CWM (Hin) Set of 17 volumes
पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.

पथपर

The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Collected Works of The Mother (CWM) Notes on the Way Vol. 11 333 pages 2002 Edition
English Translation
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The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation
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प्रासंगिक (२२ नवंबर, १९६७)

 

 कुछ प्रगति हुई है ।

 

  दूसरी दिसंबरको शारीरिक शिक्षाके प्रदर्शनके अंतमें सब बच्चे एक साथ मिलकर प्रार्थना करनेवाले है और मैंने उनके लिये प्रार्थना लिखित है । मैं तुम्हें अभी बतानेवाली नष्ट । लेकिन मैंने उसके बारेमें सोचा न था, मुझसे प्रार्थना मांगी गयी और मैंने लिख दी ।

 

  शायद उन्होंने बुलेटिन पढ़ा होगा इसलिये उन्होंने एक प्रार्थना मांगी -- एक ऐसी प्रार्थना जो सचमुच शरीरकी हो । मैंने उत्तर दिया.

 

 शरीरके कोषाणुओंकी प्रार्थना

 

अब जब भागवत कृपाके प्रभावसे

हम धीरे-धीरे निश्चेतनामेंसे निकल रहे है

और एक सचेतन जीवन के प्रति जाग रहे हैं

 


हमारे अंदरसे अधिक प्रकाश और अधिक चेतनाके लिये प्रबल प्रार्थना उठती है :

 

''हे विश्वके परम. प्रभ

हम तुझसे याचना करते हैं, हमें वह

बल और सुन्दरता, सामंजस्यमय पूर्णता दें,

जो धरतीपर तेरा दिव्य यंत्र बननेके लिये जरूरी है ।''

 

यह एक घोषणा-सी है ।

 

  वै प्रदर्शनके बाद इसे बोलनेवाले हैं; कहते है कि वे शारीरिक प्रशिक्षण- का पूरा इतिहास दिखायेंगे और अंतमें कहेंगे : हम अन्ततक नहीं पहुंचे है । क्रम अभी किसी चीजके आरंभमें है और यह हमारी प्रार्थना है ।

 

  मैं बहुत खुश हुई ।

 

    आपने कहा कुछ प्रगति हुई है?

 

प्रगति! बहुत बड़ी प्रगति! उन्होंने कमी सोचातक न था, कभी नहीं; उन्होंने इस शरीरमें रूपांतर प्राप्त करनेके बारेमें कभी न सोचा था : वे संसारके सबसे अच्छे व्यायामी बननेकी सोचते थे, और ऐसी ही किसी  पेटी मूर्खतामरी बातें ।

 

शरीर, उन्होंने शरीरके लिये प्रार्थना मांगी है । वे अब यह समझने तगना गये है कि अब शरीरको अपने-आपको किसी और चीजमें रूपांतरित करना शुरु: कर देना चाहिये । इससे पहले वे सभों देशोंमें शारीरिक प्रशिक्षणके सारे इतिहाससे भरे रहते थे, इसमें लगे रहते थे कि किस देशमें यह सबसे अधिक उन्नत है, और शरीर, जैसा वह है, का उपयोग कैसे किया जाय... आदि । हां, यह औलिम्पिक्सका आदर्श था । अब वे उनसके परे कूदे है : वह भूतकाल था । अब वे रूपांतर चाहते -है- ।

 

   लोग अपने मन और प्राणमें दिव्य बनना चाहते थे । यह तो आध्यात्मिकताकी पुरानी कहानी है जिसकी सदियोंसे जुगाली होती आयी है । नहि, अब शरीरकी बात है । शरीर इसमें भाग लेना चाहता है । यह पूर्ण रूपसे प्रगति है ।

 

हां, परंतु मनमें आदमी देख सकता है कि अभीप्सा अपने- आपको कैसे पुष्ट करती है, कैसे अपने-आपको जीती है । आदमी हदयमें भी भली-भांति देख सकता है कि अभीप्सा कैसे

 

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    रहती है । लेकिन शरीरमें? शरीरमें अभीप्साको कैसे जगाया जाय?

