The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
२७ नवम्बर, १९६५
माताजीने नवंबर दर्शन १९६५ ख अवसरपर
जो संदेश दिया था । उसके बारेमें :
''निश्चय ही ज्योतिको जबरदस्ती उतारना, उसे खींच लेना एक भूल हैं । अतिमानसपर धावा नहीं बोला जा सकता । जब समय हो जायगा तो बह अपने-आप प्रकट हो जायगा । लेकिन पहले बहुत कुछ करना है और उसे धीरजके साथ, बिना जल्द बाजीके करना चाहिये ।'' (श्रीअरविन्द)
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यह समझदार लोगोंके लिये अच्छा है । वे कहेंगे : ''वे यहां चमत्कारोंका आश्वासन नहीं दे रहे ।''
क्यों? क्या ऐसे बहुत-से लोग हैं जिनमें नीचे खींचनेकी वृत्ति है ?
लोग जल्दीमें होते हैं । वे तुरंत परिणाम देखना चाहते है ।
और वे यह मानते है- कि वे अतिमनको खींच रहे है - वे किसी छोटी- सी प्राणिक सत्ताको नीचे खींच लाते हैं जो उनके साथ खिलवाड़ करती है और: अंतमे उनसे कोई भरा तमाशा करवाती है । बहुधा यही होता है सौमेंसे निन्यानवे बार ।
एक छोटा-सा व्यक्तित्व, कोई प्राणिक सत्ता जो शक बड़ी भूमिका अदा करती है और बहुत दिखावा करती है, ज्योतिका अभिनय करती है; और बेचारा खीचनेवाला चौंधिया जाता है । वह कहता है ''यह लो, यह रहा अतिमान,'' और वह जालमें जा फंसता है ।
जब तुम्हें सच्चे प्रकाशका किसी-न-किसी तरह संपर्क और दर्शन मिल गया हों और तुम्हें उसका स्पर्श मिल गया हो तभी तुम प्राणसे उसका भेद जान सकते हों । तब तुम्हें लगता है कि यह तो कृत्रिम प्रकाश, मंचपर प्रकाशके खेल जैसा है । अन्यथा, दूसरे लोग चौंधिया जाते है -- वह चौव्यइयानेवाला और ''अद्भुत'' होता है और लोग धोखेमे आ जाते हैं । जब तुम सत्यका दर्शन कर चुके हों, उसके साथ नाता जोड़ चुके हो, केवल तभी तुम मुस्करा सकते हों ।
यह नीम-हकीमी है । लेकिन नीम-हकीमीको पहचाननेके लिये तुम्हें सत्यको जानना चाहिये ।
आधारमें, हर एक चीजके लिये एक ही बात है । प्राण एक बहुत श्रेष्ठ मैचके जैसा है जिसपर बहुत आकर्षक, चौधियानेवाले, भ्रामक अभिनय होते रहते है । जब तुम 'सच्ची चीज 'को जानते हो तभी तुम बिना तर्क- वितर्क किये, तुरंत सहज रूपमें जान जाते हो और कहते हों : ''नहीं, मैं नहि चाहता । ''
और हर चीजके लिये ऐसा ही है । और मानव जीवनमें जहां इसने बहुत महत्व पा लिया है वह है प्रेम । प्राणिक आवेग, प्राणिक आकर्षणने प्रायः सब जगह सच्ची भावनाकी जगह लें ली है । सच्ची भावना शांत होती है जब कि यह दूसरी चीज बुदबुदन भर देती है । तुम्हें लगता है मानों कोई ''जीवित' ' वस्तु है । यह बहुत भ्रामक है । और तुम यह
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नहीं जानते, तुम उसे अनुभव नहीं करते । तुम उसे तबतक भली-भांति स्पष्ट रूपसे अनुभव नहीं कर सकते जबतक कि तुम 'सच्ची वस्तु' को नहीं जानते । अगर तुमने चैत्य और भागवत ऐक्यके द्वारा सच्चे प्रेमका अनुभव किया है तो यह दूसरी चीज खोखली, पतली, खाली दीखती है -- एक आभासमात्र और वह मी उपहासास्पद, शायद उपहासास्पदकी अपेक्षा अधिक दुःखद ।
