The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
२९ नवंबर, १९६७ (प्रासंगिक)
२४ नवंबरके दर्शनके बारेमें ।
मेरे पास दर्शनके दिन लिये गये कुछ नये फोटो आये है । ये टेलेस्कोप कैमरासे लिये गये हैं । इन्हें बड़ा नहीं किया गया, जैसे लिये गायें थे वैसे हीं हैं ( माताजी शिष्यको कुछ फोटो दिखाती है) ।
पता नहीं, हर दर्शनपर मुझे लगता है कि मैं एक अलग हीं व्यक्ति हूं
और जब मैं अपने-आपको इस तरह वस्तुनिष्ठ तरीकेसे देखती हू तो हर बार एक नये व्यक्तिको पाती हू । कमी एक बूढ़ा चीनी, कमी श्रीप्ररविंदका एक स्थानान्तरित रूप, एक छिपे हुए श्रीअरविद और फिर कमी कोर्स ऐसा व्यक्ति जिसे मैं भली-भांति जानती हू, पर वह यह नहीं है : एक बार मैं ऐसी थी । यह चीज मेरे साथ कई बार हों चुकी है ।
लेकिन वहां भी, मुझे ऐसा लगता है कि कोई... आप सामान्यत: जो होती हैं उससे बिलकुल भिन्न व्यक्ति हैं ।
ऐसा है न?
और मुझे लगता है कि कोई ऐसी चीज है जिसे मैं जानता हूं ।
हां मुझे भी ठीक ऐसा ही लगता है । मैं उसे देखती हूं : और कहती हूं : मैं इस व्यक्तिको भली-भांति जानती हूं-- लेकिन उसका इस शरीरके साथ कोई संबंध नहीं है ।
जी हां, ऐसी चीज जिसे मैं जानता हूं ।
वास्तवमें, तुम भली-भांति जानते हों, लेकिन वह यह नहीं है (माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती हैं); वह यहां नहीं है, लेकिन है सुपरिचित!
मालूम नहीं क्यों, यह मुझे एक चित्रकारकी याद कराता है ।
तुम ठीक नहीं जानते, यह पुरुष है या स्त्री? तुम्हें ठीक नहीं मालूम ।
मैंने अपने-आपसे पूछा कि यह कोई ऐसी सत्ता तो नहीं जो धरतीके भौतिक जगत् से भिन्न कहीं रहती हों? क्योंकि यह... मैं जानती हू, परंतु शारीरिक संवेदनकी घनिष्ठताके द्वारा नहीं; हां, यह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं भली-भांति जानती हू, जिसे मैंने प्रायः देखा है ।
मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं पहले भी देख चुका हू ।
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हां, लेकिन मुझे पता नहीं कि तुमने इसे इसी जगत् में देखा है । (एक और शिष्यकी ओर मूतते हुए) तुम नहीं जानते इस व्यक्तिको?
यह वही माताजी नहीं है!
हां... शायद यह एक- चित्र है, शायद तुम ठीक हों । लेकिन कौन- सा? मैं नहीं जानती ।
कोई ऐसा व्यक्ति जो मेरे लिये बहुत परिचित है, लेकिन.. । अगर मुझसे कहा जाय कि यह कोई ऐतिहासिक व्यक्ति है तो मुझे आश्चर्य न होगा ।
यह बहुत अजीब है । यह ज्यादा-ज्यादा ऐसा ही होता है । जैसे-जैसे शरीर आंतरिक लयको पकड़ता जाता है, यह चीज बढ़ती जाती है ।
यह भौतिक नहीं हों सकता ।
यह क्या है? एक दिन हमें पता लगेगा...