 

लेकिन यह पहलेसे हीं पूर्णतया जाग्रत् है, मेरे अंदर महीनोंसे है! उन्होंने इसे अनुभव किया होगा और वे अनुभव करते है ।

 

    यह कैसे किया गया है? -- यह किया जा रहा है ।

 

        लेकिन अपने अंदर कैसे?..

 

नहीं, नहीं, नहीं, अगर यह किसी एक शरीरमें भी किया जा सका है तो सब शरीरोंमें किया जा सकता है ।

 

      लेकिन मैं पूछता हूं कैसे?... हां, कैसे?

 

यह तो मैं महीनोंसे समझानेकी कोशिश कर रही हू । सबसे पहले कोषाणुओंमें चेतना जगायी जाय ।.?.

 

       जी, हां !

 

हां, अवश्य, लेकिन यह एक बार हो जाय तो हों जाता है. चेतना अधिकाधिक जागती है । कोषाणु ज्यादा सचेतन रूपमें जीते है, सचेतन रूपसे अभीप्सा करते है । हे भगवान्, मैं महीनोंसे यह बात समझानेकी कोशिश में लगी हू । मैं महीनोंसे यह समझानेकी कोशिश कर रही हू । और यही बात है जिससे मैं इतनी खुश हू कि उन्होंने कम-से-कम इसकी संभवनाको तो समझ लिया ।

 

   वही चेतना जिसे प्राण और मनपर एकाधिकार है, उसीने शरीरपर एकाधिकार पा लिया है. शरीरके कोषाणुओंमें चेतना काम कर रही है । शरीरके कोषाणु सचेतन चीज बन रहे है, पूर्णतया सचेतन ।

 

एक ऐसी चेतना जो स्वतंत्र है, जो मानसिक या प्राणिक चेतनापर जरा भी निर्भर नहीं है. वह है शारीरिक चेतना ।

 

 ( मौन)

 

 और यह भौतिक मन जिसके बारेमें श्रीअर्रावदने कहा था कि वह एक

 

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असंभावना है, कि वह एक ऐसी चीज है जो हमेशा गोल-गोल घूमती रहती है और हमेशा गोल-गोल घूमती ही रहेगी -- ठीक चेतनाविहीन यंत्रकी तरह, वह मन भी परिवर्तित हो गया है, वह नीरव हों गया है और उस नीरवतामें उसने दिव्य चेतनासे अंतःप्रेरणा पायी है । उसने प्रार्थना करना शुरू कर दिया है : प्रार्थनाएं वही हैं जो पहले मनमें थी ।

 

    मैं भली-भांति समझ सकता हू कि आपके अंदर क्या हो सकता है, पर..

 

चुकी यह एक शरीरमें हो रहा है इसलिये यह सभी शरीरोंमें हों सकता है! मैं दूसरोंसे भिन्न पदार्थसे नहीं बनी हू । फर्क सिर्फ. चेतनामें है, बस इतना ही । यह ठीक उसी चीजसे बना है, उन्हीं चीजोंसे बना है । मैं वही चीजें खाती हू । यह उसी तरहसे बना था, एकदम उसी तरह ।

 

   मेरा शरीर भी उतना ही मूढ़, उतना ही अंधकारमय, उतना ही निश्चेतन, उतना ही हठी था जितना संसारका कोई और शरीर ।

 

   और यह आरंभ तब हुआ जब डाक्टरोंने कह दिया कि मैं बहुत अधिक बीमार थीं । यह आरंभ था । क्योंकि सारा शरीर अपनी आदतों और शक्तियोंसे खाली कर दिया गया और तब धीरे, धीरे, धीरे कोषाणु एक नयी ग्रहणशीलताके प्रति जाते और उन्होंने अपने-आपको प्रत्यक्ष रूपमें भागवत प्रभावकी ओर खोला ।

 