व्यक्ति उसके बारेमें जो कुछ कहे, उसकी जैसे चाहे व्यारध्या करे वह बेकार है । क्योंकि वह स्त्री या पुरुष जो इसमें फंसा है तुरंत कहता है : ''ओह ' यह दूसरोंकी तरह नहीं है ।'' -- तुम्हें जो कुछ हों रहा है वह कभी वैसा नहीं होता जो दूसरोंको होता है (!) तुम्हें सच्ची अनुभूति होनी चाहिये, तब सारा प्राण एक मुखौटा-सा लगता है, जो आकर्षक नहीं है ।
और जब तुम खींचना शुरू करते हों तो ओह! सौमें निन्यानवे बारसे भी ज्यादा... लाखोंमें एक ऐसा पाया जाता है जो 'सच्ची चीज'को खींचता है -- यह सिद्ध करता है कि वह तैयार था, अन्यथा, हमेशा ही तुम प्राणकों खींचते हो, आभासको, स्वयं 'वस्तु' को नहीं, 'वस्तु 'के नाटकीय प्रदर्शनको खिचते हो ।
खींचना हमेशा एक अहंकारपूर्ण गति होती है । यह अभीप्साका एक विकार है । सच्ची अभीप्सा देना है, आत्म-निवेदन है जब कि खींचना अपने लिये चाहना है । चाहे तुम्हें विचारोमें ज्यादा विशाल महत्वाकांक्षा क्यों न हो -- धरती, विश्व -- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता -- ये मानसिक क्रियाएं है।
(लंबा मौन)
दर्शनके दिन तुम्हें कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई?
नहीं ।
सवेरेसे शामतक श्रीअरविद यहां मौजूद थे ।
हां, और एक घंटेसे ज्यादाके लिये उन्होंने मुझे उस जीवनमें रखा जो मानवजाति और मानवजातिके विभिन्न स्तरोंकी नयी या अतिमानसिक सृष्टिका जीवित और ठोस दृश्य था । वह अद्भुत रूपसे स्पष्ट, जीवित और ठोस था... वह सारी मानवजाति थी जो अब पूरी तरह पाशविक
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नहीं है, जिसने मानसिक विकाससे लाभ उठाया है और अपने जीवनमें एक तरहका सामंजस्य पैदा किया है -- एक ऐसा सामंजस्य जो प्राणिक, कलात्मक और साहित्यिक है -- और उसमें रहनेवालोंका बहुत बड़ा भाग उससे संतुष्ट है । उन्होंने एक प्रकारका सामंजस्य पा लिया है और उसके अंदर बे ऐ सा जीवन जीते हैं जैसे सभ्य परिस्थिति तयोमें हुआ करता है, यानी, ऐसा जीवन जो कुछ-कुछ संस्कृत होता है, जिसमें परिकृत रुचियां और परिष्कृत आदतें होती हैं; उस सारे जीवनमें ए क विशेष सौंदर्य होता है जिसमें वे आरामसे रहते है । जबतक कोई अनर्थ न हों जाय वे प्रसन्न और संतुष्ट रहते है, जीवनसे संतुष्ट रहते है. । ऐसी लोग आकर्षित हों सकते है ( क्योंकि उनमें रुचि है और वे बौद्धिक दृष्टिसे विकसित है), वे नयी शक्तियोंसे, नयी चीजोंसे भविष्यकी ओर आकर्षित हो सकते हैं; उदाहरणके लिये, वे मानसिक रूपसे, बौद्धिक रूपसे श्रीक्यविंदके शिष्य बन सकते हैं । लेकिन उन्हें भौतिक दृष्टिसे बदलनेकी जरा भी जरूरत नहीं मालूम होती और अगर वे बाधित किये जायें तो पहले यह अपक्व और न्यायके विपरीत होगा और बिलकुल व्यर्थमें उनके जीवनमें अव्यवस्था और गड़बड़ी पैदा करेगा ।
