The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
२२ जनवरी, १९६६
आज सवेरे, दो घंटेके लिये, में एक प्रकारकी आनंदमय अवस्थामें रही जिसमें चेतना ऐसी स्पष्ट थी कि जीवनके सभी रूप, सभी जगतोमें, सभी क्षणोंमें चुनावकी अभिव्यक्ति थे -- वहां व्यक्ति अपना जीवन चुनता है ।
इसे शव्दोंमें कहना बहुत कठिन है... । आदमी समझता तै कि वह एक प्रकारकी बाध्यतामें जीता है, और वह मानता है कि वह इस बाध्यताके सुपुर्द है, लेकिन वह बाध्यता बिलकुल गायब हो गयी थी । अब केवल सहज-स्वाभाविक बोध था कि धरतीपर जीवन, अन्य पृथ्वियोंपर जीवन और पृथ्वीपर हर प्रकारका जीवन और दूसरे जगतोंपर हर प्रकारका जीवन सिर्फ एक चुनावका सवाल है : तुमने ऐ सा होनेका चुनाव किया है और तुमने निरंतर ऐसा होनेका या वैसा होना एका चुनाव कर लिया है । तुमने चून लिया है कि चीजों इस तरहसे हों या उस तरहसे हों । तुमने यह मान्यता मी चुनी है कि तुम नियतिके, आवश्यकताके, एक बाधित करनेवाले विधानके सुपुर्द हों - सब कुछ चुनावका प्रश्न है । और एक हल्केपनका, स्वाधीनताका भाव थ और हर चीजके लिये मुस्कान थी ।
साथ ही, यह तुम्हें बहुत अधिक शक्ति प्रदान करती है । बाध्यता, आवश्यकताकी भावना -- और उनसे भी बढ़कर भाग्यकी भावना -- पूरी तरह गायब हो गयी थी । समस्त रोग, सभी घटनाएं, सभी नाटक, ये सब चीजों गायब हों गयी थीं । भौतिक जीवनकी यह ठोस और इतनी पाशविकता : बिलकुल चली गयी थीं ।
आज सवेरे मैं डेढ़. घंटेसे ज्यादा इस अवस्थामें रही । फिर, मुझे वापिस आना पड़ा... एक ऐसी अवस्थामें लौटना पड़ा जो मुझे कृत्रिम प्रतीत होती है लेकिन वह औरोंके कारण, और लोगों तथा वस्तुओंके सार्थ संसर्गके कारण और उन अनगिनत चीजके कारण जिन्हें करना जरूरी है । फिर भी, पृष्ठभूमिमें अनुभूति बनी रहती है । जीवनकी सभी जटिलताओंके लिये, एक विनोद-भरी मुस्कान रहती है -- व्यक्ति अब जिस अवस्थामें है यह उसके अपने चुनावका तथ्य है, व्यक्तिके लिये चुनावकी स्वाधीनता है, लेकिन लोग इसे भूल गये हैं । यही बात इतनी मजेदार है ।
मैंने एक ही समयमें समस्त मानव ज्ञानकी झांकी पायी ( क्योंकि, मानव उपलब्धिकी उन अवस्थाओंमें सभी मानव ज्ञान उस नयी अवस्थाके सामने एक चित्रावलकि रूपमें आते हैं और हर एकको अपने-अपने स्थानपर रखा जाता है -- हमेशा, हमेशा ही जब कोई अनुभूति आती है तो वह मानों सिंहावलोकनके रूपमें आती है) । मैंने सभी सद्धांतों, सभी मान्यताओं, सभी दर्शनोंको देखा और देखा कि वे अपने-आपको नयी अवस्थाके साथ कैसे संलग्न करते है । वह मजे दार था ।
और इसके लिये आरामकी जरूरत नहीं होती । ये अनुभूतियोंके इतनी ठोस, इतनी सहज और इतनी वास्तविक होती हैं ( वे किसी प्रयास तो क्या, संकल्पका परिणाम भी नहीं होती) कि उनके लिये आरामकी जरूरत नहीं होती ।
लेकिन जिन लोगोंमें मानसिक या दार्शनिक तैयारि नहीं थी और उन्होंने किसी-न-किसी कारण इस अनुभूतिको पा लिया ( संत या ऐसे सब लोग जो आध्यात्मिक जीवन बिताते थे), उन्हें जीवनकी अवास्तविकताकी, जीवनके भ्रमकी बहुत तीव्र अनुभूति हुई । लेकिन यह बहुत संकीर्ण दृष्टि है । यह ऐसा नहीं है - यह ऐसा नहीं है । हर चीज एक चुनाव है! हर चीज, हर एक चीज चुनाव है! भगवान्का चुनाव, लेकिन हमारे अंदरके भगवान्का : वहांके ( ऊपरकी ओर संकेत) भगवान्का नहीं : यहीके । और हम नहीं जानते, यह हमारे अपने हृदयोंमें है । और जब हम जानते हैं तो चुनाव कर सकते है -- हम अपनी पसंद चून सकते हैं, यह अद्भुत है ।