  अन्यथा कोई आशा न होती और यह द्रव्य जिसने आरंभ किया... कंकरमें भी एक संगठन आ चुकता है -- वह निश्चय ही कंकरसे भी गया- बीता था. निश्चेतन, जड़, निरपेक्ष, वह थोडा-थोडा करके, जरा-जरा करके जाग उठा । वह देखता है, हां, वह देखता है, देखनेके लिये उसे बस अपनी आंखें खोलनी होती है । हां, यही चीज होती है : पशुसे मनुष्य बननेके लिये उसे और किसी चीजकी जरूरत नहीं हुई, केवल चेतनाका प्रवेश, मानसिक चेतनाका निषेचन । और अब उस चेतनाका जागरण तालीमें, एकदम तलीमें, इस तरह । मनने अपने-आपको हटा लिया, प्राण- ने भी हटा लिया । सब हट गये; जब यह कहा गया कि मैं बीमार हू तो मन हट गया था, प्राण हट गया था । जानबूझकर शरीरको अपने- आपपर छोड़ दिया गया । हां, यही बात है, चुकी मन और प्राण उसे छोड़ गये थे, इसलिये गंभीर रोग का आभास होता था । लेकिन तब अपने-आपपर छोडे गये शरीरमें थोडा-थोडा करके कोषाणुओंने चेतनाके

 

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प्रति जागना शुरू किया (उठती हुई अभीप्साका संकेत), जब वह चेतना जिसे प्राणने शरीरमें प्रविष्ट किया था (मनसे प्राणमें और प्राणसे शरीरमें), जब ये दोनों चेतनाएं चली गयीं तो धीरे-धीरे चेतनाने उठना शुरू किया । उसका आरंभ हुआ प्रेमके विस्फोटसे जो उच्चतम शिखरपर है, अंतिम -चरम ऊंचाईपर है और तब जरा-जरा करके, जरा-सा शरीरमें उतरा । और तब यह भौतिक मन, यानी, ऐसी चीज जो एकदमसे बिलकुल ही मूढ़ थी मन जो गोल-गोल घूमता था, जो एक ही चीजको बार-बार, एक हीं चीज- को सैकड़ों बार दोहराता था, वह जरा-जरा करके प्रकाशित हो उठा, सचेतन हुआ, संगठित हुआ और फिर, नीरवतामें डूब गया और तब नीरवतामें, अभीप्साने अपने-आपको प्रार्थनाका रूप दिया ।

 

 ( मौन)

 

  यह सभी प्राचीन आध्यात्मिक स्थापनाओंका खण्डन है : ''अगर तुम- पूरी तरह दिव्य जीवनसे सचेतन होकर रहना चाहते हों तो शरीर त्याग दो -- शरीर इसका अनुसरण नहीं कर सकता । '' ठीक, पर श्रीअरविंदने आकर कहा. ''शरीर, इतना ही नहीं कि वह अनुसरण कर सकता है, बल्कि वह भगवानकि अभिव्यक्तिका आधार बन सकता है ।''

 

  अमी कार्य- करना बाकी है ।

 

  लेकिन अब एक निश्चिति है । परिणाम अभी दूर -- बहुत दूर है । अंदर जौ कुछ हो रहा है (आध्यात्मिक गहराइयोंके अंदर नहीं, शरीरके अंदर), उसे बाह्यतम स्तरपर, अपनी परतकी अनुभूतिमें व्यक्त करने.के लिये बहुत कुछ करना बाकी है । जो अंदर है उसे बाहर प्रकट करनेके योग्य बनानेके लिये.. । यह अंतमें आयेगी, और यह इसी तरह अच्छा है क्योंकि अगर वह समयसे पहले आ जाय तो कामकी अवहेलना जशुगी; आदमी इतना संतुष्ट हों जायगा कि काम पूरा करना हीं भिन्न जायगा । सब कुछ अंदर करना चाहिये । वह अच्छी तरह किया जाना चाहिये,  तरहसे बदल जाना चाहिये, तब बाह्य अपने-आप बोलेगा ।

 

  लेकिन यह सारा एक ही द्रव्य है सब जगह एक जैसा और वह हर जगह निश्चेतन था; और फिर विचित्र बात यह है कि चीजें अपने-आर होने लगती है (संसार भरमें फैल हुए बिन्दु दिखाते हुए), एकदम अप्रत्याशित रूपमें, इधर-उधर, उन लोगोंमें जो कुछ भी नहीं जानते ।

