The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
प्रासंगिक (२४ मई, १९६७)
कल किसीने मुझसे पूछा
''आखिर भगवान् क्या है.? ''
मैंने उत्तर दिया ।
मैंने उससे कहा कि मैं उसकी सहायता करनेके लिए एक उतर दे रही हूं, लेकिन ऐसे सैकड़ों उत्तर हो सकते हैं जिनमें हर एक दूसरेके जितना अच्छा होगा ।
''भगवान जिया जा सकता है,
और मैंने यह जोड़ दिया : लेकिन, चिक तुमने प्रश्न किया है इसलिये मैं उत्तर देती हू :
''भगवान् पूर्णताकी चरम अवस्था है,
जो कुछ है उसका नित्य स्रोत हैं;
नित्यतामें सारे समय वही होते हुए
जिनके बारेमें हम क्रमश: सचेतन होते है ।''
एक बार मुझसे किसीने कहा कि भगवान् उसके लिये सर्वदा अचिंत्य हैं । तो मैंने उसे उत्तर दिया : ''नहीं! इस तरह तुम्हें कोई मदद नहीं मिलती । तुम्हें केवल यही सोचना चाहिये कि भगवान् सब कुछ है (अपनी चरम सीमापर) । वह सब जो हम अपनी उच्चतम और अधिक-से-अधिक प्रदीप्त अभीप्सामें बनना चाहते है, हम जो कुछ बनना चाहते है वह भग- वान् है ।'' वह खुश हो गया । उसने कहा : ''ओह! इस तरह यह आसान हो गया! ''
लेकिन जब तुम देखते हों -- अपने मानसिक क्रिया-कलापसे बाहर निकलते हो और तुम्हें जो अनुभूति हुई है उसे देखते हों -- और अपने- आपसे कहते हो : इसे कैसे कहा जाय? कैसे समझाया जाय? तब जो
चीज सबसे नजदीक, सबसे सुलभ है वह यह है : हम जो ' 'चीज' ' बननेके लिये अभीप्सा करते है उसमें हम सहज और स्वाभाविक रूपसे वह सब मिला देते है जो हम चाहते हैं कि हों, वह सब जिसे हम सबसे अद्भुत मानते हैं, वह सब जो तीव्र अभीप्साका विषय है ( और अज्ञानपूर्ण), वह सब कुछ । और इस सबके सत्य हम ' 'इस चीज' ' के निकट जाते हैं और .... । तत्वतः संपर्क विचारद्वारा नहीं होता; संपर्क होता है सत्ताकी किसी समान चीजके द्वारा, जो अभीप्साकी तीव्रतासे जाग उठाती है । और तब, जैसे ही यह संपर्क -- यह संयोजन -- प्राप्त हो जाता है, चाहे वह एक सेकेंडके लिये ही क्यों न हो, व्याख्या करनेकी कोई जरूरत नहीं रहती : यह ऐसी चीज है जो निरपेक्ष रूपसे अपने-आपको आरोपित करती है और यह हर प्रकारकी व्याख्याके बाहर और परे है ।
लेकिन वहां पहुंचनेके लिये, हर एक व्यक्ति वही चीज डालता है जो सबसे सहज रूपसे उसका निर्देशन करती हो ।
और जब तुम्हें यह अनुभूति होती है, उस संयोजनके, उस संकलनके समय, चेतनाके लिये यह स्पष्ट होता है कि समान ही समानको जान सकता है और परिणामस्वरूप यह इसका प्रमाण है कि तत् बहा है ( माता- जी हदयकी केंद्रकी ओर संकेत करती हैं) । यह इस बातका प्रमाण है कि तत् यहां है । और अभीप्साकी तीव्रताके द्वारा वह जाग्रत् होता है । जब मुझे प्रश्न मिला तो यह ठीक ऐसा था मानों यह व्यक्ति मुझसे कह रहा हों. ' 'हां, हां, यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन आरिवर भगवान् हैं क्या! '' तब मैंने उसकी चिट्ठी पढ़ी एक नीरवता आ गयी, पूर्ण नीरवता, और मानों एक निगाह, एक ही निगाह जो सब कुछ घेर लेती हों और जो देखना चाहती हों. । मैं इस तरह देखती चली गयी जबतक कि शब्द नहीं आये, तब मैंने लिखा. ' 'यह लो एक उत्तर; सैकड़ों उत्तर हो सकते है, सभी समान रूपसे अच्छे । ''
और साय ही जब इस ''चीज' 'पर नजर डाली जिसकी परिभाषा करनी थई तो सब जगह विशाल नीरवता और तीव्र अभीप्सा थी ( लौ उठनेकी मुद्रा), और इस अभीप्साने जितने रूप लिये वे सब थे । यह बहुत मजेदार था.... । हम जो बनना चाहते है उस अज्ञात अद्भुतके प्रति पृथ्वीकी अभीप्साकी कहानी
और हर एक--हर एक व्यक्ति जिसकी नियतिमें यह संयोजन करना लिखा है -- अपनी सरलतामें विश्वास करता है कि उसने जिस पुलका अनुसरण किया है वही एकमात्र पुल है । परिणाम : धर्म, दर्शन, सिद्धांत, मत-युद्ध ।
संपूर्ण रूपसे देखा जाय तो यह बहुत मजेदार: है, बहुत मोहक है, एक
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ऐसी 'मुस्कान' के साथ जो देखती है... ओह! यह 'मुस्कान'... जो देखती है । यह 'मुस्कान' ऐसी है मानों कह रही हो. ''तुम जटिलता पैदा कर रहे हो! और यह कितना सरल होगा! ''
इसे साहित्यिक रूपसे अभिव्यक्त करना हो तो हम कह सकते है : ''इतनी सरल चीजके लिये इतनी जटिलताएं : अपने-आप बनना ।',
( मौन)
और तुम, तुम क्या सोचते हो कि भगवान् क्या है?
