The Mother confides to a disciple her experiences on the path of a 'yoga of the body'.
During the years 1961 to 1973 the Mother had frequent conversations with one of her disciples about the experiences she was having at the time. She called these conversations, which were in French, l’Agenda. Selected transcripts of the tape-recorded conversations were seen, approved and occasionally revised by the Mother for publication as 'Notes on the Way' and 'A Propos'. The following introductory note preceded the first of the 'Notes on the Way' conversations: 'We begin under this title to publish some fragments of conversations with the Mother. These reflections or experiences, these observations, which are very recent, are like landmarks on the way of Transformation: they were chosen not only because they illumine the work under way — a yoga of the body of which all the processes have to be established — but because they can be a sort of indication of the endeavour that has to be made.'
३० अगस्त, १९७२
मैं स्पष्ट देखती हू, 'विचार नहीं, चेतना निर्देशन कर रही रौ_ । तो अगर चेतना भगवान्के प्रति चुपचाप खुली हों तो सब कुछ ठीक है । सारे समय चेतनामें ऐसी चीजें होती रहती हैं मानों वह सब सारी दुनियासे आ रहा है ( सब ओरसे आक्रमणकी मुद्रा). वह सब जो भागवत क्रियाका निषेध या प्रतिवाद करता है -- ऐसी चीजें सारे समय इस तरह आती रहती हैं ( वही मुद्रा) । अत: यदि मैं अचंचल रहना जान्उ ( आत्म-निवे- दनकी मुद्रा, हाथ ऊपरकी ओर खुले हुए), एक प्रकारके ( मुस्कराते हुए) असत्के भावमें - एक प्रकार... पता नहीं कि वह पारदर्शकता मुझे नहीं मालूम कि उसे पारदर्शकता कहा जाय या निश्चलता, बहरहाल, वह चेतनामें कोई ऐसी चीज है जो इस प्रकार हैद्र ( वही हाथ खत्ते हुए, आत्म- निवेदनकी मुद्रा) । जब चेतना इस प्रकार हो तो सब ठीक जश्नता है, लेकिन जैसे ही वह गति करना शुद्ध करे, यानी, व्यक्ति किसी शी रूपमें अपना दिखावा करे तो चीज घिनौनी हों जाती है । पर यह बहुत मजबूत संवेदन है ।
जानते हो, भौतिक शरीरकी हज़ारों अनुभूतियां है जो कहती हैं : ' 'उफ! यह आनंदमय अवस्था असंभव हैद्र! '' -- यह मूढ़ता साझे)- चीजमें देर लगा देती है । यह ऐसा है मानों कोशुना शरीरके कोषाणु जिन्हें लड़ने, दुःख झेलनेकी आदत है, ये उन चीजोंको स्वीय। रनेगें अस्थि पैर जो ओ'सो हों ( वही हाथ खुले हुए, आत्म-निवेदनकी मुद्रा ) । लेकिन जव वह ऐसा हो तो... अद्भुत होता हे ।
सिर्फ, यह अनुभूति निकती नहो । यह सारे साम्य नहीं बने रहती --- सारे समय, सारे समय चीजें होती रहती है ( बैसब आक्रम-'गहकी वही मुद्रा) । लेकिन अब मैं अच्छी तरह देखती हू, बहुत साg:ट -- बहुत स्पष्ट रूपसे देखती हू चेतना विचारका स्थान ले रही है ।
और... ( कैसे कहा जाय ') भेद. विचार एक ऐसी चीअ है जौ यूं करती है ( तेजीसे घूमनेकी मुद्रा), बह गति करती तै, गति करती है...,चेतना एक ऐसी चीज है जो यूं करती है ( हाथ खुले, ऊपरकी ओर आत्म- समर्पणकी मुद्रा) । मै समझा नहीं सकती ।
(माताजी आंखें बंद कर लेती हैं, -हाय खुले हुए है )
तुम्हें कुछ कहना या पूछना है?
मै अपने-आपसे पूछ रहा था कि मैं इस गतिको तेज करनेके लिये क्या कर सकता हू । व्यावहारिक जीवनमें हमपर बहुत-सी चीजोंका आक्रमण होता रहता है, है न... । गतिको तेज करनेके लिये क्या किया जा सकता है?