 

 ( मौन)

 

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   दयात्मक कोषाणुओंको चेतनाको ग्रहण करने और उसे अभिव्यक्त करने- की क्षमता प्राप्त करनी चाहिये, और फिर जो चीज आमूल रूपांतरको संभव विनति है वह यह है -- हम कह सकते है कि शाश्वत और अनिश्चित आरोहणके स्थानपर एक नया प्रकार दिखायी देता है -- ओ र -ल-ह है अग्रसे अवतरण । इससे पहलेका अवतरण मानसिक अवतरण था औ-र-' टब सें श्रीअरविंदने अतिमानस अवतरण कहा है । ऐसा लगता है कि परम दिव्य चेतनाका अवतरण हों रहा है । वह किसी ऐसी चीजमें धूल- मिल रही है जो उसे ग्रहण करने और अभिव्यक्त करनेमें समर्थ हो । और तव जब वह अच्छी तरह पीस जाय ( पता नहीं, इसमें' कितना समय लगेगा) । तब इसमेंसे एक नया रूप जन्म लेगा जिसे श्रीअरविद अतिमानसिक गल्प कहते है -- जौ... पत नहीं, मुझे वही मालूम ये सत्ताएं क्या कहलायेगी ।

 

  ये अपने -आपको कैसे अभिव्यक्त करेगी, वे अपनी बात कैसे समझायेंगी ... और यह सब.? मनुष्यमें यह चीज बहुत धीरे-धीरे विकसित हुई थई  । केवल मनने बहुत अधिक परिश्रम किया था और अंतमें चीजों- को तेजीसे चत्ताया है ।

 

  वहांतक कैसे पहुंचा जाय?... अभिव्यक्तिमें निश्चय ही अवस्थाए होगी, शायद हवा नमूना आये और कहेगा : यह ऐसा है ( माताजी सामने देखती है) । आदमी उसे देखता है ।

 

  जब शुसे मानवका विकास हुआ तो अभिलेखनका कोई साधन न थासारी प्रत्रियाको लिख रखनेकी व्यवस्था न थी -- अब स्थिति बिलकुल भिन्न खै । अव चीज ज्यादा मजेदार होगी ।

 

 ( मौन)

 

 लेकिन वर्तमान अवस्थामें अधिकतर लोग--मानवजातिके बुद्धिवाद वर्गकी. बद्रुत वर्दी संख्या--अपने-आपमें लगे रहनेसे और अपनी प्रगतिके टुकडोसे बृहत स्तुत है ( माताजी एक छोटा-सा चक्र बनाती है) । उसके अंदर ओर किसी चीजके लिये कोई, कोई इच्छा भी नहीं है ।

 

    इसका मतलब है कि अतिमानव सत्ताका आगमन... अलक्षित और अमन खो रह सकता है । कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि इसका कोई सादृश्य नहीं मैल, स्पष्ट है कि अगर कोई बंदर, बड़े बदरोमेसै कोई बंदर पहले मनुतयसे मिलता तो उसे बस यही लगता कि यह कोई अजीब-सा प्राणी है.. । परंतु अब चीज और ही है, क्योंकि मनुष्य सोचता ओर तर्क करता है ।

 

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   लेकिन जो कुछ मनुष्यसे श्रेष्ठतर है.. । मनुष्यने यह सोचनेकी आदत डाल ही है कि बे सत्ताएं, दिव्य सत्ताएं हैं... यानी, उनके शरीर नहीं है, वे प्रकाशमें प्रकट होती हैं । संक्षेपमें कहे तो उनकी कल्पना की गयी है -- लेकिन यह सब ऐसा है नहीं ।

 

(लंबा मौन)

तो?

तुम्हें विश्वास नहीं हुआ?

तुम कोशिश क्यों नहीं करते?

 

अवश्य! इसीलिये तो मैंने आपसे पूछा था । मैं किसी बात- पर अविश्वास नहीं कर रहा । मैंने आपसे प्रश्न किया । मैंने पूछा था कि यह कैसे किया जाय? मुझे नहीं मालूम यह कैसे किया जाता है... । उदाहरणके लिये, सवेरेके समय, में दाढ़ी बनाता हू, सवेरेके समय आदमी प्रायः मूढ़ और थका-सा होता है, मन काम करनेसे झंकार करता है, प्राण भी काम करनेसे....

