CWM (Hin) Set of 17 volumes
पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.

पथपर

The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Collected Works of The Mother (CWM) Notes on the Way Vol. 11 333 pages 2002 Edition
English Translation
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The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation
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 २३ नवंबर, १९६८

 

 मुझे एक मजेदार अनुभूति हुई.. कल नहीं, परसों रातको । किसीने मुझसे कहा, मैं नाम नहीं बताऊंगी : ' 'मैं पूरी तरह भौतिक चेतनामें धंस गया हू. अब ध्यान नहीं होता, और भगवान् दूर, ऊपरकी चीज बन गये चैन '' उसी समय जब वह बोल रहा था सारा कमरा भागवत उप- स्थितिसे भर गया । मैंने उससे कहा : ''वहां, ऊपर नहीं, यहां, ठीक यही । '' और उस क्षण, सब कुछ, सारा वातावरण.. मानों हवोतक भैं उपस्थितिमें बदल गयी ( माताजी अपने हाथ, चेहरा, शरीर छूती है) । हां, हर चीजको छुआ गया, हर चीज छुई गयी, भर गयी, लेकिन ... जौ चीज विशेष रूपसे वहां थी वह थी चौधियानेवाली ज्योति, एक
 


ऐसी 'शांति' (महाकायका संकेत), 'शक्ति' और फिर 'मधुरता'. कुछ... ऐसा लगता था कि वह चट्टानको भी पिघला देनेमें समर्थ है ।

 

      और वह गयी नहीं, वह ठहरी रही ।

     वह इस तरह आयी और ठहर गयी ।

 

    सारी रात ऐसा रहा -- हर चीज । अब- भी दोनों यहां है यांत्रिक रूपमें सामान्य चेतना, लेकिन.. मैं क्षण-भरके लिये चुप या एकाग्र हों जाऊं तो वह उपस्थित ते जायगी । और यह शरीरकी अनुभूति थी, समझे, शरीरकी भौतिक, द्रव्यात्मक अनुभूति : हर चीज, हर चीज, हर चीज भरी है, भरी, केवल वही है, और हम तो... हर चीज मानों संकुचित हों गयी है, कुछ इस तरहकी सुखी हुई खाल-सी, लगता यह है कि चीजें कठोर बन गयी है (पूरी तरह नहीं. बस ऊपर-ही-ऊपर), मुरझा गयी है, इसीलिये हम अनुभव नहीं कर पाते । इसीलिये हम 'उन्हें' अनु- भव नहीं कर पाते । अन्यथा सब कुछ वही है, सब कुछ, वही, उनके सिवाय कुछ है ही नहीं । 'उन्हें' अंदर लिगे बिना तुम सांसतक नहीं ले सकते, तुम गति करते हो, तुम 'उन्हीं' के अंदर गति करते हो; तुम सब, सब, सारा विश्व 'उनके' अंदर हैं -- लेकिन द्रव्यात्मक रूपमें, भौतिक रूपमें, भौतिक रूपमें ।

 

     अब मैं इस ''सूखने'' के उपचारकी तलाशमें हू ।

    मुझे लगता है कि वह कोई कल्पनातीत चीज है, समझे?

 

   और जब मै सुनती 'हू तो 'वे' मुझे बातें भी बताते है; मैंने 'उनसे' पूछा. ''तो लोग हमेशा वहां, ऊपर क्यों जाते है? '' तो बहुत ही असाधारण और विलक्षण हास्यके? साथ उत्तर मिला ''क्योंकि लोग चाहते है कि मै उनकी चेतनासे बहुत दूर रहूं ।'' इस प्रकारकी बातें, लेकिन यथार्थ विधिमें सूत्रबद्ध नहीं. केवल संस्कार । बहुत बार -- बहुत बार -- मैंने सुना : ''जो हर जगह है- उसे ढूंढनेके लिये वे इतनी दूर क्यों जाते हैं?.. (निश्चय ही, ऐसे मत है जो कहते हैं वह तुम्हारे अंदर है).. ''

 

    मैंने उस व्यक्तिसे नहीं कहा । इसका पहला कारण तो यह है कि उस समय, अबकी तरह, यह अनुभूति लगातार नहीं थी ।

 

    ओर दूसरा कारण विशेष रूपसे यह था ''कोई नया मत नहीं, कोई-- धर्म-सिद्धांत नहीं, कोई निश्चित शिक्षा नहिं । हमें इस बातसे बचना चाहिये -- किसी मी कीमतपर बचना चाहिये कि यह चीज कोई नया धर्म न बन जाय । क्योंकि जैसे ही उसे किसी शानदार, प्रभावशाली और शक्तिशाली तरीकेसे सूत्रबद्ध किया जायगा कि बस अंत हो जायगा । तुम्हें ऐसा लगता है कि वह हर जगह है, हर जगह, हर जगह, हर जगह,

