The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
प्रासंगिक (२२ फरवरी, १९६९)
२१ फरवरीके संदेशके बारेमें
''केवल अक्षर शांति ही सत्ताकी नित्यताको संभव बना सकती है । ''
मुझे याद है कि मैंने यह तब लिखा था जब यह अनुभूति हुई कि 'निश्चेतना'की निश्चलता, सृष्टिका आदि (हम इसे ''प्रक्षेपण'' भी नहीं कह सकते, लेकिन) एक प्रकारसे 'नित्यता', 'अमरता 'का निर्जीव या निश्चेतन प्रतीक है -- यह ''निश्चलता'' नहीं है । शब्दोंका मूल्य कुछ नहीं, यह निश्चलता और स्थिरताके बीच है । मैंने यहां ''शांति'' लिखा है, लेकिन ''शांति'' एक अपर्याप्त शब्द है । यह वह नहीं है । यह शांतिसे अनन्त- गुना बढ़कर है । वह ''कुछ'' है (''नित्य'' शब्दका अर्थ भी सीमित है । सभी शब्द असंभव हैं), कुछ चीज सीध चीजोंकी और अभिव्यक्तिकी 'आदि' स्रोत है । अभिव्यक्तिके 'आदि' के साथ फिरसे मिलनेके विकासका
आरंभ है (माताजी दो-एक गोलाकार बनाती हैं जो एकको दूसरेसे जोड़ता है) । मुझे लगता है कि ''खेलके मैदान'' में यह अन्तर्दर्शन हुआ था, मानों निश्चेतन निश्चलता - 'निश्चेतन' की निश्चलता, 'निश्चेतन'की जड़ निश्चलता -- विकासके आरंभ-बिन्दु थे और उसका अनुवाद था. कैसे कहा जाय? (यह भी एक और प्रकारकी निश्चलता है! लेकिन ऐसी निश्चलता. जिसमें नमी गतियां आ जाती है) 'मूत्र स्रोत'की निश्चलता, यह स्थायित्व, और यह मारा विकास 'उसी' को फिरसे पानेके लिये है, उसके साथ ही सारा मार्ग भी था (वक्रगतिकी वही मुद्रा) । वह बहुत स्पष्ट अन्तर्दर्शन था । मुझे याद पड़ता है कि मैंने यह लिखा था । जब मैंने इसे पढ़ा तो वह अनुभूति वापस आ गयी । हां, हम हमेशा ''पतन'' की बात करते हैं -- लेकिन यह वह नहीं है !यह वह बिलकुल नहीं है । अगर कोई पतन हुआ तो उस समय जब प्राणने स्वतंत्र होनेका संकल्प किया : यह आरंभमें नहीं था । यह बिलकुल मार्गपर था... । प्राचीन परंपराके अनुसार 'चेतना' 'निश्चेतना' बन गयी क्योंकि वह 'स्रोत' से कट गयी - यह मुझे ओसार लगता है जैसे बच्चोंसे कही गयी कहानियां ।
अजीब बात हैं । नीरवता और अन्तर्दर्शनमें यह बहुत स्पष्ट होता है, बहुत ज्योतिर्मय और बोधगम्य; लेकिन जैसे ही तुम उसे सुनाना चाहो वह मूर्खता बन जाता है ।
लेकिन सृस्ट्टिटमें जैसी कि वह अब भी है, यह सच है ''शांति'' शब्द शायद निकटतम है (यद्यपि यह बहु नहीं है, यह बिलकुल छोटा और संकुचित है, पर वह नहीं है), जैसे हो कोई चीज बिगड़ जाती है या अव्यवस्थित हों जाती है, वैसे ही यह (यह शांति) उपचारके रूपमें अंदर आ जाती है ।
(मौन)
उफ़! शब्दोंका मूल्य कुछ भी नहीं होता, पता नहीं कैसे काम चलाया जाय । मुझे नहीं मालूम कि यह इस कारण है कि मेरे पास काफी शब्द नहीं है या सचमुच. सारी मानसिक अभिव्यक्ति कृत्रिम मालूम होती है । वह निर्जीव झिल्ली-सी मालूम होती है । यह अजीब है । और भाषा पूरी तरह उसी क्षेत्रकी चीज है । जब मै तुम्हें इस अनुभूतिके बारेमें बताना चाहती हू... कुछ लोगोंके साथ मेरा संबंध बहुत, व्यवहुत अच्छी तरह जुड़ जाता है, बहुत आसानीसे, नीरवतामें संबंध जड़ता है और मैं उन्हें शब्दोमें जितनी बातें बता पाती उससे कहीं अधिक बता देती हू; यह अधिक लचीला, अधिक यथार्थ और अधिक गहरा होता है. । लेकिन शब्द,
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वाक्य, लिखित बातें मेरे ऊपर ऐसा प्रभाव डालती है मानों दो आयाम- वाला चित्र हों, एक साधारण-सा चित्र; और लोगोंके साथ मेरा जो संपर्क उस समय बनता है जब मैं बातें नहीं करती, तो वह गहराई ले आता है, वह ज्यादा सच्ची चीज होती है (वह बिल्कुल सत्य नहीं होता, उससे बहुत दूर होता है, फिर मी अधिक सत्य होता है), उसमें गहराई होती है ।