 

हां, यह अच्छा मौका है ।

 

निश्चय ही, यही तो मैं करता हू । मैं कहता हू : नहीं, मैं नहीं देखता । मैं नहीं जानता कि उसे कैसे चलाया जाय -- वह हिलता भी नहीं । जबतक कि मैं अपना मन या प्राण या हृदय न लगाऊं तबतक यह नहीं हिलता ।

 

उफ !

 

   में संदेह नहीं कर रहा । मेरा कहना है कि मेरा शरीर गधा है, बहुत संभव है, मुझे संदेह नहीं है ।

 

यह गधा नहीं है, बेचारा! (माताजी हंसती है)

 

   संदेह तो मेरे अंदर नहीं है, पर कैसेका प्रश्न तो है ही । में नहीं जानता ।

 

८८


मेरे लिये यह प्रश्न कभी उठा हीं नहीं, क्योंकि.. संगीत बजाते समय या चित्र बनाते समय हम भली-भांति देख सकते हैं कि चेतना कोषाणुओंमें प्रवेश करती है और ये कोषाणु सचेतन हों जाते हैं । उदाहरणके लिये, यह अनुभव लो. बक्समें कुछ चीजें है । हाथसे कहा जाता है. ( बिना गिने, यूं ही) '' बारह निकालो' ' । हाथ बारह निकालकर तुम्हें दे देता है । मुझे यह अनुभव बहुत पहले हुआ था; इक्कीस वर्षकी अवस्थामें मुझे ऐसे अनुभव होने लगे थे, इसलिये मैं जानती हू, मैं जानती थी कि चेतना कैसे काम करती है । हां, पियानो या चित्रकारी असंभव है यदि चेतना हाथमें प्रवेश न करे और हाथ, मस्तिष्कसे स्वतंत्र रूपमें सचेतन न हो । मस्तिष्क कही और व्यस्त रह सकता है । उसका कोई महत्व नहिं । इसके अतिरिक्त, यही बात उन लोगोंमें होती है जो नींदमें चलते है.. उनके शरीरमें एक चेतना होती है जो मन और प्राणसे बिलकुल अलग-थलग, शरीरको हिलाती-डुलाती और उससे चीजें करवाती है ।

 

मेरा मतलब यह है कि जब मैं हजामत बनानेके लिये आईनेके सामने होता हू उस समय अगर मैं अपने अंदर कोई मंत्र या हदयसे उठती हुई कोई अभीप्सा न रखें तो एक जड़ कुंदा हजामत करता रहता है, और उसके साथ होता है घूमता हुआ भौतिक मन । लेकिन, अगर मैं कोई मंत्र या मानसिक संकल्प...

 

लेकिन नहीं! अंतमें तो शरीर ही मंत्र बोलता है! और वह भी सहज रूपसे, इतने सहज रूपसे कि अगर तुम अचानक और चीजोंके बारेमें सोचने भी लोग तो भी शरीर मंत्र बोलता रहता है । तुम्हें ऐसा अनुभव नहीं है !

 

         नहीं ।

 

और शरीर ही अभीप्सा करता है, शरीर ही मंत्र बोलता है, शरीर ही प्रकाश चाहता है, शरीर ही चेतना चाहता है -- तुम, तुम भले और चीजों- के बारेमें सोचते रहे : पीटर या पलकें बारेमें या किसी पुस्तकके बारेमें, उसका कोई महत्व नहीं ।

 

   अब मैं बहुत अच्छी तरह समझती हू, बहुत अच्छी तरह, शुरूमें मैं नहीं समझती थी । मैं यह मानती थी कि मुझे इसलिये बीमार किया गया है

 