अगर आदमी चिंता या घबराहटके बिना रह सकें तो इससे बहुत फर्क पड़ेगा ।
जी !
बहुत बड़ा फक ।
तुम समझे? मेरा शरीर शुरू कर रहा है -- बस, यह जानना शुरू ही कर रहा है कि भगवान्की ओरका अर्थ है जीवन... ( माताजी विशालताकी मुद्र बाहें फैलाती हैं) यानी, उन्नतिशील और प्रकाशमय जीवन; लेकिन पिछले अनुभवोंका संग्रह कहता है. ' 'नहीं! यह संभव नहीं है! '' -- तो यह रहा । यह मूढ़ ' 'संभव नहीं' ' देर लगाता और चीजोंको विगाड़ता है ।
यह इस तथ्यपर निर्भर है कि जैसे ही शरीर सच्ची वृत्तिको त्याग देता है तो वह कष्टकर हो जाता है, हर चीज दुःख देती है, हर चीज कष्ट सह रही है - लगता है कि हर जगह मौत और विघटन है । और तब, यही चीज 'भौतिक द्रव्य' की 'मूढ़ताको मजबूत बनाती है ।
तो सच बात यह है कि मैं किसी ठीक-ठीक प्रश्नका उत्तर देनेके सिवा कुछ न कहना पसंद करूंगी ।
अपने लिये मै अपने-आपसे पूछता हू कि मैं किस बातपर अपने- आपको लगाऊं?
(कुछ मौनके वाद) क्या तुम्हारा ख्याल है कि तुम विचारके पार जा चुके हो?
(जी हां, बिलकुल । एकमात्र चीज जो मेरे अंदर बची हुई है, वह है यांत्रिक विचार-गति, अन्यथा.... । मैं कह सकता हू कि मैं अपने विचारका कभी उपयोग नहीं करता । मुझे हमेशा लगता है ऊपरसे खींच रहा हू । उदाहरणके लिये, मीमांसक मन मेरे लिये असंभव है ।
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हां, यह ठीक है । तुम ठीक रास्तेपर हो ।
जी हां । लेकिन व्यावहारिक रूपसे संघर्षका भाव रहता है... मानों कुछ-कुछ डूबनेका-सा भाव ।
जहांतक मेरा सवाल है, बे सब चीजें, जिनपर मै क्रियाके लिये आश्रित थी, वे सब मानों जान-बूझकर तोड़फोड़ दी गयी हैं ताकि मैं (छोटी-सें-छोटी नगण्य चीजोंके लिये भी) यही कहूं : जैसी 'तेरी' इच्छा । यह मेरे लिये ... यह मेरे लिये एकमात्र शरण है ।
साधारण देखनेवालेकी दृष्टिमें, जो यह नहीं जानता, बेवकूफ बनना ही स्वीकार करना पड़ता है ।
लेकिन ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो प्रकाश भी देखते हैं, है न?
संभव है । (हंसते हुए) यह उनके लिये हितकर है!
( मौन)
बहुधा, बहुधा, मै प्रभुसे पूछती हू : अब जब मै न तो स्पष्ट बोल सकती हू, न स्पष्ट देख सकती हू, तो सहायता कैसे कर सकूंगी? यह एक ऐसी अवस्था है.. । शरीरको हासका अनुभव नहीं होता! उसे विश्वास है कि कल ही अगर प्रभु चाहें कि वह क्रिया-कलाप शुरू कर दे तो वह शुरू कर सकेगा । 'बल' है (माताजी अपनी भुजाओंको, मांसपेशियोंको छूती है), कमी-कभी प्रबल सामर्थ्य!... क्यों?... ऐसी अवस्थाके न्ठिये संकल्प हुआ है... मुझे शांत रहने दिया जाय!
लेकिन आप जानती हैं कि यह जरूर इच्छित स्थिति है, क्योंकि स्वयं मुझे लगता है, अपने छोटे-से भावसे मैं जितना अनुभव कर सकता हूं, मुझे लगता है कि अपनी निश्चलतामें आप एक दुर्जेय शक्ति, उत्पादक-केंद्र हैं ।
हां, यह मुझे मालूम है । यह मैं जानती हू, बहुत अधिक । हां, एक 'शक्ति'...
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