 

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उसके बिना कुछ है ही नहीं । हम उसे नहीं जानते, क्योंकि हम... सिकुड़े हुए है; पता नहीं कैसे कहना चाहिये... सूखे हुए हैं । हमने अलग किये जानेके लिये बड़े प्रयत्न किये हैं और (हंसते हुए) - सफलता पायी हैं! सफलता पायी है, परंतु सफलता पायी है केवल अपनी चेतनामें, तथ्य- में नहीं । तथ्यमें वह है, वह है, केवल वही है । हम जो कुछ जानते है, जो कुछ देखते है, जो कुछ छूते हैं, सबमें मानों हम उसीमें नहाते, उसीपर उतराते हैं; परंतु वह भेद्य है; -- वह भेद्य है, बिलकुल भेद्य : वह गुजर जाता है । पार्थक्यका भाव यहांसे आता है ( माताजी मनकी ओर इशारा करते हुए अपना माथा छूती हैं) ।

 

     शायद यह अनुभूति इसलिये आयी, क्योंकि लगातार कई दिनोंतक पृथक्ताके क्यों और कैसे नहीं, बल्कि पृथक्ताके तथ्यको जाननेके लिये बहुत एकाग्रता हों रही थी । हर चीज इतनी मूढ़ता-भरी, इतनी भद्दी लग रही थी...! मेरे ऊपर मानों बहुत-सी समितियां टूट पड़ी थीं, सब प्रकारकी स्मृतियां (सब प्रकारकी पुस्तकों, चित्रों, फिल्मोंकी, जीवनकी, लोगोंकी, चीजोंकी स्मृतियां), इस शरीरकी स्मृतियां, वे सब स्मृतियां जो ''भगवान्- विरोधी'' कही जा सकती हैं, जिनमें शरीरका किसी अशुभ या विकर्षी वस्तुका -- जैसे भागवत उपस्थितिको अस्वीकार करनेका - संवेदन प्राप्त हुआ था । यह आरंभ इस तरहसे हुआ; दो दिनतक मेरी ऐसी हालत रही, यहांतक कि शरीर निराशामें डूब गया और तब यह अनुभूति आयी और फिर वह टस-से-मस न हुई । वह हिलीतक नहीं । वह अचानक आयी, और बस खतम, अपने स्थानसे न हिली । तो अनुभूतियां आती हैं और वापिस चली जाती है : पर यह नहीं हिलती । अभी इस समय भी वह है । और शरीर तरल बननेकी कोशिश करता है ( माताजी अपने- आपको फैलानेकी मुद्रा करती हैं), पिघल जानेकी कोशिश करता है; वह कोशिश करता है, वह समझता है कि वह क्या है । वह कोशिश करता है -- पर सफल नहीं होता, स्पष्ट ही है! ( माताजी अपने हाथों- को देखती हैं) लेकिन उसकी चेतना जानती है ।

 

    अनुभूतिके प्रभाव भी होते है : लोगोंने अचानक आराम अनुभव किया, दो-एक बिलकुल अच्छे हों गये और जब शरीरमें कुछ गड़बड़ होती है तो उसे मांग करनेकी जरूरत नहीं होती : वह स्वभावत: ठीक हों जाती है ।

 

      और इसने शरीरमें कुछ न करनेकी और अपनी अनुभूतिपर पूरी तरह एकाग्र रहनेकी आवश्यकता भी नहीं जगायी : नहीं, कोई कामना न थी, बिल- कुल कुछ भी नहीं । बस, इस दीप्तिमान विशालतामें -- जो अंदर है -- उतराते रहना! यह केवल बाहर ही नहीं है; वह अंदर है । वह अंदर
 

१२१


 है । वह (अपने हाथोंको छूती है) वह अलग प्रतीत होता है, सचमुच ऐसा लगता है कि यह... पता नहीं कैसे कहा जाय, परंतु यह केवल विकृत चेतनामें वास्तविक है -- मानव चेतनामें नहीं : कुछ हों गया है; 'चेतना' को कुछ हो गया है (माताजी सिर हिलाती हैं), मैं नहीं समझ पाती ।

 

 ( मौन)

 

     हर एक धर्मकी नींवमें जो सिद्धांत और समाधान और कहानियां पड़ी हैं वे मुझे तो... मनोरंजन मालूम होती हैं । और तब आदमी अपने- आपसे पूछता है, और पूछता है. -. मैं तुम्हें एक बात बतलाऊं : क्या यह नहीं हों सकता कि यह एक प्रहसन है जो भगवान् अपने-आपसे खेल रहे हैं ।