मुझे नहीं मालूम, यह ऐसा प्रश्न है जो मैंने अपने-आपसे कभी नहीं पूछा ।
मैंने भी नहीं! मैंने कमी अपने-आपसे यह प्रश्न नहीं किया क्योंकि जसे ही जाननेकी जरूरत होती थी, वैसे ही सहज भावसे उत्तर मिल जाता था । और उत्तर मी कैसा? शब्दोमें नहीं, जिनपर बहस की जाती है. एक उत्तर... कुछ-कुछ स्वप्नके जैसा । यह एक ऐसी चीज है जो अब हमेशा रहती है ।
स्वभावत:, लोग कठिनाइयां पैदा करते हैं ( मुझे लगता है कि ये लोगों- को बहुत अच्छी लगती हैं क्योंकि...), क्योंकि हर चीजके लिये, छोटी- से-छोटी चीजके लिये कठिनाइयोंका एक जगत् रहता है । इसलिये आदमी अपना समय यह कहते हुए गुजारना है : ' 'अचंचल रहो, अचंचल, अचंचल -- शांत रहो । '' और स्वयं शरीर कठिनाइयोंके बीच रहता है ( ऐसा लगता है कि उसे भी ये पसंद हैं!), लेकिन अचानक कोषाणु सहज रूपसे 'ओ' का गान करने लगते हैं.. और जब इन सब कोषाणुओंमें बच्चे का आनन्द होता है, वे कहते हैं ( माताजी, आश्चर्यभरी आवाजमें) : ' 'हां, हां, हम यह मी कर सकते हैं? हमें यह करनेका अधिकार है! '' यह बड़ा मर्मस्पर्शी होता है ।
और इसका प्रभाव तुरंत होता है : महान् शांतिमय 'स्पंदन', सर्वशक्तिमान 'स्पंदन' ।
जहांतक मेरा सवाल है, अगर मैं सारे समय आसपासके स मी संकल्पोंके सतत दबावमें न हों ती तो कहती : ' 'तुम यह क्यों जानना चाहते हों कि भगवान् क्या है? इससे तुम्हें मतलब? तुम्हें केवल वह बन जाना चाहिये । '' लेकिन द मजाक नहीं समझते ।
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--मैं जानना चाहता हू कि भगवान् क्या हैं ।
-नहीं, यह बिलकुल बेकार है ।
-- आह!