यह बहुत परिचित है ।
हां, पर मुझे लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं बहुत घनिष्ठताके साथ जानती हू, जिसके साथ मैं शायद रह मी चुकी हू, पर यह मैं नहीं, समझे समझे? यानी, शरीर कहता है. ''यह मैं नहीं हू ।'' अंदर बिलकुल भिन्न हैं : यहां मैं-तुम है ही नहीं । इस सबका अस्तित्व ही नहीं है; लेकिन शरीर, इसमें अभी यह सब है । वह कहता है. ''यह मैं नहीं हू । यह कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे मैं भली-भाति जानता हू, अच्छी तरह जानता हू, लेकिन यह मैं नहीं हूं ।',
छज्जेपर ऐसा क्यों होता है ?१
दो बातें हो सकती है । शायद मूल चेतनाने किसी पिछले जन्ममें अपने- आपको दोहरा कर लिया था (यह कई बार हो चुका है), और एक ही समय दो अलग-अलग शरीरोंमें प्रकट हुई है; और इस तरह स्वाभाविक हीं एक घनिष्ठता आ गयी, संभवत: जीवनमें अंतर्मिश्रण मी हो गया -- यह एक भौतिक घटना हों सकती है । लेकिन यह भी हो सकता है कि
१माताजी छज्जेपर खड़ी होकर दर्शन दिया करती थी ।
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कोई कहीपर एक स्थायी रूपमें रहता है और उस जगत् में हमारा उस के स ( थ लगभग स्थायी संपर्क है ( अधिमानस, अति मा नस य को ई और जगह), और इस का संवेदन अंदर है : '' हां, मैं जानती हू । इन दोनोंमें कोई एक बात हो सकती है । अभीतक मुझे नहीं मालूम कि कौन-सी ।"
( कुछ देर मौन रहकर) यह ठीक-ठीक आकारकी जगह चेहरेका भाव, एक प्रकारका स्पंदन, एक वात ण है । हां, कोई कहींपर स्थायी हमसेनि वास करता होगा जिस के स थ हमारा संपर्क हैं ।
और इस सें यह बात भी स मझमें आती है कि हमें यह पता नहीं लगता कि वह रत्र है य पुरुष शायद यह अलैगिक जगत् की सत्ता है जहां न पुरुष होता है न स्त्री ।
( मौन)
स्वयं शरीरको संवेदनसे कुछ अधिक.. एक प्रकारका ज्ञान -- बल्कि शानसे भी बढ़कर, यह एक तथ्य है. ऐसी बहुतेरा, बहुत-सी सत्ताएं हैं, शक्तियां है, व्यक्तित्व है जो अपने-आपको इसके द्वारा अभिव्यक्त करते हैं । कभी-कमी तो एक ही समयपर कई-कई । हम जानते है कि यह एक बहुत ही सामान्य-सी अनुभूति है, उदाहरणके लिये, श्रीअरविद होते है । वे बोलते और देखते हैं । उनका देखनेका अपना तरीका है और अपने- आपको व्यक्त करनेका अपना ही तरीका है । यह बहुधा होता है । और फिर, बहुत बार दुर्गा या महाकाली या.. बहुत बार । प्राय. कोई सत्ता बहुत ऊंचाईसे, बहुत स्थायी -- बहुत स्थायी -- अपने-आपको प्रकट करती है और फिर कमी-कमी संतानें एक प्रकारका निरपेक्ष आ जाता है । कभी-कमी उसके निकटस्थ लोककी सत्ताएं अपनी अनुभूति करवाती है, वे अपने-आपको व्यक्त करती है, लेकिन वह चीज नियंत्रणमें रहती है ।
शरीरको इसका अभ्यास है ।
और अजीब बात तो यह है कि इस बार २४ नवंबरको जब मैं छज्जे- पर गयी, तो कोई.. (और यह समय-समयपर हुआ करता है और अब ज्यादा-ज्यादा होता है) कोई मानों शाश्वतके लोकसे देखता है, बहुत ही हितैषिताके साथ, उसमें (मुझे मालूम नहीं कैसे कहा जाय, हितैषिताके जैसी कोई चीज), लेकिन पूर्ण शांत-स्थिरताके साथ जो लगभग उदासीनता जैसी है और दोनों मिलकर ऐसे देख रही हैं (माताजी बहुत नीचे लहरेंसी बनती हैं), मानों उसे बहुत दूरसे, बहुत ऊंचाईसे देखा जा रहा है, बहुत... कैसे कहूं? एक बिलकुल ही आंतरिक दृष्टिसे देखा जा रहा
है । जब मैं छज्जेपर बाहर आयी तो मेरा शरीर इसका अनुभव कर रहा था । शरीर कह रहा था ' 'मुझे अभीप्सा करनी चाहिये, अभीप्सा होनी चाहिये, ताकि शक्ति इन सब लोगोंपर उतर सके । '' और वह यूं था ' ( ऊपरकी ओर तेजीसे उठता हुआ संकेत) । ओह! बहुत ही हितैषी, पर एक प्रकारकी उदासीनताके साथ -- शाश्वतताकी उदासीनता, मुझे नहीं मालूम कि इसे कैसे कहा जाय । और इस सारेको शरीर इस 'तरह अनु- भव करता है मानों कोई उसका उपयोग कर रहा है ।
इसीलिये मुझे इन चित्रोंमें रस है, इनसे चीज वस्तुनिष्ठ हो जाती है । हमें पता लगेगा ।
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