The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
१९ नवंबर, १९६९
आज सवेरे आठ बजे मैं बहुत-सी बातें कह सकती थी... क्योंकि एक ऐसा दिन आया जब जो कुछ हुआ था उसके परिणामस्वरूप बहुत-सी समस्याएं उठ खड़ी हुई । फिर आज सवेरे (रातके अंतमें), मुझे अनुभूति हुई जो स्पष्टीकरण थी । और मैं दो घंटेतक सृष्टिके 'क्यों' और 'कैसे'के प्रत्यक्ष दर्शन (विचार नहीं : प्रत्यक्ष दर्शन )में रही । वह इतना प्रकाशमय था, इतना स्पष्ट था, इतना अकाटय था । वह अवस्था कम-से-कम चार- पांच घंटेतक रही और फिर वह निथरा गयी; धीरे-धीरे अनुभूतिकी तीव्रता और स्पष्टता कम होती गयी.... । मैं उसी समय बहुत-से लोगोंसे मिली थी, फिर.... लेकिन अब समझाना कठिन है । लेकिन हर चीज इतनी स्वच्छ हो गयी थी, सभी परस्पर-विरोधी सिद्धांत, हर चीज तलीमें थी (माताजी ऊपरसे देखती हैं), और सभी व्याख्याएं, श्रीअरविंदने जो बातें
कही थीं वे सब और कुछ बातें जो 'क' ने कही थीं वे सब अनुभूतिके परिणामस्वरूप दिखायी दी : हर चीज अपने स्थानपर और बिलकुल स्पष्ट । उस समय मैं उसे कह सकती थी, लेकिन अब जरा कठिन होगा ।
ऐसा नहीं है क्या? हमने जो कुछ पढ़ा है, सभी सद्धांतों और व्यारयाओंके बावजूद (कैसे कह?), ''व्याख्या'' सें कुछ छूट गया था, उसे ''समझाना'' मुश्किल था (यह समझाना या व्याख्या करना नहीं है : वह तो बिलकुल नगण्य है) । उदाहरणके लिये, दुख-दर्द और दुःख-दर्द पहुंचानेकी इच्छा, 'अभिव्यक्ति' की यह दिशा । हां, इससे पहले प्रेम और घृणा- के मौलिक तादात्म्यका अंतर्दर्शन हों चुका है, क्योंकि चीज एकदम छोरोंपर थी, लेकिन बाकीके लिये कठिन था । आज यह प्रकाशमान रूपसे सरल है - हां, वही है, इतना स्पष्ट! (माताजी अपना लिखा हुआ एक पुरज़ा देखती हैं) । शब्द कुछ नहीं है । और फिर, मैंने अनगढ़ी पेंसिलसे यूं ही घसीटा लगाया था... । पता नहीं तुम शब्द देख सकते हों या नहीं । मेरे लिये वे किसी यथार्थ चीजके प्रतीक थे; अब वे शब्दोंके अति- रिक्त कुछ नहीं हैं । (शिष्य पड़ता है) :
स्थिरता और परिवर्तन
जड़ता और रूपांतर
हां, प्रभुमें वे निश्चय ही अभिन्न तत्व हैं । और विशेष चीज थी इस अभित्रताकी सरलता । और अब वे शब्दोंसे बढ़कर कुछ नहीं ।
नित्यता और प्रगति
ऐक्य =... (शिष्य पढ़ नहीं पाता)
यह लिखनेवाली मैं न थी, यानी, साधारण चेतना न थी और पेंसिल पता नहीं मैंने क्या लिखा है ।
(माताजी पढ्नेकी कोशिश करती हैं लेकिन व्यर्थ)
वह सृष्टिका अंतर्दर्शन था -- अंतर्दर्शन, समझ, कैसे, क्यों, किस ओर, वहां सब कुछ था, सब कुछ एक साथ और स्पष्ट, स्पष्ट, स्पष्ट... मैं
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कहती हूं, मैं प्रकाशमान और चौधियानेवाले स्वर्णिम प्रभामंडलमें थी ।
