-आपको विशेष क्रिया-कलापतक सीमित रखती है, खास अवस्थाओंतक, परंतु वह सदा भागवत चेतना ही होती है; जैसे मानव चेतनामें वह अपने-आपको लगभग शून्यतक सीमित रखती है, इसी तरह सत्ताकी कुछ स्थितियोंमें, कुछ क्रियाओंमें वह अपने-आपको संभूति की कुछ विधियोंतक सीमित रखती है ताकि अपनी क्रियाको पूरा कर सकें; और मैंने उसके लिये बहुत मांग की है : ' 'मै हर क्षण पथ- प्रदर्शन पाती रहूं, '' क्योंकि इससे बहुत समय बचता है, है न ' बजाय इसके कि अध्ययन करना पड़े, अवलोकन करना पड़े.. । तो अब मै देखती हू कि ऐसा ही हुआ ।
जिन लोगोंने पहली तारीखको स्पर्श पाया था उनमें स्पष्ट परिवर्तन है : विशेष रूपसे... । वास्तवमें उनके सोचनेके ढंगमें एक यथार्थता, एक निश्चितिका प्रवेश हुआ है।
(चलनेसे पहले शिष्य प्रणाम करता है)
(माताजी हृदय-क्षेत्रको देखती है) वहां था । यह अजीब है, मानों मुझे यह काम सौंपा गया है कि जो मेरे नजदीक आयें उनका इसके साथ संपर्क करा दु ।
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