 

    कहना कठिन है । ऐसे दिन थे जब मैं सृष्टिकी सारी विभीषिकाओंमें जीती थी; हां, विशेष रूपसे भौतिक पीड़ामें ( और उनकी विभीषिकाओंकी चेतनामें), और फिर यह अनुभूति आयी और सभी विमीषिकाएं गायब हों गयीं ।

 

    और ये केवल नैतिक चीजें नहीं थीं, बल्कि विशेष रूपसे भौतिक पीड़ाएं, हां, विशेष रूपसे भौतिक पीड़ाएं थी । मैंने ऐसी भौतिक पीड़ा देखी है जो बनी रहती है; जो कभी बंद नहीं होती, जो दिन-रात होती रहती है; और अचानक, चेतनाकी इस अवस्थामें होनेकी जगह तुम ऐकांतिक दिव्य उपस्थितिमें होते हो -- पीड़ा गायब! और यह भौतिक, बिलकुल भौतिक पीड़ा थी जिसका कारण भी भौतिक था । डाक्टर कहेंगे : ' 'यह, यह, यह, इस कारण है या उस कारण है, '' बिलकुल द्रव्यात्मक, भौतिक कारण. वह इस तरह चली जाती है... चेतना बदलती है और वह वापिस आ जाती है ।

 

अगर व्यक्ति काफी लंबे समयतक सत्य चेतनामें रह सके तो रूप-रंग, यानी, जिसे हम भौतिक ' 'तथ्य' ' कहते हैं, स्वयं वही गायब हो जाता है; केवल पीड़ा ही नहीं जाती.. मुझे ऐसा लगता है मानों मैंने छू लिया है ( सौभाग्यवश, मन इन बातोंको कभी नहीं समझ सकता), मानों मैंने केंद्रीय अनुभूतिको छू  लिया है ।

 

      यह तो केवल छोटा-सा आरंभ है ।

 

     अगर भौतिकका रूपांतर हो जाय तो ऐसा लगेगा मानों परम रहस्यका स्पर्श पा लिया... । अनुभूतिके अनुसार ( व्योरेकी जरा-सी अनुभूति)

 

१२२


 यह ऐसी होनी चाहिये । और फिर, शुरूमें यह चेतना एक ही शरीरमें प्रकट होगी या सभी, सभीको रूपांतरित होना होगा?... चेतनाकी एक घटना ।

 

      लेकिन वह इतना ठोस था, हां, यह वही है!

 

 ( मौन)

 

      दूसरी चेतना अभीतक है... अभीतक, आज सवेरे मैं बहुत-से लोगोंसे मिली; जैसे-जैसे एक-एक आता था मैं उसे देखती थी ( देखनेवाला कोई 'मै' न था, उसके लिये मै उसे देख रही थी), आंखें स्थिर थीं । फिर प्रत्यक्ष दर्शन और अंतर्दर्शन ( लेकिन ऐसा अंतर्दर्शन नहीं जैसा लोग समझते हैं. यह पूरी तरह चेतनाका एक दृश्य था), 'उपस्थिति' की चेतना; वह 'उपस्थिति' जो मानों कहे छिलकेमें भी पैठ जाती है । वह पैठती है, पैठती है । वह हर जगह है; और जब मैं देखती हू, जब आंखें स्थिर होती हैं तो यह एक तरहसे ( इस उपस्थितिकी) घनता बन जाती है... । लेकिन यह निश्चय ही एक अस्थायी और मध्यवर्ती स्थिति है, क्योंकि दूसरी चेतना ( वह चेतना जो पहले थी, जो चीजोंको देखती और उनके साथ व्यवहार करती है, जो सामान्यतः, उनके साथ व्यस्त रहती है, जिसे केवल उसी चीजका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त होता है जो व्यक्तिके अंदर हो रहा है, जो वह सोच रहा है -- वह जो सोच रहा है वह नहीं, वह जो अनुभव कर रहा है, वह जैसा है उसको) वह भी है । स्पष्टत: संपर्क रखनेके लिये उसकी भी जरूरत है, लेकिन...

 

     वात स्पष्ट है, अभी यह एक परीक्षण है, कोई स्थापित तथ्य नहीं । ''स्थापित तथ्य'' सें मेरा मतलब हैं इस प्रकारसे स्थापित चेतना कि उसके सिवा किसीका अस्तित्व ही न हों, केवल वही उपस्थित हों -- अभीतक ऐसा नहीं है ।

 

 (लंबा मौन)

 

       और तुम? तुम्हारे पास कहनेके लिये क्या है?

