The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
२५ दिसंबर, १९७१
आज 'ज्योति' पर्व है - बड़ा दिन, 'ज्योति' के लोटनेका पर्व है.. । यह ईसाइयतसे बहुत पुराना है!
और अगले शनिवारको पहली जनवरी है ।
मैं आशा करता हूं १९७२ ज्यादा अच्छा रहेगा!
(माताजी सिर हिलाती हैं) मुझे अधिकाधिक विश्वास होता जा रहा है कि हम चीजोंको इस तरह लेते है और उनके प्रति इस तरह प्रतिक्रिया करते हैं जिससे कठिनाइयां पैदा होती है -- मुझे इसके बारेमें अधिकाधिक विश्वास होता जा रहा है । क्योंकि मुझे भौतिक और दैहिक रूपसे ऐसे अनुभव हैं जो रुचिकर नहीं हैं, और फिर, हर चीज इस हिसाबसे बदलती है कि हम उसकी ओर ध्यान देते हैं या नहीं, इस प्रकारकी वृत्तिके अनुसार (अपनी ही ओर मुंडे हुए होनेकी मुद्रा), जिसमें व्यक्ति बस अपने-आपको ही जीवित देखता है या (विस्तारकी मुद्रा) सभी चीजोंमें, सभी गतियोंमें, जीवनमें एक ऐसी वृत्ति अपनाता है जिसमें केवल भगवानको महत्व दिया जाता है; अगर सारे समय यह रह सकें तो कोई कठिनाई नहीं होती - चीजें वही रहती हैं । यह अनुभूति है. चीज अपने-आपमें एक खास प्रकारकी है, लेकिन उसके बारेमें हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होत्री है । अनुभूति इस बातको अधिकाधिक प्रमाणित करती है । तीन श्रेणियां है. चीजोंके बारेमें हमारी वृत्ति, चीजें अपने-आपमें (यही दो चीजें हमेशा कठिनाइयां लाती हैं), और एक तीसरी श्रेणी है जिसमें हर चीज, हर एक चीजका अस्तित्व भगवानके साथ संबंधमें है, भगवान्की चेतनामें है -- सब कुछ अद्भुत रूपसे चलता है! सरलतासे! और मैं द्रव्यात्मक वस्तुओंकी बात कर रही हू, द्रव्यात्मक ओतिक जीवनकी बात (नैतिक दृष्टिसे तो बहुत जमातेसे यह बात मालूम थी कि चीज ऐसी है), लेकिन दैहिक चीजें, यानी, शरीरकी छोटी-मोटी असुविधाएं, उसकी प्रतिक्रियाएं, कड़ाका होना या न होना, परिस्थितियोंका बिगड़ जाना, निगल न पाना, ऐसी नगण्य चीजें जिनकी ओर यौवनमें, शरीरके स्वस्थ और मजबूत होते समय कोई ध्यान नहीं दिया जाता, सभीके लिये यही बात है, कोई ध्यान नहीं देता; लेकिन जब तुम अपने शरीरकी ही चेतनामें रहो, इसीके बारेमें सचेतन रहो कि उसे क्या होता है, वह उसे किस तरह लेता है, क्या
परिणाम आता है, आदि -- ऊफ ! क्या दुर्दशा होती है! अगर तुम दूसरों- की चेतनामें रहो, वे क्या चाहते है, उनके लिये किस चीजकी जरूरत है और उनका तुम्हारे साथ कैसा संबंध है - तो यह दुर्दशा है! लेकिन अगर तुम भागवत सत्तामें रहो, अगर भगवान् सब कुछ करते, सब देखते हैं, सब कुछ हैं... तो 'शांति' -- तब 'शांति' रहती है - समयकी अवधि नहीं रहती, हर चीज सरल होती है और... ऐसा भी नहीं कि तुम्हें आनंदका अनुभव होता है श तुम्हें कोई अनुभव होता है... । ऐसी बात नहीं है । वहां साक्षात् भगवान् हमें और यही एकमात्र समाधान है । और संसार उसीकी ओर बढ़ रहा है. भगवान्की चेतनाकी ओर -- उन्हीं भगवान्की ओर जो करते हैं, भगवान् जो हैं, वही भगवान् जो... । तब वह-की-वही परिस्थितियां (मै अलग-अलग परिस्थितियों की बात नहीं कह रही), वह-की-वही परिस्थितियां (यह मेरा इन दिनोंका अनुभव है, बहुत ठोस!) परसों मै काफी अस्वस्थ थी और कल परिस्थितियां वही थीं, मेरा शरीर उसी अवस्थामें था, सब कुछ वही था... और सब कुछ शांत था ।
उसके बारेमें मै बिलकुल निश्चित हू ।
इससे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है । इससे सब कुछ स्पष्ट हो जाता है, हर चीज, हर एक चीज ।
संसार वही है - उसे एकदम विपरीत तरीकेसे देखा और अनुभव किया जाता है । सब कुछ चेतनाकी एक घटना है - हर चीज । केवल यह चेतना नहीं, न यह, न वह, यह वह नहीं है । यह है हमारा सचेतन होनेका मानवीय तरीका या सचेतन होनेका भागवत तरीका । तो बात यूं है । सारी बात यही है और मुझे पूरा विश्वास है ।
( मौन)
अंततः, संसार वही है जो उसे हर क्षण होना चाहिये ।
हां !