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ताकि मैं वह जीवन समाप्त कर दु जो मैं नीचे रहते हुए जी रही थीं ।' मैं नीचेके जीवनकी अपेक्षा अधिक व्यस्त जीवन बिताती हू इसलिये... मैंने अपने-आपसे पूछा क्यों? क्या यह संक्रमणकाल था? लेकिन अब मेम समझती हू : अलग होकर, मैं मूर्छित हों जाती थी । इसीलिये डाक्टरने फैसला कर दिया कि मैं बीमार थी, कि मैं मूर्छित हुए बिना एक कदम भी नहीं चल सकती । मैं यहांसे वहांतक चलना चाहती थी, रास्तेमें ही पट! मैं मूर्छित हों गयी; मुझे पकड़कर रखना पड़ता था ताकि शरीर कही गिर न पड़े । पर जहांतक मेरा सवाल दरें, मैंने क्षणभरके लिये भी अपनी चेतना नहीं गंवायी, मैं मूर्छित हुई, पर थी सचेतन । मैं अपने शरीरको देख रही थीं, मैं जानती थी कि मैं मूर्छित हों गयी हू । मैंने चेतना नहीं गंवायी और शरीरने मा चेतना नहीं गंवायी, मैं अब समझ सकती हू : शरीर अकहत्ता था, प्राण और मनसे उसका संबंध कट गया था । वह अपने ही बूतेपर छोड़ दिया गया था; वह केवल शरीर था : उसने जो कुछ जाना था, उसने जो भी अनुभूतियां प्राप्त की थी, सत्ताकी सब अवस्थाओंमें, प्राण और मनमें जो भी प्रभुत्व था वह सब जा चुका था । और यह बेचारा शरीर अकेला छोड़ दिया गया था । तब स्वभावत., थोडा-थोडा करके वह फिरसे रचा गया । फिरसे रचना की गयी, एक सचेतन, पूरी तरह सचेतन सत्ता बनायी गयी ।

 

   हां, मैं समझती हू, समझती हू । यह सचमुच औरोंसे कट गया था । यह मैं जानती हू -- मैंने देखा है -- यह कट गया था, सत्ताकी अवस्थाओंको भेज दिया गया था ''चली जाओ, अब तुम्हारी जरूरत नहीं है ।'' और तब एक नये जीवनके निर्माणकी जरूरत आ पड़ी । अब पहलेकी तरह उच्चतम, सर्वोच्चकी ओर, निराकारकी ओर उत्तरोत्तर जागरणदूरा सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरनेकी जरूरत नहीं रही (पुराने योगियोंकी तरह एक-एक पग चढ़नेकी मुद्रा), अब उस- की त्कदम जरूरत नहीं रही । अब होना चाहिये.. (मुद्रा : ऊपर उठती हुई अभीप्सा फूलकी तरह खिलती है) । अंदर कोई चीज खिली थीं, किसी चीजका विकास हुआ था और इसलिये यह मूढ़ मन अपने- आपको व्यवस्थित कर सका, अपनी अभीप्सामें नीरव रह सका; और फिर ... फिर एक सीधा 'संपर्क', बिना किसी मध्यवर्तीके -- सीधा संपर्क और अब वह सारे समय रहता है । सारे समय, सारे समय - सीधा संपर्क ।

 

   इस बीमारीके बाद माताजी ऊपरकी मंजिलमें ही रहा करती थीं ।

 

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ओर यह शरीरके साथ, सब प्रकारकी चीजोंके द्वारा, सत्ताकी सब स्थितियोंमेंसे होकर नहीं, सीधा ।

 

   लेकिन, एक बार यह हो जाय ( श्रीअरविंदने कहा था), एक बार एक अकेला शरीर इसे कर लें तो उसमें यह क्षमता होती है कि वह इसे दूसरों- को भी दे सकें; और अब मैं तुमसे कहती हू (मैं सारी बात और पूरे विस्तारसे नहीं कह रही, संभवत: नहीं), लेकिन यहां-वहां (धरतीपर विभिन्न बिंदु दिखाते हुए बिखेरते मुद्रा) अचानक लोगोंकी एक या दूसरी अनुभूति प्राप्त होती है । ऐसे लोग है ( अधिकतर), ऐसे है जो डरते है, तब स्वभावत: यह चीज चली जाती है -- इसका कारण यह है कि वे अंदरसे काफी तैयार नहीं थे; अगर हर रोजका, एक-एक मिनटका वही तुच्छ-सा कार्यक्रम न हों तो वे डर जाते है; और एक बार डर जायं तो खतम । इसका मतलब होगा कि उस चीजको वापिस लानेके लिये फिर बरसोंकी तैयारीकी जरूरत होगी । लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं डरते, अचानक एक अनुभूति - ''आहा!... '' अचानक एकदम नयी चीज, एकदम अप्रत्याशित, जिसके बारेमें उन्होंने कभी सोचातक न था ।