 

      मैंने वातावरणमें एक परिवर्तनका अनुभव किया ।


ओ !

 

१२३


    जी हां, पांच-छः दिन हुए मुझे ऐसा लगा मानों कोई चीज दुर्दमनीय हो ।...

 

 (माताजी हंसती है)

 

दुर्दमनीय । पिछली रात कुछ अजीब-सी बात थी । एक बार मैंने आपको देखा । आप जमीनपर चित लेटी हुई थीं । मैं आपके पास आया ओर आपसे पूछा : ''क्या आपको सिरहाना नहीं चाहिये? '' आपने कहा : ''नहीं, कुछ नहीं,'' और आप जमीनपर चित लेटी रहीं.... । इसका क्या अर्थ है?

 

 (माताजी बहुत देरतक चुप रहती है और उत्तर नहीं देती)

 

 लेकिन अतिमानसके ''नीचे आनद'की यह धारणा और 'चेतना'का प्रवेश, ये हमारे ''अनुवाद'' हैं... । अनुभूति एक शाश्वत तथ्यकी अनुभूतिके रूप- मै आयी : ऐसी चीज बिलकुल न थी जो आ रही हों । निश्चय ही यह सब चेतनाकी स्थितियोंका परिणाम होगा । मुझे नहीं मालूम इसके परे कुछ है या नहीं, लेकिन बहरहाल, इसका तो मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ । चेतनाकी गतियां हैं । क्यों, कैसे?.. मैं नहीं जानती । हां, अगर दूसरी ओरसे देखा जाय तो यह तथ्य कि पार्थिव क्षेत्रकी कोई चीज सचेतन हो गयी है, इससे ऐसा लगता है मानों कुछ ''हुआ है''.. । पता नहीं मैं अपनी बात समझा पा रही हू या नहीं.. । मेरा मतलब यह है कि यह शरीर पूरी तरह शेष धरतीके जैसा हीं है, लेकिन किसी कारणसे ऐसा हुआ है कि यह दूसरी तरहसे सचेतन हों गया है; तो, इसे साधारण पार्थिव चेतनाकी भाषामें अनूदित करते हुए ''आगमन'', ''अवतरण'', ''आरंभ'' कहा जाता है ।... लेकिन क्या यह आरंभ है? कौन-सी चीज है जिसका ''आगमन'' हुआ है?... समझ रहे हों? परम प्रभुके सिवाय कुछ मी तो नहीं है (मैं भाषाकी सुविवाके लिये ''परम प्रभु'' कह रही हूं अन्यथा...), केवल परम प्रभु ही हैं, और कुछ है ही नहीं, और किसी चीजका अस्तित्व नहीं है । सभी चीजें सचेतन रूपसे उनके अंदर होती है और हम सब... इस 'अनन्तता'में बालूके कण जैसे है; केवल हम परम प्रभु है जिसके अंदर परम प्रभुकी चेतनाके बारेमें सचेतन होनेकी क्षमता है । यह ठीक यही है ।

 

 ( मौन)

 

     इस अनुभूतिसे पहले जब मैं समस्त पीडाकी, भौतिक जीवनकी विभीषिकाओंकी चेतनामें थी तो एक निश्चित समयपर एक चीज आयी (उसने ''कहा'' तो नहीं पर हम इन शब्दोंका उपयोग करनेके लिये बाधित हैं, पर यह सब मानसिक रूप दिये बिना हुआ) । यह एक संस्कार था (अगर मैं उसका अनुवाद करुँ तो कहूंगी) : ''तुम्हें पागल होनेका भय नहीं है? '' समझे? (यह केवल अनुवाद है) । और तब शरीरने सहज रूपसे उत्तर दिया ''हम सब पागल हैं और जितने पागल हैं उससे अधिक पागल नहीं हों सकते ।'' और चीज तुरन्त शान्त हो गयी ।

 

 (लंबा मौन)

 

    चेतना यहां स्थित है (वक्षकी ओर इशारा करते हुए), वह (मन और ऊपरकी ओर संकेत), वह प्रकाश है, प्रकाश... (विशालका संकेत) । लेकिन इस शरीरमें, वह यहां है, चेतना (फिरसे वक्षकी ओर संकेत) । मेरा मतलब है चेतना... कि हम परम प्रभुमें हैं ।

 

   मैं जानती हू कि वहां जो चेतना है उसे मालूम है कि बोलनेका यह ढंग बिलकुल बचकाना है । परंतु उसे यह बचकाना तरीका उस तरीकेकी अपेक्षा ज्यादा पसंद है जो बिलकुल यथार्थ होनेकी कोशिश करता है और होता है मानसिक ।

 

१२४









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