और इस प्रकार सत्ताकी नियति, बंधन और कठोरता, सब गायब हों
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चूंकि हैं । सब गायब । वह पारदर्शक नीला था, पारदर्शक गुलाबी था, बिलकुल ज्योतिर्मय, पारदर्शक और हल्का ।
मैं भली-भांति समझ सकती हू कि यह कोई निरपेक्ष चीज नहीं हैं; यह सत्ताकी एक विधि-भर थी, लेकिन थी बहुत ही मोहक विधि... । सामान्यत:, जिन लोगोंमें पर्याप्त बौद्धिक तैयारी नहीं होती उन्हें जब इस प्रकारकी अनुभूति हो जाती है तो वे मान बैठते हैं कि उन्होंने ' 'एकमात्र '' मध्य पा लिया है । और उसपर वे सिद्धांत गढ़ने लगते है । लेकिन मैंने भली-भांति देखा है कि यह वह नहीं है : यह सत्ताका तरीका है, यद्यपि यह सत्ताका बहुत अच्छा तरीका है यहां जो है उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ । उसे यहां पाया जा सकता है : मैं पा चुकी हू । मैंने उसे बहुत ठोस रूपमें अनुभव किया था । यहां हमेशा कृउछ-न-कुछ ऐसा होता है जो ठीक नहीं है, यहां-वहां, इसमें या उसमें कुछ गलती होती है और फिर ऐसी परिस्थितियां होती है जो ठीक नहीं होती । हमेशा कठिनाइयां होती हैं -- यह सब... रंग बदल लेता है । वह हल्का, हल्का -- हल्का और नमनीय हो जाता है । सब कठोरता और बड़ापन गायब हो जाते हैं ।
और यह भाव भी, कि अगर तुम ऐसे होनेका चुनाव करो तो ऐसे बने सकते हो । और यह सच है । गलत आदतें ही, स्पष्टतः, धरतीपर करोड़ों आदतें ऐसी हैं जो तुम्हें रोकती है; लेकिन यह कोई कारण नहीं है कि यह अवस्था स्थायी न हो पाये । क्योंकि इससे सब कुछ बदल जाता है! सब कुछ बदल जाता है!... यह स्पष्ट है कि अगर ल्यक्ति उस अवस्थाका स्वामी बन जायें तो वह अपने चारों ओरकी सभी परिस्थितियोंको बदल सकता है ।
इन दिनों ( काफी लंबे समयसे), शरीरके साथ यहीं कठिनाई थी । यह शरीर, जैसा कि साधारणत: होता है, सीमित और अपने ही शंखमें बंद नहीं है, जो सहज रूपसे ' 'ग्रहण करने'' की अनुभूतिके बिना भी ग्रहण करता रहता है, जिसमें उसके चारों तरफकी सभी चीजोंके स्पंदन आते रहते हैं; और तब, मानसिक या नैतिक दृष्टिकोणसे, उसे चारों ओरसे घेरे रहनेवाली सभी चीजों बंद और न समझनेवाली हों तो चीज जरा मुश्किल हो चली है, यानी, वे ऐसे तत्व होते है जो आते है और उनका रूपांतर करना जरूरी होता है । यह एक प्रकारकी पूर्णता है -- एक ऐसी पूर्णता जो बहुविध और बहुत अस्थायी है -- यह तुम्हारी चेतना और क्रिया- के क्षेत्रका प्रतिनिधित्व करती है, सामंजस्यको, कम-से-कम सामंजस्यको फिरसे स्थापित करनेके लिये तुम्हें इसपर क्रिया करनी होगी; और जब
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साधारण विचारके अनुसार तुम्हारे इर्द-गिर्द. कोई चीज ''गलत'' हो जाती है तो काम जरा ज्यादा कठिन हों जाता है । वह एक ही साथ मोटा., निरंतर और दुराग्रही होता है । मुझे याद है, अनुभूतिसे ठीक पहले शरीरमें 'सामंजस्य' के लिये, 'प्रकाश' के लिये, एक प्रकारकी सुखद शांतिके लिये अभीप्सा थी । शरीर सबसे बढ़कर सामंजस्यके लिये अभीप्सा कर रहा था । शायद यह उन सब चीजोंके कारण होगा जो पीसती और खुरचती है । संभवत: यह अनुभूति अभीप्साके उत्तरमें थी ।