यह बिलकुल स्पष्ट है ।
और फिर कुछ ऐसे थे -- बहुत ही विरले व्यक्ति -- जो रूपांतरकी तैयारी करनेके लिये, नयी शक्तिको खींचने लिये, जड-द्रव्यको अनुकूल बना लेने और अभिक्तिके साधन खोजनेके लिये आवश्यक प्रयास करनेके लिये तैयार थे । ये लोग श्रीअरविदके योगके लिये तैयार है । ये संख्यामें बहुत ही 'कम है । ऐसे लोग भी है जो यज्ञकी भावनासे भरे हैं । वे कठोर, कष्टप्रद जीवनके लिये भी तैयार है, यदि वह भावी रूपांतरकी तरफ लें जाय या उसमें सहायता दे । लेकिन उन्हें कभी, किसी प्रकार, दूसरोंको प्रभावित करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये -- उन्हें अपने प्रयासमें भाग लेनेके लिये मजबूर न करना चाहिये; यह बिलकुल अनुचित होगा -- केवल अनुचित ही नहीं, बल्कि एकदम भद्दा भी । क्योंकि उससे वैश्य लय और गति या कम-से-कम पार्थिव गतिमें परिवर्तन आ जायगा और यह सहायता करनेकी जगह संघर्ष और अंतमें अव्यवस्था पैदा करेगा ।
लेकिन वह इतना जीवंत था, इतना वास्तविक था कि मेरी सारी वृत्ति ( कैसे कहा जाय? एक निष्क्रिय वृत्ति जो सक्रिय संकल्पका परिणाम नहीं है), काममें मेरी स्थिति ही बदल गयी । और यह एक शांति लायी है -- एक शांति, स्थिरता और विश्वास जो बिलकुल निर्णायक हैं, एक निर्णायक
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परिवर्तन आया है । और जो कुछ पहलेकी स्थितिमें दुराग्रह, भद्दापन, निश्चेतना -- सब प्रकारकी शोचनीय वस्तुए मालूम होती थीं -- वह सब गायब हो गया है । यह मानों एक महान् वैश्य लयका दृश्य था जिसमें हूर चीज अपना स्थान लेती है और हर चीज बिलकुल ठीक है । और रूपांतरके लिये प्रयास एक छोटी-सी संख्यातक सीमित रहकर ज्यादा मूल्यवान् और उपलव्धिके लिये अधिक सशक्त बन जाता है । यह ऐसा है मानों उन लोगोंके लिये चुनाव हों गया है जो नयी सृष्टिके पुरोगामी होंगे । और ''प्रसार'', ''तैयारी'' और ''जड़-द्रव्य'' के मंथनकी बातें बचकानी हैं । यह मनुप्यकी बेचैनी है ।
वह एक सौंदर्यका दृश्य था, बड़ा भव्य, शांत और मुस्कराता हुआ, ओह!.. वह भरा हुआ था, सचमुच भागवत प्रेमसे भरा हुआ था । और वह भागवत प्रेम नहीं जो ''क्षमा करता है'' -- नहीं, यह वैसा बिल- कुल नहीं था, बिलकुल नहीं! हर चीज अपने स्थानपर, अपनी आंतरिक लयको यथासंभव अधिक-सें-अधिक उपलब्ध करती हुई ।
यह बहुत ही सुन्दर उपहार था ।
हां, तो लोग इन चीजोंको अंशत: जानते है । बौद्धिक दृष्टिसे, इस तरह, विचारके रूपमें जानते हैं । लेकिन इससे कुछ काम नहीं बनता । अपने दैनिक व्यवहारमें तुम और ही तरह, ज्यादा सच्ची समझके साथ जीते हो । और वहां, ऐसा लगता है मानों तुम वस्तुओंको उनकी उच्चतर स्थितिमें छू रहे हों -- उन्हें देख रहे हो, उन्हें छू रहे हों ।
