The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
२७ दिसंबर, १९६९
लगता तो ऐसा है कि सब कुछ भौतिक द्रव्यमें डूबा हुआ है... । समस्याओं और व्यावहारिक कार्र्योमें इस तरह डूब रहनेकी प्रतीतिके बावजूद क्या कोई योग या कोई और चीज हो रही है -- जब कि ऐसा लगता है कि हम बाहरी तौरपर इतने तल्लीन हैं कि ऐसा कोई बोध नहीं होता कि हम कुछ कर रहे है?
ओह लेकिन अब सारी सत्ता ( शरीरने इसे भली-भांति समझ लिया है), सारी सत्ता जानती हू हर च, हर च, जहांतक ह स तुम जल्दी-से-जल्दी आगे बढ़नेके लिये आती है । बाधाएं, विरोध, गलतफहमियां, व्यर्थ चिंताएं, हर चीज, हर चीज, हर एक चीज तुम्हें आगे बढ़नेके लिये आती है; वह कमी एक बिंदुको, कमी. दूसरेको, कभी किसी औरको छूती है ताकि तुम जितनी तेजीसे हों सके, उतनी तेजीसे आगे बढ़ सको । अगर तुम इस भौतिक द्रव्यके साथ संबद्ध न हो तो यह कैसे बदलेगा?
और यह बहुत स्पष्ट है, यह बिलकुल प्रत्यक्ष है कि सभी आपत्तियां, सभी विरोध एक ऊपरितलीय मनसे आते है जो चीजोंका केवल बाहरी रूप ही देखता है । यथार्थमें यह तुम्हारी चेतनाको इसके बारेमें सावधान करनेके लिये है ताकि वह ऐसी चीजोंसे धोखेमे न आ जाय और साफ देख सकें कि यह स्व बिलकुल बाहरी है और सतही है और इसके पीछे जो कुछ किया जा रहा है वह... रूपांतरकी दिशामें यथासंभव तेजीसे बढ़े रहा हैं ।
(लंबा मौन)
अपने उच्चतर स्तरपर बुद्धि आसानीसे समझ लेती है कि वह कुछ नहीं जानती और. वह बड़ी आसानीसे उस वृत्तिमें आ जाती है जिसकी प्रगतिके लिये जरूरत है । लेकिन वे लोग भी जिनमें यह बुद्धि है, वे भी जब भौतिक चीजोंका सवाल होता है तो महजवृत्तिसे यही मानते है कि वहां सब कुछ निश्चित अनुभवके आधारपर जाना, समझा गया है और यही तुम असुरक्षित हो जाते हों । शरीरको ठीक यही बात सिखायीं जा रही है -- चीजों- को देखने और समझनेकी वर्तमान पद्धति जो अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, प्रकाशमय, धुधले. सब प्रकारकी विपरीतताओंपर आधारित है; वह
बेकार है; सारा निर्णय, जीवनकी सारी कल्पना उस (भौतिक जीवन) पर आधारित है और तुम्हें इस बोधकी मूर्खता सिखानेके लिये है । मै उसे देखती हू । काम बहुत तनावपूर्ण और बहुत आग्रही हों गया है मानो तेज चलनेके लिये आदेश है ।
व्यावहारिक भाग भी जो यह सोचता था कि उसने यह सीख .लिया है कि कैसे जिया जाय, और यह कैसे जाना जाय कि क्या करना है और कैसे करना है, उसे भी यह समझना होगा कि वह सच्चा ज्ञान न था और न बाह्य चीजोंका उपयोग करनेकी सच्ची विधि थी ।
( मौन)
कुछ मनोरंजक चीजें भी है... । यह 'चेतना' जो सारे समय कार्यरत रहती है वह मानों शरीरको 'चिढ़ाती' है; वह हमेशा कहती रहती है. ''देखो, तुम्हें संवेदन होता है, अच्छा तो इसका आधार क्या है? तुम्हारा ख्याल है कि तुम इसे जानते हो, क्या तुम वास्तवमें जानते हों कि इसके पीछे क्या है? '' जीवनकी सभी छोटी-मोटी चीजोंके लिये, हर क्षण- की चीजोंके लिये यही होता है । और तब शरीर ऐसा हो जाता है (माताजी बडी-बडी आंखें आश्चर्यसे खोलती है), और अपने-आपसे कहता है : यह सच है, मैं कुछ नहीं जानता । उसका उत्तर हमेशा 1रुक ही होता है : ''मैं यह दावा नहीं करता कि मैं जानता हू, भगवानकि जो इच्छा हों वही करें ।', ऐसी बात है । और फिर, यह चीज है (अगर उसे स्थायी रूपसे पकड़ा जा सकें तो अच्छा हों) : (चीजको सरलतम ढंगसे कहें तो) प्रभुके कार्यमें अहस्तक्षेप ।
यह तथ्यके द्वारा दिखाया गया है, हर क्षणकी अनुमति यह दिखाती है कि जब कोई-- चीज इस तरहकी उपार्जित बुरी, उपार्जित समझ या जी हुई अनुभूतिके द्वारा की जाती है तो वह किस हदतक... 'मिथ्या' (या बहरहाल भ्रामक) होता है । और उसके पीछे कोई और चीज होती है जो उसका और (उसी तरह हर चीजका) उपयोग करती है, लेकिन वह इस ज्ञानसे बंधी नहीं रहती, न उसपर आश्रित होती है और न ही उसपर आश्रित होती है जिसे हम ''जीवनका अनुभव'' कहते है, और न ऐसी दरी किसी और चीजपर आश्रित होती है । उसकी दृष्टि बहुत अधिक प्रत्यक्ष,