 

    यह चीज संक्रामक है, मैं जानती हू, यही एकमात्र आशा है । अन्यथा यदि हर एकको फिर-फिर उसी अनुभूतिमेंसे गुजरना पड़े... । हां, अब मैं नब्बेकी हू -- नव्बेकी अवस्थामें लोग थक जाते है । वे जीवनसे ऊब जाते है । यह सब करनेके लिये तुम्हें बालककी तरह तरोताजा होना चाहिये ।

 

     इसमें बहुत समय लगता है । मैं भली-भांति देख सकती हू कि इसमें बहुत समय लग गया है ।

 

   और फिर अभी यह पूरा नहीं हुआ है, किया जा रहा है, लेकिन अभी हुआ नहीं है, अभी हम उससे दूर, काफी दूर है ।.. सचेतन कोषाणु कितने प्रतिशत है? पता नहीं ।

 

   और समय-समयपर वै दूसरोंको डांटना शुरू करते है । यह बहुत मजेदार है! वे डाटते है, उन्हें पकडू लेते है और फिर अपने ढंगसे उनसे मूर्खता-भरी बातें कहते है । जो चाहते हैं ( माताजी एक छोटा-सा चक्र बनाती है), जो पुरानी आदतोंको जारी रखना चाहते हैं, पाचन अमुक प्रकारसे होना चाहिये, रक्त-संचार अमुक प्रकारसे होना चाहिये और श्वासोवास अमुक प्रकारसे... । सभी क्रियाएं प्रकृतिकी पद्धतिसे करनी चाहिये, और जब ऐसा नहीं होता तो वे चिंतित हों उठते है । तब, जो जानते हैं वे उन्हें पकडू लेते हैं और भगवान्के नामसे उनपर अच्छी बौछार करते तैश । यह बहुत मजेदार है ।

 

कोई चीज शब्दोमें अनूदित की जाती है (वह बिना शब्दोंके होती है, पर कुछ चीज शब्दोमें अनूदित की जाती है), और तब कोषाणुओंमें वार्तालाप होता है (माताजी हंसती है) : ''क्या मूर्ख हों तुम! तुम क्यों डरते हो? क्या तुम नहीं देख पाते कि स्वयं भगवान् तुम्हें रूपांतरित करनेके लिये यह कर रहे हैं?'' और तब वह दूसरा. आह.. वह चुप हुए जाता है, अपने-आपको खोलता है और आशा लगाता है और तब... पीड़ा चली जाती है, अव्यवस्था चली जाती है और सब कुछ ठीक हों जाता है ।

 

    यह अद्भुत है!

 

   लेकिन अगर दुर्भाग्यवश मन आ जाता है, सहायता करना या मूल्यांकन करना शुरू करता है तो सारी चीज ठप्प हो जाती है, पुरानी आदतोंमें जा गिरती है ।

 

 (लंबा मौन)

 

    वास्तवमें प्राणिक, मानसिक आदि अहंकारको फट... निकाल दिया गया ।

 

    यह आमूल क्रिया थीं ।

 

     तो अब, एक प्रकारका लोच है, नमनीयता है और वह सब सीख रहा है -- समग्रके साथ बहुत कुछ संपर्क रखते हुए ( क्षैतिज मुद्रा), अपना सारा संबल, अपना सारा संकल्प और यह सब इस तरह ( परम प्रभुकी ओर ऊर्ध्वस्थ मुद्रा), बिलकुल इस तरह, असाधारण नमनीयताके साथ खोजना सीख रहा हे ।

 

    और तब दिव्य उपस्थितिका वैभव !

 

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