यह पौधों और पौधोंके सौंदर्यके सहज अंतर्दर्शनके बाद आया (यह बहुत अद्भुत चीज है), फिर आये बड़े सामंजस्यपूर्ण जीवनवाले पशु (जब तक मनुष्योंका हस्तक्षेप न हों), और यह सब कुछ अपने ठीक स्थानपर था । तब सच्ची मानवजाति मानवके रूपमें आयी, यानी, मानसिक संतुलन जितबे सौंदर्य, सामंजस्य, सौम्यता, लालित्य, जीवनमें सकोसौंदर्यमें जिनके रसको -- रच सकता था उसे लिये हुए आयी । स्वभावत: जो कुछ भद्दा, नीच और गँवारू है उसे दबा दिया गया था । वह एक सुन्दर मानवजाति थी, मानवजाति अपनी उच्चतम स्थितिमें थी लेकिन सुन्दर थी । और मानव- स्थितेसे पूर्णत संतुष्ट थी क्योंकि वह सामंजस्यके साथ रहती थीं । यह शायद हंस बातकी पूर्वसूचना थीं कि नयी सृष्टिके प्रभावके तले प्रायः सारी मानवजाति केसी हो जायगी । मुझे ऐसा लगा कि अतिमानसिक चेतना मानवजातिको कैसा बना सकती है । शायद इसमें मानवजातिने पशुजातिका क्या किया उसके साथ तुलना मी थी (यह स्वभावतः, बहुत ज्यादा मिला-जुला प्रभाव है पर चीजों ज्यादा पूर्ण बनायी गयी हैं, ज्यादा अच्छी की गयी है और ज्यादा अच्छी तरह
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उपयोगमें लायी गयी है) । मनके प्रभावके तले पशु योनि कृउछ और ही बन गयी है, वह स्वभावत: है तो कुछ मिश्रित-सी चीज क्योंकि मन अपूर्ण था; इसी तरह भली-भांति सन्तुलित लोगोंके बीच सामंजस्यपूर्ण मानवता थी । ऐसा लगता था कि अतिमानसिक प्रभावके अधीन मानवजाति क्या हो सकती है ।
लेकिन यह अभी बहुत दूर है; तुम्हें इसकी तुरन्त आशा न करनी चाहिये -- यह बहुत दूर है ।
स्पष्टत:, अभी यह एक संक्रमण काल है जो काफी लंबे समयतक रह सकता है और है भी कष्टदायक । कभी-कभी इस कष्टदायक प्रयास ( बहुधा कष्टदायक) की क्षतिपूर्ति, हमें जिस लक्ष्यतक पहुंचना है उसके स्पष्ट दर्शन, उस लक्ष्यके स्पष्ट दर्शनसे जिसे हम जरूर प्राप्त करेंगे. एक आश्वासनसे, हा, निश्चितिसे होती है । लेकिन वह कुछ ऐसी चीज होगी जिसमें सब भ्रांति, विकृति, मानव जीवकी सारी कुरूपताको निकाल. बाहर करनेकी शक्ति होगी । और तब वह एक ऐसी मानवजाति होगी जो बहुत प्रसन्न, मानव होनेसे बहुत संपुट होगी जिसे मनुष्यसे अलग कुछ और बननेकी जरूरत न मालूम होगी लेकिन उसमें मानव सौंदर्य. और मानव सामंजस्य होगा ।
यह बड़ा मोहक था, मानों में उसमें जी रही थी । विरोध गायब हो गायें थे । यह ऐसा था मानो मैं पूर्णतामें जी रही थी । वह अति- मानसिक चेतनाद्वारा कल्पित मानवता थी जो यथासंभव पूर्ण थी । और वह बहुत अच्छी थी ।
और यह बहुत बड़ा विश्राम लाती है । तनाव, संघर्ष आदि सब गायब हों जाते है, और अधीरता भी । यह सब पूरी तरह गायब हो गये ।
यानी, आप कामको सब जगह फैलानेकी जगह केंद्रित करती है ।
नहिं, वह भौतिक दृष्टिसे फैल सकता है क्योंकि व्यक्ति आवश्यक रूपसे एक जगह इकट्ठे नहीं होते । लेकिन वे संख्यामें थोड़े-से ही होते है । मानवजातिको नवीन सृष्टिके लिये ''तैयार करने'' की बड़ी आवश्यकता- का यह विचार, यह अधीरता गायब हों गयी ।
पहले कुछ लोगोंमें यह चीज सिद्ध होनी चाहिये ।