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बहुत गहरी और अधिक ''दूरतक'' जानेवाली होती है, यानी, वह बहुत अधिक दूरतक, बहुत अधिक विस्तारमें और बहुत आगेतक देख सकती है । कोई बाहरी अनुभूति यह चीज नहीं दे सकती... । यह एक विनम्र वृद्धि है जिसमें कोई विस्फोट नहीं होता, कोई ''दिखावा'' नहीं होता : यह एक छोटी-सी, हर मिनटकी -- हर मिनट, हर सेकंडकी बात है, सब कुछ । मानों सारे समग कोई चीज तुम्हें जीवनका, देखने और करनेका साधारण मार्ग दिखाती है और फिर... सच्चा मार्ग । इस तरहसे दोनों । सभी चीजोंके लिये ।
यह इस हदतक कि अमुक स्पदनोंके प्रति तुम्हारी वृत्ति पूर्ण विश्राम ला सकती है या तुम्हें पूरी तरह बीमार कर सकती है! जब कि स्पंदन एक ही होगा । ।ऐसी चीजें, चकरानेवाली चीजें होती हैं । और हर क्षण ऐसा होता है -- हर क्षण, हर चीजके लिये ।
हां, तो यहां चेतना वृत्तिका एक विशेष मोड लेती है और सब कुछ आनंद और सामंजस्य हों जाता है; चीज वही बनी रहती है और फिर ( माताजी सिरको जरा बाईं ओर झुकाती है), चेतनाकी वृत्तिमें जरा-सा हरे-फेर, और चीज लगभग असह्य हों उठती है! सारे समय, सारे समय इस तरहकी अनुभूतियां... । बस, यह दिखानेके लिये कि केवल एक ही चीज है जिसका महत्व है, वह है चेतनाकी वृत्ति : व्यक्तिगत सत्ताकी पुरानी वृत्ति ( माताजी अपनी ओर खींचनेकी संकेत करती हैं), या यह ( विस्तारक'।' संकेत) । संभवत. यह (हमारी समझमें आनेवाले शब्दोंमें कहें तो) अहंकी उपस्थिति ओर अहंका लोप होना चाहिये । यही है ।
और फिर, जैसा मैंने कहा, जीवनकी सभी क्रियाओंके लिये, बिलकुल महामूल्य बातोंके लिये यह दिखाया जाता है कि अगर अहंकी उपस्थितिको रहने दिया जाय (यह निश्चय ही तुम्हें समझानेके लिये है कि यह है क्या), तो यह सचमुच असंतुलनकी ओर ले जा सकता है । एकमात्र उपाय है अहंका गायब होना -- साथ-ही-साथ समस्त बीमारीका लोप । क्योंकि हरम जिन चीजोंको बिलकुल नगण्य समझते हैं, बिलकुल... । और यह बात हर चीज, हरेक हरेक, चीजके लिये है, सब समय, सारे समय, रात-दिन । ओर फिर यह उन सब नासमझियो ओर गलतफहमियोंके कारण और भी पेचीदा हों जाती हैं जो ऐसे आती हैं ( माताजी ऐसा संकेत करती है मानों एक भरी गाड़ी उनपर उल्टायी जा रही है), मानों वह सब एक साथ खोल दिया गया है और चीजें निकल पड़ी है । वह सब एक साथ अरराकर गिर पड़ती है... ताकि अनुभूति सभी क्षेत्रोंमें पूर्ण हो ।
यह ऐसा है मानों हर मिनट मृत्युकी उपस्थिति और अमरताकी उप-
स्थितिका क्रियात्मक प्रदर्शन दिया जा रहा हों ( माताजी अपना हाथ दाईं ओर, फिर बाईं ओर झुकाती हैं), इस तरह छोटी-से-छोटी चीजों मे -- सभी चीजोंमें, छोटी-सें-छोटी और बडी-सें-बडी चीजोंमें, हमेशा; और तुम हमेशा देखते हो.. कि तुम यहां हों या वहां (वही एक ओर या फिर दूसरी ओर झुकनेका संकेत), हर सेकेंड तुम्हें मृत्यु और अमरतामें चुनाव करनेके लिये कहा जाता है ।
और मैं देखती हूं कि इसके लिये शरीरको गंभीर ओर श्रमसाध्य तैयारीमेंसे गुजरना होगा ताकि... चिंता या प्रतिक्षेपके स्पंदनके बिना... अनुभूतिके संघातको सह सकें । उसे अपनी निरंतर शांति ओर सतत मुस्कानको बनाये रखनेके योग्य होना चाहिये ।
बहुत-सी चीजें है... असंभवनीय चीजें ।
मानों हर चीजमें हमें विरोधोंकी उपस्थिति जीनेकी जरूरत है ताकि हम यह पता लगा सकें... यह पता लगा सकें कि जब विरोध आपसमें मिलते हैं, भाग निकलनेकी जगह जुड़ते है तो क्या होता है । उससे एक परिणाम आता हैं, और वह भी व्यावहारिक जीवनमें ।
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