हां, तो .वहांपर धरती सृष्टिके प्रतीकरूप, केंद्रमें थी, और पत्थरकी जड़ता- का तादात्म्य था जो सबसे अधिक जड है और... (माताजी फिर पढ्नेकी कोशिश करती हैं) ।
पता नहीं वह आयेगी या नहीं ।
(माताजी लंबी एकाग्रतामें चली जाती हैं)
हम कह सकते हैं (समझानेकी सरलताकी दृष्टिसे मैं ''परम प्रभु'' और ''सृष्टि'' कहूंगी), परम प्रभुमें एक ऐसा ऐक्य है जिसमें सभी संभावनाएं बिना किसी भेद-भावके मिल जाती हैं; हम कह सकते हैं कि सृष्टिमें इस ऐक्य का निर्माण करनेवाली सभी चीजोंका परस्पर विरोधियोंको विभाजित करके प्रक्षेपण है, यानी, उन्हें अलग करके प्रक्षेपण है (इसीको पकड़कर किसीने कहा है कि सृष्टि अलगाव है), उदाहरणके लिये, दिन और रात, काला और सफेद, शुभ और अशुभ आदि (यह सब, लेकिन यह हमारी व्याख्या है) । यह समग्र, सब मिलकर पूर्ण एकता है, निर्विकार और... अविच्छेद्य । सृष्टिका मतलब है इन सब चीजोंका, जो ऐक्यमें ''समाविष्ट'' हैं, अलग होना -- हम इसे चेतनाका विभाजन कह सकते हैं - चेतनाके विभाजनका आरंभ होता है ऐक्यके अपने बारेमें सचेतन होनेमें, ताकि वह अपने ऐक्यमें विविधताके बारेमें सचेतन हो सकें । और तब यह मार्ग अपने खंडोंके कारण हमारे लिये देश और कालमें अनूदित होता है । हमारे लिये, जैसे हम हैं, यह संभव है कि इस 'चेतना' का हर बिंदु अपने बारेमें सचेतन हो और साथ ही अपने मूलगत 'ऐक्य' के बारेमें सचेतन हो । और यह काम किया जा रहा है, यानी, इस चेतनाका छोटे-से-छोटा तत्व 'चेतना' की इस स्थितिको रखते हुए, समग्र मौलिक चेतनाको खोजनेकी प्रक्रियामें है - इसका परिणाम है मूलगत चेतना जो अपने 'ऐक्य'के बारेमें, और समस्त लीलाके बारेमें, इस 'ऐक्य'के अनंत तत्वोंके बारेमें सचेतन है । हमारे लिये यह चीज कालके भावमें अनूदित होती है : 'निश्चेतन' सें चेतनाकी वर्तमान स्थितितककी गति । और 'निश्चेतना' प्रथम 'ऐक्य' का प्रक्षेपण है (अगर उसे ऐसा कहा जा सके, ये सभी शब्द बिलकुल निरर्थक हैं), वह उस तात्विक ऐक्यका प्रक्षेपण है जो केवल अपने ऐक्यके बारेमें सचेतन है -- हां, वही 'निश्चेतना' है । और यह 'निश्चेतना' उन सत्ताओंमें अधिकाधिक सचेतन होती जाती है जो अपने अत्यल्प, आणविक अस्तित्वके बारेमें सचेतन होनेके साथ-ही-साथ, जिसे हम प्रगति, विकास या
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रूपांतर कहते हैं उसके द्वारा मूलगत 'ऐक्य' के बारेमें सचेतन हो जाते हैं । और यह बात, जिस तरह दिखायी दी, सारी चीजकी व्याख्या कर देती ह ।
शब्द कुछ भी नहीं हैं ।
वहां हर चीजको, हर चीजको, हर एक चीजको, स्थूलतमसे लेकर सूक्ष्म- तम चीजतकको अपना स्थान मिल जाता है - स्पष्ट, स्पष्ट, स्पष्ट, अंत- दशन ।
