CWM (Hin) Set of 17 volumes
पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation

ABOUT

The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.

पथपर

The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Collected Works of The Mother (CWM) Notes on the Way Vol. 11 333 pages 2002 Edition
English Translation
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The Mother symbol
The Mother

During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'

Hindi translation of Collected Works of 'The Mother' पथपर 341 pages 1979 Edition
Hindi Translation
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२५ सितंबर, १९६८

 

    मुझे कुछ पुराने कागज मिले  हैं, मुझे नहीं मालूम ये क्या हैं । एक तुम्हारा लिफाफा भी है ।

 

     यह ''सूत्रों' के बारेमें प्रश्न है :

 

     ''जब मै न्यायसंगत कोपकी बात सुनता हू तो मुझे मनुष्यकी आत्म-वंचनाकी क्षमतापर आश्चर्य होता है ।''

 

          (श्रीअरविंद, 'विचार और सूत्र', सं.५९)

 


यह अद्भुत है!

 

एक प्रश्न था : ''आदमी हमेशा अपने-आपको ''नेकनीयतीसे'' धोखा देता है : हमेशा औरोंके भलेके लिये या मानवजातिके हितके लिये, या आपकी सेवाके लिये काम करता है, यह तो निश्चित बात है ही । तो फिर वह अपने-आपको धोखा देने लगता है और इसे सचमुच कैसे जाना जाय? '' '

 

 यह आश्चर्यजनक रूपसे सत्य है ।

 

     अभी कल हीं, इसे पड़े बिना ही मुझे इस विषयपर एक लंबा अन्तर्दर्शन हुआ । यह आश्चर्यजनक है । पर वह एक ऐसे भिन्न स्तरपर था...

 

    हां, जब तुम मनके उच्चतर भागको अपने कामोका निर्णायक बनाते हो तो तुम ''अपने-आपको नेकनीयतीसे धोखा'' दें सकते हा । यानी, मन सत्यको देखनेमें असमर्थ है और वह अपनी क्षमताके अनुसार ही निर्णय करता है और वह क्षमता सीमित है -- केवल सीमित ही नहीं, सत्य'के बारेमें असचेतन हैं; तो मनके लिये यह नेकनीयती हुई, यह जितना कर सकता है अच्छे-सें-अच्छा करता है । यही बात है ।

 

      स्वभावतः, जो अपने चैत्य पुरुषके बारेमें पूरी तरह सचेतन हैं उनके लिये अपने-आपको धोखा देना संभव नहीं है क्योंकि, अगर बे अपनी समस्या चैत्यके आगे रखें तो वहांसे भगवान्का उत्तर पा सकते है । लेकिन उनके लिये भी जिनका अपने चैत्य पुरुषके साथ संबंध है उत्तरका स्वरूप वैसा नहीं होता जैसा मनके उत्तरका होता है । मनका उत्तर यथार्थ, सुनिश्चित, निरपेक्ष और अधिकार जमानेवाला होता है यह अधिकार जमानेकी अपेक्षा मनोवृत्ति अधिक होती है एक ऐसी चीज जिसकी मनमें विभिन्न व्याख्याएं हो सकती है ।

 

    मै अपनी कलकी अनुभूतिपर वापिस आती हू । उसे देखकर मै. इस निश्चयपर पहुंची कि जो आदमी अपनी चेतनाके अनुसार गाना अच्छे-से- अच्छा करता है उसे बुरा-मला कहना असंभव है, क्योंकि वह आपनी चेतना- के परे कैसे जा सकता है '... यह ऐसी भूल है जो अधिकतर लोग करते है. वे दूसरेको अपनी चेतनासे जांचते है, लेकिन दूसरेमें उनकी चेतना नहीं  होती इसलिये वे निर्णय नहीं कर सकते (मै, स्वभावत, सद्भानना-

 