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बिलकुल ठीक ।
में देख रही थीं, मैंने इसे बिलकुल ठोस रूपमें देखा । उन लोगोंके अतिरिक्त जो रूपांतर और अतिमानसिक सिद्धिकी तैयारी करनेके योग्य हैं और जिनकी संख्या निश्चय ही बहुत सीमित है, जन साधारणके बची अधिकाधिक पक श्रेष्ठतर मानवजातिका विकास होना चाहिये. जिसकी भविष्यकी या निमित होती हुई अतिमानस सत्ताके प्रति वही वृत्तिहौ जैसी, उदाहरणके लिये, पशुओंकी मनुष्यके प्रति है । जो लोग रूपांतरके लिये काम कर रहे हैं और जो उसके लिये तैयार हैं, उनके अतिरिक्त एक उच्च- तर मध्यस्थ मानवजाति होनी चाहिये जिसने अपने अंदर या जीवनमें, 'जीवन' के साथ सामंजस्य पा लिया है -- यह मानव सामंजस्य -- जिसे किसी ''ऐसी वस्तु'' के लिये जो इतनी ऊंची है कि वह उसे पानेकी कोशिश भी नहीं करती, उसके लिये पूजा, भक्ति, निष्ठा-भरे भाव होता है । वह उसकी पूजा. करता है, उसके प्रभाव और रक्षणकी जरूरत महसूस करता है -- उसके प्रभावके अधीन रहनेकी जरूरत और उसके रक्षणमें रहनेका आनंद । यह बहुत स्पष्ट थो पटकी यह यातना नहीं, जो चीज तुमसे बच निकलती है उसे चाहनेका पीड़ा नहीं क्योंकि -- क्योंकि उसे पाना तुम्हारी नियतिमें नहीं है । उसके लिये जो समस्त प्रयास चाहिये वह तुम्हारे जीवनके लिये अभी तैयार नहीं है । और उसीके कारण अव्यवस्था और कष्ट पैदा होते है ।
उदाहरणके लिये, ठोस चीजोंमेसे एक ऐसी है जो इस समस्याको भली- भाति सामने लाती है. मानवजातिमें सेक्सका आवेग है जो बिलकुल स्वाभाविक, सहज और में यह भी कह सकती हू कि उचित है । यह आवेग अपने-आप स्वभाविक और सहज रूपमें पाशविकताके साथ--साथ गायब हो जायगा ( और भी बहुत-सी चीजों गायब हो जायगी, उदाहरणके लिये, खाने- की जरूरत और हम अमी जिस तरह सोते है उस तरह सोनेकी जरूरत), लेकिन उच्चतर मानवजातिमें. आनंद तो बहुत कड़ा शब्द है, हम कह सकते है कि जो प्रसन्नता या हर्षका स्रोत बनकर चलती चली आ रही है वह सेक्सकी क्रिया तब बिलकुल न रहेगी जब प्रकृतिके कार्यमें इस तरीके- सें सृजन करने. की जरूरत न रहेगी । अतः, जीवनके हर्षका साथ संबंध बनानेकी क्षमता एक कदम ऊपर उठ जायगी या कोई अन्य दिशा ले लेगी । लेकिन प्राचीन आध्यात्मिक अभीप्सुओंने सिद्धांतके रूपमें -- सेक्सके निषेध- की -- जो कोशिश की थी वह एक वाहियात-सी बात है । यह उन्हीं लोगोंके लिये हो सकता है जो उस स्तरके परे जा चुके है और जिनमें पाशविकता नहीं बची । इसे बिना प्रयास और बिना संघर्षके स्वाभाविक
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रूपसे झड़ जाना चाहिये । उसे संघर्ष और दद्वका केंद्र बनाना हास्यास्पद है । जब चेतना मानवी नहीं रहती तो यह अपने-आप झड़ जाती है । यह भी एक ऐसा संक्रमण है जो कुछ कष्टकर हों सकता है, क्योंकि संक्रमणकी सत्ताएं हमेशा अस्थिर संतुलनमें रहती हैं, लेकिन भीतर एक प्रकारकी ज्वाला होती है, एक आवश्यकता होती है जो 'इसे कष्टकर नहीं बनाती - यह कष्टकर प्रयास नहीं रहता, एक ऐसी चीज होती है जिसे आदमी मुस्कानके साथ कर सकता है । लेकिन जो लोग इस संक्रमणके लिये तैयार नहीं है उन- पर इसे लादनेकी कोशिश करना वाहियात है ।