और अशुभ, जिसे हम ''अशुभ'' कहते हैं उसका समग्रमें एक अनिवार्य स्थान है । जिस क्षण हम 'उस' के बारेमें आवश्यक रूपसे सचेतन हो जायं उस क्षणसे यह 'अशुभ' नहीं लगेगा । अशुभ एक आणविक तत्व है जो अपनी आणविक चेतनाको देख रहा है; लेकिन चूंकि चेतना तत्वतः, एक ही है इसलिये वह फिरसे ऐक्य-चेतनाको पा लेती है -- दोनों एक साथ । उसीको, हां, उसीको उपकध करना चाहिये । उस क्षण मुझे इसी अद्भुत चीजका अंतर्दर्शन हुआ था ।.. और आरंभमें (क्या कोई ''आरंभ'' मी है?) जो केंद्रीय उपलब्धिसे अधिक-से-अधिक दूर है, जिसे हम बाह्यांचल कह सकते हैं वह वस्तुओंकी अनंत विविधता, संवेदनोंकी विविधता, भावनाओंकी, सबकी - चेतनाकी विविधता बन जाती है । इस अलगावकी क्रियाने ही जगत्का निर्माण किया है और सतत निर्माण करती रहती है, साथ-हीं-साथ यह हर चीजको समयमें बनाती जाती है : दुख-काटुट, सुख, सब कुछ, सब कुछ जो भी निर्मित होता है वह इसीके द्वारा... जिस ''छितराव'' कहा जा सकता है परंतु यह असंगत है, यह छितराव नहीं है -- स्वयं हम देशकी भावनामें रहते हैं इसलिये छितराव और एकाग्रताकी बात करते हैं, लेकिन यह ऐसी कोई चीज नहीं है ।
लेकिन मै समझ सकती हू कि 'क' यह क्यों कहा करते थे कि हम 'संतुलन' कालमें रह रहे हैं; मतलब यह हुआ कि चेतनाके इन अनगिनत बिन्दुओंके, इन परस्पर विरोधियोंके संतुलनसे ही केंद्रीय 'चेतना' फिरसे पायी जा सकती है । और जौ कुछ कहा गया है वह मूढ़ता है -- यह कहते हुए मै साथ-ही-साथ यह भी देख सकती हू कि यह किस हदतक मूढ़ता है । लेकिन अन्यथा करनेका कोई मार्ग ही नहीं है । यह कुछ ऐसी चीज है... कोई ऐसी ठोस चीज, इतनी सत्य, हां, इतनी पू-री.. त-र-ह-से... बह ।
जबतक मैं वह चीज जी रही थी वह... लेकिन शायद तब .मैं यह न कह पाती । वह (माताजी पुरजेकी ओर इशारा करती हैं), मैं कागज लेकर लिख लेनेके लिये बाधित हुई । लेकिन इस तरह कि अब मुझे
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नहीं मालूम मैंने क्या लिखा है... । पहली चीज जो लिखी गयी वह यह थी :
यह मौलिक 'स्थिरता' का विचार था (क्या यह कहा जा सकता है?) जो 'अणियक्ति' में जडताद्रारा और वृद्धिका विचार परिवर्तनद्रारा अनूदित हुआ है । तब आये :
लेकिन वह चला गया, भाव चला गया - शब्दोंमें एक भाव था ।
ये परस्पर विरोधी थे (ये तीनों चीजें) ।
उसके बाद जगह छूटी हुई थी (माताजी त्रिविध विरोधोंके नीचे लकीर खींचती हैं), और फिर एक बार 'दबाव', और तब मैंने लिखा :
ऐक्य =... (तीन अक्षर जो पढ़ नहीं जाते)
और वह अनुभूति की बहुत अधिक सच्ची अभिव्यक्ति थी, लेकिन यह अपाठच है - मेरा ख्याल है कि यह जान-बूझकर अपाठय रखी गयी है । इसे पढ़ सकनेके लिये तुम्हें अनुभूति होनी चाहिये । (शिष्य पढ्नेकी कोशिश करता है) :
मुझे लगता है कि यहां एक शब्द ''आराम'' है ।
हां, यह हो सकता है । आराम और
(माताजी एकाग्रतामें चली जाती हैं)
यह शब्द ''शक्ति'' नहीं है?