   १ यह प्रश्न और माताजीका उत्तर, दोनों, 'श्रीमातृवाणी', खंड १०, '' 'विचार और सूत्र' के प्रसंग'' में पाये जा सकते है । (पृ० ८१)

 

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 वाले लोगोंकी वात कर रही हू) । एक अधिक समग्र या उच्चतर चेतना- के अनुसार मुल दूसरे व्यक्तिकी है, लेकिन व्यक्ति अपने-आप जिसे वह करने लायक मानता है उसे करनेका भरसक प्रयास करता है ।

 

    इसका मतलब यह हुआ कि जो सचाईके साथ अपनी सीमित चेतनाके अनुसार काम करता है. उसे दोष देना बिलकुल असंभव है । और अगर हम इस बातपर आयें तो भागवत चेतनाको छोड़कर संसारमें हर एककी एक सीमित चेतना है । केवल भागवत चेतना ही सीमित नहीं है । लेकिन अनिवार्यत: प्रत्येक अभिव्यक्ति सीमित है, जबतक कि वह अपने-आपसे बाहर निकलकर परम चेतनाके साथ एक न हो जाय, तब वहां... । किन परिस्थितियोंमें यह किया जा सकता है?

 

         यह परम प्रभुके साथ तादात्म्यका सवाल है, वे ही परम एक है -- एक हीं जो सर्व है ।

 

 ( मौन)

 

      मानव विचारका एक पूरा पक्ष यह मानता है कि परम चेतनाके साथ तादात्म्य तभी आ सकता है जब व्यक्तिगत रचनाको रू कर दिया जाय, क्ष-किन श्रीअर्रावंद यहीं तो कहते है कि सृष्टिको रद्द किये बिना भी यह संभव है । उन लोगोंकी यह धारणा थी कि सृष्टिका उन्मूलन होना ही चाहिये, क्योंकि उन्होंने मानव स्तरके साथ ही सृष्टिका अंत कर दिया --यह मनुष्यके लिये असंभव है, पर अतिमानव सत्ताके लिये संभव है । और यही चीज अतिमानव सत्ताको अनिवार्य रूपसे तत्वतः भिन्न कर देगी वह अपना सीमित रूप रहते बिना अपनी चेतनाको परम चेतनाके साथ एक कर सकेगी ।

 

        परंतु मनुष्यके लिये यह असंभव है । मै यह जानती हू ।

 

        जैसा कि मैंने कहा है, तुम्हें प्राप्त होती है, तुम्हें अनुभूति प्राप्त होती हो, लेकिन जैसे ही नुमा उसे प्रकट करना चाहते हो वह चली जाती है, वह फिरसे.. (बंद हों जानेकी मुद्रा) । यानी, हम जिस द्रव्यसे बने हैं वह परम चेतनाको विकृत किये बिना अभिव्यक्त करनेके लिये काफी शुद्ध और रूपांतरित (कोई भी, कोई मी शब्द लो) नहीं है ।

 

 ( मौन)

 

 (माताजी एक अनुभूतिमें प्रवेश करती है)


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   'द्रव्य' मै कुछ अपारदर्शिता है, वस्तुमें कुछ ऐसी चीज है जो उसे 'चेतना' को प्रकट नहीं करने देती और वही अपारदर्शिता (पता नहीं इसे कैसे कहा जाय), अपारदर्शिता उसे अस्तित्वका भान देती है ।

 

    यह पिछले कुछ दिनोंकी अनुभूतियोंका एक अंश है । मै. पता नहीं, कई सप्ताहोंतक एक प्रकारकी तरलता -- पारदर्शक तरलता - में रही और जब इस पारदर्शक तरलताके स्थानपर, जिसे मै ''अदर्शिता'' कहती दूं, वह आती है, तो साय ही शरीरकी सत्ताका एक प्रकारका ठोसपन भी आ जाता है ।

 