( मौन)
इसीलिये अनुभूतियोंका सुनाना कठिन है, ३ अलग किए गए अनुभव नहीं हैं, और वे एकके बाद एक आनेवाले पृथक अनुभव नहीं होते । यह रूपांतरकी एक गोल व्यापक गति होती है (गोलाईकी मुद्रा), ओर उममें बहुत तीव्रता होती है ।
जीवनकी सामान्य क्रियामें : ''सब ठीक-ठाक''की भावना होती है जो लोगोंमें अपने-आपको अपने स्वास्थ्यके रूपमें प्रकट करती है, और फिर, संतुलनका अभाव, व्यवस्थाका अभाव; और यह विरोध, ये सब बिलकुल कृत्रिम प्रतीत होते हैं : यह एक लगातार गति है जो एक प्रकारके स्पन्दनमें दूसरे प्रकारके स्पन्दनमें बदन जाती है, जिसका मूल स्रोत (कैसे कहा जाय? अधिक ''गहरा'' नहीं, ''अधिक ऊंचा'' भी नहीं, ''अधिक सत्य'' भी नहीं होता, वह केवल एक पक्ष दिखाता है, यह वह नहीं है) आखिर किसी रूपमें ''श्रेष्ठ'' -- शब्द मूर्खतापूर्ण होते है, एकदम मूर्खतापूर्ण । यह ऐसा है, सारे समय ऐसा रहता है (लगातार गति) । और तुम एक या दूसरे स्थलकी ओर खिंचते हों; यह केकठ हमारी चेतनाका खेल है । लेकिन जो चेतना समग्रको देख सकती है उसके लिये यह लगातार गति है और व्यापक. की दिशामें । हां, यह वही है, ताकि यह जड़ 'निश्चय- तना' चरम चेतना बन जाय.. । पता नाहीं मुझे धुंधली-सी याद है कि इसकी शोधकी जा चुकी है (यहां धरतीपर, धरतीपर ही, इसी धरतीपर) कि गतिकी अमुक तीव्रता (जिसे हम ''तेजी'' कहते है) गतिशृन्यताका संस्कार पैदा करती है । मुझे धुंधली-सी याद है. कि मुझे यह बताया गया था । लेकिन यह किसी चीजके अनुरूप है । इस संदेशमें मैं जिसे ''शांति'' कहती हू, जो शांति मालूम होनी है वह गतिकी पराकाष्ठा है, परंतु व्यापक -- सामंजस्यपूर्ण, व्यापक ।
जैसे ही तुम बोलते हो, वह व्यंग्य चित्र-सा दीखने लगता है ।
(लंबा मौन)
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मै मौनके साथ ही समाप्त करूंगी!
मैं आशा करता हूं कि ऐसा न होगा ।
(माताजी हंसती हैं) लेकिन यह सब इतना तुच्छ है ।
बादमें, हम रंगोंमें बातचीत करेंगे ।
ओह! वह सुंदर होगा
चीज यहांतक पहुंचती है कि जब मुझसे कोई बात कही जाती है, उदाहरणके लिये, जब मेरी कही हुई कोई बात मेरे आगे दोहराती जाती है, तो मैं उसे नहीं समझ. पाती!. मैं पूरा प्रयत्न करती हू, लेकिन चेतना अपनी समस्त तीव्रताके साथ अपने-आपको अभिव्यक्त करना चाहती है, और जब उसे दोहराया जाता है तो उसमें वह तीव्रता नहीं होती, उसमें कोई अर्थ नहीं रहता ।
जब आज यह संदेश मुझे पढ़कर सुनाया गया तो अनुभूति वापिस आ गयी, इसलिये मै जानती हू कि वह कैसा था । और ''शांति'' शब्दमें कितना कुछ था!.. अब वह नहीं रहा ।
मैंने किस शब्दका प्रयोग किया था?
जी हां, शांति ।
अक्षर?
जी : ''केवल अक्षर शांति..... ''
हां, तब अनुभूति यह हुई कि यह अक्षर शांति (जो न ''शांति'' थी और न ''अक्षर''! बल्कि ''कुछ'' थी), यही 'कुछ' निश्चेतन जड़तामें था । और यह इतनी ठोस रवि!... सृष्टिका सारा चक्र था वहां ताकि यह और 'वह' एक प्रतीत हों (लेकिन वह एक है -- वह एक है) । कहा जा सकता है (लेकिन ये फिर वाक्य बन जाते है, ये वाक्य हैं). अपने तादात्म्यसे सचेतन हो जायं । लेकिन यह एक वाक्य ही है ।
अनुभूति इतनी तीव्रताके साथ ठोस है कि जैसे ही मै बोलना शुरू करती हू कि वह उतर आती है । वहां (ऊपरकी ओर इशारा) चेतना स्पष्ट है और फिर..
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