जी हां, ''शक्ति और आराम'' मिलकर ।
हां, यही है ।
ये शब्द मैंने नहीं चुने थे, अतः वह कोई विशेष शक्ति रही होगी -
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जब मैं ''मैं'' कहती हू तो उसका मतलब होता है वह चेतना जो यहां है (सिरके ऊपर इशारा); यह वह चेतना नहीं है । यह कोई ऐसी चीज थी जो दबाव डाल रही थी जिसने मुझे लिखनेके लिये बाधित किया ।
(माताजी नकल करती है)
ऐक्य = शक्ति और आराम मिलकर ।
इसका भाव यह है कि दोनों मिलकर चेतनाकी वह अवस्था लें आते हैं जो अपने-आपको व्यक्त करना चाहती थी ।
यह विश्वके परिमाणमें था -- व्यक्तिके परिमाणमें नहीं ।
मैंने दोनोंके बीच एक लकीर लगा दी जिसका मतलब है कि दोनों एक साथ नहीं आये ।
लेकिन आप बहुधा इस अतिमानसिक अभिव्यक्तिके बारेमें बोलते समय कह चुकी हैं कि वह एक विस्मयकारक गति थी, और साथ ही यह भी कि वह मानों एकदम निश्चल थी । आपने यह बहुत बार कहा है ।
लेकिन तुम जानते हो कि बहुत बार मुझे याद नहीं रहता कि मैंने क्या कहा था ।
आप कहती हैं : स्पंदन इतना तेज होता है कि वह अगोचर होता है, वह मानों जमकर स्थिर हो जाता है ।
हां, लेकिन यह एक 'महिमा थी' थी जिसमें मैंने आज सवेरे घटोतक निवास किया ।
और तब, सब, सब, सब धारणाएं, सभी, अत्यधिक बौद्धिक धारणाएं भी सभी, मानों... मानों बचकानी बन गयीं । वह इतना स्पष्ट था कि उसकी जो प्रतीति थी : उसके बारेमें बोलनेकी कोई जरूरत नहीं ।
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सभी मानव प्रतिक्रियाएं, अधिक-से-अधिक ऊंची, अधिक-से-अधिक शुद्ध और अधिक-सें-अधिक उदात्ता प्रतिक्रियाएं भी इतनी बचकानी लगती थीं... श्रीअरविदका लिखा हुआ एक वाक्य सारे समय मुझे याद आ रहा था । एक दिन, पता नहीं कहां, उन्होंने कुछ लिखा था, एक लंबा-सा वाक्य था जिसमै यह आता है : ''और जव मुझे ईर्ष्या होती है तो मैं जान लेता हू कि वह बूढ़ा अभीतक मौजूद है ।', अब शायद तीस वर्षसे ऊपर हो गये जब मैंने यह वाक्य पढ़ा था -- हां, लगभग तीस वर्ष, - और मुझे याद है जब मैंने ''ईर्ष्या'' शब्द पढ़ा तो मैंने अपने-आपसे कहा : ''श्रीअरविद कैसे ईर्ष्या कर सकते हैं! '' तो अब तीस वर्ष बाद मेरी समझमें आया कि ''ईर्ष्या'' सें उनका क्या मतलब था । यह वह चीज बिलकुल नहीं