    तो, बिना किसी मध्यवर्तीके चैत्य पुरुषका द्रव्यके साथ संपर्क एक प्रकार- का संवेदन देता है... क्या यह ''संवेदन'' है? मुझे नहीं मालूम, यह संवेदन नहीं है, यह प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; यह एक प्रकारका ''अनुभूत अंतर्दर्शन'' है (और यह अंतर्दर्शन बहुत यथार्थ, बहुत ही यथार्थ होता है) । यह 'परम स्पंदन' की अधिक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति रूप उच्चतर स्पंदनके साथ स्पंदनोंके संबंधके मूल्यांकनका एक प्रकारसे ''अनुभूत अंतर्दर्शन'' है  (मै इसके बारेमें बस यहीं कह सकती हूं) ।

 

       इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है, परंतु शरीर एक ऐसे अनुभवसे गुजर रहा हैं जैसा पहले कमी नहीं हुआ, वह मानों एक अयथार्थतामेंमे यथार्थतामै गुजर रहा है; एक प्रकारकी तरलतासे.. यह कोई ठोस चीज नदी है, एक तरल चीजसे -- तरल और अयथार्थसे -- यथार्थ चीजकी ओर । सभी बदलती हुई घटनाएं (चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हों) नये प्रत्यक्ष दर्शनके लिये अवसर होती हैं । पहले, सब कुछ तरल और अयथार्थ था; अब यह अधिक यथार्थ होने लगा है -- अधिक यथार्थ, अधिक यथातथ्य । लेकिन वह अपनी कुछ तरलता खो बैठता है ।

 

     इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है ।

 

    मैंने इसके बारेमें कभी सोचा ही नहीं था । यह अजीब है, यह इच्छित नहीं है । मुझे अभी-अभी अनुभूति हुई है । इसलिये अभीतक बहुत स्पष्ट नहीं है ।

वास्तवमें, मन यथार्थता देता है और जब वह नहीं होता तो यथार्थता- की कमी रहती है । सृष्टिमें उसकी भूमिका है यथार्थता देना, समझाना और साथ-हीं-साय सीमित करना ।

 

     साधारण मन पूछ सकता है कि ऐसी अयथार्थतासे क्या लाभ?

 

 कोई लाभ नहीं!

 

यह पूरी तरह निश्चित है कि जब अतिमानस अभिव्यक्त होगा तो वह उस मानसिक यथार्थताके स्थानपर (कैसे कहा जाय?) जो घटाती है -- -गुम यथार्थताको जो सीमित करती है और इसलिये चीजोंको अंशत: मिथ्या बनाती है -- उसके स्थानपर दृष्टिकी स्पष्टता, एक और प्रकारकी दृष्टि आयेगी जो घटाती न हों । अब उसीका निर्माण हों रहा है ।

 

     वास्तवमें, यह कहा जा सकता है (ठीक ऐसा नहीं है) मन यथार्थता देनेके किये सीमित करता और अलग करता है; और स्पष्ट है कि एक ऐसी यथार्थता है जो अधिक यथार्थ दृष्टिसे आती है जिसमें न विभाजन होता है, न पार्थक्य । वही अतिमानस दृष्टिकी यथार्थता होगी । यथार्थता सभी वस्तुओके आपसी संबंधके साथ, उन्हें अलग किये बिना, आयेगी ।

 

   लेकिन यह एक एक चीज है जो तैयार हो रही है । यह तुक मिनटके लिये  दीप्तिकी तरह आती है और फिर पुराने ढर्रेपर वापिस चली जाती है ।

 

    प्राणके बारेमें भी यही कहा जा सकता है । प्राण एक तीव्रता देता है । ऐसा लगता है कि कोई और चीज तीव्रता नहीं दे सकती; हां, यही नम्रता 'अतिमानस' में है, परंतु है बिना विभाजनके । यह एक ऐसी तीव्रता है जो अलग नहीं करती ।

 

    मुझे ये दो अनुभूतियां हुई थी, पर बहुत ही क्षणिक । ये वह चीजें हैं जो अभी-अभी की जा रही है ।

 

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