हम उसे गलत तरीकेसे देखते हैं, गलत तरीकेसे अनुभव करते हैं, गलत तरीकेसे ग्रहण करते है ।
जैसे मृत्यु, है न? यह एक संक्रमणकालकी घटना है और हमें लगता है कि यह हमेशा सें चली आ रही है ( हमारे लिये यह हमेशा ऐसी ही रही)
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है, क्योंकि हमारी चेतना ऐसी है) (माताजी हवामें एक छोटा-सा चतुष्कोण बनाती हैं), लेकिन जब तुम्हारे अंदर यह भागवत चेतना हो तो, ओह ! ... चीजें मानों तात्कालिक हों जाती हैं, समझे । मै इसे समझा नहीं सकती । एक गति है, एक प्रगति है, फिर वह चीज है जो हमारे लिये समयका रूप लेती है, उसका अस्तित्व है, वह कुछ है... वह चेतनाके अंदर कुछ है... । कहना कठिन है... । यह एक चित्र और उसके प्रक्षेपणकी नाई है । यह कुछ-कुछ ऐसा है । सभी चीजें हैं और हम मानों उन्हें परदेपर प्रक्षिप्त होते हुए. देखते है । वे एकके बाद एक आती है । यह कुछ-कुछ ऐसा है ।
जी हां, श्रीअर्रावदने कहा है कि अतिमानस-चेतनामें भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ रहते हैं मानों चेतनाके एक नकोपर हों ।'
हां, ऐसा है, ऐसा है । परंतु मेरे लिये यह एक अनुभूति है । यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे मैं ''सोचती हूं'' (मैं सोचती ही नहीं), यह एक अनुभूति है और इसे समझाना मुश्किल है ।
और यह चीज हमारे ऊपर जो प्रभाव पैदा करती है, वह जो संवेदन लाती है वह ऐकांतिक रूपसे हमारी चेतनाकी वृत्ति और स्वयं अपने अंदर होनेकी चेतना या हर चीजमें होनेकी चेतनापर निर्भर है (हर चीजमें होना अहंकारमय रूपसे अपने अंदर होनेसे ज्यादा अच्छा है, लेकिन उसके लाभ हैं, उसकी असुविधाएं है और यह परम सत्य नहीं है) परम सत्य है... भगवान् ही समग्रता है -- देशमें समग्रता और कालमें समग्रता । और यह एक ऐसी चेतना है जिसे शरीर पा सकता है, क्योंकि यह शरीर
१''... जब कि तर्क-बुद्धि कालके एक क्षणसे दूसरे क्षणकी ओर बढ्ती है, खोती और प्राप्त करती और फिरसे खोती और फिर प्राप्त करती है, वहां विज्ञान कालको एक ही दृष्टि और शाश्वत शक्तिमें अधिगत कर लेता है; और भूत, वर्तमान और भविष्यको उनके अविभाज्य संबंधोंद्दुरा ज्ञानके एक ही अविच्छित्र मानचित्रमें एक-दूसरेको पास-पास रखकर जोड़ देता है । विज्ञान समग्र सतासे आरंभ करता है, जो पहले ही उसके अधिकारमें है; वह भागों, समुहों और व्गेरोंको केवल समग्रके संबंधमें और एक ही साक्षात्कारमें एक साथ देखता है ।.. ''
('योग-समन्वय')
पा चुका है (क्षणिक रूपमें, कुछ क्षणोंके लिये), और जबतक उसके पास वह हों, सब चीजें इतनी... । वह आनंद नहीं है, वह सुख नहीं है, वह प्रसन्नता नहीं है, वह ऐसी कोई चीज नहीं है... एक प्रकारकी आनंदपूर्ण शांति ... और ज्योतिर्मय. और सर्जनात्मक! वह भव्य है, बस, वह आती है, चली जाती है, आती है, चली जाती है... । और जब तुम उसमेंसे बाहर निकलो तो तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम किसी भयंकर, वीभत्स छिद्रमें जा गिरे हों -- हां, छिद्रमें, हमारी साधारण चेतना (मेरा मतलब है, साधारण मानव चेतना) एक भयंकर छिद्र है । लेकिन तुम यह भी जानते हो कि यह क्षणिक रूपसे ऐसी क्यों है, यानी, एकमेंसे दूसरेमें प्रवेश करनेके लिये यह आवश्यक है - जो कुछ होता है वह सृष्टिके लक्ष्यके पूर्ण उन्मीलनके लिये आवश्यक है । हम कह सकते है : सृष्टिका लक्ष्य यह है कि सृष्ट 'सप्टा' की भांति सचेतन हो जाय । यह एक वाक्य है, लेकिन है उसी दिशामें । इस सृष्टिका लक्ष्य है 'अनंत' की, 'शाश्वत' की यह चेतना जो 'सर्वशक्तिमान्' है -- 'अनंत', 'शाश्वत', 'सर्वशक्तिमान्' (जिसे हमारे धम ईश्वर: कहते हैं : हमारे लिये, जीवनके संबंधमें यही भगवान् है) - 'अनंत', 'शाश्वत', 'सर्वशक्तिमान्'... कालातीत; हर एक व्यक्तिगत कण यह चेतना लिये है । हर पृथक कण इस एकमेव चेतनाको लिये है ।
विभाजन ही ने सृष्टिकी रचना की है और विभाजनमें ही 'अनंत' अपने आपको अभिव्यक्त करता है ।
हमारी भाषा... (या हमारी चेतना) अपर्याप्त है । बादमें मै कह सकूंगी ।
कुछ चीज हो रही है -- यह लो (माताजी हंसती है) ।
बड़ा दिन शुभ हो, वत्स - ज्योति पर्व ।
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