मैंने यह देखा है कि इस शरीरके जीवनमें कोई भी अनुभूति मुझ दूसरी बार नहीं हुई --- मुझे उसी प्रकारकी अनुभूतियां हों सकती है, ज्यादा ऊंचे स्तरपर, ज्यादा विशाल क्षेत्रमें हो सकती हैं, लेकिन वह-की- वही दोबारा नहीं होती । और मैं किसी अनुभूतिको रख नहीं छोड़ती, मैं सारे समय, सारे समय (आगेकी ओर संकेत), सारे समय आगे बढ़ती रहती हूं । हां, चेतनाके रूपांतरका काम इतना तेज है, शनाप तेज होना चाहिये कि बैठकर किसी अनुभूतिके मजा लेनेका, किसी अनुभ्तिका विस्तारपूर्वक निरूपण करनेका या कुछ समयके लिये संतोष करनेका समय न रहे । यह संभव है । यह जोरसे, बड़े जोरसे आता है । यानी, वह सब कुछ बदल डालता है और फिर कोई नयी चीज आती है । कोषाणुओंके रूपांतरके बारेमें. भी यही बात है : सब प्रकारकी छोटी-मोटी गड़बड़ी आती हैं, पर वे स्पष्ट रूपसे चेतनाके लिये रूपांतरकी गड़बड़ें होती है । तब व्यक्ति एक बिंदुपर व्यस्त हों जाता है, फिरसे व्यवस्था स्थापित करना चाहता है; और साथ ही कोई ऐसी चीज होती है जो निरंतर जानती है कि यह गड़बड़ इसीलिये आयी है कि सामान्य यंत्रवत् त्रि,या-कलापकी जगह परम प्रभुके सीधे 'प्रभाव' और 'मार्ग-दर्शन' में सचेतन कार्यके लिये मार्ग खुल जाय । स्वयं शरीर यह जानता है (वह जानता तो है, पर यहां दर्द हो, वह.।- दर्द हों, इसमें या उसमें गड़बड़ी हो जाय - इस सबमें कोई मजा नहीं आता, लेकिन वह जानता है) । और जब्र यह बिंदु किसी हदतक रूपांतर- के पास जा पहुंचता है तो व्यक्ति अगले बिंदुपर चला जाता है, फिर अगलेपर चला जाता है, फिर अगलेपर; और होता कुछ भी नहीं, कोई भी काम निश्चित रूपसे नहीं होता जबतक कि... तबतक नहीं होता, जबतक सब कुछ तैयार न हों जाय । और तब फिर उसी कामको जरा ऊंचे स्तरपर या विशाल क्षेत्रमें, अधिक तीव्रताके साथ या ज्यादा विस्तारमें करना पड़ता है । यह ब्यक्तिपर निर्भरहौ । यह सब तबतक चलता रहता है जबतक ''समग्र'' एक रूपमें, समानान्तर नहीं हों जाता । जैसा कि मैं देखती हू, यह भरसक तेजीसे आगे बढ़ रहा है, लेकिन
इसमें बहुत समय लगता है । सारा प्रश्न अम्यासको बदलनेका है । हजारों सालोंके समस्त यांत्रिक अम्यासको सीधे परम 'चेतना' के पथप्रदर्शनमें सचेतन क्रियामें बदलना होगा ।
यहां यह कहनेकी इच्छा होती है कि यह काम बहुत ज्यादा समय लेता है और बहुत कठिन है, क्योंकि यह शरीर लोगोंसे घिरा हुआ है और इसे दुनियामें काम करना पड़ता है, लेकिन अगर यह इन परिस्थितियोंमें न होता तो बहुत, बहुत-सी चीजों भुला दी जाती । बहुत-सी चीजें न की जाती । बहुत प्रकारके ऐसे स्पंदन है जिनका इस समुच्चयके साथ (माताजीके कोषाणुओंके समुच्चयके साथ) कोई संबंध नहीं और अगर मेरा लोगोंके साथ- संपर्क न होता तो इन स्पंदनोंको कभी रूपांतरकारि 'शक्ति'- का स्पर्श भी न मिलता ।
यह बहुत स्पष्ट है -- बहुत ही स्पष्ट है - कि जब व्यक्ति सचाईसे चाहता है तो वह अच्छे-सें-अच्छी अवस्थाओंमें और कार्यके लिये' अधिक-से- अधिक संभावनाओंमें स्थान पाता है ।
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