है जिसे लोग ''ईर्ष्या'' कहते हैं । वह एकदम चेतनाकी और ही अवस्था थी । मैंने उसे स्पष्ट देखा । और आज सवेरे मुझे यह फिरसे याद आया : जब मै ईर्ष्या करता हू तो मैं जान लेता हू कि वह बूढ़ा आदमी अभीतक मौजूद है । उनके लिये ''ईर्ष्या'' करनेका वह अर्थ नहीं है जिसे हम ''ईर्ष्या'' करना कहते हैं ।... वह यह अति सूक्ष्म कण है जिसे हम व्यक्तित्व कहते हैं, चेतनाका यह अत्यंत लघु कण जो अपने-आपको केंद्रमें रखता है, जो प्रत्यक्ष दर्शनका केंद्र है जो परिणामतः चीजोंको इस तरह आते देखता है (अपनी ओर संकेत) या इस तरह जाते देखता है (बाहरकी ओर संकेत), जो कुछ उसकी ओर नहीं आता वह उसे एक ऐसी चीजका बोध देता है जिसे श्रीअरविद ''ईर्ष्या'' कहते है : यह बोध कि चीजें केंद्रकी ओर आनेकी जगह छितरा रही हैं । इसीको श्रीअरविद ईर्ष्या करना कहते हैं । तो जब वे कहते है. ''जब मै ईर्ष्याका अनुभव करता हू (उनके कहनेका मतलब यही था), तो मैं जान लेता हू कि बूढ़ा आदमी अभीतक मौजूद है,'' यानी, यह चेतनाका यह अणुवत् कण अभीतक अपने केंद्रमें है. यह क्रियाका केंद्र है, बोधका केंद्र है, संवेदनका केंद्र है...
( मौन)
हां, मै देख सकती थी - जब मै अपना सारा भौतिक काम करती हू - तब मैं देख सकती थी कि सारा काम चेतनामें जरा भी परिवर्तन किये बिना किया जा सकता है । उसने मेरी चेतनामें परिवर्तन नहीं किया; जिस चीजने मेरी चेतनापर परदा डाला वह चीज थी लोगोंसे मिलना-जुलना; तब मैंने यहां रहकर वह करना शुरू किया जो मैं रोज करती रही हू - अर्थात्, लोगोंपर दिव्य चेतना प्रक्षिप्त करना । लेकिन
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वह सीमाओंपर वापिस आ गयी... (इसे कैसे बुलाया जा सकता है?) यानी, अंदर रहनेकी जगह जब तुमने मुझसे पूछा तो मैं इसे देखने लगीं । लेकिन वह भावना वहां न रही -- वहां केवल वही था, है न! केवल वही था और हर चीज, हर चीज बदल गयी -- रूप-रंग, भाव आदि बदल गये थे...
यह अतिमानसिक चेतना होनी चाहिये : मेरा ख्याल है कि यह अतिमानसिक तना ही है ।
लेकिन हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि एक काफी विस्तृत और द्रुत चेतनाके लिये, जो केवल मार्गके जरा-से भाग- को ही नहीं, एक ही समयमें समस्त मार्गको देख सकता है...