वे क्षुब्ध होकर पूछते हैं : ''आह! क्या यह जानना मजेदार न होगा? '' --तुम्हें जाननेकी कोई जरूरत नहीं : तुम्हें बन जाना चाहिये ।
उनके लिये, मेरा मतलब है, अधिकतर बुद्धिजीवियोंके लिये यह कल्पना करना असंभव है कि तुम किसी चीजको जाने बिना वह बन या कर सकते हों । अगर कोई मजाक पसंद करता है तो यह भी कह सकता है : ''केवल तभी, जब तुम नहीं जानते, तुम अधिक-सें-अधिक भगवान् होते हो ।''
(माताजी ध्यानमें चली जाती हैं)
जो लोग व्याख्याएं चाहते है उनके लिये ''भगवान् क्या है? ''... का उत्तर देनेका एक और तरीका है... एक मुस्कराती हुई और ज्योतिर्मयी विशालता ।
वह है, नहीं है क्या? वह हैं ।
कुछ दिनोके बाद :
हमने उस दिन भगवान्के बारेमें जो कहा था उसमें मुझे कुछ और जोड़ना है । किसीने मुझसे पूछा है :
''और भगवान् क्या है?.... ''
यह श्रीअरविदके उद्धरणके बारेमें है । वे कहते हैं
''प्रेम हमें विभाजनकी पीडासे पूर्ण ऐक्यके आनंदकी ओर ले जाता है, लेकिन एकताकी क्रियाके आनंदको खोये बिना । यह अंतरात्माकी सबसे बड़ी खोज है और सृष्टिका जीवन उसके लिये एक लंबी तैयारी है । अतः प्रेमके द्वारा भगवान्के निकट जानेका अर्थ है अपने-आपको बडी-सेबडी संभाव्य आध्यात्मिक उपलब्धिके लिये तैयार करना ।''
(योग-समन्वय)
इसमें अंतिम वाक्यके प्रसंगमें मुझसे पूछा गया है : ''भगवान् क्या है? '' इसलिये मैंने कहा (मैंने ''भगवान्'' शब्द ले लिया) :
''यह वह नाम है जो मनुष्यने उस सबको दिया है जो उससे बढ़-चढ़कर
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है और उसपर शासन करता है, उस सबको जिसे वह जान तो नहीं सकता पर उसके सामने झुक जाता है ।''
इसमें ''उस सबको जो उससे बढ-चढूकर है'' कहनेकी जगह ''उसको जो उससे बढ-चढूकर है'' कह सकते हैं, क्योंकि बौद्धिक दृष्टिकोणसे ''उस सब'' विवादास्पद है । यानी, ''कोई एक चीज'' है -- कोई ऐसी चीज जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, जिसे समझाया नहीं जा सकता -- और यह कुछ चीज ऐसी है कि मनुष्यने हमेशा अनुभव किया है कि वह उसपर शासन करती है । वह सभी संभव समझदारीसे परे है और वही उसपर शासन करती है । और फिर, धर्मोंने उसे एक नाम दिया है; मनुष्यने उसे ''भगवान्'' कहा है; अंग्रेज उसे ''गॉड'' कहते है; किसी और भाषामें उसका और नाम है, लेकिन अंततः यह वही है ।
मैं जानबूझकर कोई व्याख्या नहीं देती क्योंकि मेरे सारे जीवनकी यही अनुभूति है कि यह एक शब्द है और ऐसा शब्द जिसके पीछे लोगोंने बहुत-सी अवांछनीय चीजें रख दी हैं... । उदाहरणके लिये, यह विचार कि भगवान् वह है जो एकमेव ही रहना चाहते है, जैसा कि लोग कहते हैं : ''भगवान् एकमेवाद्वितीयम्'' है । लेकिन वे अनुभव करते है और अनातोल फ्रांसकी तरह कहते हैं, शायद यह ''देवदूतोंका विद्रोह'' में है. ''यह भगवान् जो एकमात्र और अकेले ही सब कुछ होना चाहते हैं ।', यह ऐसी चीज है जिसने मुझे बचपनमें, यदि ऐसा कहा जा सकें, एकदम नास्तिक बना दिया था; मैं ऐसी सताको स्वीकार न करती थी, वह कोई क्यों न हो, जो अपने-आप एकमेव और सर्वशक्तिमान होनेकी घोषणा करती हों । यदि वह एकमेव और सर्वशक्तिमान् हो भी तो (हंसते हुए) उसे इस बात- की घोषणा करनेका अधिकार नहीं है! मेरे मनमें ऐसी बात थी । मैं इस विषयपर पूरे घटे-भरतक भाषण दे सकती हू कि हर धर्मने उसका किस तरह सामना किया है ।
बहरहाल, मैंने ऐसी व्याख्या की जो मुझे सबसे अधिक वस्तुनिष्ठ मालूम हुई । उस दिन ''भगवान् क्या है? '' के उतरकी तरह मैंने 'वस्तु' का संस्कार देनेकी कोशिश की, यहां मैं उस शब्दके प्रयोगके विरुद्ध लड़ना चाहती थी जो मेरी दृष्टिमें खोखला, किंतु भयंकर रूपसे खोखला है ।
मुझे 'सावित्री' का एक प्रसंग याद आता है जिसमें यह सारी बात अद्भुत ढंगसे एक पंक्तिमें कही गयी है । वहां कहा है 'अनाम' ने भगवान्को जन्म लेते देखा
''अशरीर, अनाम जिसने भगवान्को जन्म लेते देखा... वह मर्त्य मन और अंतरात्मासे एक अमर शरीर और दिव्य नाम प्राप्त करना चाहता है।''
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