यह सामान्य बुद्धिकी बात है । वे मनुष्य है, वे मनुष्य न होनेका ढोंग नहीं करते ।
जब सहज रूपमें आवेग तुम्हारे लिये असंभव हों जाय, जब तुम यह अनुभव करो कि यह एक कष्टकर चीज है, तुम्हारी गहरी आवश्यकताओंके विपरीत है, तब यह आसान हो जाता है; और तब तुम बाहरसे इन बंधनोंको काट सकते हो और यह खतम. हों जाता है ।
यह सबसे अधिक विश्वासजनक उदाहरणोंमेंसे एक है ।
भोजनके बारेमें भी यहीं बात है । यही बात होगी । जब पाशविकता झड़ जायेगी तो भोजनकी नितनित आवश्यकता भी झड़ जायेगी । और शायद एक संक्रमण होगा जब व्यक्तिको क्रमश: कम-से-कम भौतिक भोजन- की आवश्यकता होगी । उदाहरणके लिये, जब तुम फूल सस्ते हो तो उनसे पोषण मिलता है । मैंने यह देखा है, तुम ज्यादा सूक्ष्म रीतिसे अपना पोषण कर लेते हो ।
लेकिन अभी शरीर तैयार नहीं है । शरीर तैयार नहीं है, वह क्षीण होने लगता है, यानी, वह अपने-आपको खाने लगता है । यह प्रमाणित करता है कि अभी समय नहीं आया यह केवल परीक्षण है -- एक ऐसा परीक्षण जो तुम्हें कुछ सिखाता है । यह सिखाता है कि अनुरूप 'भौतिक द्रव्य' का पाशविक निषेध या पार्थक्य नहीं (तुम अपने-आपको पृथक नहीं कर सकते, यह असंभव है), परंतु एक उच्चतर या गहनता स्तरपर सायुज्य होना चाहिये ।
( मौन)
जो बुद्धिके उच्चतर स्तरोंपर पहुंच चुके है, लेकिन जिन्हेंने मानसिक क्षमताओंपर अधिकार नहीं पाया है उनमें एक निर्दोष आवश्यकता यह होती है कि हर एक व्यक्ति उन्हींकी तरह सोचे और उसी तरह समझे जैसे वे
समझते है और जब वे देखते है कि अन्य लोग नहीं देख पाते, नहीं समझ पाते, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है, उन्हें धक्का लगता है और वे कहते है : ''कैसे हैं! '' लेकिन वे मूर्ख नहीं हैं, वे भिन्न हैं, वे दूसरे क्षेत्रमें हैं । तुम जानवरके पास जाकर यह नहीं कहते. ''तुम मूर्ख हों'', तुम कहते हों ''यह जानवर है ।', उसी भांति तुम कहते हों. ''यह आदमी है ।'' यह आदमी है, हां, कुछ ऐसे लोग है जो अब मनुष्य नहीं रहे और अभी देवता भी नहीं बने है । वे एक ऐसी स्थितिमें... कुछ अजीब, भद्दी-सी स्थितिमें हैं ।
लेकिन यह बड़ी आरामदेह, बड़ी मधुर, बड़ी अद्भुत अंतर्दृष्टि थीं -- हर चीज अपने प्रकारको बिलकुल स्वाभाविक 'रूपमें प्रकट कर रही थी । और यह स्पष्ट है कि अंतर्दृष्टिके विस्तार और उसकी समग्रताके साथ जो एक चीज आती है वह करुणा है जो समझ सकती है--वह दया नहीं है जो श्रेष्ठको अपनेसे हीनके लिये होती है : वह सच्ची दिव्य करुणा जिसको इस बातकी संपूर्ण समझ है कि हर चीज वही है जो होनी चाहिये ।
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