हां, हां ।
समग्र एक गतिशील पूर्णता है ।
हां
'अशुभ' है अपनी दृष्टिको एक छोटे-से कोणपर सीमित रखना; तब हम कह सकते हैं : ''यह अशुभ है,'' लेकिन अगर हम समस्त पथको देखें... । समग्र चेतनामें देखें तो स्पष्ट है कि अशुभ कुछ है ही नहीं ।
कोई विपर्याय नहीं है, कोई विरोधी तत्व नहीं है - कोई विरोध भी नहीं है, मै कहती हू : कोई विपर्याय नहीं है । एक वही 'ऐक्य' है । उस 'ऐक्य' मै जीना है । उसे शब्दों और विचारोंमें अनूदित नहीं किया जा सकता । मैं कहती हू, वह... निस्सीम विस्तार है, प्रकाश.. बिना गति- का प्रकाश है और साथ-ही-साथ आराम... एक ऐसा आराम जिसे इस रूपमें नहीं पहचाना जाता । अब मुझे विश्वास हैं कि यह वही है, वही अतिमानसिक चेतना ।
और आवश्यक रूपसे, आवश्यक रूपसे उसे धीरे-धीरे रूप-रंग बदलने होंगे ।
(लंबा मौन)
ऐसे कोई शब्द नहीं है जो भागवत महिमा समझा सकें । सारी चीज
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किस तरह मिली हुई है ताकि सब कुछ यथासंभव तेजीसे चल सके । और व्यक्ति उस हदतक दुःखी है जिस हदतक वे उसके बारेमें सचेतन नहीं होते और उन्हें जो हों रहा है उसके बारेमें गलत स्थिति लेते हैं ।
लेकिन यह सोचना कठिन है कि हर क्षण... पूर्णता होनी चाहिये ।
हां, ऐसा ही ।
हर क्षण पूर्णता है ।
हर क्षण, कोई और चीज नहीं है । जब मैं वहां थी तो वहां कोई और चीज न थी । और फिर भी मैंने तुमसे कहा है, यह वह समय था जब मैं शारीरिक रूपसे बहुत व्यस्त थी -- सारा काम हो रहा था, किसी चीजमें कोई बाधा न थीं । इसके विपरीत, मेरा ख्याल है कि मैं सामान्यकी अपेक्षा बहुत ज्यादा अच्छी तरह काम करती थीं.. । पता नहीं, कैसे समझाया जाय । यह ऐसा नहीं था मानों कोई चीज ''जोड़ी'' गयी हो. यह बिलकुल स्वाभाविक था ।
उस चेतनामें जीवन जैसा है, वैसा जिया जा सकता है -- और तब वह काफी अच्छी तरह जिया जाता है!.. कुछ भी बदलनेकी जरूरत नहीं है । जो कुछ बदलना है वह अपने-आप स्वाभाविक तौरसे बदल जाता है ।
मै एक उदाहरण देती हूं । कुछ दिनोके लिये मुझे. - - के साथ कुछ कठिनाई हुई । मै उसका नाम नहीं बताऊंगी । उसकी कुछ गतियोंको ठीक करने- के लिये उसपर दबाव डालना पड़ा । आज वह उसके बारेमें साधारण- से ज्यादा भिन्न तरहसे सचेतन था, और अंतमें उसने कहा कि वह परिवतनके मार्गपर है (और यह बात ठीक है), और यह सब बिना एक शब्द- के ही नहीं, दबाव डालनेके लिये चेतनाकी किसी गतिके बिना हुआ । तो यह बात है । यह प्रमाण है... । सब कुछ यंत्रवत् होता है, किसी हस्तक्षेपकी आवश्यकताके बिना 'सत्य' की स्थापना-सा : केवल सत्य चेतनामें निवास करना, बस इतना ही, यही काफी है ।
तो बस, यही बात है ।
लेकिन तब, सब बातोंके बावजूद, शरीरने सारे समय अपनी आवश्यकताओंकी जरा-सी चेतना रखी थी (यद्यपि वह अपने साथ व्यस्त न था;
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मै हमेशा कहती थी : वह अपने साथ व्यस्त नहीं है उसे रस नहीं है), लेकिन यही वह बात है जिसके लिये श्रीअरविद कहते थे ''मुझे लगता है कि मैं अब भी वही बूढ़ा आदमी हूं । '' मैं आज इस बातको समझ पायी, क्योंकि आज वह न था । हां, तो इस प्रकार अभीतक जो बिलकुल ठीक नहीं है उसका बहुत शांत-स्थिर बोध - इधर दर्द, उधर कठिनाई - बहुत शांत, बहुत उदासीन, (कोई महत्व पाये बिना) उसका बोध होता है । और अब यह मी गया! एकदम साफ!... मै आशा करती हू कि वह लौटेगा नहीं । वह वास्तवमें.. मै समझती हू, यह रूपांतर: है । व्यक्ति स्वर्णिम विस्तारमें सचेतन है -- यह अद्भुत है -- ज्योतिर्मय, स्वर्णिम, शांत, शाश्वत और सर्वशक्तिमान ।
और यह आया कैसे?.. वास्तवमें उसे व्यक्त करनेके लिये कोई शब्द नहीं है, भागवत कृपाके इस चमत्कार... भागवत कृपा, भागवत कृपा एक ऐसी चीज है जो अपनी स्पष्ट दृष्टिवाली सहृदयताके साथ सारी समझके परे है । स्वभावत: शरीरको अनुभव था । कुछ बात हुई थी जो मै तुम्हें न बताऊंगी और उसकी सच्ची प्रतिक्रिया हुई । वह पुरानी प्रतिक्रिया न हुई, उसमें सत्य प्रतिक्रिया हुई -- वह मुस्काया, वह परम प्रभुकी 'मुस्कान' सें मुस्काया । वह पूरे डेढ़ दिन रही । इस कठिनाईने शरीरको अंतिम प्रगतिके योग्य बनाया, उस दिव्य चेतनामें रहने योग्य बनाया; अगर सब कुछ सामंजस्यपूर्ण होता तो वही चीजें बरसोंतक चल सकती थीं । वह अद्भुत था, अद्भुत!
और मनुष्य कितने मूढ़ हैं! जब भागवत कृपा उनके पास आती है तो वे उसे ''ओह! कैसी विभीषिका है! '' कहते हुए धकेल देते हैं ! ' मैं इसे बहुत जमानेसे जानती हू, पर मेरी अनुभूति चौधियानेवाली है ।
जी हां, हर चीज पूर्ण रूपसे, अद्भुत रूपसे, हर क्षण वही है जो उसे होना चाहिये ।
ठीक ऐसा ही है ।
लेकिन हमारी दृष्टि मेल नहीं खाती ।
हां, यह हमारी पृथक चेतना है ।
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सब कुछ विद्युत गतिसे उस चेतनाकी ओर लाया गया है जो बिन्दुकी चेतना होनेके साथ-साथ समग्रकी चेतना होगी ।
(माताजी अपने नोटकी नकल कर चुकती हैं) लो, मैं इसपर आजकी तारखि लिखती हू ।
आज १९ नवंबर है ।
१९ नवंबर, १९६९ अतिमानसिक चेतना ।
अतिमानसिक चेतनाका पहला अवतरण २१ तारीखको हुआ था और यह ११ तारीख है ।... यहां १ लक्ष्य करने लायक है.... । इतनी सारी चीजें हैं जिन्हें हम नहीं जानते!
मुझे आशिक रूपमें पहले ही यह अनुभूति हो चुकी थी कि अगर हम आंतरिक सामंजस्यकी इस अवस्थामें हों और एकाग्रताका कोई भी अंश शरीरकी ओर मुंडा न हों तो शरीर बिलकुल अच्छी तरह काम करता है । यह... स्वकेंद्रित होना ही सब कुछ बिगाड़ देता है । और मैंने यह बहुत बार देखा है, बहुत बार... । वास्तवमें, आदमी अपने-आपको बीमार कर लेता है । यह चेतनाकी संकीर्णता है, उसका विभाजन है । अगर तुम उसे क्रिया करने दो -. । हर जगह एक दिव्य चेतना है, एक दिव्य कृपा है जो सब कुछ करती है ताकि सब ठीक चल सकें । लेकिन इस मूर्खताके कारण ही सब कुछ बिगड़' जाता है - अजीब है यह! अर्ह- केंद्रित मूढ़ताको ही श्रीअरविद ''वह बढ़ा आदमी'' कहते हैं ।
यह सचमुच मजेदार है ।
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